सुरेश कुमार का आलेख 'उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध और स्त्री पाठ्यक्रम की निर्मितियां'

 

सुरेश कुमार 



पाठ्यक्रम का निर्माण अपने आप में बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। यह पाठ्यक्रम पीढ़ियों को बनाने का काम करता है और इसकी अनुगूंज जिन्दगी भर बनी रहती है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत अंग्रेजों की गुलामी से तो जूझ ही रहा था खुद भारतीय हिन्दू समाज अपने अन्दर की कई तरह की कुरीतियों से जूझ रहा था। ऐसे में स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए पाठ्यक्रम तैयार करना काफी मुश्किलों भरा था। आज जैसे गूगल बाबा या फिर इंटरनेट पर सर्च करने की सुविधा नहीं थी। फिर भी इस दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य हुए। इस कार्य पर एक खोजपरक नजर डाली है सुरेश कुमार ने। अपने अध्ययन में सुरेश यह पाते हैं कि इन पाठ्यक्रमों के द्वारा स्त्रियों को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया। ऐसी परिस्थिति में हिन्दी भाषी क्षेत्र में स्त्री पाठ्यक्रम निर्मितियों की यह कवायद स्त्रियों के बौद्धिक विकास के बजाय पितृसत्तावादी मूल्यों को मजबूत करती दिखायी देती है। सुरेश कुमार स्वतंत्र शोध अध्येता हैं। इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहें है। इनके लेख हंस, तद्भव, पाखी, कथाक्रम, पक्षधर, समाजिकी, प्रतिमान, आलोचना आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इस लेख को पढ़ कर आप सुरेश की शोधपरक प्रवृत्ति का अंदाजा लगा सकते हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुरेश कुमार का आलेख 'उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध और स्त्री पाठ्यक्रम की निर्मितियां'।



'उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध और स्त्री पाठ्यक्रम की निर्मितियां'   

                                                                                                                        

सुरेश कुमार                                                                                                                                           

  

19वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और शैक्षिक आंदोलनों की सरगरमियों से भरा रहा है। जहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का पतन हुआ, वहीं सन 1858 में भारत का शासन महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया था। औपनिवेशिक भारत में महारानी विक्टोरिया के शासन को यहाँ के साहित्यकारों और सुधारकों ने ‘स्त्री राज’ के तौर पर देखा था। विक्टोरिया शासन में स्त्री शिक्षा की पहलकदमी पर ज़ोर दिया। पश्चिमोत्तर देश का लेफ्टिनेंट गवर्नर टॉमसन के नियुक्त होते ही शिक्षा विभाग में काफी प्रगति हुई। पंडित बालकृष्ण भट्ट ने अगस्त, 1882 के ‘हिन्दी प्रदीप’ में लेफ्टिनेंट गवर्नर टॉमसन के शिक्षा संबंधी प्रयासों की प्रशंसा करते हुए लिखा था कि लेफ्टिनेंट गवर्नर टॉमसन ने पश्चिमोत्तर देश में शिक्षा विभाग स्थापित किया और तहसीलों में पाठशालाएँ खुलवाई। इनके चमत्कार से ऐसा लगने लगा कि गली-गली में विद्या की नदी बह चलेगी। औपनिवेशिक भारत में पश्चिमोत्तर देश में बनारस, आगरा, मेरठ, और अजमेर शिक्षा विभाग के प्रमुख  सूबा  हुआ करते थे। शिक्षा विभाग के सभी सूबों की कमान सँभालने वाले हाकिम को 'डायरेक्टर ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन' कहा जाता था। इस पद को संभालने वाले अंग्रेज़ ही हुआ करते थे। पश्चिमोत्तर प्रांत में विलियम हैडफोर्ड, ए. एम. कैमसन, कॉलिन ब्रौनिग आदि ने शिक्षा विभाग के डायरेक्टर ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन के पद पर कार्यरत रहे। 


औपनिवेशिक शासन की ओर से स्त्री शिक्षा की पहलकदमी हुई तो सबसे पहले शिक्षा विभाग के अफसरों को स्त्री पाठशालाओं के लिए पुस्तकों का अभाव महसूस हुआ। औपनिवेशिक सरकार के शिक्षा विभाग में कार्यरत राजा शिवप्रसाद ‘सितारे-हिन्द’, नवीन चंद्र राय, पंडित वंशीधर, श्रीलाल, पंडित महेश दत्त शुक्ल, राम प्रकाश तिवारी, ज्वाला प्रसाद, बिहारी लाल चौबे और पंडित शिव नारायन तिवारी जैसे विद्वानों ने हिंदी पाठ्यक्रम की पुस्तकों के निर्माण की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ली। 




 

औपनिवेशिक भारत के प्रसिद्ध लेखक और शिक्षाविद  शिवप्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ (1823-1895) की हिंदी पाठ्यक्रम के निर्माण में अहम भूमिका रही है। सन 1856 में शिवप्रसाद ‘सितारे-हिंद’ को शिक्षा-विभाग में बनारस डिवीजन का जाइंट इस्पेक्टर नियुक्त किया गया। जब बनारस और प्रयाग डिवीजन को एक में मिला दिया गया तो उनको दोनों डिवीजनों का प्रधान इस्पेक्टर बनाया गया। शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ को उनकी सेवाओं के लिए सन् 1870 में सी. एस. आई. की उपाधि से और सन् 1883 में ‘राजा’ की पदवी से नवाजा गया। सन् 1883 में गवर्नर लार्ड रिपन ने ‘सितारे हिंद’ को  इम्पीरियल काउंसिल का सभासद नियुक्त किया था। इस महान शिक्षाविद का 23 मई 1895 को निधन हो गया।

  

राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ ने हिंदी पाठ्यक्रम की अनेक पुस्तकों का निर्माण किया। उन्होंने पाठ्यक्रम की परियोजना के अंतर्गत इतिहास तिमिर-नाशक (1864), विद्याङ्कुर (1855), मनबहलाव (दूसरा संस्करण, 1865), छोटा भूगोल हस्तमलक (आठवाँ संकरण, 1877) आदि पुस्तकें लिखी थीं। बाबू शिवप्रसाद ने स्त्री शिक्षा को ध्यान में रखते हुए ‘वामामनरंजन’ (Tales for Women) शीर्षक पुस्तक लिखी. यह किताब उन्होंने श्रीमहाराजाधिराज पश्चिमोदेशाधिकारी श्रीयुत लेफ़्टिनेट गवर्नर बहादुर की आज्ञा से बनाई थी। यह किताब पहली बार सन् 1856 में मेडिकल हाल प्रेस, बनारस से प्रकाशित हुई थी। सन् 1859 में ‘वामामनरंजन’ का दूसरा संस्करण मेडिकल हाल प्रेस से ही प्रकाशित हुआ था। सन् 1868 में इस किताब का तीसरा संस्करण इलाहाबाद के गवर्नमेंट छापेखाने से प्रकाशित हुआ। बाबू शिव प्रसाद की इलाहाबाद, गवर्नमेंट छापेखाने वाली ‘वामामनरंजन’ पर संस्करण अंकित नहीं है। शिवप्रसाद ने ‘वामामनरंजन’ में अहिल्या, दमयंती, द्रोपदी, रानी भवानी, विद्योत्तमा, बीबी अम्बोस, पुलचेरिया, अलिजेबेथ हंगरी वाली, चिलोनिस, सिविला और करोनिल जैसी साहसी स्त्रियों की संघर्ष गाथाओं को शामिल किया। औपनिवेशिक भारत में जहां स्त्रियों की छवि कमअक्ल की पेश की जा रही थी, वहीं शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ ने वामामनरंजन के हवाले से स्त्रियों की एक बौद्धिक छवि पेश कर स्त्रियों को यह बताने का प्रयास किया कि वह बल और बुद्धि के स्तर पर किसी भी तरह से मर्दों से कम नहीं हैं। औपनिवेशिक भारत की यह पुस्तक हमें भारतीय स्त्रियों के साथ ही इंगिलिस्तानी स्त्रियों के संघर्ष और इतिहास से परिचित करवाती है।   


राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’


उन्नीसवीं सदी के छठे दशक में गृह प्रबंध और रसोई में कन्याओं को दक्ष और चतुर बनाने के लिए गृहविज्ञान की पुस्तकों का भी निर्माण किया गया। सन् 1867 में ‘ब्याजनप्रकार’ शीर्षक से गृह विज्ञान विषयक पुस्तक प्रकाशित हुई। यह पुस्तक राजाधिराज पश्चिम देशाधिकारी श्रीयुत लेफ़्टिनेंट गर्वनर बहादुर की आज्ञानुसार, श्रीयुत एम. केमसन साहिब, डायरेक्टर ऑफ  पब्लिक  इंस्ट्रक्शन बहादुर के मनोरथ से और पंडित वंशीधर की प्रेरणा से जय शंकर सहस्र ने सत्सभा की सम्मति से बनाई थी। यह किताब नूरुलइल्म छापेखाना से मुद्रित हुई थी। इस किताब के लेखक जय शंकर आगरा के रहने वाले थे। इस किताब की भूमिका में लिखा गया कि यह किताब पढ़ कर कन्याएँ पाक-कला में प्रवीण होंगी। इसलिए, यह किताब बिना झिझक के स्त्रियों को पढ़ने के लिए दी जा सकती हैं। लेखक ने यह भी कहा कि जो उच्च घर की स्त्रियाँ हैं वे इस किताब को पढ़ कर अपने नौकरों से बढ़िया भोजन बनवा सकती हैं।

  

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में स्त्री पाठ्यक्रम की निर्मितियों के अंतर्गत राम प्रकाश तिवारी ने ‘सुताप्रबोध’ शीर्षक से एक किताब लिखी थी। पंडित राम प्रकाश तिवारी ग्राम लेहरा, इलाहाबाद के निवासी थे। उन्होंने यह किताब पश्चिमदेशाधिकारी श्रीयुतनवाब लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर की आज्ञा से  कन्या पाठशालाओं के लिए बनाई थी। सन् 1871 में यह किताब इलाहाबाद, गवर्नमेंट छापेखाने से छ्पी थी। इस किताब के प्रथम संस्करण में एक हज़ार प्रतियां मुद्रित हुई थी। पंडित राम प्रसाद तिवारी ने यह किताब बड़ी परिश्रम से बालिकाओं को ध्यान में रखते हुए पद्य भाषा में बनाई थी। उन्हें इस किताब के लिए गवर्नमेंट की ओर से एक सौ रूपये का पुरस्कार दिया गया था। पंडित राम प्रकाश तिवारी ने ‘सुता प्रबोध’ के हवाले से सुताओं को इस बात का उपदेश दिया था कि दैनिक जीवन में स्त्रियों को माता-पिता, सास-ससुर और पति से कैसे बर्ताव करना है। एक तरह से सुता प्रबोध किताब स्त्रियों को भद्रवर्गीय मूल्यों में ढालने की कवायद करती नज़र आती है। स्त्री शिक्षा की इस किताब में स्त्रियों को मेला और बाज़ार में जाना वर्जित बताया गया। लेखक की दलील थी कि मेला बाज़ार आदि सार्वजनिक स्थलों पर घूमना कुलीन स्त्रियों का धर्म नहीं है। पंडित राम प्रकाश तिवारी का मत था कि सुताओं को मेला और बाज़ार जाने की कल्पना सपने में  भी नहीं करनी चाहिए। उन्होंने पुत्रियों को उपदेश देते हुए लिखा कि, 


‘कन्याजन को उचित न मेला 

होइ जहां  ठेली कर ठेला. 

