हेमन्त शर्मा का आलेख 'गुड फ़्राइडे और ईस्टर का संदेश'
'गुड फ़्राइडे और ईस्टर का संदेश'
हेमन्त शर्मा
वारों में वार शुक्रवार भी बड़ा करतबी दिन है. पूरी तरह सेकुलर है. चौतरफ़ा गुड है. हमारे यहाँ संतोषी माता का दिन है. तो इस्लाम में पवित्र जुम्मा. क्रिश्चियानिटी में भी जो फ़्राइडे शोक का दिन होना चाहिए उसे गुड फ़्राइडे कहते हैं. इसी रोज़ ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था. धर्मगुरुओं के दबाव में रोमन शासकों ने उन्हें सूली पर टाँग दिया क्योंकि वो सच बोल रहे थे. उस वक़्त पश्चिम में सच को सूली और झूठ को सिंहासन मिलता था. सुकरात के साथ भी यही हुआ. गेलेलियो को मौत की सज़ा भी सच के चलते मिली.
हमारे यहॉं गुड फ्राइडे को ले कर भ्रम बहुत है. यह शोक है या गुड. हमारी सहयोगी पिंकी तो कल किसी को बधाई देने जा रही थी. मैनें उन्हें रोका. कहा यह दुख का विषय है. इस रोज तो ईसा को क्रूसीफाई किया गया था. वह बोली अगर गुड फ्राइडे उत्सव का दिन नहीं है, तो फिर इसे “गुड” क्यों कहा जाता है. मैंने कहा ‘क्योंकि ईसाई लोग क्रूस पर चढ़ने को मानवता के उद्धार के लिए बलिदान के रूप में देखते हैं.’ आज के दिन ही जीसस को क्रॉस पर लटका कर उनके हाथ-पैरों में कीलें ठोंक दी गईं. लटकाने से पहले उन्हें कोड़े मारे गए. सूली पर चढ़ाए जाने के तीसरे दिन ईसा फिर से जीवित हो गए. यही घटना उन्हें ईश्वरत्व प्रदान करती है. उनके पुनर्जन्म का दिन ईस्टर संडे था. इसलिए गुड फ़्राइडे शोक का दिन है और ईस्टर ख़ुशी का दिन.
ईसा मसीह को जिस जगह पर सूली चढ़ाया गया था उस स्थान को गोलगोथा नाम से जाना जाता है. यह जगह इसराइल की राजधानी यरुशलम में ईसाई क्षेत्र में है. इजरायल के क़ब्ज़े वाली यह जगह दुनिया की इकलौती बसावट है जिसे तीन-तीन धर्मों के लोग अपना पवित्र धर्मस्थल मानते हैं. यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों इसे अपना मानते हैं. इस पूरे इलाक़े को टेम्पल माउण्ट कहते हैं. इसी को इस्लाम में हरम-अल-शरीफ़ (Noble Sanctuary) कहते हैं. यहूदी इसे हर-हबेयत कहते हैं. लगभग सौ एकड़ का ये वो इलाक़ा है, जहाँ आस्थाओं की जंग का सिलसिला पिछले ढाई हज़ार साल से जारी है.
इस पूरी जगह को ही ‘हिल ऑफ़ द केलवेरी’ भी कहा जाता है. इस स्थान पर ‘चर्च ऑफ़ फ़्लेज़िलेशन’ है. चर्च ऑफ़ फ़्लेज़िलेशन वो स्थान है, जहाँ जीसस क्राइस्ट को सूली पर लटकाने से पहले पीटा गया था, इसे ऑटोमन साम्राज्य के दौरान क्रूसेडर ने बनवाया, होली स्कल्प्चर से चर्च ऑफ़ फ़्लेज़िलेशन तक के मार्ग को दुख या पीड़ा का मार्ग माना जाता है. इस रास्ते में नौ और ऐतिहासिक और पवित्र स्थल हैं.
987 ईसा पूर्व में डेविड के बेटे सोलोमन (मुसलमान के पैग़म्बर सुलेमान) ने यहाँ पहला पूजा स्थल बनाया. यहूदियों की मान्यता के मुताबिक़, इस मंदिर को 587 ईसा पूर्व में बेबिलोनियनों ने ध्वस्त किया था. 516 ईसा पूर्व में इस जगह पर दूसरा पूजा स्थल बना. इसकी नींव जोरूबाबेल ने 516 ईसा पूर्व में रखी, हालाँकि इसे पूरा कराया किंग हेरोड ने, ये सदियों तक यहूदियों का सबसे पवित्र धर्मस्थल माना जाता रहा. 70 AD में रोमन साम्राज्य से यहूदियों ने बग़ावत शुरू की, जिसके बाद रोमनों ने इसे ध्वस्त किया. इसे ध्वस्त करने वाले रोमन जनरल टाइटस के बारे में कहा जाता है कि वो कभी यहूदी था औऱ बाद में ईसाई धर्म अपना कर वह यहूदियों का कट्टर दुश्मन हो गया. टाइटस ने ही इस पवित्र भूखण्ड की पश्चिमी दीवार को छोड़ दिया. जिसे आज वेलिंग वॉल कहते है. अब यहूदी यहाँ तीसरे मंदिर की परिकल्पना करते हैं.
