अवन्तिका राय की 'गाजीपुर डायरी'
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अवन्तिका राय |
अपना घर गांव, जिला जवार किसे अच्छा नहीं लगता। इन दूरदराज और छोटे छोटे जिलों से निकले लोग देश के महत्त्वपूर्ण शहरों में रहते हुए महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। अंग्रजों के समय में भारत के हर जिले का गजेटियर लिखा गया था जिसमें उस जनपद के बारे में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक महत्त्व के बारे में बताया गया है। गाजीपुर जनपद उत्तर प्रदेश का पुराना जिला है जो पूर्वांचल में अवस्थित है। गंगा नदी के किनारे बसे गाजीपुर को 'लहुरी काशी' भी कहा जाता है। गाजीपुर में ही एशिया का सबसे बड़ा गांव गहमर अवस्थित है। गाजीपुर का सम्बन्ध रामायण से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि महर्षि परशुराम के पिता जमदग्नि यहाँ रहते थे। प्रसिद्ध गौतम महर्षि तथा च्यवन ने यहीं शिक्षा प्राप्त की। ग़ाज़ीपुर प्रख्यात गुप्त शासक स्कंदगुप्त का विजय स्तम्भ गाजीपुर के भितरी में ही खड़े हो कर अपनी कहानी आज भी कह रहा है।सल्तनत काल से मुग़ल काल तक एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था। कवि अवन्तिका राय मूलतः गाजीपुर के ही रहने वाले हैं। हालांकि अब वे लखनऊ में बस गए हैं लेकिन उनकी धमनियों में गाजीपुर धड़कता है। वे अक्सर गाजीपुर जाते रहते हैं। आने जाने के क्रम में उन्होंने गाजीपुर पर एक संस्मरण 2015 में लिखा था। हालांकि तब से गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका है। पी एन सिंह जैसे साहित्यकार अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनके कारवाँ को 'समकालीन सोच' परिवार आगे बढ़ा रहा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवन्तिका राय का संस्मरण 'गाजीपुर डायरी'।
'गाजीपुर डायरी'
अवन्तिका राय
पिछले कुछ दिनों से मैं गाजीपुर में था। गाजीपुर जनपद पूर्वांचल के धुर पूरब में पड़ता है। कभी पूर्वांचल कम्यूनिस्टों का गढ़ हुआ करता था. सरयू पाण्डे, झारखण्डे राय और जेड अहमद आदि नेतागण इसकी पहचान हुआ करते थे। कहते हैं कि कांग्रेस के तमाम प्रलोभनों के बावजूद सरयू पाण्डे कांग्रेस में शामिल नहीं हुए और लम्बे वक्त तक गाजीपुर के सांसद रहे। खुद मैंने उन्हें बचपन में देखा था। मारकीन के कुर्ते पजामे में वे अपनी संयत चाल में गाजीपुर के किसी भी व्यक्ति के लिए चौबीस घण्टे उपलब्ध रहते थे।
गाजीपुर में स्थानीय पी. जी. कालेज के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर रहे डा. पी. एन. सिंह की सक्रियता आज भी हम नौजवानों को आश्चर्य में डाल देती है। उनके निवास पर प्रायः देश के ज्वलन्त मुद्दों पर गोष्ठियों का आयोजन होता है। इन गोष्ठियों में जनपद के पढ़ने-पढ़ाने वाले लोगों का जमावड़ा होता है। संयोग से जिस दिन मैं गाजीपुर पहुंचा उसी दिन शाम को डा. सिंह ने ‘ आज के समय में 'राष्ट्रवाद कितना प्रासंगिक' ‘ विषय पर गोष्ठी का आयोजन किया था। आयोजक गणों ने मुझे भी आमंत्रित किया। मैंने अपना मत रखा कि भारत विभिन्न राष्ट्रीयताओं का देश है। जहां एक तरफ देवी दुर्गा की पूजा होती है वहीं महिषासुर की भी पूजा होती है। पर एक बात मुझे और कहनी थी कि दुनिया के देशों में लोगों के स्तर पर संवाद पहले की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गया है। हर देश में दूसरे देश का खान-पान, वेश भूषा आदि बहुतायत से चलन में है। सूचना क्रान्ति की वजह से भौगोलिक दूरियां मिट सी गयी हैं। ऐसे में आने वाले समय में विभिन्न राष्ट्रों का आपसी आकर्षण इन्हें और करीब लायेगा और भौगोलिक सीमाओं का कोई खास मतलब नही रह जायेगा।
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भितरी का विजय स्तम्भ |
