विनीता परमार की कहानी 'आल्टिट्यूड'
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विनीता परमार |
आमतौर पर हमारे यहां जो शिक्षा पद्धति है वह बच्चों का बहुआयामी विकास न कर एकरैखिक विकास करती है। बच्चों का एकमात्र लक्ष्य नौकरी पाना होता है। इसके लिए वे अधिकाधिक मेहनत कर बेहतर अंक या ग्रेड लाने की कोशिशों में दिन रात जुटे रहते हैं। अन्ततः वे जो चाहते हैं बन भी जाते हैं लेकिन एक सहज, सरल इंसान नहीं बन पाते जिसकी आज कहीं ज्यादा आवश्यकता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक प्रायः उन बच्चों को ही ज्यादा प्रोत्साहित करते हैं जो मेधावी या तेज तर्रार होते हैं। कमजोर बच्चों को प्रायः उपेक्षित कर दिया जाता है। ऐसे बच्चों की समस्या की तह में जाने का समय प्रायः शिक्षकों के पास नहीं होता। विनीता परमार ने अपनी कहानी 'आल्टिट्यूड' में इस समस्या के मूल में जाते हुए इसे अलग तरह से देखने की कोशिश की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विनीता परमार की कहानी 'आल्टिट्यूड'।
'आल्टिट्यूड'
विनीता परमार
(1)
हाल में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में लोगों की लंबाई बढ़ रही है और दूसरी तरफ भारत में वयस्क पुरुषों और महिलाओं की लंबाई में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई है। इस रिपोर्ट के बाद लोगों का यह विश्वास पुख्ता होते जा रहा है कि कलयुग के अंत तक आदमी की लंबाई चार इंच ही रह जाएगी। इस तथ्य के बाद भी चारों तरह एक होड़ मची हुई है; मसलन ऊँचे एवरेस्ट को छूने के लिए सैकड़ों किलोमीटर लंबी लाइन लगी हुई है, तो एक पतला-दुबला इंसान ऊँचाई से जल्दी-जल्दी दूध या चाय उछाल खबरों में ऊँचाई पाने के लिए मशक्कत कर रहा है, तो कोई सबसे ऊँचा छक्का मार कर वर्ल्ड रिकार्ड बना रहा है।
ऊँचाइयों की होड़ में पिछले नौ वर्षों से लगातार प्रार्थना सभा में अपनी कक्षा की प्रथम पंक्ति में खड़े होने वाले आदित्य के चेहरे पर मैंने कभी हँसी नहीं देखी है। वैसे वह स्कूल बहुत कम ही आता है दूज या अमावस के चाँद की तरह नहीं, आता है मुहल्ले के सप्लाई पानी की तरह। जैसे मुहल्ले में एक दिन पानी नहीं आए तो हाहाकार मच जाती है। मिस्त्री से ले कर इंजीनियर सबको फोन आने लगते हैं; वैसे ही नवीं कक्षा में आने के बाद दो दिन से ज्यादा घर पर रहने पर क्लास टीचर का कॉल जाता है लेकिन पचास बार से ज्यादा घंटी बजाने के बाद एक बार घर का कोई फोन उठा लेता है। जिस दिन उसके पिता से क्लास टीचर की बात हो जाती है वो खुद को धन्य समझती है।
क्लास टीचर उसके पिता को मोटिवेट करने में अपनी सारी ऊर्जा के साथ अपने अभिनय का श्रेष्ठतम देने की चेष्टा करती है - “आप प्लीज आदित्य को रोज़ स्कूल भेजे, अब वो नवीं कक्षा में है उस पर ध्यान देना होगा, अब तक तो पास हो गया लेकिन नाइन क्लास पास करने में दिक्कत होगी। उसके खान-पान पर भी ध्यान दीजिए। बहुत छोटा और कमजोर है, आपके बच्चे में बहुत संभावनाएँ हैं, लेकिन हमें उस पर ध्यान देना होगा। हमें आपकी सहायता चाहिए। मुझे पता है कि आप कामकाजी हैं, और बच्चे पर ध्यान देना मुश्किल हो जाता है, आपको अब इस पर सख्ती करनी होगी, वरना इसका असर उसके भविष्य पर पड़ेगा। वह भले ही अभी कम नंबर लाता है, लेकिन उसकी कोशिश और ईमानदारी कमाल की है।"
क्लास टीचर ने पिछले कुछ वर्षों में अपने अभिनय की भाषा-शैली में जबरदस्त सुधार किया है। इतनी चाशनी वाले लहजे में तो वो अपने ससुराल-मायके के किसी व्यक्ति से आज तक बात नहीं की है। लेकिन क्या करेगी? समय के साथ अपनी रोजी-रोटी को बचाने के उपाय इंसान को दोहरे चरित्र के साथ खड़ा कर देता है। हालाँकि स्वेच्छा से करने वाली यह नौकरी जाने कब आत्मरक्षा से जुड़ गई पता ही न चला। अब यह नौकरी जीवन है कि जीवन ही नौकरी हो गई इसका अंतर कर पाना बड़ा ही मुश्किल है। फिर नाइन सी को संभालने के लिए खुद का शत प्रतिशत देना होता है। और आदित्य जैसे एक-दो बच्चे क्लास में हों तो फिर प्रोफेशन के साथ शत प्रतिशत न्याय कर पाना सहज नहीं हो पाता।
किसी-किसी दिन आदित्य स्कूल आता तो सभी बच्चे प्रार्थना सभा की लाइन में खड़े हुए रहते, सावधान-विश्राम की कमांड होते रहती और वो पंक्ति में सबसे पहले बंद इंजन की भाँति आ कर खड़ा हो जाता। प्रार्थना सभा के बाद नज़र गड़ाई क्लास टीचर जब सवाल करती तो अपने माथे को सिकोड़ कर तीन-चार लकीरें उभार देता; जैसे सबसे पहली सिकोड़ी गई लकीर उसके कम वजन को बयां कर रही हो, तो दूसरी थोड़ी गाढ़ी लकीर उसके पिछली कक्षाओं के मार्क्स शीट छुपा रहे हों, तीसरी लकीर भौंहों के पास से गुजरते हुए उसकी कम लंबाई को दर्ज कर रहे हों। और चौथी लकीर के साथ एकदम से कोई न कोई बहाना बना देता है... कभी साईकिल पंक्चर होने का, तो कभी देर से उठने का तो कभी गाँव जाने का। उसकी लंबाई से दोगुनी ऊँची साईकल देख कई शिक्षक उसे टोक चुके हैं।
“तुम्हारा पैर इस साइकिल के पैडल पर पहुँच नहीं पाता है फिर तुम इसी साईकल से क्यों आते हो?