इसी जगह पर मौजूद गोल्डन गुम्बद वाली इमारत को ‘डोम ऑफ़ रॉक’ कहा जाता है. मानते हैं कि इसी जगह पर अब्राहम ने अपने बेटे को अल्लाह को अर्पित किया था. और यहीं से पैग़म्बर मुहम्मद ने 621 ई. में बुराक (स्पेशल घोड़ा) से एक रात के लिए स्वर्ग का सफ़र शुरू किया था. इसके ठीक सामने मस्जिद-ए-क़िबलिया है. पैगम्बर मोहम्मद अपने अनुयायियों को काफ़ी समय तक नमाज़ इसी ओर रुख़ करके पढ़ाते थे. बाद में उन्होंने नमाज़ में रुख़ मक्का की ओर मोड़ दिया था. मुसलमान जिस ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ते हैं उसे क़िबला कहते हैं. शायद इसलिए उसे मस्जिद-ए-क़िबलिया भी कहा जाता है. यही मस्जिद-अल-अक़्सा कही जाती है. जिसे मौजूदा स्वरूप में पहले ग़ैर राशिदून ख़लीफ़ा मुआविया ने बनवाया था. जो उमय्यद वंश के संस्थापक भी थे. इस कंपाउंड के पश्चिमी हिस्से की दीवार को Western Wall या Wailing Wall कहा जाता है. ये किंग हेरोड के बनाए दूसरे मंदिर का वो अवशेष है जिन्हें रोमनों ने 70 ईसवी में गिराते वक़्त इसलिए छोड़ दिया था, ताकि भविष्य में यहूदी इसे देख कर याद रखें कि बग़ावत की यही सज़ा होती है.
ईसा को सूली (क्रूस) पर चढ़ाने की घटना 33 ईसवी की है. हालाँकि कुछ विद्वानों का मानना है कि यह 30 ईसवी में हुआ था. अपनी किताब ‘द फ़ाइनल डेज़ ऑफ़ जीसस: द मोस्ट इम्पॉर्टेन्ट वीक ऑफ़ द मोस्ट इम्पॉर्टेन्ट पर्सन हू एवर लिव्ड’ में, एंड्रियास कोस्टनबर्गर और जस्टिन टेलर ने तर्क दिया है कि पहले गुड फ़्राइडे की सही तारीख़ शुक्रवार, 3 अप्रैल थी और पहला ईस्टर 5 अप्रैल, 33 ईसवी को ही था.
ईसा को सूली देने की वजह थी ईसा की बढ़ती लोकप्रियता, यहूदियों में उनकी नबूबत का दावा, रोमनों को यहूदियों के बग़ावत की आशंका और चर्च को इस देवदूत से ख़तरा. यानी अलग-अलग कारणों से एक वक़्त यहूदी और रोमन दोनों ईसा के ख़िलाफ़ हो गए थे. ईसा मसीह के समर्थक उनके नबूवत का दावा कर रहे थे. नबूवत यानी ख़ुद के पैग़म्बर होने की बात करना. जिसके चलते यहूदियों में रोष फैल गया था. उस दौरान नबूवत का दावा करने वाले और भी कई लोग थे. नबूवत का दावा करना यानी नबी, ईशदूत, प्रॉफ़ेट या पैग़म्बर होने की घोषणा करना होता है. यहूदियों के कट्टरपंथियों को ईसा मसीह द्वारा ख़ुद को ईश्वर पुत्र बताना अच्छा नहीं लगा. उधर, रोमनों को यहूदी क्रांति का डर पहले से सता रहा था. रोमन डरते थे कि ईसा में शाही रोम के ख़िलाफ़ गुरिल्ला विद्रोह का नेतृत्व करने की करिश्माई क्षमता है. रोमनों ने यहूदी राज्य पर अपना शासन स्थापित कर रखा था. इसी कारण रोमनों के गवर्नर पितालुस ने यहूदियों की यह माँग स्वीकार कर ली कि ईसा को क्रूस पर लटका दिया जाए.
ख़ास बात यह थी कि जीसस को भी यह सज़ा उनके एक क़रीबी के विश्वासघात से मिली. विश्वासघातियों से दुनिया कभी ख़ाली नहीं रही. उनकी भी अपनी एक परम्परा है. उनका भी एक सम्प्रदाय है. चाहे हमारे यहाँ विभीषण हों, इस्लाम में अबू सूफ़ियान इब्न हर्ब हों या क्रिश्चियानिटी में हरामी जूडस. जीसस को धोखे से पकड़वाने और सूली पर चढ़वाने वाला यही जूडस था. जूडस ईसा के सबसे क़रीबी 12 शिष्यों में से एक था. बड़ा हरामी और लालची. जूडस को यहूदा इस्करियोती (Judas Iscariot) भी कहा जाता है. जूडस का उल्लेख 'गॉस्पेल ऑफ़ जॉन' और 'एक्ट ऑफ़ अपजोल्स' में मिलता है. जूडस ने धर्म अधिकारियों (चर्च अथॉरिटी) के कहने पर यीशु को धोखा दिया था. उसने ईसा को धोखे से दुश्मनों से गिरफ़्तार करवाया. और रोमन शासकों ने चर्च के प्रभाव में उन्हें सूली पर लटका दिया.
गिरफ़्तारी के बाद सैन्हेड्रिन द्वारा उन पर मुक़दमा चलाया गया. फिर पोंटियस पिलातुस ने उन्हें कोड़े मारने की सज़ा सुनाई, और अन्त में रोमनों द्वारा उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया. सूली पर चढ़ाने से पहले ईसा के कपड़े उतारे गए और उन्हें लोहबान या पित्त (संभवतः पोस्का) के साथ मिला हुआ सिरका पीने के लिए दिया गया. गोलगोथा में उन्हें दो दोषी चोरों के बीच लटका दिया गया. सुबह के तीसरे घंटे (सुबह 9 बजे) में उन्हें सूली पर चढ़ाया गया और दिन के नौवें घंटे (लगभग 3:00 बजे) तक वे लटके रहे. यहूदियों को लगा कि वे मर गए. इसे जाँचने के लिए एक सैनिक (बाइबिल के बाहर की परम्परा में लॉन्गिनस के रूप में नामित) ने उनके बाज़ू में भाला चुभोया. जिससे उनके घाव से ख़ून और पानी बहने लगा.