रहहू सुता घर बैठी अपने 

मेला की रुचि करहु न सपने।’ 


स्त्री शिक्षा की इस किताब में स्त्रियों को पति की सेवा करना बड़ा धर्म बताया गया। यहाँ तक कहा गया कि स्त्री का पति से बढ़ कर कोई देव और तीर्थ नहीं है। पंडित राम प्रकाश तिवारी ने लिखा था कि, 


‘पति समान नहि हित कोऊ पति समान नहि धर्म।

पति सेवा से अधिक तर और न उत्तम कर्म।’ 


हालांकि पंडित राम प्रकाश तिवारी 'सुता प्रबोध' में  स्त्री शिक्षा के महत्व को भी  रेखांकित करते है। 

 

विद्या हीन होत पशु प्रानी, यह निश्चय करि जानत ज्ञानी।

विद्या गुन सब धन से भारी, जेहि समान नहिं कोउ हितकारी॥  

    

उन्नीसवीं सदी के उतरार्द्ध में मुंशी नवल किशोर प्रेस का स्थापित होना एक बड़ी परिघटना थी। सन् 1858 में मुंशी नवलकिशोर भार्गव ने मुंशी नवलकिशोर प्रेस की स्थापना लखनऊ में की थी। औपनिवेशिक भारत में स्थापित इस छापाखाना ने हिन्दी-उर्दू की किताबों के साथ पाठ्यक्रम की पुस्तकें छापने में क्रांति ला दी थी। मुंशी नवलकिशोर ने अवध देशीय शिक्षा प्रबन्धाधिकारी श्रीयुत कोलिन ब्रौनिंग साहब एम. ए. डाइरेक्टर ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन की आज्ञा से स्त्री पाठशालाओं के लिए 'बालाभूषण'  शीर्षक से एक स्त्री पाठ्यक्रम की पुस्तक तैयार की थी। यह किताब सन् 1872 में लखनऊ निज पाषाण यन्त्रालय से छपी थी। इस किताब की भूमिका में यह दावा किया गया कि प्राचीन समय  में  स्त्रियाँ पढ़ी लिखी और पंडिता हुआ करती थी। इसी के साथ इस बात को भी रेखांकित किया गया कि मध्य काल के राजाओं ने स्त्री शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया जिसके चलते स्त्रियाँ अनपढ़ और शिक्षाविहीन हो गईं। भूमिका में यह बात ज़ोर दे कर कही गई कि यहां के भद्रजन अपने कुल की रक्षा में स्त्रियों को अनपढ़ बनाए रखने में अपनी शेख़ी समझते हैं। इस किताब की भूमिका में दावे के साथ लिखा गया कि जब से अँग्रेजों की सत्ता का भारत में प्रबंध हुआ, तब से  देश में शिक्षा का विस्तार होने से मूर्खता के तिमिर का नाश हुआ है। बालाभूषण की भूमिका में लिखा गया कि अंग्रेज़ सरकार ने गाँव और नगरों में बालक-बालिकाओं के लिए पाठशाला खोलने का काम किया और पृथक-पृथक भाषा में पढ़ाने वाले  शिक्षकों को नियुक्त किया गया। इस किताब की भूमिका में यह दावा  किया गया कि ब्रिटिश राज की ओर से स्त्री शिक्षा की जैसी पहलकदमी हुई, वैसी किसी और सत्ता में नहीं हुई।


मुंशी नवल किशोर 

 

औपनिवेशिक भारत में लिखी गई ‘बालाभूषण’ एक तरह से हिंदी व्याकरण की किताब थी। एक सौ अट्ठाईस पृष्ठ की इस किताब का मूल उद्देश्य स्त्रियों को स्वर और व्यंजन अक्षरों का ज्ञान कराना था। इस किताब में स्त्रियों को स्वर लिखने की विधियां बड़ी बारीकी से बतायी  गयी थी। ‘बालाभूषण’ किताब की पहली विशेषता यह थी कि यह पुस्तिका पूरी तरह सचित्र थी। दूसरी, खूबी यह कि प्रत्येक स्वर और व्यंजन के  नीचे चित्र बना कर एक दोहा लिखा गया था। जैसे-ई से ईंख. इसके बाद ईख का चित्र बनाया गया और उसके नीचे यह दोहा लिखा गया था-


ईंख सरस बहु होत है देखत मांहि कठोर, 

पोर पोर कमतें अधिक रस होत न थोर।


इसके बाद दीर्घ स्वर के उच्चारण की प्रक्रिया समझाई गयी थी। इस किताब में बालिकाओं का यह भी बताया गया था कि कवर्ग, चवर्ग, तवर्ग, टवर्ग..... में कौन से व्यंजन आते हैं। औपनिवेशिक दौर में इस किताब में अक्षर सीखने की जो पद्धति बताई गयी थी, उसका अनुसरण आज के दौर में बेसिक स्कूलों में बच्चों  को अक्षर ज्ञान करने के लिए किया जाता है।

 