शिक्षक के इस सवाल पर उसकी आँखें उन्हीं से उत्तर खोजती, फिर धीमी सी एक आवाज़ निकलती “मैम घर में यही साईकल है।”
“तुम्हारे पापा तो डॉक्टर हैं न”
डॉक्टर हैं न?
जी मैम गाय, भैस को सुई-दवा देते हैं। हमारा खटाल भी है।
मुझे उस समय थोड़ी सी हँसी आई लेकिन मैंने खुद को नियंत्रित किया।
इस वर्ष उसकी कक्षा शिक्षक मैं ही हूँ इस नाते मुझे ही सबसे अधिक उसका ख्याल रखना पड़ता है। पिछले आठ साल से किसी शिक्षक ने उसकी जितनी ख़बर नहीं ली थी उससे ज्यादा अब एक दिन में हिसाब-किताब लिया जाता है। उससे ज्यादा वर्ग-शिक्षक होने के नाते मेरे पास दूसरे शिक्षकों से प्राप्त उसकी शिकायतों का पुलिंदा रहता है।
स्टाफ रूम में जब सारे विषय शिक्षक एक-एक कर शिकायत करते हैं, कोई कहता है मैडम आपका आदित्य अब तक कॉपी नहीं बनाया है, तो कोई कहता वह अपना होम वर्क कभी नहीं बनाता है। कोई उसकी राइटिंग को ले कर तो कोई उसके धीमेपन की तो कोई उसके अकेले-अकेले रहने की शिकायत करता। सारी शिकायतें मैं सुनते जाती कभी लगता कि बच्चा किसी विषय का होम वर्क नहीं बनाया तो क्लास टीचर क्या करेगा? कभी-कभी शिक्षक साथियों की शिकायत नश्तर सा चुभता। फिर मैं सोचती अपनी कक्षा की बच्चों की शिकायत मुझे चुभ जाती है तो सभी माँ-पिता को अपने बच्चे अच्छे ही लगते हैं वाकई घी के लड्डू टेढ़े भी भले।
आज तो हद ही हो गई, देर से आने वाले बच्चों की परेड पी टी टीचर ने प्रिन्सपल के सामने करा दी। आदित्य को उस पंक्ति में देख प्रिन्सपल भड़क गये; उस पर गुस्सा दिखाते हुए उन्होंने कहा यह लड़का नहीं सुधरेगा! आज आप लोग इसके सभी विषय की कॉपी ले कर मेरे चैम्बर में आयें।
मैं कुनमुनाते हुए क्लास में आई, खुद पर गुस्सा आ रहा है। इस बला को न निगलते बन रहा है न उगलते। मन में एक बात जरूर आई मैँ ही क्यों पिसूँ? दूसरे विषय शिक्षक भी इस बात का लोड लें। नाइन सी में अभी गणित की क्लास चल रही है। गणित शिक्षक त्रिकोणमिति पढ़ाते हुए ऊँचाई और दूरी निकालने सिखा रहे हैं। बच्चों को बार-बार बता रहे कि हमें दो या दो से अधिक वस्तुओं के बीच की दूरी या पहाड़ों और पहाड़ियों के बीच की ऊँचाई ज्ञात करने के यह जानना जरूरी है। बीच-बीच में यह बताते-बताते नहीं थक रहे कि गणित और भौतिकी का ज्ञान ही तुम्हें ऊँचाईयों पर ले जाएगा। ऊँचाई से उस प्रेम को देख बरबस ही मेरी नज़र उनकी लंबाई पर चली जाती है। साथ कार्य करने की वजह से हमने बहुत ज्यादा ध्यान ही नहीं दिया था। आज जब ग्रीन बोर्ड पर उचक-उचक कर जब लिख रहे हैं तब मैं इस बात को समझ पा रही हूँ कि अरविंद सर की लंबाई भी तो औसत पुरुषों से छोटी है। सर ने मुझे बाहर खड़ा देख लिया है और क्लास को थोड़ी देर के लिए रोकने के पहले लगभग मुझे सुनाते हुए अल्पविराम के रूप में इन पंक्तियों को कहा - "बच्चों लेकिन एक बात याद रखिएगा कि आपका दृष्टिकोण, न कि आपकी योग्यता आपकी ऊंचाई निर्धारित करेगी।”
मैं इन पंक्तियों के बीच कभी आदित्य तो कभी अरविन्द सर को देख रही हूँ। मैं अचकचाते हुए- “सर दो मिनट आपको डिस्टर्ब करूंगी। प्रिन्सपल सर ने आदित्य की सारी क्लास वर्क और होम वर्क कॉपियाँ मंगवाई है।’
सर ने हामी भरी और मैं आदित्य के डेस्क के पास पहुँची। मैंने बैग से कॉपी निकालने के लिए बोला। वो चुपचाप सुनता रहा। मैंने सख्ती की तो नथुना फुलाते हुए दो नोट कॉपी बैग से निकाल, देने लगा। मैंने हाथ में कॉपी ली तो मेरे होश उड़ गये। मैंने अरविंद सर को करीब बुलाया जब हम लोग दोनों के कॉपी पन्ने पलटने लगे तो बमुश्किल चौदह-पंद्रह पन्ने उसने लिखे थे। होम वर्क कॉपी में तो दो-चार गणित बनाये थे। अरविंद सर चिल्लाने लगे “पिछले एक महीने में मैंने इतने सारे गणित के प्रश्न हल किये उसे भी तुमने नहीं उतारा। हम