रोमन साम्राज्य में सूली पर लटकाने का एक नियम था. इस नियम के मुताबिक़, सूली पर लटकाने से पहले दो सैनिक उस शख़्स की एक विशेष कोड़े से पिटाई करते थे, जिसका सिरा काँटेदार होता था, जिस शख़्स को पीटा जाता था, उसे एक खम्बे से उल्टा बाँधा जाता था, और फिर उसके पिछले हिस्से पर दो सैनिक बारी-बारी से कोड़ा बरसाते थे। ऐसा इसलिए किया जाता था, ताकि जब वो सूली पर लटकाए जाने के लिए सड़क के रास्ते ले जाया जाए तो तेज़ी से न चल सके और लोग उस पर लानत बरसाएँ. जब व्यक्ति को ले जाया जाता था तो एक सैनिक उसके साथ एक पट्टिका लेकर चलता था. जिस पर उस व्यक्ति के गुनाह लिखे होते थे. जिसे जगह-जगह पढ़ा जाता था. पिटाई के बाद मुजरिम के दोनों हाथों को 180 डिग्री में सीधा करके उसी लकड़ी के खम्बे से बाँध दिया जाता था, जिसपर उसे लटकाना होता था. इस खम्बे को लिए हुए वो शख़्स उस जगह तक जाता था जहाँ सूली का खड़ा हिस्सा पहले से लगा होता था, जिसमें उसे लटकाया जाता था.
पर जीसस के मामले में कहानी थोड़ी अलग है. कहा जाता है कि जीसस उस पिटाई से इतने कमज़ोर हो गए कि वो उस लकड़ी के टुकड़े को उठाने के लायक ही नहीं रहे. जिसके बाद उस जगह पर मौजूद सीमोन नाम के एक शख़्स को वो लक़ड़ी का टुकड़ा दिया गया, जो उसे लेकर केलवेरी हिल तक गया जहाँ जीसस को सूली पर लटकाया गया.
क्रूस पर लटकाए जाने के कुछ ही घंटे बाद उन्हें उतार लिया गया. जबकि सामान्यतः सूली पर चढ़ाये गए अपराधी कई-कई दिन टंगे हुए यंत्रणा भोगते थे. जीसस को शुक्रवार के दिन सूली दी गई थी. शुक्रवार के बाद तीन दिन तक यहूदी कोई काम नहीं करते. इसलिए पॉन्टियस पायलट ने शुक्रवार का दिन चुना. और जीसस को सूली देने में जितना विलम्ब किया जा सकता था, उतना विलम्ब किया गया. शनिवार यहूदियों के लिए अच्छा दिन होता है. सब काम बन्द होते हैं, इसीलिए शुक्रवार का दिन चुना गया था. और वह भी दोपहर बाद का जब सूर्य अस्त होने वाला था। सूर्य अस्त होने के बाद शरीर नीचे उतार लिया गया. अगर शनिवार को भी वह लटकता रहे तो वह भी एक प्रकार का काम हो जाएगा और शनिवार को यहूदियों की छुट्टी होती है. राजनीति में ऐसे ही काम होता है, धर्म में नहीं. रात को जीसस के एक अमीर अनुयायी ने जीसस के शरीर को उस गुफा से बाहर निकाल लिया जहाँ सूली से उतारने के बाद उन्हें रखा गया था. रविवार छुटटी का दिन था. यहूदियों का सूली देने का ढंग ऐसा था कि इसमें किसी भी व्यक्ति को मरने में 48 घंटे का समय लगता है. क्योंकि जिस व्यक्ति को सूली दी जाती है, उसे वे गरदन से नहीं लटकाते थे. व्यक्ति के हाथों व पैरों पर कीलें ठोंक दी जाती थीं, जिस कारण बूँद-बूँद कर ख़ून टपकता रहता था. इस प्रकार एक स्वस्थ व्यक्ति को मरने में कोई 48 घंटे लगते थे. उस वक़्त जीसस की आयु मात्र 33 वर्ष थी. पूर्णतया स्वस्थ. वे छह घंटों में नहीं मर सकते थे. कभी कोई छह घंटों में नहीं मरा. लेकिन जब शुक्रवार का सूरज डूबने लगा. तब उनके शरीर को नीचे उतारा गया. उन्हें एक गुफा में रखा गया, जहाँ से उनके समर्थकों ने उनके देह को चुरा लिया और वह बच निकले.
जिस वक़्त यरुशलम में ईसा का उदय होता है, यरुशलम अराजकता से घिरा था. इसी समय ईसा का उन बारह शिष्यों से एक-एक कर जुड़ाव हुआ, जिन्होंने अपने प्राण देकर ईसा के विचारों को धरती के कोने-कोने तक पहुँचाया. इन बारह लोगों और जीसस का ज़िक्र उस व्यक्ति के बिना अधूरा है, जिसने उनसे लगभग 1500 साल बाद जन्म लिया. जिसे हम 'लियोनार्डो द विंची' के नाम से जानते हैं. दुनिया के सबसे जीवन्त भित्ति चित्रों में से एक "द लास्ट सपर" को रचने वाला अद्भुत, विलक्षण, अकल्पनीय, जादुई, सम्मोहक, रहस्यमय और अतुलनीय शख़्स, जिसके हस्तलिखित व्यक्तिगत काग़ज़ों को अभी कुछ समय पहले बिल गेट्स ने तीन करोड़ डॉलर देकर ख़रीदा.