अब की गाजीपुर प्रवास के दौरान मैं अपने पूरे परिवार सहित सैदपुर भितरी भी गया। वर्षों की तमन्ना थी की स्कन्दगुप्त के विजय-स्तम्भ को देखा जाय। स्कन्दगुप्त, गुप्त साम्राज्य का आखिरी बड़ा शासक था। उसका काल 455-67 तक था। हूणों को पराजित करने के प्रतीक स्वरूप उसने इस स्तम्भ का निर्माण कराया था। पास में एक वैष्णव मन्दिर भी उसने बनवाया। उस वैष्णव मन्दिर के भग्नावशेष आज भी वहां सुरक्षित हैं जिन्हें देख कर रोमांच का अनुभव होता है। एक विष्णु मूर्ति भी मन्दिर के परिसर में भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संजोयी गयी है। उन ईंटों को स्पर्श कर ऐसा लगता है कि हम हजारों वर्ष पूर्व इतिहास के उस काल-खण्ड में पहुंच गये हों। एक स्थानीय व्यक्ति ने स्कन्दगुप्त को 'लाटबीर' कहा। मुझे लगा कि 'लाटबीर' की कहानियां पीढी-दर-पीढी यहां के निवासियों की स्मृति में सुरक्षित होंगी। कभी-कभी मुझे लगता है कि यदि मेरे पास अवकाश होता तो मैं पूरे भोजपुरी पट्टी का मौखिक-इतिहास-लेखन का कार्य करता। वहां के लोक गीतों में आदि में यह इतिहास आज भी सुरक्षित है।
गाजीपुर प्रवास के दौरान एक अन्य स्थल पर जाने का मेरा मन हुआ। वह स्थल है गाजीपुर शहर से लगे हुए आदर्श ग्राम में सन्त पवहारी बाबा का आश्रम। सन्त पवहारी अपने समय के प्रकांड विद्वान और योगी थे। उनका काल 1840-1898 तक का है। स्वामी विवेकानन्द अपनी विदेश यात्रा से पूर्व पवहारी से मिलने आये थे। उनके बहुत सारे प्रश्नों का समाधान सन्त पवहारी ने किया था। उनका आश्रम एकान्त में है। सन्त पवहारी के परिवार के पांचवी पीढी के अमर नाथ तिवारी आश्रम की देख-रेख करते हैं। उन्होंने मुझे पवहारी की हस्तलिपि में लिखी गीता दिखाई। इतनी सुन्दर हस्तलिपि कि कोई कलाकार भी शरमा जाय। सन्त पवहारी ने ज्ञान के लिए पूरे देश का भ्रमण भी किया था। वे हठयोगी थे।
दरअसल गाजीपुर वह जगह है जहां गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर ने लम्बे समय तक प्रवास किया। यहां गुलाब की खेती होती थी और उससे इत्र और गुलाब जल बनाया जाता था। टैगोर ने इन्हीं फूलों के गोद में बैठ कर अपना उपन्यास ‘नौका डूबी’ लिखा था।
तहसील जमानिया भी जाने का मौका मिला। वहां पता चला कि इलाके के अस्सी प्रतिशत मौर्य अर्थात कुशवाहा जाति के लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया है। वे लोग अपने को मौर्य वंश से जोड़ कर देखते हैं। और चूंकि मौर्यों का शासकीय धर्म बौद्ध था इसलिये उन लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया है। पर मुझे लगा कि बात इतनी सरल नहीं है। दरअसल हिन्दू धर्म में सदियों से व्याप्त भेदभाव ने उन्हें बौद्ध धर्म स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया होगा।
गाजीपुर प्रवास के अन्तिम चरण में मुझे करहियां और रेवतीपुर जाना पड़ा। करहियां में वहां के क्षत्रियों की और रेवतीपुर में शक्करवार भूमिहारों की कुलदेवियां हैं। ये भूमिहार और क्षत्रिय मूल रूप में एक ही शाखा से निकले थे और फतेहपुर सिकरी से आये थे। कमसार क्षेत्र के मुसलमान भी इसी शाखा के हैं। करहियां में कामाख्या देवी का मन्दिर है। देवी अपने प्रचंड रूप में हैं और उनकी आंखों को देख कर ऐसा लगता है जैसे वह उन्हीं से सब कुछ नियन्त्रित कर लेना चाहती हैं, ऐसा मेरी पत्नी का आबजर्वेशन था। रेवतीपुर की हमारी कुलदेवी भगवती का रूप वैष्णवी है। बताते हैं कि कस्तूवारों से शक्करवारों की दुर्धर्ष लड़ाई में शक्करवारों ने कस्तूवार कुल को बुरी तरह रौंद डाला और उनके शवों पर भगवती की स्थापना हुई थी। बहरहाल मैंने तो भगवती के माध्यम से उस पूरे खित्ते से एक ही वर मांगा कि जाति व्यवस्था का समूल उन्मूलन हो जाये और लोग इन निरर्थक पहचानों से जितनी जल्दी हो सके मुक्त हो जाएं।