दोनों प्रिन्सपल के स्वभाव से वाकिफ़ थे। इस बच्चे की कॉपी देखने के बाद स्टाफ मीटिंग निश्चित है और सारे स्टाफ के सामने सब्जेक्ट टीचर की क्लास ली जाएगी। मैं आने वाले तूफान से वाकिफ़ थी मैंने सारे बच्चों को अपनी कॉपी कम्प्लीट करने बोल दिया और परसों चेक करने का अल्टिमेटम भी। सारे बच्चों ने काम कंप्लीट करने की हामी भर दी लेकिन वो आदित्य ढीठ की तरह नथुना फुलाये जा रहा था। तुमने सारे सब्जेक्ट एक कॉपी में क्यों लिखा? दूसरी तरफ से कोई आवाज़ नहीं सर झुका कर चुपचाप खड़ा है लेकिन चेहरे पर तमतमाहट स्पष्ट दिखाई दे रही है। मैं उस पर गुस्सा रही हूँ, झुँझला रही हूँ खुद को बचाने की कोशिश के बहाने ढूंढते प्रिन्सपल चैम्बर जाने के रास्ते में हूँ। बस एक सुकून है कि नपेंगे तो सभी सब्जेक्ट टीचर। अकेले मुझे डाँट नहीं मिलेगी।
प्रिन्सपल ने कॉपी देखी और सभी टीचरों के हिस्से की लानत मुझे दे डाली। अभी मैंने खुद को आदित्य से भी छोटा महसूस किया। मेरे अंदेशे के अनुसार छुट्टी बाद स्टाफ मीटिंग अनाउंस हो चुका है। लंच टाइम में एक कॉमन कारण बताने के लिए नाइन सी के सभी विषय शिक्षक इकट्ठे हैं। कुछ सच्चाई और कुछ सच्चाई छुपाने के कारणों के साथ मीटिंग के लिए हमसब तैयार हैं। सच्चाई छुपाने के कारण हाल के दिनों में टीचरों की मज़बूरी है। कभी-कभी मैं कमरे में बंद एक फूटबॉल की भाँति खुद को समझती हूँ जैसे ही कोई कमरे में प्रवेश करता है एक लात मार कर एक दीवार पर पहुंचाता है फिर दूसरे दीवार से टकरा कर फिर उसी जगह वो गेंद आ जाती है जिसे हर कोई एक लात मार कर आजमाता है। मीटिंग हुई, लेकिन आज जो अंदेशा था उसके विपरीत हमें कई बच्चों के उदाहरण दिये गये। हमारे भीतर मरे हुए जज़्बात को जगाने की कोशिश हुई। साथ ही महीने के आखिर में सभी बच्चों की सभी विषयों की कॉपियाँ जमा करने का निर्देश भी जारी हुआ। मैंने भी अपने भीतर को आवाज़ दी और दूसरे विषय शिक्षकों के साथ अलग-अलग बातकर सुधार के उपाय खोजने लगी।
पता नहीं मुझे यह क्यों लग रहा था कि अरविंद सर मुझे आदित्य के मामले में कुछ मदद कर सकते हैं। सर की कम लंबाई या उनके विषय में आदित्य की रुचि। यह हम सभी के लिए आश्चर्य की बात है जो बच्चा हिंदी, अंग्रेजी और अन्य विषयों के मल्टीपल च्वाइस प्रश्नों के अलावा कुछ नहीं कर पाता है वह गणित के प्रश्नों को कैसे हल कर पाता है?
गणित वाले सर ने हँसते हुए कहा – “छोटे कद के गिल्ट को खत्म करने के लिए कहीं-न-कहीं तो एँडियाँ उचकानी ही होगी।”
मैंने कहा –‘मतलब वो जब गणित के सवाल कर सकता तो दूसरे विषय भी आराम से कर सकता है।’
अरविंद सर ने झिड़कते हुए कहा – “आप लोग अंग्रेजी, हिंदी, विज्ञान के इनफॉर्मेशन को याद करवाने के पीछे पड़े हैं। हम लोगों में से किसी ने इतने छोटे बच्चे के माथे की लकीरों के बारे में नहीं सोचा। जानती हैं मैडम उसका घर मेरे मुहल्ले से थोड़ी दूरी पर है। पिछले टर्म के टेस्ट के रिजल्ट के दिन मैंने उसे मंदिर के बाहर हाथ जोड़े हुए देखा। बार-बार पूछने पर उसने अपने विश के बारे में बताया।”
“हाँ सर साल भर पढ़ेंगे नहीं और रिजल्ट के समय पास होने की मन्नत मांगेंगे ये बच्चे।”
“मैडम आप नहीं समझ पा रही हैं। उस दिन जब बार-बार मैंने पूछा तब उसकी आँखों में छलछलाते आँसू मैं स्पष्ट रूप से देख पा रहा था। वो हर दिन की तरह उस दिन भी भगवान के सामने हाथ जोड़ वो अपनी लंबाई बढ़ाने की मन्नत माँग रहा था। वो कह रहा था हे भगवान जी मेरी थोड़ी लंबाई बढ़ा दो भले मैं पास करूँ या फेल करूँ। वो रोज़ मंदिर के सामने हाथ जोड़ता है, मेरी नज़र उस दिन देख पाई।”
“उसे भला कौन समझाए नौवीं पास करना ज्यादा जरूरी है कि लंबाई बढ़ना। लंबाई भी छोटी और कामना भी छोटी।”