मशहूर चित्रकार लियोनार्डो द विंची पैदा तो हुए वेनिस में, पर रहते मिलान में थे. अपनी मशहूर कलाकृति ‘मोनालिसा’ के कारण वे सौन्दर्य और कला की दुनिया में जाने गए. इसके अलावा वेटिकन सिटी का सेंट बेसिलिका जहाँ पोप आज भी रहते हैं, उसकी दीवारें भी उनकी कला की गवाह हैं. ‘मोनालिसा’ के बाद, उनकी दूसरी सबसे मशहूर पेंटिंग ‘द लास्ट सपर’ (अन्तिम भोजन) है. मिलान की सेंट मारिया चर्च की दीवार पर यह आज भी मौजूद है. मैं मिलान इसी पेंटिंग को देखने गया था. यहॉं फोटो खींचने की मनाही थी पर मैं खींच लाया.’द लास्ट सपर’ में सूली पर चढ़ने से पहले जीसस क्राइस्ट का अपने शिष्यों के साथ आख़िरी भोजन का वर्णन है. जिससे निकलकर दुष्ट जूडस ने उनकी मुख़बिरी की. इसके बाद ही वो सूली पर चढ़ाए गए. यह पेंटिंग 1498 की है. संत मारिया म्यूज़ियम की दीवार पर बनी इस पेंटिंग को देख कर लगेगा कि यह बोल उठेगी. जबकि दो विश्वयुद्ध में इस म्यूज़ियम और चर्च की इमारत नष्ट हो चुकी थी पर पेंटिंग को बचा लिया गया. यह भी दैवी चमत्कार ही था कि पूरी इमारत ढह गयी पर पेंटिंग वाली दीवार खड़ी रही. यह पेंटिंग 9 गुणे 4 मीटर की है. लास्ट सपर में ईसा को लेकर कुल तेरह लोग हैं. जो जीसस का अन्तिम भोजन था. इसलिए पश्चिम और ईसाइयत में तेरह का अंक अशुभ मानते हैं. होटलों में तेरहवाँ तल नहीं होता. तेरह नम्बर के कमरे नहीं होते. तेरह की गिनती उनके अंकशास्त्र से ग़ायब दिखती है.
‘लास्ट सपर’ में जीसस अपने बारह शिष्यों के साथ उस अन्तिम भोज में हैं जब उन्होंने घोषणा की- "तुममें से एक मेरे साथ धोखा करेगा”. पीटर के ये कहने पर कि मैं मृत्यु तक आपका साथ दूँगा, जीसस मुस्कुराते हैं- "तुम सुबह मुर्ग़े के बांग देने से पहले तीन बार मुझे पहचानने से भी इंकार करोगे. और ठीक यही हुआ. पर धोखा देने वाला शख़्स सायमन पीटर नहीं बल्कि जूडस था. जिसने चाँदी के तीस 'शेकेल' के बदले अपने गुरु को बेच दिया. ‘द लास्ट सपर’ पेंटिंग को बनाने में विंची को लगभग 4 साल लगे, पर इस अवधि का सबसे बड़ा हिस्सा उसे पेंटिंग के तेरह में से एक शख़्स का चेहरा बनाने में लगा. वो था जूडस. इस देरी की शिकायत ड्यूक तक पहुँची कि महीनों हो गए, चित्र अधूरा है और विंची चित्र बनाने के नाम पर "पैड़" (जिसे राजमिस्त्री दीवार चिनते समय बाँस-बल्ली से बनाते हैं) पर चढ़ा तक नहीं है, वो बस पूरा दिन बाज़ार में घूमता रहता है. विंची को दरबार में बुलाया गया. उसने उदासीनता से उत्तर दिया- "मैं रोज़ चित्र बनाता हूँ.” इस झूठ पर ड्यूक भी तिलमिला गया क्योंकि सब जानते थे, विंची ने महीनों से चित्र को छुआ तक नहीं. विंची ने जवाब दिया- "मैं महीनों से रोज़ बाज़ार में खड़ा होकर लोगों के चेहरे की बनावट देखता रहता हूँ और उस चेहरे की तलाश करता हूँ जो ठीक जूडस जैसा धूर्त, मक्कार और ग़द्दार नज़र आता हो, कोई सटीक चेहरा मिल नहीं रहा है. लेकिन अगर आपको ज़्यादा जल्दी हो तो मैं आपका चेहरा जूडस के चेहरे की जगह लगा दूँ?" कहते हैं उसके बाद कभी ड्यूक ने विंची से ये नहीं पूछा कि इतना समय क्यों लग रहा है. ‘द लास्ट सपर’ में आप जूडस को बिना बताए साफ़ पहचान सकते हैं. पूरे चित्र में वह अकेला शख़्स है जिसका चेहरा ही उसके जूडस होने की गवाही दे रहा है. रही-सही कसर उसकी कोहनी के पास बिखरी नमक की शीशी पूरी कर देती है. जो उसकी नमकहरामी का बिखरा दस्तावेज़ नज़र आती है.
जूडस का नाम अक़्सर विश्वासघात या देशद्रोह के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता है. इतालवी लेखक दांते एलघिएरी की नरक कथा के अनुसार, नरक में जूडस को नरक के सबसे निचले घेरे में पाया जाता है, जो ग़द्दारों के लिए आरक्षित है. जूडस को सबसे बड़ा ग़द्दार क़रार दिया जाता है, और उसे सबसे बड़ी यातना भुगतने के लिए अभिशप्त किया जाता है. यहूदा को शैतान के तीन मुँहों के बीच में सिर के बल ठूँस दिया जाता है, और उसे अनन्त काल तक शैतान द्वारा चबाए जाने की सज़ा दी जाती है (यदि आप रुचि रखते हैं, तो शैतान के अन्य दो मुँह ब्रूटस और कैसियस को चबा रहे हैं, जो जूलियस सीज़र के हत्यारे हैं).