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कन्याओं को अक्षर ज्ञान कराने के बाद उन्हें चिट्ठी-पत्री लिखने की विधियां समझाने की जरूरत महसूस की गई। इस जरूरत को ध्यान में रखते हुए पंडित शिव नारायण ने कन्याओं को चिट्ठी-पत्री लिखने की विधियां सिखाने लिए ‘स्त्रियों की हितोपत्रिका अर्थात हिन्दी में ख़त-पत्र आदि सीखने की पुस्तक’ शीर्षक से एक बड़ी दिलचस्प किताब लिखी थी। सन् 1873 में यह किताब मुंशी नवलकिशोर प्रेस से मुद्रित हुई थी। पंडित शिव नारायन ने यह किताब डाइरेक्टर ऑफ  पब्लिक इंस्ट्रक्शन मुल्क अवध की अनुमति से हिंदी पढ़ने वाली बालिकाओं के लिए उर्दू के मुफ़ी दुन्निसा से रघुनाथ प्रसाद पांडे मुदर्रिस की सलाह से अवधी भाषा में अनुवाद किया था। पंडित शिव नारायण जिला लखनऊ के डिप्टी इस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे। इस किताब में माता-पिता, पुत्र-भाई, शिक्षिका और सहेलियों को जो पत्र लिखे गए हैं, उनमें स्त्री शिक्षा की उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया था। इस किताब में एक पुत्री अपने पिता को पत्र लिख कर अपने लिए एक पुस्तक की मांग करती है। पिता अपनी पुत्री के पत्र का जवाब देते हुए लिखता है कि मैंने सुना है कि श्रीयुत साहब डायरेक्टर बहादुर मुल्क अवध और साहब 'इन्स्पेक्टर' बहादुर इलाका पूर्वी व पश्चिमी विद्या और हुनर की कारीगरी के नमूने चुन रहे हैं, कचहरियों में सब लोग अपना-अपना दफ्तर सुधार रहे हैं और मुलाज़िम लोग पुस्तकों का अनुवाद करने में लगे हुए हैं। पंडित और विद्वान भाषा का व्याकरण बना रहे हैं। मास्टर साहिब नार्मल स्कूल लखनऊ भाषा की पुस्तक बना रहे हैं। वह अपनी पुत्री के लिए ‘गणित लता’ नामक  पुस्तक भेजने का जिक्र करते हुए अपनी पुत्री को बताता है कि यह किताब हिसाब रखने के कायदे-कानून सिखाती है, जो तुम्हारे रोज़मर्रा जीवन में काम आएंगे। इसी किताब के एक दूसरे पत्र में एक स्त्री अपनी सहेली को स्त्री पाठशाला की प्रगति का हाल बताती हुई लिखती है कि बहिन सुखरानी ने पाठशाला दिखाया जिसमें इकतीस लड़कियों में से रजिस्टर में अट्ठाईस हाज़िर थीं। पहली कक्षा में सात लड़कियां 'प्रेमसागर व्याकरण' की उपक्रमणिका पढ़ती हैं और छोटी-छोटी बातों का संस्कृत भाषा और भाषा से संस्कृत में उल्था करती हैं। मेरे प्रश्नों के उत्तर अच्छे दिए हैं। अपने पत्र में वह आगे इस बात का जिक्र करती है कि कन्या पाठशालाओं में लड़कियों को कौन सी किताबें पढ़ाई जाती हैं। वह अपने पत्र में अपनी सहेली को बताती है कि दूसरी कक्षा की लड़कियों को भोजप्रबन्धसार, तत्वदीपिका, पत्रदीपिका आदि पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं। तीसरी कक्षा की लड़कियाँ  दिल बहलाव, विद्यांकुर और हिसाब में मिश्रभाग पढ़ती हैं। चौथी कक्षा की लड़कियां शिक्षावली, पत्र हितैषी, और गणित प्रकाश पढ़ती हैं।


सन 1873 की ‘स्त्रियों की हितोपत्रिका’ किताब से यह पता चलता है कि औपनिवेशिक भारत की कन्या पाठशालाओं में गृह प्रबन्ध के साथ हिंदी व्याकरण, विज्ञान और गणित विषयक किताबें उनके पाठ्यक्रम में शामिल थी। इस पत्र में तत्वदीपका नामक जिस किताब का जिक्र किया गया है, उस का सही नाम ‘भाषा तत्वदीपिका’ है। ‘भाषा तत्वदीपिका’ के लेखक हरि गोपाल उपाध्याय थे। सन 1873 में यह किताब मुंशी नवलकिशोर प्रेस से छ्पी थी। मूलतः यह किताब विद्यार्थियों को भाषा व्याकरण का ज्ञान कराने के लिए लिखी गयी थी। गणित प्रकाश के लेखक श्रीलाल थे। यह राजा शिव प्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ के सहयोगी थे। इन्होंने पश्चिमोत्तर प्रांत के विद्यार्थियों के लिए नागरी भाषा में कई पुस्तकें बनाई थी। 




   

स्त्री शिक्षा की पाठ्य-पुस्तक परियोजना के अंतर्गत बाबू अविनाश चंद्र विश्वास ने ‘नारी बोध’ शीर्षक एक किताब लिखी थी। यह किताब पहली बार सन् 1883 में मुंशी नवलकिशोर छापेखाने से मुद्रित हुई थी। अविनाश चंद्र का मत था कि स्त्री शिक्षा की वकालत करने वाले लेखकों और सुधारकों पुरोहितों द्वारा बड़ा  बुरा-भला कहा जाता है। लेखक की दलील थी कि यदि स्त्री शिक्षा से कोई हानि होती तो पुराने समय में लोग स्त्रियों को क्यों पढ़ाते-लिखाते? शिक्षा एक ऐसा औज़ार है जिससे मुक्ति का द्वार खुलता है। करीब दो सौ अस्सी पृष्ठ की यह किताब सर्वसमावेशी विषयों पर आधारित थी। इस किताब के प्रथम अध्याय में शब्द, वचन और नीतिबोधक उपाख्यान थे। दूसरे, पाठ में  नीतिबोधक पद्य संगृहीत थे जिसे लेखक ने रामायण आदि से उद्धृत किए थे। इसके तीसरे पाठ में स्त्रियों को पत्र लिखने की रीति बताई गयी थी और आठवें पाठ में गणित शामिल की गई थी।




 