“मैडम आपकी पहुँच से बाहर का मामला है आप या तो समझना नहीं चाहती या जानबूझ कर नहीं समझने का नाटक कर रही हैं। मैंने खुद अपनी छोटी लंबाई को झेला है मैं समझ सकता हूँ आदित्य के दलदल को।”
सर की तल्ख आवाज़ ने मुझे थोड़ी देर के लिए विस्मित किया। सर सत्रह साल के टीचिंग एक्सपीरिएन्स में यही इकलौता कमजोर बच्चा नहीं मिला है। इतना भी इगो पर क्यों लेना? पढ़ लेगा तो कुछ कर लेगा; पता नहीं इसके पापा कौन से डॉक्टर हैं कि आज तक रिपोर्ट कार्ड भी लेने नहीं आए। इसके चचेरे भाई को भेज देते हैं। कई बार समस्या को अपने हाल पर छोड़ आगे बढ़ जाना भी बात खत्म करने का तरीका होता है। मैंने भी आदित्य की समस्या को उस दिन यहीं छोड़ दिया।
(2)
पिछली पोस्टिंग के दौरान सर्दियों की एक शाम थी। बाजार की चहल-पहल के बीच मैं अपने किराने का सामान संभालते हुए घर की ओर लौट रही थीं। हल्की-हल्की ठंडक के बीच उनके मन में अतीत की कई यादें उभर आईं। अचानक मेरी नजर सामने खड़े एक युवक पर पड़ी। आत्मविश्वास से भरा उसका चेहरा कुछ जाना-पहचाना सा लगा। कुछ पल ठिठक कर देखने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि यह तो मेरा पुराना स्टूडेंट है। वही छोटा सा, घबराया हुआ लड़का, जो हमेशा अपनी ऊँचाई के कारण सबसे पीछे छुप कर बैठता था। लेकिन आज वह पूरे रौब में ताब के साथ स्पोर्ट्स शूज और टी-शर्ट में एक कार के पास खड़ा है। उसने मेरे पैर छुए और कहा –“मैडम आपने मुझे पहचाना क्या?”
मैंने लगभग हकलाते हुए कहा –“क्यों नहीं पहचानूँगी तुम प्रखर हो न छठी क्लास में मैं तुम्हारी क्लास टीचर थी।”
“थैंक्स मैम; आपको मुझ जैसा बच्चा याद है।”
“ऐसे क्यों बोल रहे हो चेहरा तो याद ही रहता है भले नाम याद आने में थोड़ी कठिनाई होती है। अच्छा चलो ठीक है फिर कभी मिलते हैं।”
“मैम बैठिए न यह मेरी गाड़ी है मैं आपको घर तक छोड़ दूँगा”
“अरे मैं ऑटो से चली जाऊँगी”
“मैम प्लीज”
मैं उसकी गाड़ी में ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठ गई। उसने मेरे सामान पीछे रख दिया।
जब वो ड्राइविंग सीट पर बैठने चला तो मैंने देखा कि उसकी सीट पर एक सोफ़े का कुशन रखा हुआ है जिस पर बैठ कर वह अपनी ऊँचाई संतुलित करने लगा।
“तुम्हें सामने देखने में कोई कठिनाई तो नहीं होगी न।”
“अरे मैडम बिल्कुल न घबराये मेरी खाली हाइट कम है, अगर रियायत होती तो मैं आर्मी का कमांडेंट होता।”
हा हा हा हा....
अरे मैम, आपको आज भी हँसी आ रही है हमारी लंबाई कम कर हमारे जैसे लोग भगवान के घर से ही मारे हुए हैं। इस एक कमी को भरने के लिए हमें क्या-क्या स्वैग रचना पड़ता है।
अब वो इमोशनल हो चुका है। जानती हैं मैम बड़ी मुश्किल से मैंने गाड़ी चलाने का काम शुरु किया है। एक बार जो दबाया गया मैं दबते चला गया। बचपन से मैंने उपस्थिति और अनुपस्थिति के फ़र्क को नीली और लाल स्याही से ही जाना। बस मुझे यह नहीं पता था कि नीली और लाल स्याही एक साथ मिलाने के बाद भी अलग-अलग की जा सकती है। हालाँकि अनुपस्थित लोगों की पहचान की स्याही कुछ ज्यादा ही गाढ़ी दिखती थी। मेरा कौतूहल अनुपस्थित लकीरों को देखने में ज्यादा ही रहा, मैं उपस्थिति की नीली स्याही को ध्यान ही नहीं देता। मैडम बचपन में उस दिन लंच के समय उस बरगद के पेड़ के नीचे खेलते समय मैंने यह देखा कि विस्तृत विशाल वृक्ष नीचे की ओर लटकती जड़ें चारों ओर छाँव और पेड़ के नीचे घास भी नदारद। फिर उसी समय भाग कर अमरूद के पेड़ को देखने गया जहाँ होड़ लगी हुई थी अमरूद की डाल ऊपर की ओर भाग रही थी तो बगल में उगा गुड़हल भी अपनी ऊँचाई बढ़ाने की कोशिश कर रहा था।