गॉस्पेल के मुताबिक़, उस रात यीशु ने भोजन के दौरान कहा था कि उनके 12 शिष्यों में से कोई एक विश्वासघाती निकलेगा. ये सुनते ही सभी शिष्यों में खलबली मच गई और वे प्रभु यीशु से उस धोखेबाज़ शिष्य का नाम पूछने लगे. हालाँकि, जीसस ने शिष्यों के इस सवाल का जवाब इशारों में दिया. यीशु ने हाथ में ब्रेड का एक टुकड़ा लेकर कहा कि मैं जिस भी शिष्य को ये टुकड़ा दूँगा, वही मेरे साथ ग़द्दारी करेगा.' इसके बाद जीसस ने ब्रेड का टुकड़ा उठाया और उसे करी में डुबोकर जूडस के हाथों में सौंप दिया. ब्रेड का टुकड़ा हाथ में आते ही जूडस का शैतानी रूप बाहर आ गया।
जूडस फ़ौरन वहाँ से भाग कर धर्म अधिकारियों के पास गया और उन्हें चाँदी के 30 टुकड़ों के बदले प्रभु यीशु का पता बताने के लिए राज़ी हो गया। यीशु जानते थे कि जूडस ऐसा करने वाला है, लेकिन उन्होंने उसे ऐसा करने से रोका तक नहीं। जूडस ने तमाम सैनिकों को ले कर किदरोन घाटी पार की और गेथसीमेन के बगीचे की तरफ चल पड़ा। इस भीड़ के पास हथियारों के अलावा दीपक और मशालें भी थी। उन्होंने ठान लिया था कि वे यीशु को ढूँढ़ कर ही रहेंगे। यीशु अक़्सर बैतनियाह से यरुशलेम और यरुशलेम से बैतनियाह जाया करते थे और रास्ते में गतसमनी बाग़ में थोड़ी देर रुक कर आराम करते थे. यहूदा जानता है कि यीशु ज़रूर यहीं होंगे। लेकिन सैनिक यीशु को पहचानेंगे कैसे? उन्होंने शायद यीशु को पहले कभी नहीं देखा था। ऊपर से यह रात का वक़्त है और यीशु इस बाग़ में जैतून के पेड़ों के बीच में कहीं होंगे, इसलिए यहूदा उन्हें यीशु को पहचानने की एक निशानी बताता है : “जिसे मैं चूमूँगा, वही ईसा होंगे और तुम उन्हें गिरफ़्तार कर लेना। बगीचे में प्रभु यीशु आराम कर रहे थे। जूडस ने प्रभु यीशु को चूमकर उनकी पहचान बताई।
इस ऐतिहासिक घटना को 'किस ऑफ़ जूडस' के नाम से जाना जाता है। जूडस सीधे यीशु के पास जा कर कहता है, “नमस्कार, रब्बी!” फिर वह यीशु को प्यार से चूमता है। यीशु उससे कहते है, “तू यहाँ किस इरादे से आया है?” फिर यीशु ख़ुद अपने सवाल का जवाब देते है, “यहूदा, क्या तू इंसान के बेटे को चूम कर उसे पकड़वा रहा है?” फिर यीशु लोगों की भीड़ से कहते है, “तुम किसे ढूँढ़ रहे हो?” वे कहते हैं, “यीशु नासरी को।” यीशु बिना डरे कहते है, “मैं वही हूँ।” उन्हें समझ में नहीं आता कि यह क्या हो रहा है। यीशु चाहते तो मौक़ा देख कर भाग सकते थे। क्योंकि रात के अँधेरे में कोई उन्हें पकड़ नहीं पाता। मगर यीशु ऐसा नहीं करते बल्कि उनसे फिर पूछते है कि वे किसे ढूँढ़ रहे हैं। वे कहते हैं, “यीशु नासरी को। तब वे दोबारा कहते हैं, “मैं तुमसे कह चुका हूँ कि मैं वही हूँ। इसके बाद पादरी ने यीशु को पोंटिस पिलेट के सैनिकों को सौंप दिया। जीसस को बन्दी बना लिया गया। फिर सैनिकों की टोली, सेनापति और यहूदियों के पहरेदार यीशु को पकड़ कर बाँध देते हैं. और अगले रोज़ सूली पर लटका देते हैं।
यीशु की मौत के बाद जूडस को अपने किए पर बहुत पछतावा हुआ और उसने चर्च अथॉरिटी को चाँदी के वो टुकड़े लौटा कर ख़ुदकुशी कर ली। जूडस की मौत के सम्बन्ध में काफ़ी विरोधाभास है। इसके अलग-अलग विवरण सामने आते हैं। एक कहानी में बताया गया है कि जूडस अपने किए कृत्य पर काफ़ी दुखी हुआ और उसने पैसों से भरा थैला पादरी को वापस कर दिया। इसके बाद उसने आत्महत्या कर ली थी। एक दूसरी कहानी में कहा गया है कि जो पैसों का थैला जूडस को मिला था उससे उसने एक खेत ख़रीदा, लेकिन वहाँ पर वो सिर के बल गिर गया जिससे उसकी मौत हो गई। कुछ में यहाँ तक कहा गया है कि जब जूडस द्वारा किए गए विश्वासघात के बारे में अन्य 11 धर्म प्रचारकों को जानकारी हुई तो उन्होंने ही उसको पत्थर मार-मार कर ख़त्म कर दिया था। कहते हैं कि यीशु को पहले से ही इस बारे में पता था कि उनके साथ क्या होने वाला है। इसके बाद भी उन्होंने कुछ नहीं किया क्योंकि उन्हें लगता था कि प्रभु की यही इच्छा है।
इसलिए गुड फ़्राइडे को ईसाई लोग शोक दिवस के रूप में मनाते हैं। ईसा मसीह ने हँसते-हँसते मौत को गले लगा कर साहस का परिचय दिया। और यह काम उन्होंने समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए किया। इसलिए शोक दिवस को गुड फ़्राइडे कहा गया। गुड फ़्राइडे के दिन चर्च में न तो घंटियाँ बजाई जाती हैं और न ही मोमबत्ती जलाई जाती है। इस दिन ईसाई धर्म के लोग चर्च में काले कपड़े पहन कर आते हैं और शोक सभाएँ आयोजित करते हैं। गुड फ़्राइडे को होली फ़्राइडे, ब्लैक फ़्राइडे और ग्रेट फ़्राइडे भी कहते हैं।