रेवतीपुर से गंगा के दूसरी ओर पूरब में ही भूमिहार ब्राह्मणों की सर्वाधिक आबादी वाला दूसरा सबसे बड़ा गांव शेरपुर है। यहां भूमिहार जाति वर्चस्वशाली रही है। शुरू से ही यह गाँव देश के हर उतार चढ़ाव में अपना दमखम दिखाता रहा है। महात्मा गांधी के आह्वान पर गाँव के तत्कालीन कांग्रेसजनों ने डॉ. शिवपूजन राय के नेतृत्व में 18 अगस्त 1942 को मोहम्मदाबाद के तहसील भवन पर तिरंगा फहराते हुए अंग्रेज डी एम मुनरो के आदेश पर बलूच सिपाहियों द्वारा चलाई गई गोलियों के कारण अपनी शहादत दी थी। वीरगति को प्राप्त करने वाले कुल आठ शहीद थे। गाँव के ही एक बुजुर्ग, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, स्वर्गीय श्री श्रीकृष्ण राय बताते थे कि उस तहसील लूट में गांव का युवा उमड़ पड़ा था। बाद में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने गांव का दौरा भी किया और यहां अपना उदबोधन भी दिया।
शेरपुर गांव का वर्चस्वशाली भूमिहार मानस अप्रैल 1975 में एक घटना के प्रतिक्रियास्वरूप गांव के ही दलित जनों पर कुपित हो उन्हें अपना शिकार भी बना डाला। यद्यपि इस घटना में किसी दलित की जान नहीं गयी पर उनकी बस्तियां जला दी गई थीं। शहीद परिवार के लोग और गांव के सुलझे हुए लोग इस काण्ड से दूर ही रहे पर इस घटना ने शेरपुर के इतिहास को निष्कलंक नहीं रहने दिया।
शेरपुर ने बॉलीबाल में इस देश को अंतरराष्ट्रीय और कई राष्ट्रीय खिलाड़ी भी दिए हैं जिनके विषय में यदि आपको अधिक जानना हो तो गांव के ही युवक मृत्युंजय राय तिलंगा से मुलाकात कर सकते हैं।
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शेरपुर गाँव में स्थित बुढ़वा शिवाला |
गांव के युवा विवेक राय झाबर बताते हैं कि शेरपुर गाँव में स्थित बुढ़वा शिवाला अतिप्राचीन सम्भवतः हर्षकालीन है जिसके पुजारी तब गांव के आदि निवासी चेरोखरवार जातियों के लोग थे। बाद में ये जातियां गांव से विलुप्त हो गईं। दूसरा ऐतिहासिक मंदिर महावीर अर्थात हनुमान का है जहां कीर्तन में उपस्थित हो आप भक्ति भाव में निमग्न हो सकते हैं।
गाज़ीपुर का जिक्र हो और हिंदी के महबूब लेखक राही मासूम रजा और मशहूर गांधीवादी डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी का ज़िक्र न हो तो बात कैसे पूरी हो पाएगी।
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राही मासूम रजा |
राही मासूम रजा गाजीपुर के ही एक गांव गंगौली के रहने वाले थे। उनकी औपन्यासिक कृति "आधा गांव" ने उन्हें राष्ट्रीय फलक पर स्थापित कर दिया। अन्य विशेषताओं के अलावा "आधा गांव" भारत-पाक विभाजन के कारण गाँव में आयी सामाजिक और मानसिक दरार को दर्शाता है। पात्रों के मन में संदेह, डर और असुरक्षा बढ़ जाती है, जिससे पारम्परिक रिश्तों में दरार आ जाती है।
अब भी आप रजा साहब को नहीं पहचान पाए? तो याद करिए बी आर चोपड़ा कृत 1988 से 1990 तक दूरदर्शन पर आने वाले धारावाहिक महाभारत को जिसके प्रसारित होते वक़्त सड़कों पर सन्नाटा छा जाता था। उस धारावाहिक के पटकथा लेखक अपने राही मासूम रजा साहब ही तो थे।
25 दिसम्बर 1880 में जन्मे डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी भी गाजीपुर के ही लाल थे जो 1927 में मद्रास में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। श्री अंसारी ने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और चिकित्सा क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने के साथ ही ख़िलाफ़त और असहयोग आंदोलन में महात्मा गांधी का बढ़-चढ़ कर साथ दिया।
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लार्ड कार्नवालिस का मकबरा |
और हां, गाजीपुर की यात्रा का मौका मिले तो लार्ड कार्नवालिस का मकबरा जरूर देखिएगा। कलकत्ता की यात्रा में यहीं उसकी मृत्यु हो गयी थी। वही गवर्नर जनरल जो इतिहास में इस्तमरारी बन्दोबस्त के लिए जाना जाता है। मकबरे के प्रवेश द्वार पर दो साधू जैसे पेड़ खड़े हैं। ....हो सके तो उन्हें पहचानियेगा। साथ में महुआबाग में पाल की इमरती और मुन्ना का पान भी जरूर दबाईयेगा। और अगर आप चाय के शौकीन हैं तो शहर कोतवाली के पास आमलेट के साथ चुन्नू की मशहूर चाय का जायका ले सकते हैं।
सम्पर्क
मोबाइल : 7985325004
मन को प्रेरित करने वाली डायरी
जवाब देंहटाएंVery good 👍👍👍😊😊👍
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