यह तब की बात है जब मैं तीसरी क्लास पास हो कर चौथी में जा चुका था। मैंने उस समय पहली बार महसूस किया कि इस लाल और नीली स्याही से बाहर भी उपस्थिति दर्ज कराई जा सकती है। हालाँकि अब वो किसी दोस्त के स्कूल के रजिस्टर में उस दिन के लिए दर्ज नहीं होने से चौंकता नहीं था। उसकी बेंच की बगल में बैठा दोस्त आज स्कूल नहीं आया फिर लाल स्याही में दर्ज वो उसे यह महसूस करवा रहा कि वो यहीं बैठा है। चौथी घंटी में उसने बैग से टिफिन निकाल ली है जिससे पराठों की खुशबू आ रही है। उसने लंच के समय भी उसकी छुअन को महसूस किया।
होने और नहीं होने के फ़र्क को मैंने दूसरी बार तब महसूस किया जब मेरी कक्षा की दोस्त चाँदनी तालाब में डूब गई। मरना शब्द को अनुभूत किया। चाँदनी नहीं लौटी। मेरे पास उसकी कोई फोटो भी नहीं थी। लेकिन आँखों पर बनी उस तस्वीर को मैं महसूस कर सकता था। मुझे हमेशा उसकी खिलखिलाहट याद आती मतलब उसकी सारी बातें मस्तिष्क के सामने से गुजरने लगती।
इन सबसे इतर उपस्थिति का भान उस दिन प्रार्थना सभा की स्टेज पर हुआ। जब मेरी कक्षा के दोस्त ने अंग्रेजी में एक स्टोरी सुनाई। पूरे स्कूल ने उसकी बात को ध्यान से सुना। उसे सारे टीचर जान गये। उसी दिन विद्यालय के प्राचार्य ने माइक से मेरे दोस्त को शाबासी दी। मेरी बगल में बैठने वाला दोस्त सेलिब्रिटी बन गया। सीनियर-जूनियर सभी उसकी बात करने लगे। मैं अब उसकी बगल में बैठने से डरने लगा। प्रार्थना सभा में उसके ठीक बगल में खड़े होने के बाद भी मैं खुद को ठिगना महसूस करने लगा। मैं अब हार्मोनियम बजाने वाली संजना, गाना गाने वाली रूपाली, तेज दौड़ने वाले संजीत, फर्स्ट आने वाली अमिता सबके चेहरे के सामने खुद के खोये हुए चेहरे ढूँढने लगा। मुझे लगता मेरी लंबाई छोटी थी अब और घट गई है।
“वो लगातार बोले जा रहा है मैं चुपचाप सुनते हुए खुद को रीलेट कर रही हूँ। अरे! तुम्हारी बातों के चक्कर में मेरे घर के पास वाली सड़क न निकल जाये।”
“आप मुझ पर भरोसा कर सकती हैं मैं अब छोटा सा दीन-हीन प्रखर नहीं हूँ। स्कूल बच्चों के लिए गोल्डन टाइम होते हैं मैंने उसे कड़वी दवाइ की तरह झेला है। मैम आपका ट्रांसफर हो गया था न। सातवीं क्लास में जाने के बाद मैं स्कूल का छोटा-मोटा डॉन हो गया था।”
“अच्छा पहले तो तुम किसी टीचर का कहा नहीं मानते थे आए दिन तुम्हारी शिकायत आती थी। मुझे वो वाकया बहुत अच्छे से याद है तुमने अपनी मैथ्स टीचर की डायरी छुपा दी थी। किसी विषय का होम वर्क नहीं करते और चिकने घड़े की तरह हमारी डाँट का कोई असर ही नहीं होता था।”
“मैम आपके जाने के बाद मैंने अपनी लंबाई का मजाक उड़ाने वाले सभी लड़कों को सीनियर लड़कों के साथ मिल कर खूब धोया था, मैंने अपनी जगह बना ली थी। टेन्थ तक आते-आते टीचर मुझे कुछ नहीं बोलते थे।”
“तुम ये सब बातें मुझसे क्यों कह रहे हो? तुमने कोई मेडल लेने वाला काम तो नहीं किया था।”
“मैडम अब इधर भी आपको कोई दिक्कत नहीं होगी सब मुझे जानते हैं। दारोगा, पुलिस से ले कर शहर के गुंडे-मवाली सब।”
मैं हँसने लगी। ठीक है कभी तुम्हारी गाड़ी की जरुरत हो सकती है।
मेरे मुहल्ले की गली आ गई है मुझे यहीं उतार दो।
नहीं मैडम, चलिए न मैं घर तक पहुँचा दूँगा।
मैंने भी मना नहीं किया मेरे मन के कोने में बैठे चोर ने कहा इसकी गाड़ी में जाऊँगी तो मुहल्ले में धौंस जमेगी।
उसके बाद उससे एक-दो बार ही मिल पाई और मेरा स्थानांतरण हो गया। कुछ दिन पहले इंस्टाग्राम पर उसके फॉलो करने का संदेश आया था।
(3)
आज जब आदित्य की बातें हो रही थीं, तो जाने क्यों मुझे हर वाक्य में कहीं न कहीं प्रखर झलकता हुआ महसूस हो रहा था। उस दिन की बहस के बाद यह मसला मेरे मन में गहराई से उतर चुका है। आदित्य अब मेरी नज़र के घेरे में है — और यह नज़र सिर्फ सतही चीज़ें नहीं देख रही, बल्कि उसकी साँसों की लय, उसके ठहरावों, उसकी आँखों की झिझक और माथे की लकीरों तक को पढ़ रही है। मैंने देखा है, वह बात-बात पर झुँझलाता है, बार-बार अपनी ही बातों को सच साबित करने की ज़िद करता है। यह सब इस उम्र की उलझनों का हिस्सा है — लेकिन कभी-कभी उसकी यह बेचैनी डराने लगती है। हर विषय के शिक्षक, ठीक मेरी ही तरह, उससे अधूरी कॉपी या उत्तर न देने पर नाराज़ होते हैं, और वह अब गुस्से का जवाब होंठों को भीतर की ओर भींच कर देने लगा है। वैसे भी, नौवीं कक्षा के हर शिक्षक के पास क्लास के अंत में कहने के लिए एक जुमला होता है — "अब तक तो जैसे-तैसे पास हो गए, लेकिन अब नहीं हो पाओगे। प्रश्न भी सीधे नहीं होंगे।"
वह जानता है कि पढ़ाई में उसकी कमज़ोरियाँ हैं, फिर भी वह लगातार खुद को साबित करने की कोशिश करता रहता है — किसी मोर्चे पर पीछे नहीं हटता।
वह हर मोर्चे पर खुद को मौजूद रख कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करता है — जैसे हर गतिविधि में वह खुद को फिर से गढ़ना चाहता हो। स्काउट में तो उसने सातवीं कक्षा में ही नाम दर्ज करवा लिया था। अब जब तृतीय सोपान टेस्टिंग कैंप के लिए नामांकन शुरू हुआ, तो सबसे पहले वही पहुँचा।
जब ग्रुप लीडर चुनने की बारी आई, तो बिना किसी तैयारी के ही खुद को आगे बढ़ा दिया — मानो यह पद उसके लिए पहले से तय हो। शिक्षक ने सख्त शर्त रखी थी — "पहले अपने पिरियोडिक टेस्ट के सभी विषयों में पास होना होगा, साथ ही स्कूल-स्तरीय लीडरशिप टेस्ट भी क्लियर करना पड़ेगा।"
उसने तुरंत कहा —"मुझे लीडरशिप आती है, सर। मैं सबको मैनेज कर लूंगा।"
उसके चेहरे पर ऐसा भाव था जैसे यह कोई औपचारिक घोषणा हो — मानो वह पहले से ही खुद को इस भूमिका में देख रहा हो।
लेकिन उसका आत्मविश्वास अगले ही दिन चकनाचूर हो गया।
वह आँखें पोंछता हुआ, काँपती आवाज़ में स्काउट सर के पास आया — "सर... सब मुझे चिढ़ा रहे हैं... बोल रहे हैं — भुट्टे ने अपनी लंबाई देखी है?... चार फुटिया नेता बनेगा?"
"सर, सब ने आज ग्राउंड में मुझे घेर लिया और मुझे चिढ़ाने लगे..."
उसके शब्दों से ज़्यादा उसकी आँखों की बेबसी बोल रही थी।
स्काउट सर उसकी आँखों की नमी और आवाज़ की काँपती हुई धुन को सुन रहे थे। उन्हें जैसे समझ आ गया हो — यह रोना सिर्फ चिढ़ाए जाने का नहीं है, यह उस आत्मविश्वास के टूटने का है जिसे वह बड़ी मुश्किल से जोड़ पाया था।
सर ने हल्के हाथों से उसके कंधे पर थपकी दी — "देखो, अभी स्कूल लेवल के कैंप में बारह दिन हैं। तुम बस अपनी तैयारी में लग जाओ। मैं देख लूँगा बाकी सबको।"
आदित्य ने धीरे से सिर हिलाया — पर उसकी आँखों में कोई आश्वासन नहीं था।
वहाँ सिर्फ एक सवाल था — क्या वाक़ई मैं कुछ कर सकता हूँ?
अगले दिन से वह जैसे थोड़ा और चुप हो गया। पर यह चुप्पी हार की नहीं थी — यह किसी भीतर के शोर से लड़ी हुई चुप्पी थी। उसकी गतिविधियाँ पहले जैसी थीं — हाजिरी सबसे पहले, सवाल सबसे पहले, हाथ उठाना सबसे पहले — पर अब उसके जवाबों में हड़बड़ाहट नहीं थी, एक ठहरी हुई ज़िद थी।
पिरियोडिक टेस्ट सिर पर थे। उसे उसकी क्लास के टॉपर के बगल में बिठाया गया — शायद एक मौका, शायद एक संयोग। उसने खुद ही बताया था — “मैम, छोटे-छोटे सवाल बन जाते हैं… लेकिन लम्बे सवालों में अटक जाता हूँ।”
वह अब भी चाह रहा था कि कोई उसे सिर्फ उसकी गलतियाँ न गिने — कोई उसकी कोशिशों को भी देखे। अभी चार दिन बाकी थे टेस्ट में, पर उसकी आँखों में वो बारह दिन ज़्यादा चमक रहे थे — जब उसे कैंप में खुद को साबित करना था। फिर एक सुबह की असेंबली के बाद खबर मिली — आदित्य को कुछ बच्चों ने घेर लिया, और जवाब में उसने भी पलटवार कर दिया… इस बार अकेले नहीं — ग्यारहवीं के दो लड़कों के साथ मिल कर। स्टाफ रूम में हड़कंप मच गया। “इतना छोटा लड़का और बड़े लड़कों से दोस्ती? मारपीट? और वो भी ग्राउंड में?”