गुड फ़्राइडे को पहले 1290 ईस्वी की डिक्शनरी के मुताबिक़, "गौउड फ़्राइडे" के नाम से जाना जाता था। अमेरिकी कैथोलिक स्कूल के 1885 से 1960 के मानक पाठ - बाल्टीमोर जिरह के अनुसार, गुड फ़्राइडे अच्छा है क्योंकि मसीह ने "आदमी के लिए अपना महान प्यार दिखाया है और उसके लिए हर आशीर्वाद पाया है”। 1907 में प्रकाशित पहला कैथोलिक विश्वकोश कहता है कि इस शब्द का मूल स्पष्ट नहीं हैं। यह कहता है कुछ स्रोत इसका मूल "भगवान का शुक्रवार" या "गौटेस फ़्रेटैग" में देखते हैं. जबकि कुछ इसका मूल जर्मन के ग्युट फ़्रेटैग में देखते हैं। आधुनिक डेनिश और एंग्लो सक्सोंस के द्वारा इसे लम्बे शुक्रवार के रूप में उद्धृत किया गया है। यह भी कहा जाता है कि इस दिन को ग्रीक साहित्य में "पवित्र और महान फ़्राइडे”, रोमन भाषा में "पवित्र शुक्रवार" और जर्मन भाषा में दुखी शुक्रवार के रूप में जाना जाता है।
बाइबिल के अनुसार, भगवान का बेटा जिस क्रूस पर मौत के लिए चढ़ाया जाएगा उस क्रूस को ढोने का आदेश उसे दिया गया है। उसे कोड़े मारे जाएंगे। यह देखना मुश्किल है कि इसमें "अच्छा" क्या है। कुछ सूत्रों का मानना है कि दिन "अच्छा" है क्योंकि यह पवित्र है या यह "भगवान का शुक्रवार" वाक्यांश का बिगड़ा रूप है। हालाँकि ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में वरिष्ठ संपादक फ़ियोना मैकफ़रसन के अनुसार, यह विशेषण पारम्परिक रूप से एक दिन (या कभी-कभी एक सीज़न) के लिए इस्तेमाल होता है, जिस दिन "धार्मिक रीति आयोजित की जाती है।"
जीसस के बहुत से रहस्य गूँगे हैं. बाइबिल से बाहर की दुनिया इससे अनजान है। ये मायावी तथ्य बाइबिल में भी नहीं है। जिस ईसा का जन्म दिन दुनिया 25 दिसम्बर को मनाती हैं, उसकी असली जन्मतिथि के बारे में आसमानी बाइबिल में कहीं नहीं लिखा है। जीसस के जन्म के लगभग 400 साल बाद, चिन्तित चर्च ने ये तिथि तय की। मसीहा होने से पहले जीसस बढ़ई के बेटे थे। बाइबिल में बस तीन बार उल्लेख आता है। एक- जन्म के समय, दूसरा- 12 साल की उम्र में एक मन्दिर में और फिर तीसरा- 29-30 साल की उम्र में। बीच के बहुत सारे साल, रहस्य के जालीदार ककून में छिपे हैं।
जीसस के बारह में से दस शिष्यों की निर्मम हत्या दुनिया के अलग-अलग मुल्कों में कर दी गई। पीटर को रोम के सम्राट नीरो ने क्रूस पर उल्टा लटका कर मार डाला। पॉल का रोम में बेरहमी से सर क़लम कर दिया गया। एंड्र्यू को सीरिया में क्रूस पर टांग दिया गया। मथियास को सीरिया में ज़िन्दा जला दिया गया। फ़िलिप की अफ़्रीका में हत्या कर दी गई। मैथ्यू को इथियोपिया में ख़ंजर भोंक कर मार डाला गया। जेम्स की सीरिया में पत्थर मार-मार कर हत्या कर दी गई। सायमन और बर्थोलोमेव की पर्सिया और अरब में हत्या कर दी गई। थॉमस की भारत में भाले से बींध कर हत्या कर दी गई। केवल जॉन बचा, जो रोम में खौलते तेल के कड़ाह में डाले जाने से पहले भागने में सफल रहा।
अरबी में 'जीसस' को अरामाइक की तरह 'येशु' कहा जाता है, जो कि हिब्रू भाषा के जोशुआ का परिवर्तित रूप है और यह उसी प्रकार लिखा जाता है। यह ग़लत समझा जाता है कि येशु जीसस हैं या मूसा मोजेस। दरअसल यह मूल शब्दों को अंग्रेज़ी में ग़लत उच्चारण के कारण मोजेस और जीसस बन गए। जोशुआ धीरे-धीरे येशु ही बन गया। जोशुआ कुछ भारी-भरकम है। येशु ठीक है। भारत में हम 'जीसस' को 'यीशु' कहते हैं। हमने इस नाम को और अधिक सुन्दर बना दिया है। जीसस ठीक है।
गुड फ़्राइडे को भक्तगण उपवास के साथ प्रार्थना और मनन करते हैं। चर्च एवं घरों से सजावट की वस्तुएँ हटा ली जाती हैं या उन्हें कपडे़ से ढक दिया जाता है। पूजा वेदी पूरी तरह से ख़ाली रहती है और क्रॉस, मोमबत्ती अथवा वस्त्र कुछ भी वहाँ नहीं रहता। गुड फ़्राइडे से ईस्टर तक घण्टियाँ नहीं बजाने की परम्परा है। गुड फ़्राइडे की तैयारी प्रार्थना और उपवास के रूप में चालीस दिन पहले ही प्रारम्भ हो जाती है। ये एक तरह से ईसाइयों का रोज़ा है। इस दौरान शाकाहारी और सात्विक भोजन पर ज़ोर दिया जाता है। गुड फ़्राइडे के दिन ईसा के अन्तिम सात वाक्यों की विशेष व्याख्या की जाती है जो क्षमा, मेल-मिलाप, सहायता और त्याग पर केन्द्रित हैं।
सलीब पर चढ़ने के बाद ईसा ने 7 बातें कही थीं जिसे 7 अमर-वाणियाँ कहते हैं।
पहली वाणी- 'हे पिता इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं’।
दूसरी- 'मैं तुझ से सच कहता हूँ कि आज ही तू मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा’।
तीसरी- ‘हे नारी देख, तेरा पुत्र. देख, तेरी माता’।
चौथी- 'हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?'