उन्नीसवीं सदी के प्रसिद्ध लेखक बाबू नवीन चन्द्र राय (1838-1890) स्त्री शि़क्षा के प्रबल पक्षधर थे। इनके स्त्री हितैषी होने का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ‘सीमंतनी उपदेश’ की लेखिका ने अपनी किताब में  इनका नाम बड़े आदर के साथ लिया था। 'सीमंतनी उपदेश' की लेखिका का दावा था कि राय नवीन चंद जिनकी कोशिश से औरतों ने विद्या का नाम जाना है और बहुत किताबें इन्होंने स्त्रियों के लिए लिखीं हैं। बाबू नवीन चद्र स्त्री शिक्षा के पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए ‘लक्ष्मी सरस्वती सम्वाद’ शीर्षक से दो खंडों में किताब लिखी। सन 1881 ‘लक्ष्मी सरस्वती सम्वाद’ लखनऊ के मुंशी नवलकिशोर प्रेस से छपी थी। नवीन चंद्र राय ने ‘लक्ष्मी सरस्वती सम्वाद’ भाग-दो प्रश्नोत्तर शैली में लिखी थी। इस पुस्तक में मनुष्यों की अवस्था, भूमि के भाग, अक्षांश, नभमण्डल, उल्का, वायुमण्डल से ले कर जलतत्व आदि विषयों के बारे में बड़ी गहराई से कन्याओं को समझाया गया था। 

 

शिव प्रसाद ‘सितारे हिंद’ ने जैसे ‘इतिहास तिमिर नाशक’ पुस्तक बच्चों को इतिहास ज्ञान कराने के लिए बनाई थीं। वैसे ही नवीन चंद्र राय ने ‘लक्ष्मी सरस्वती संवाद’ किताब स्त्रियों को भूगोल का ज्ञान कराने के लिए लिखी थी। नवीन चंद्र राय की पुस्तकें  ‘स्थितितत्व और गतितत्व’ (1882) हिंदी में विज्ञानपरक लेखन के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। इस लेखक की कथनी और करनी में अंतर नहीं था। इन्होंने अपनी बेटी हेमन्त कुमारी देवी को बेथुन कालेज से शिक्षा दिलवाई थी। हेमन्त कुमारी देवी हिंदी साहित्य के इतिहास में पहली स्त्री संपादिका हैं। इन्होंने सन् 1888 में ‘सुगृहिणी’ नामक स्त्रियों के लिये महत्वपूर्ण पत्रिका निकाली थी।

  

हेमन्त कुमारी देवी


औपनिवेशिक भारत में भद्र वर्ग को जब यह लगा कि स्त्री शिक्षा से स्त्रियों में चेतना का प्रसार हो रहा है तो उनकी चेतना को नियंत्रित करने के लिए निजी स्तर पर ‘स्त्री धर्म संग्रह’, ‘स्त्री दर्पण’, ‘स्त्री उपदेश’, ‘स्त्री शिक्षा’, और ‘स्त्री शिक्षा की पहली, दूसरी पुस्तक’ जैसी पुस्तकें लिखी। मर्दवादी नजरिए से लिखी गयी इन पुस्तकों के हवाले से स्त्रियों को सती सावित्री वाले मॉडल में ढालने का प्रयास किया गया। औपनिवेशिक दौर में स्त्रियों को धार्मिक और भद्रवर्गीय मूल्यों में ढालने की शुरुआत पंडित ताराचंद्र शास्त्री ने ‘स्त्री धर्म संग्रह’ पुस्तक लिख कर की। ‘स्त्री धर्म संग्रह’ किताब पंडित तारा चंद्र ने भारतवर्षीय स्त्रियों के लिए रूहेलखण्ड लिटरेरी सुसाइटी की अनुमति से बनाई थी। यह किताब पहली बार सन 1868 में बरेली, रूहेलखण्ड लिटरेरी सुसाइटी छापेखाने से प्रकाशित हुई थी। बड़ी ताज्जुब की बात यह है कि इस किताब की पहले संस्करण में अठारह सौ प्रतियाँ छपी थी। पंडित तारा चंद्र की यह किताब उनके वेद पुराण और धर्म शास्त्रों के अध्ययन का नतीजा थी। पंडित तारा चंद्र ने इस किताब की कथा में वेदविदुषी नाम की एक ऐसी स्त्री की सृजना की जो संपूर्ण वेद शास्त्रों में अकंठ विश्वास रखती हुई, भद्रवर्गीय मूल्यों की वाहक थी




 

19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में भद्र वर्ग के भीतर इस बात का भय बैठ गया था कि अँग्रेजी शिक्षा पा कर स्त्रियों का रिपु बल उग्र हो जाएगा जिससे वह पति की आज्ञा का उल्लंघन करने पर उतारू हो जाएंगी। इसी भय के चलते ‘स्त्री धर्म संग्रह’ और ‘भाग्यवती’ जैसे पुस्तकों का उद्भव हुआ। 'स्त्री धर्म संग्रह' जैसी सरीखी पुस्तकों ने स्त्रियों के गले में शास्त्रों की कंठी डाल कर उनकी चेतना को कुंद करने का  प्रयास किया।

 

उन्नीसवीं सदी के आठवें दशक में हिंदू स्त्रियों को घरेलू मॉडल में फिट करने की परियोजना के अंतर्गत सन् 1875 में ‘स्त्री दर्पण’ शीर्षक से एक किताब लखनऊ के मुंशी नवलकिशोर प्रेस से प्रकाशित हुई थी। इस किताब के लेखक एक्स्ट्रा-सिस्टेंट कमीशनर ज़िला सुल्तानपुर मुल्क अवध पंडित माधव प्रसाद थे। सन् 1876 में इस किताब का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ था। पंडित माधव प्रसाद ने स्त्री शिक्षा पर एक और किताब ‘स्त्री उपदेश’ शीर्षक से लिखी थी। पंडित माधव प्रसाद ने स्त्री दर्पण  किताब डिप्टी नज़ीर अहमद की ‘मिरातूल उरुस’ (1869) की तर्ज पर लिखी थी। माधव प्रसाद ने स्त्री दर्पण किताब लिखने के पीछे की मंशा जाहिर करते हुए लिखा था कि ‘मैंने एक पुस्तक उर्दू भाषा में देखी जो किसी मुसलमान डिप्टी कलक्टर ने लड़कियों की शिक्षा हेतु बनाई थी, यह  पुस्तक देखने पर मुझे लगा कि यह पुस्तक इस प्रकार की बनी है कि कदाचित् स्त्री अथवा पुरुष उसको देखें तो अलबत्ता जाने कि स्त्रियों का पढ़ना कितना आवश्यक है और पढ़ी लिखी स्त्री किस तरह अच्छे प्रकार से घर का बन्दोबस्त कर सकती है। परन्त, वह पुस्तक उर्दू में है और बोल चाल और सब बातें उसकी मुसलमान औरतों की हैं। इसलिए, मैंने सोचा कि जो इसी ढंग पर नागरी भाषा में ऐसी पुस्तक लिखी जाए जिसमें हिंदूओं की लड़कियों का वृत्तान्त हो और सब बातचीत हिंदुओं के अनुसार हो कि उत्तम घराने की  बहुधा लड़कियां नागरी पढ़ी होती हैं तो ऐसी  पुस्तक पढ़ने से उनको लाभ और निर्मल बुद्धि प्राप्त होगी।’ पंडित माधव प्रसाद स्त्रियों को शिक्षा का महत्व समझाते हुए महारानी विक्टोरिया का प्रमाण दे कर बताया कि छोटे से परिवार में जन्म लेने वाली शहजादी महारानी विक्टोरियों ने शिक्षा हासिल कर के केवल गृहस्थ का नहीं अपितु समस्त देश का सम्राज्य संभाल रखा है।




  

माधव प्रसाद ने ‘स्त्री दर्पण’ किताब किस्सा शैली में लिखी थी। इस किताब में परमेश्वरी और सरस्वती दो सगी बहनों की कथा है। परमेश्वरी, सरस्वती की बड़ी बहन है। दोनों बहनों का विवाह  एक ही घर में क्रमशः बड़े और छोटे भाई के साथ हुआ है। ‘स्त्री दर्पण’ के पहले भाग में परमेश्वरी और दूसरे भाग में सरस्वती की कहानी है। माधव प्रसाद ने परमेश्वरी के बहाने यह दिखाने की चेष्टा की है कि उदंड स्त्रियां कैसे ससुराल को बिगाड़ कर रख देती हैं।  


लेखक का निष्कर्ष है कि यदि परमेश्वरी को आदर्शवादी शिक्षा मिली होती तो वह अपने गृह का बंदोबस्त ठीक से करती और पति की आज्ञा का पालन करती। पंडित माधव प्रसाद ने सरस्वती की कथा के बहाने स्त्री शिक्षा की उपयोगिता बताई है। लेखक ने सरस्वती को घरेलू मॉडल में फिट होने वाली एक आदर्श महिला के तौर पर पेश किया है। सरस्वती गृह कार्य का संचालन बड़ी कुशलता से करती है।


सरस्वती के इस व्यवहार से परिवार के सभी लोग खुश रहते हैं। पंडित माधव प्रसाद ने सरस्वती का चरित्र एक आदर्शवादी बेटी और एक आदर्शवादी बहू के रुप में प्रस्तुत किया और, स्त्रियों को सरस्वती की कथा के बहाने भद्र वर्गीय मूल्यों में ढलने का संदेह दिया है।


औपनिवेशिक दौर में ‘भारत मित्र’ के संपादक पंडित हरि मुकुंद शास्त्री ने स्त्रियों को पतिव्रता धर्म में प्रवीण बनाने के लिए ‘स्त्री शिक्षा’ शीर्षक से एक किताब लिखी थी। सन् 1884 में यह किताब मित्र विलास प्रेस, कलकत्ता से प्रकाशित हुई थी। चालीस पृष्ठ की इस किताब में स्त्रियों को घरेलू मॉडल में फिट होने की शिक्षा दी गयी थी। पहले पाठ में कन्याओं को धर्म बताते हुए कहा गया कि लड़कपन में कन्या को अपने पिता की आज्ञा से चलना चाहिए उसी में उसकी भलाई है। इसी तरह से दूसरे पाठ में कन्या को पति के अधीन रहने का उपदेश दिया गया था। औपनिवेशिक भारत में कुछ लेखकों को इस बात का भय था कि स्त्रिययां शिक्षा पाने से पति धर्म का निर्वाह ठीक से नहीं करेंगी। इसलिए ऐसी किताबें भी लिखी गईं जिनमें स्त्रियों को आदर्श  पत्नी, आदर्श बेटी और आदर्श बहू बनने का उपदेश दिया था।





19वीं सदी के नवें दशक में बाबू साहब प्रसाद सिंह ने ‘स्त्री शिक्षा’ शीर्षक से किताब लिख कर स्त्रियों को पतिव्रता के किले में  पूरी तरह से कैद करने की कवायदों को अंजाम दिया। बाबू साहब प्रसाद सिंह की बनाई किताबें बिहार प्रांत के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। साहब प्रसाद सिंह की स्त्री शिक्षा की पहली किताब सन 1883 में खड़ग विलास प्रेस, बांकीपुर से छपी थी। सन 1891 में बाबू साहिब प्रसाद की ‘स्त्री शिक्षा की दूसरी किताब’ का दूसरा संस्करण खड़गविलास, प्रेस, बाँकीपुर से ही छ्पा था। स्त्री शिक्षा की इस किताब में लिखा गया कि जो स्त्री सपने में भी पति की बुराई करती है, उसे नर्क तक में भी जगह नहीं मिलती है। इस तरह मर्दवादियों की तरफ से स्त्रियों के भीतर एक अजीब तरह का भय पैदा करने की कोशिश स्त्री शिक्षा के हवाले से की गई। 

   

अब यह देखा जाए कि 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भद्र वर्ग की स्त्रियाँ शिक्षा के संबंध में क्या राय रखती थी? 11अक्तूबर 1892 में पंडित मोती लाल नेहरू के आवास पर रात्रि साढ़े आठ बजे स्त्री शिक्षा पर स्त्रियों की एक कान्फ्रेंस हुई। सन् 1893 में इस स्त्री कान्फ्रेंस मे स्त्रियों की ओर से दिए गए भाषण ‘सरस्वती विलास अर्थात स्त्री सभा की कार्यवाई’ शीर्षक से किताब की शक्ल के तौर पर इंडियन प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई। औपनिवेशिक भारत की इस स्त्री कान्फ्रेंस में श्रीमती नंद रानी नेहरू, बृजमोहन रानी शर्मा, महारानी तकरू, तेजवती नेहरू और कैलाशवती आगा आदि स्त्रियाँ ने स्त्री शिक्षा संबन्धी एक मॉडल प्रस्तुत करने का प्रयास किया। पंडित नंद लाल नेहरू की पत्नी पंडिता नंदरानी नेहरू ने इस कान्फ्रेंस में स्त्री शिक्षा पर एक मारक भाषण दिया। श्रीमती नंद रानी ने पहले तो अपने भाषण में ऐसे मर्दवादियों की तीखी आलोचना की जो स्त्रियों को ‘कमअक्ल’ का बताते और मानते थे। इन्होंने कहा कि जो मर्द स्त्रियों को कमअक्ल का कहते हैं, उन्हें पंडिता रमा बाई और आनंदी बाई जोशी जैसी स्त्रियों की ओर देखना चाहिए, जिन्होंने इल्म के मामले में पुरुषों से भी ज्यादा नाम किया है।


नंद रानी नेहरू ने स्त्री विमर्श की जमीन पर खड़ी हो कर मर्दों से सवाल किया कि क्या स्त्रियों को ईश्वर ने कमअक्ल का पैदा किया है? क्या और मुल्कों में ऐसे औरतें मौजूद नहीं हैं, जो विद्वत्ता में अपने ही मुल्क में नहीं बल्कि दूसरे मुल्कों में बुद्धि और सत्ता के मामले में मर्दों से आगे निकल चुकी हैं। ज़ाहिर सी बात है कि जब दूसरे मुल्कों की औरतों को ईश्वर ने कमअक्ल का पैदा नहीं किया है तो क्या भारत की स्त्रियों पर ही ईश्वर का कोप सवार है? उन्होंने अपने इस कथन से उन मर्दों को आईना दिखाया जो यह कहते फिरते थे कि स्त्रियाँ पैदा ही बुद्धिहीन होती हैं।

 

19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मर्दवादियों की तरफ से यह जुमला बड़े ज़ोर-शोर के साथ उछाला गया था कि औरतें शिक्षा पा कर आजाद हो जाएगी, मर्दों की बात नहीं मानेगी, दिन भर अख़बार पढ़ती रहेंगी और रसोई आदि का काम नहीं करेंगी। नंद रानी नेहरू ने ऐसा कहने वालों मर्दों का पुरजोर विरोध किया और कहा कि पढ़ने-लिखने से किसी तरह नुकसान होने के बजाय लाभ ही होता है। इनका कहना था कि मर्द एक साज़िश के तहत स्त्री शिक्षा को ले कर भ्रांतियाँ फैलाते हैं ताकि स्त्रियाँ सदा अनपढ़ बनी रहें। श्रीमती नंद रानी ने अपने निष्कर्ष में कहा कि, ‘औरतों को विद्या हासिल करने की पूरी शक्ति है। दूसरे, औरतों को शिक्षा की सख़्त ज़रूरत है। तीसरे, यह कि विद्या से सरासर लाभ है। चौथा, स्त्री शिक्षा से कोई हानि नहीं होती है। इसके बाद नंद रानी नेहरू ने बुद्धजीवियों और सुधारकों से निवेदन किया कि हम औरतें आप ही के आधीन हैं और हमको तालीम देना आप ही का काम है। आप लोगों को हमें पढ़ाने लिखाने से वो पुण्य होगा जो हज़ार गो-दान से ज्यादा है और जिसके आगे मानों  सोना दान करना तुच्छ है। अपने भाषण के अंत में नंद रानी ने स्त्रियों से अपील करते हुए कहा कि यहां पर मौजूद बहनों से मेरी प्रार्थना है कि विद्या हासिल करने की दिलोजान से कोशिश करो। मर्द तुम पर हजारों सालों से ‘बुद्धिहीन’ होने का जो धब्बा लगाते आ रहे हैं, उसे विद्या के ज़ोर से धो डालो।


स्वरूप रानी नेहरू 


उन्नीसवीं सदी के नवें दशक में आयोजित इस स्त्री कान्फ्रेंस में उच्च श्रेणी की स्त्रियों ने स्त्री शिक्षा के साथ ही स्त्री जीवन की दुश्वारियों का भी बयान किया। पंडित मोती लाल नेहरू की पत्नी श्रीमती स्वरूप रानी नेहरू ने अपने भाषण में स्त्री जीवन की हौलनाक सच्चाई सामने रखी। उन्होंने कहा कि क्या परमेश्वर ने स्त्रियों को इसलिए पैदा किया है कि पालतू पशुओं की तरह अपने खाविंदों के घर चारदीवारी के भीतर कैद  हो कर सुबह-शाम पेट भर खाना खा लिया करें। उन्होंने स्त्री विमर्श की ज़मीन पर खड़ी हो कर कहा कि अफ़सोस जो तालीम लड़कों के लिए जरूरी समझी जाती है, वही तालीम लड़कियों और स्त्रियों के लिए ज़हर समझी जाती है। उन्होंने कहा कि जब मर्द तालीम पा कर बिगड़ जाते हैं तो उनकी तालीम पर सवाल क्यों नहीं उठाया जाता हैं? श्रीमती स्वरूप रानी का यह एक ऐसा मारक सवाल था जिसका जवाब शायद ही मर्दवादियों के पास होगा।


सन 1892 की इस स्त्री कान्फ्रेंस में श्रीमती तेजवती नेहरू ने स्त्री शिक्षा की दुश्वारियों पर अपनी बात रखी। श्रीमती तेजवती पंडित बिहारी लाल नेहरू की पत्नी थी। श्रीमती तेजवती नेहरू ने बड़ा मारक सवाल उठाया कि मर्दवादी बन्दिशों के चलते लड़कियों को पढ़ने-लिखने का मौक़ा उतना नहीं दिया जाता  है कि जितना इस मुल्क के लड़कों को मिलता है। इस मुल्क में लड़कियां थोड़ी उम्र तक ही बाहर जा कर शिक्षा हासिल कर सकती हैं पर लड़कों को बाहर जा कर तालीम हासिल करने की पूरी छूट दी जाती है। श्रीमती तेजवती स्त्री शिक्षा की राह में बाल विवाह को बाधा के तौर पर देखती हैं। वह बाल विवाह के खिलाफ़ थीं। इनकी दलील थी कि कन्याओं का बाल विवाह होने से वे जल्दी माँ बन जाती हैं। ऐसी दशा में शिक्षा हासिल करना उनके लिए दुश्वार हो जाता है। औपनिवेशिक भारत में स्त्री शिक्षा की कई बाधाओं में से एक बाधा बाल विवाह की थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में बाल विवाह ने एक विकराल रूप धारण कर लिया था। औपनिवेशिक काल बाल विवाह की विभीषिका को सामने लाने के लिए राधाकृष्ण ने ‘दु:खिनी बाला’ (तीसरा संस्करण 1889), काशी नाथ खत्री ‘बाल विधवा संताप नाटक’ (1882) और देवकी नंदन तिवारी ने ‘कलयुगी विवाह प्रहसन’ (1892) जैसे नाटक भी लिखे गए थे। पुरोहित और पोथाधारी चार-पाँच साल के बालक बालिकाओं का विवाह करवा दिया करते थे। एक बार बाल विवाह की कंठी में बंधने के बाद न जाने कितनी बालिकाएँ शिक्षा से वंचित हो जाती थी। श्रीमती तेजवती नेहरू का स्त्री शिक्षा पर सुझाव था कि, “मेरी राय में लड़के और लड़कियों की शिक्षा शुरू में एक सी होनी चाहिए। लड़कियों की तालीम उसी तरह होनी चाहिए। जैसी लड़कों की होती है। लड़कियों के वास्ते चन्दे से स्कूल खोले जाए जिनमें पढ़ी लिखी औरतें दूसरी क़ौम की मास्टर मुकर्रर की जावें। वहां ऐसी किताबें पढ़ाई जावें जो बड़े-बडे विद्वानों की बनाई हों। जब इस तरह की शिक्षा होगी तो लड़कियों के दिलों में पढ़ने लिखने का शौक़ पैदा हो होगा। यदि लड़कियों का विवाह देर से किया जाएगा तो लड़कियों को पढ़ने लिखने का भी मौक़ा ज्यादा मिलेगा।’’                                                                                                                                                    

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में स्त्री शिक्षा की परियोजना भद्रवर्गीय समाज के लिए आशा और शंकाओं से भरी हुई थी। औपनिवेशिक भारत में जहां स्त्रियाँ शिक्षा को बड़ी आशा भरी निगाहों से देख रही थी, वही मर्दवादी बड़ी शंका से देख रहे थे। हिन्दी भाषी भद्र वर्ग की शंका थी कि स्त्रियाँ शिक्षा पा कर विद्रोह पर उतारू हो गयी तो उनका मर्दवादी किला ढाह देंगी। इस भय से औपनिवेशिक भारत में स्त्री पाठ्यक्रम डिजाइन करते समय ज्ञान-विज्ञान को तरजीह देने के बजाय धार्मिक और भद्रवर्गीय आदर्शों को काफी तरजीह दी गयी। इस कवायद ने स्त्री को बौद्धिक होने के बजाय उसे एक धार्मिक सेवा-परायण और पारंपरिक घरेलू महिला में तब्दील कर दिया. स्त्री शिक्षा की पाठ्य-पुस्तकों में स्त्री की छवि ‘पतिव्रता’ के तौर पर गढ़ी गयी। एक ऐसी पतिव्रता जो पति के सामने आँख उठा कर बात न करती हो और पति की मर्जी के बगैर कोई काम न करती हो.स्त्री शिक्षा की पाठय पुस्तकों में स्त्री का परम कर्तव्य पतिव्रता धर्म का पालन और पति के साथ वफ़ादारी करना निर्धारित किया गया। स्त्री पाठ्यक्रम की निर्मित में एक-आध किताबों को छोड़ कर अधिकतर किताबों में स्त्रियों को सती सावित्री वाले मॉडल  में ढलने का उपदेश दिया गया। पश्चिमोत्तर प्रांत के भद्रवर्गीय बुद्धिजीवियों ने स्त्रियों को यह कौल बार-बार स्मरण कराया कि तुम्हारी रोल मॉडल सती सावित्री हैं, न कि पंडिता रमा बाई और रुख्मा बाई जैसी स्त्रियां। यह बड़ी दिलचस्प बात है कि औपनिवेशिक भारत में स्त्री पाठ्यक्रम के निर्माताओं ने स्त्री पाठ्यक्रम के हवाले से एक साथ दो गोल किए। पहले गोल में उन्होंने अपनी छवि स्त्री शुभ चिंतक के तौर पर गढ़ी और दूसरे गोल में स्त्रियों को नियंत्रित करने का प्रयास किया। हिन्दी भाषी क्षेत्र में स्त्री पाठ्यक्रम निर्मितियों की यह कवायद स्त्रियों के बौद्धिक विकास के बजाय पितृसत्तावादी मूल्यों को मजबूत करती दिखायी देती है।                                                                                                                                 

[ हंस, जनवरी, 2023 में प्रकाशित] 

       


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