अब ये मामला एक अनुशासनहीनता से बढ़ कर स्कूल की साख पर सवाल बन चुका था।
अभिभावकों की माँग थी — “या तो टीसी दो, या फिर पैरेंट्स को बुलाओ। ये बच्चा अब बाकी बच्चों पर असर डाल रहा है।”
मैं बार-बार उसके घर फोन कर रही थी — कोई जवाब नहीं। आदित्य खामोश था — लेकिन उसकी खामोशी में गुस्सा भी था और गिल्ट भी, शायद दोनों की उलझनें।
मैंने उसकी डायरी में एक लाइन लिख दी — "माता या पिता में से कोई कल स्कूल में उपस्थित हों।"
यह लाइन कोई आदेश नहीं थी… एक याचना थी। एक बार फिर खुद पर गुस्सा आ रहा कि अगर किसी प्राइवेट स्कूल में होती तो अभिभावकों की ऐसी हरकतों का सामना नहीं होता।
एक बार फिर उसी लड़के की वजह से मेरी पूरी बेइज़्ज़ती हो चुकी थी।
सभी लड़कों से टी. सी. फॉर्म पर हस्ताक्षर करवा कर उन्हें निजी मुचलके के तौर पर छोड़ा गया।
आज आदित्य अपनी माँ के साथ स्कूल आया था।
गाढ़े लाल रंग की देहातीनुमा साड़ी, पाँव में हवाई चप्पलें, माथे पर चटक नारंगी सिंदूर और सिर पर ढका पल्ला—वह महिला स्टाफ रूम के बाहर खड़ी थीं। मैं कभी उन्हें देखती, कभी आदित्य को। उन्हें देखते ही मेरे भीतर का सारा उबाल ठंडा पड़ गया। उनके हाव भाव, पहनावे और आँखों की झिझक से मैं उनके घर-परिवार की परिस्थितियाँ सहज ही समझ गई। मेरी शिकायतें अब मेरे भीतर ही घुलने लगीं।
"ठीक है, आप आईं, इसके लिए धन्यवाद," मैंने संयमित स्वर में कहा। "इसके पापा आते तो ज़्यादा अच्छा रहता। आप टी सी फॉर्म पर हस्ताक्षर कर दीजिए। आगे से कोई और गलती होगी तो टी सी दे दी जाएगी।"
आदित्य इस चेतावनी से सहम गया।
"मैम, छोड़ दीजिए… आगे से कोई गलती नहीं करूंगा," उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
उसकी माँ हाथ जोड़ कर खड़ी हो गईं।
"मैम, अभी टी सी मत दीजिए... अभी तो दरख़ास्त लिखवा लीजिए। इसके पापा बहुत डाँटते हैं।"
"पापा क्यों नहीं आए?" मैंने पूछा।
"उन्हें समय नहीं मिल पाता..." उनकी आवाज़ धीमी पड़ गई।
"आपका बच्चा इस क्लास के लायक नहीं है। पास नहीं कर पाएगा।"
"मैडम जी, इसको पास तो करना ही होगा। अभी तो बस थप्पड़ खाता है… अगर फेल हो गया तो इसके पापा इसको गाड़ देंगे।"
उनकी डरी हुई आँखें उनके घर की भयावह स्थिति की साफ़ तस्वीर दे रही थीं।
मैंने आदित्य की सारी शिकायतें मन के भीतर ही समेट लीं।
अब मैं उसके लिए कठोर नहीं, बल्कि रक्षात्मक हो चुकी थी।
अब मुझे उसके "डॉक्टर" पिता की बात पर फिर से शक होने लगा था।
"इसके पापा तो डॉक्टर हैं, न?"
"अरे मैडम जी, अपना खटाल है। अपने भैंस-गाय तो हैं ही, साथ में दूसरों के भी देख लेते हैं..." अब आदित्य के पास किताबें-कॉपियाँ ना होने का कारण, ऊँची साइकल से स्कूल आना, और उसका गाली-गलौज—इन सबका सिलसिला समझ आने लगा था। मैं बदल गई थी। मैंने उसकी शिकायतों को खुद के पास रख उसकी माँ को विदा दिया। अब मेरे पास उसके घर कॉल करने का कोई कारण नहीं है ना ही मैं उसकी शिकायतें स्टाफ रूम में कर सकती हूँ। इस बीच पी टी टेस्ट हुए तो मैथ्स और हिंदी छोड़ वह सभी विषय में फेल है। मेरी कोशिशें नाकाम रहीं। इतना होने के बाद भी उसके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उसकी अकड़ और तेज हो गई है। अब तो वो अपने पापा और बाहरी दोस्तों की धौंस जमाता रहता है।
स्काउट सर ने खराब रिजल्ट के बाद भी स्कूल के स्तर पर उसे मौका दे दिया है। कई बार हार निश्चित जान कर पर कुछ दाँव चलने होते हैं। अब वो दो दिन के कैंप का लीडर है। लीडर बनने के बाद भी उसके सर की लकीरें ज्यों-कि-त्यों हैं। लेकिन उसका स्काउट यूनिफॉर्म प्रेस किया हुआ है। ठिगना सा आदित्य कमांड देता हुआ छोटे नेपोलियन की तरह दीख रहा है। लंबे बच्चों के बीच छोटे खिलौने की तरह कमांड दे रहा है।
अब असली गतिविधियाँ शुरू हुईं — टेंट बाँधना, दिशा पहचानना, टीम में काम करना आदि— लेकिन इन जगहों पर चुप और कन्फ्यूज आदित्य दिख रहा है। दूसरी तरफ अपनी गलतियों को दूसरे पर थोपने की कोशिश भी गई। अपनी कॉपी पूरी नहीं करने वाले आदित्य ने यहाँ भी अपनी फाइल नहीं पूरी की थी बात में किसी लड़के पर धौंस जमा कर कॉपी लिखवा ली थी।
हालाँकि उसकी गतिविधियों के आधार पर उसे लीडर नहीं रखा गया यहाँ तक कि अगले स्तर के लिए उसका चयन भी नहीं हुआ। वह घबराया नहीं है। उसके सर की रेखाएं गाढ़ी हो चली हैं वह एक रंगकर्मी की भाँति खुद को विभिन्न गतिविधियों में शामिल कर अपनी ऊँचाई बढ़ाना चाह रहा है।
अगले हफ़्ते क्लास नाइन सी की असेंबली ड्यूटी है वह फिर मेरे पास हाजिर है मैम मैं प्लेज बोलूँगा। बेटा तुम नहीं बोल पाओगे। मैम एक बार चांस तो दीजिए। मैंने उसे मौका दे दिया एक-दो बार उससे बुलवा कर देख भी लिया। आज मेरी क्लास असेंबली कर रही है जब प्लेज की बारी आई तो उसने पूरे आत्मविश्वास से प्लेज बोलना शुरू किया — "भारत हमारा देश है, हम सब भारतवासी भाई-बहन हैं..." लेकिन कुछ ही वाक्यों बाद वह अटकने लगा। उसकी आवाज़ लड़खड़ा गई। शब्द बिखरने लगे। जब वह नीचे उतरा, तो चेहरा लाल था — लेकिन आँखें ज़रा भी नम नहीं थीं। वो बिल्कुल ढीठ की तरह खड़ा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वो तो दूसरे बच्चों ने संभाल दिया नहीं तो मेरी भद्द पीट जाती।
उस दिन मैंने पहली बार महसूस किया — वह सिर्फ मंच पर नहीं चढ़ रहा था, वह खुद को ऊँचा देखना चाहता था... ताकि कोई उसकी 'ऊँचाई नापने' या नाटा कहने की हिम्मत न करे।
मुझे लगा — यह केवल व्यवहार नहीं था, यह एक ढाल थी। एक कवच, जिसे पहन कर वह अपने आत्म-संदेह से लड़ता था। ..अब मैं उसे सुधारने नहीं, समझने लगी हूँ।
मैंने अगले हफ़्ते हाउस ड्यूटी दी है। मैंने देखा वह बार-बार मंच पर चढ़ता है, जैसे हर बार कुछ पीछे छूट जाता है और वह उसे छूने की कोशिश करता है। जैसे वह खुद को ऊँचाई से देखना चाहता है — वहाँ से, जहाँ से लोग उसे नहीं, उसकी कोशिशों को देखें। हर असफलता के बाद वह और तन कर खड़ा हो जाता है, जैसे हार उसके लिए एक अलार्म हो, जो कहता है — अभी नहीं रुका तो ही बचेगा। उसकी कमान्ड में अब भी हिचक होती है, पर आँखों में हिचक नहीं। वहाँ सिर्फ एक ज़िद दिखती है — मुझे हटाओ मत, मुझे देखो, मुझे सुनो, मुझे समझो। जब वह प्लेज में अटकता है, तो शब्द नहीं अटकते, अटकती है वह आवाज़ जो बचपन से सुनाई जाती रही —
"तू क्या कर लेगा?"
"तेरे बस का कुछ नहीं।"
"चार फुट का नेता!"
वह मेरे भीतर उतर गया है। अब हर सुबह जब मैं स्कूल जाती हूँ, मैं आदित्य की ऊँचाई नहीं देखती — उसकी उड़ान देखती हूँ।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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ई मेल : vineetaprmr@gmail.com
उम्दा। बड़े दिनों बाद कोई अच्छी कहानी पढ़ी। बाल मनोविज्ञान और 'सोशल फोबिया' को बतौर शिक्षक अच्छी तरह से समझा गया है। उपमाओं और मुहावरों का प्रयोग भी कहन के ढंग को सशक्त बनाता है। देश मे या कहें, दुनिया मे सबसे अधिक लोग शिक्षक ही हैं यदि वे इस तरह से एक एक विद्यार्थी को देख सकते तो बात ही क्या होती। हालांकि भारत मे खासतौर से सरकारी विद्यालयों में उनकी अपनी सीमाएं हैं। इस तरह की कहानियों को और लिखा जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंकहानी में कहीं कहीं ऐसा लगता है, जरा विवरण कम होते तो और भी कॉम्पेक्ट होती कहानी। 'प्रखर' का जिक्र आता है तो फ्लो टूटता है कुछ पर जल्द ही पठन की गति अपनी लय में आ जाती है। बढ़िया कहानी के लिए विनीता जी को बधाई।
- पीयूष कुमार
शुक्रिया आपका
हटाएंकहानी आल्टिट्यूड “आदित्य” पर!
जवाब देंहटाएं--------------------------------
ये कहानी "आदित्य" वाली मेरे दिल को छू गई। वह केवल एक छात्र की कहानी नहीं थी, बल्कि आत्म-सम्मान, संघर्ष और संवेदना की गहराई को छूने वाली यात्रा थी। खासकर यह पंक्तियाँ — "अब मैं उसे सुधारने नहीं, समझने लगी हूँ। वह मेरे भीतर उतर गया है। अब हर सुबह जब मैं स्कूल जाती हूँ, मैं आदित्य की ऊँचाई नहीं देखती — उसकी उड़ान देखती हूँ।" — बेहद प्रभावशाली लगीं।
यह पंक्तियाँ इस बात को दर्शाती हैं कि जब एक शिक्षक समझने लगता है, तब एक विद्यार्थी सच में उड़ान भरने लगता है।
आदित्य का संघर्ष, उसका आत्मविश्वास, और समाज की तंज भरी निगाहों से लड़ना — सब कुछ बहुत सजीव रूप से सामने आया। इस कहानी ने मुझे यह सिखाया कि हर बच्चा केवल सुधार का नहीं, समझ का भी हकदार होता है। एक शिक्षक की नज़र केवल नंबरों से नहीं, नज़रिए से फर्क डाल सकती है। कहानी पढ़कर ऐसा लगा जैसे वह मेरे आसपास ही घट रही हो!
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शुक्रिया😍😍
हटाएंहमेशा की तरह एक और बेहतरीन पेशकश। उम्दा प्रस्तुति।एक शिक्षिका होने के नाते मैने ना सिर्फ़ इससे रिलेट किया बल्कि बहुत कुछ सीखा भी।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंशानदार कहानी है। एक उम्र बाद बच्चे फिर चाहे वो लड़का हो या लड़की अपनी लंबाई, और वजन को लेकर बहुत गंभीर हो जाते हैं । थोड़ी सी कमी उनको हीनभावना से ग्रस्त कर देती है और इस हीन-भावना से उबरने के लिए वे कुछ भी ग़लत तरीके अपना कर अपना कद (शारीरिक नहीं) बढ़ाना चाहते हैं। बेहतरीन विषय है विनीता। बधाई
जवाब देंहटाएंशुक्रिया😍😍
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