पाँचवीं- 'मैं प्यासा हूँ’।
छठी वाणी- 'पूरा हुआ’।
सातवीं वाणी- 'हे पिता’।
यह भी रहस्य है कि जीसस का जो चित्र चलन में है क्या वो वैसे ही दिखते थे। पश्चिमी कला में सबसे ज़्यादा बनाई गई तस्वीरों में जीसस की तस्वीर ही होगी। हर जगह उन्हें लम्बे बाल और दाढ़ी के साथ दिखाया गया है। वह लम्बी बाँहों वाला चोगा पहने हुए हैं. दरअसल ईसा की यह जो जानी-पहचानी छवि दिखती है वह यूनानी साम्राज्य की देन है। चौथी सदी और उसके बाद से ईसा मसीह की बाइज़ेन्टाइन छवियाँ प्रतीकात्मक ही रही हैं।
![]() |
लियोनार्ड द विंची की पेंटिंग ‘लास्ट सपर’ |
ईसा की बनाई ये तस्वीरें गद्दी पर बैठे एक सम्राट की तस्वीर पर आधारित थीं। रोम में सांता प्यूडेनजाइना के चर्च की वेदी में की गई पच्चीकारी में यह छवि दिखती है जिसमें जीसस सोने का टोगा (चोगा) पहने हैं। वह पूरी दुनिया के स्वर्गिक शासक के तौर पर दिखाए गए हैं। यह गद्दी पर बैठे लम्बे बालों और दाढ़ी वाले जिउस की तरह दिखाए गए हैं। जीसस प्राचीन यूनानी धर्म के सर्वोच्च देवता हैं और ओलम्पिया में उनका प्रसिद्ध मन्दिर है. इसमें उनकी जो मूर्ति है, उसी के आधार पर यीशु की भी तस्वीरें मिलती हैं। यह मूर्ति इतनी प्रसिद्ध है कि रोमन सम्राट ऑगस्टस के पास भी इसी शैली में बनाई गई इसकी प्रतिकृति थी। लेकिन समय के साथ ईसा की इस छवि के विज़ुअलाइज़ेशन में परिवर्तन हुआ है। बाद में इसमें हिप्पी लाइन के आधार पर परिवर्तन किए गए और अब तो इस पर बनी यीशु की शुरुआती तस्वीरें ही स्टैंडर्ड बन गई हैं।
गुड फ़्राइडे के सन्दर्भ में 33 नम्बर को बहुत पवित्र मानते हैं। गुड फ़्राइडे के कार्यक्रमों का समापन चर्च की घण्टी को 33 बार बजाने के साथ होता है। असल में नम्बर 33 का अब्राहमी धर्मों में काफ़ी महत्व है। सबसे पहली बात तो 33 साल की उम्र में ईसा को सूली पर लटकाया गया था। गॉस्पेल में ईसा मसीह के 33 चमत्कारों का उल्लेख है। यहूदी धर्म के पैग़म्बर डेविड ने यरुशलम पर 33 सालों तक शासन किया। अब्राहमी धर्मों में पैग़म्बर माने जाने वाले जैकब को अपनी पहली पत्नी से 33 बच्चे थे। नम्बर 33 का बाइबिल में 6 बार उल्लेख हुआ है।
गुड फ़्राइडे के तीसरे रोज़ ईस्टर आता है. इसे ईसाई लोग ईस्टर दिवस, ईस्टर रविवार या ईस्टर संडे के रूप में मनाते है. ईस्टर ख़ुशी का दिन होता है. इस पवित्र रविवार को ‘खजूर इतवार’ भी कहा जाता है. यह पर्व नए जीवन और जीवन के बदलाव के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है. ईस्टर संडे को लोग गिरजाघरों में इकट्ठा होते हैं और जीवित प्रभु की आराधना-स्तुति करते हैं. ईसा मसीह के जी उठने की ख़ुशी में प्रभु भोज में भाग लेते हैं. हिस्टोरिया एक्लेसियास्टिका जेंटिस एंग्लोरम (Historia ecclesiastica gentis Anglorum (अंग्रेज़ी लोगों का चर्च संबंधी इतिहास) के 6वीं सदी के लेखक सेंट बेडे द वेनरेबल का मानना है कि अंग्रेज़ी शब्द “ईस्टर” Eostre या Eostrae से आया है, जो बसंत और उर्वरता की एंग्लो-सैक्सन देवी हैं. अन्य इतिहासकारों का मानना है कि “ईस्टर” इन एल्बिस (albis) से निकला है, जो एक लैटिन वाक्यांश है. यह अल्बा (alba) या “भोर” के लिए बहुवचन है, जो पुराने उच्च जर्मन में ईस्टारम (eostarum) बन गया.
ईस्टर संडे को ईसा मसीह को मैरी मैग्डलीन ने सूली के बाद पहली बार जीवित देखा. रविवार की सुबह जब अन्धेरा था तब मैरी मैग्डलीन (Mary Magdalene) क़ब्र पर आई और उसने देखा कि क़ब्र से पत्थर हटा हुआ है. फिर वह शमौन पतरस और उस दूसरे शिष्य के पास पहुँचीं और उन्होंने कहा कि वे क़ब्र से यीशु की देह को निकालकर ले गए. सभी वहाँ पहुँचे और उन्होंने देखा की कफ़न के कपड़े पड़े हैं, पर वहाँ यीशु नहीं थे. फिर बाक़ी सब शिष्य चले गए, लेकिन मैरी मैग्डलीन वहीं रहीं. रोती-बिलखती मैग्डलीन ने तभी क़ब्र में फिर से अन्दर देखा जहाँ यीशु का शव रखा हुआ दिखाई दिया. वहाँ उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए, दो स्वर्गदूत, एक सिरहाने और दूसरा पैताने, बैठे देखा. स्वर्गदूत ने उनसे पूछा, तू क्यों विलाप कर रही है? तब मैग्डलीन ने कहा कि वे मेरे प्रभु को उठा ले गए हैं. यह बोलकर जैसी ही वह मुड़ीं तो उन्होंने देखा कि वहाँ यीशु खड़े हैं.
यीशु ने मैग्डलीन से कहा, मैं अपने परमपिता के पास जा रहा हूँ और तू मेरे भाइयों के पास जा. मरियम मैग्डलीन यह कहती हुई शिष्यों के पास आईं और उन्होंने कहा कि मैंने प्रभु को देखा है (बाइबिल यूहन्ना 20). बाइबिल की मान्यता के अनुसार, ईसा यह साबित करने के लिए कि वे सचमुच मृतकों में से जी उठे हैं, प्रेरितों को समझाने का कार्य पूर्ण करने और अपनी कलीसिया की स्थापना करने के लिए, 40 दिनों तक इस दुनिया में रहे. इसके बाद वे प्रेरितों को जैतून पहाड़ पर ले गए और अपने हाथ उठाकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए स्वर्ग की ओर उड़ते चले गए, जब तक कि बादलों ने उन्हें ढक नहीं लिया. तब दो स्वर्गदूत दिखाई दिए और उनसे कहा, 'यही येसु, जिसे तुम अपने बीच से स्वर्ग की ओर जाते देख रहे हो, वो फिर आएंगे. तब वह समस्त मानवों का न्याय करेंगे’.
यरुशलम के प्राचीन शहर की दीवारों से सटा एक प्राचीन पवित्र चर्च है जिसके बारे में मान्यता है कि यहीं पर प्रभु यीशु पुन: जी उठे थे. जिस जगह पर ईसा मसीह फिर से ज़िन्दा होकर देखा गए थे, उसी जगह पर यह चर्च बना है. इस चर्च का नाम है- चर्च ऑफ़ द होली स्कल्प्चर. स्कल्प्चर के भीतर ही ईसा मसीह को दफ़नाया गया था. माना यह भी जाता है कि यही ईसा के अंतिम भोज का स्थल है.
ईस्टर रविवार के पहले सभी गिरजाघरों में रात्रि जागरण तथा अन्य धार्मिक परम्पराएँ पूरी की जाती हैं. असंख्य मोमबत्तियाँ जलाकर प्रभु यीशु में ईसाई अपना विश्वास प्रकट करते हैं. ईस्टर पर सजी हुई मोमबत्तियाँ अपने घरों में जलाना तथा मित्रों में इन्हें बाँटना एक प्रचलित परम्परा है. रूढ़िवादी और पूर्वी कैथलिक चर्चों का मानना है कि अण्डे के खोल “मसीह के मक़बरे” के प्रतीक हैं. ऐसे में ईस्टर पर लोग अण्डे को अलग-अलग रंगों से रंगते हैं और उन्हें सजाते हैं. मेरी बेटी शिशु की शुरुआती शिक्षा लखनऊ के लॉ मार्टिनियर स्कूल में हुई थी. मिशनरी का स्कूल था मुझे भी ईस्टर के अंडे उसके लिए ख़रीदने पड़ते. तब पहली बार ईस्टर एक के बारे में जाना. दअरसल अण्डों को जीवन का ज़रिया माना जाता है. चूँकि ईस्टर यीशु के फिर से जीवन मिलने की याद में मनाया जाता है. इसीलिए इस दिन अण्डे देने का रिवाज है. इसे शुभ माना जाता है, इसलिए लोग एक-दूसरे को अण्डे गिफ़्ट करते हैं. मध्ययुगीन काल में तो एक दौर ऐसा भी था जब ईस्टर से पहले 40 दिन तक अण्डे नहीं खाए जाते थे.
देवों और देवदूतों-पैग़म्बरों की कथा-कहानी बिना चमत्कार के पूरी नहीं होती. करुणा, दया, क्षमा, त्याग, उपदेश, तप तो मानव द्वारा भी संभाव्य चीज़ें हैं. मानव रूप में देवदूत ये सब करते ही रहे हैं. लेकिन ईश्वरत्व के लिए चमत्कार एक शर्त जैसा रहा है. इसीलिए देवदूतों की जीवनी चमत्कारों से भरी हुई है. जीसस के जीवन काल के चमत्कार भी कई हैं, लेकिन सलीब पर चढ़कर और दफ़्न होकर तीन दिन बाद फिर जी उठना सबसे बड़ा चमत्कार है. मृत्यु से जीतने वाले जीसस भी अमरत्व को प्राप्त हुए. अमर हो गए. इससे समाज और सत्ताओं के बीच उनकी धारणा में व्यापक असर पड़ा. आज दुनिया के हर कोने में ईसा के मानने वाले, अनुयायी, चर्च, संस्थाएँ और सत्ताएँ मौजूद हैं. राजनीति, सरकारें, नीतियाँ, संस्थाएँ और धर्म जीसस की इसी चमत्कारी ज़िन्दगी की खाद पर पल-बढ़ रही हैं.
लेकिन जीसस के इन तीन दिनों के विवरण से कहीं ज़रूरी है उससे पहले की कहानी और उपदेश. दुनियाभर को क्षमा का उपदेश देने वाले पैग़म्बर हैं जीसस. क्षमा यानी फ़ॉरगिवनेस का ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिलता. इसी क्षमा के साथ दूसरा बड़ा संदेश दया का है, करुणा का है. तीन दिन की कहानी को याद करने के लिए जब लोग गुड फ़्राइडे और ईस्टर मना रहे हैं तो हमें इन तीन मूल बातों को भी ध्यान रखना होगा. क्षमा, दया और करुणा को अपनाना हमारी मानवीय क्षमता में सम्भव भी है. हम जीसस के चमत्कार नहीं दोहरा सकते. लेकिन उनके इन तीन मूल संदेशों को तो आत्मसात् किया ही जा सकता है. यह घोर विडम्बना ही है कि क्षमा का संदेश देने वाले देवदूत के अनुयायियों ने ही दुनियाभर पर सबसे ज़्यादा हमले किए, युद्ध किए, क़ब्ज़े किए और आज भी लगातार युद्ध कर रहे हैं. दया और करुणा का संदेश देने वाले के अनुयायी भेद, लोभ, छल और भूख से ग्रस्त हैं. जीसस के तीन दिन और 33 साल का संदेश ये तो नहीं था. गुड फ़्राइडे और ईस्टर हमें मूल रूप से यही स्मरण कराता है और इसी पर लौटना जीसस की असली आराधना और सच्ची आस्था है.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें