जगदीश्वर चतुर्वेदी का आलेख राहुल सांकृत्यायन और दार्शनिक दृष्टिकोण के सवाल'

  

राहुल सांकृत्यायन


राहुल सांकृत्यायन का नाम लेते ही हमारे जेहन में ऐसे व्यक्ति की तस्वीर उभर कर सामने आती है जिनकी प्रतिभा बहुमुखी थी। उनका लेखन प्रचुर तो है ही, बहुआयामी भी है। यह कम महत्त्वपूर्ण बात नहीं कि उन्होंने विविध विषयों पर साधिकार लिखा। उनका यह वैविध्य अनूठा तो है ही, यह उनकी ज्ञान के प्रति प्रतिबद्धता को जाहिर करता है। एक ऐसे समय में जब ज्ञान पर पहरे बिठाए जाने लगे हों और कलम को द्रोही घोषित करने की आवाजें उठने लगी हों, यह प्रतिबद्धता हमें आश्वस्त करती है। राहुल जी का लेखन जब हम देखते हैं तो एकबारगी यह लगता है कि कौन सा विषय उनसे अछूता है। साहित्य, इतिहास और यात्रा संस्मरण तो उन्होंने लिखे ही, साथ ही धर्म, संस्कृति, पुरातत्व, दर्शन पर भी कलम चलाई। किसान आंदोलनों से जुड़े और जेल गए। जेल में रहते हुए ही लेखकीय अलख जगाई। उनके लेखन के मूल में हमेशा ही भारत का वह आम जन रहा, जो अभाव में भी अपना स्वभाव नहीं भूलता। ऐसा लगता है कि बुद्ध उनके आदर्श थे। बुद्ध के जीवन और उनके दर्शन पर उन्होंने जम कर लिखा है। बहरहाल उनकी एक महत्त्वपूर्ण किताब है 'दर्शन दिग्दर्शन'। भारत और यूरोप के प्रख्यात दर्शन और दार्शनिकों का जिक्र बड़ी सरल भाषा में राहुल जी ने अपनी इस किताब में किया है। दर्शन पर लिखने वाले इस भाषा से सबक ले सकते हैं। आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने राहुल जी के इस किताब की तहकीकात करते हुए अपने महत्त्वपूर्ण आलेख में लिखते हैं “दर्शन-दिग्दर्शन” का महत्व यह है कि उसमें सरल हिन्दी में दार्शनिक अवधारणाओं को पेश किया गया है।  आज राहुल जी का जन्मदिन है। उनकी स्मृति को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं जगदीश्वर चतुर्वेदी का आलेख राहुल सांकृत्यायन और दार्शनिक दृष्टिकोण के सवाल'।



'राहुल सांकृत्यायन और दार्शनिक दृष्टिकोण के सवाल'



जगदीश्वर चतुर्वेदी 

           


राहुल सांकृत्यायन के  दार्शनिक नजरिए के बारे में हिन्दी में कभी कोई गंभीर विमर्श सामने नहीं आया, जबकि उन्होंने  "दर्शन दिग्दर्शन“ जैसी महत्वपूर्ण कृति लिखी। यह कृति 1942 में हजारीबाग के सेन्ट्रल जेल में लिखी और 1944 में इसका पहला संस्करण प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक का मार्क्सवादी दार्शनिक नजरिए से कोई संबंध नहीं है। इसमें उन्होंने अध्ययन की जो प्रणाली चुनी है उसका तरीका कुछ इस प्रकार है- दार्शनिक के जीवन का संक्षिप्त परिचय, उसके मूल विचारों का उल्लेख और कहीं–कहीं उन पर आलोचनात्मक तौर पर संक्षिप्त टिपप्णियां, इस तरह यह किताब विभिन्न दर्शनों का ब्यौरेबार लेखा-जोखा है। इस तरह की पद्धति कहीं से न तो ऐतिहासिक है और न हीं द्वंद्वात्मक है। इस कृति की मूल्यवान समझ यह है कि इसमें दर्शन को धर्म से पृथक् करके विवेचित किया गया है। साथ ही दर्शन और विज्ञान के संबंधों, दर्शन और सामाजिक वर्गों के संबंधों का संक्षिप्त में जिक्र भी मिलता है। इसके अलावा दर्शन को वे राष्ट्रीय की बजाय विश्व परिप्रेक्ष्य में रख कर विवेचित करते हैं।      


इस कृति का महत्त्व यह है कि इसमें राहुल ने प्रच्छन्नतः हेगेल के नजरिए को चुनौती दी है। हेगेल का मानना था पूर्वी देशों में दर्शन और धर्म में सहमेल है। राहुल सांकृत्यायन इस नजरिए को एक सिरे से खारिज करते हैं। यही हाल सर्वपल्ली राधाकृष्णन का था उन्होंने “भारत में दर्शन” नामक कृति में दर्शन को आध्यात्मिकता से जोड़ा है। एम हिरियन्ना ने “भारतीय दर्शन की रुपरेखा” में इसी पर विचार करते हुए लिखा “भारतीय दर्शन का लक्ष्य तर्क से परे पहुँचना है।” वे दर्शन को ‘विचार प्रणाली’ न मान कर ‘जीवन प्रणाली” मानते हैं। इसके अलावा अनेक विचारकों ने भारतीय दार्शनिक प्रणाली को अपरिवर्तनीय माना है। यह भी माना कि भारत में तो अपरिवर्तनीय विचार परंपरा रही है। राहुल सांकृत्यायन ने इस नजरिए का “दर्शन-दिग्दर्शन” में खंडन किया है। इसी तरह साम्प्रदायिक और पुनरुत्थानवादी ताकतें भारतीय दर्शन की श्रेष्ठता, शुद्धता एवं अपरिवर्तनीयता पर बार बार जोर देती हैं। उनका भी इस कृति में खंडन मिलता है। इसके अलावा भारत में दर्शन की भाववादी व्याख्या करने वालों की भी लंबी सूची है। इसका भी इस कृति में जगह-जगह खंडन मिलता है।पर,।वर्णन अधिकतर आदर्शवादियों का ही किया है।    


आज हम भारतीय दर्शन की परंपरा का मूल्यांकन करते हैं तो सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि दर्शन की कौन सी धारणा हमारे लिए प्रासंगिक है। खासकर धर्मनिरपेता, बुद्धिवाद और विज्ञानोन्मुख दृष्टिकोण के निर्माण में दार्शनिक परंपरा के कौन से तत्त्व आज भी हमारी मदद कर सकते हैं। इस प्रश्न को राहुल सीधे सम्बोधित नहीं करते। कौटिल्य के अनुसार वास्तविक दर्शन को ‘आन्वीक्षिकी’ कहते हैं। इसका अर्थ है कि दर्शन तर्कबुद्धि से संबद्ध है, वह बुद्धिसंगत विश्लेषण के लिए प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा प्रस्तुत आधार सामग्री को ही स्वीकार करता है। कौटिल्य के यहाँ वास्तविक दर्शन की दूसरी पहचान है धर्मनिरपेक्षता। वे मानते हैं कि दर्शन ब्रह्मविज्ञान में नहीं है। वह धर्मशास्त्र अथवा वेदज्ञान नहीं है। वह पूर्णरुपेण ज्ञान की एक स्वायत्त शाखा है। दर्शन की शाखा में कौटिल्य ने सांख्य, योग और लोकायत को रखा है। पर, बौद्ध, जैन मत, वेदान्त और मीमांसा पर वे चुप हैं।         


राहुल जी ने जब धर्म और दर्शन में पार्थक्य स्थापित किया था तो सीधे भारतीय समाज में प्रचलित दार्शनिक प्रतिक्रियावाद को चुनौती दी।दर्शन और धर्म में पार्थक्य का कारण यह है कि दर्शन अपनी संज्ञानात्मक क्रिया में, अर्थात् यथार्थ रुप में वह सदैव विश्व के साथ समावेशन के साथ जुड़ा हुआ है। विश्व के वैचारिक समावेशन से आशय है प्रकृति, समाज एवं चिन्तन के वस्तुगत संज्ञान तथा  ऐसे संज्ञान पर आधारित सिद्धान्तों।का निर्माण करना। इसी तरह सिद्धान्त सामान्यीकृत अनुभव है, मनुष्य का सामान्यीकृत व्यवहार तथा उत्पादन का व्यवहार सामाजिक-ऐतिहासिक गतिविधि है।   


“दर्शन-दिग्दर्शन” का मूल लक्ष्य है आधुनिक काल में मध्ययुगीनता के खिलाफ हस्तक्षेप  करना। मध्ययुगीन भावबोध के मानने वाले बुद्धि को विश्वास के मातहत कर के देखते हैं। उनके लिए बुद्धि से ज्यादा महत्वपूर्ण है विश्वास या आस्था। इसके विपरीत राहुल ने इस कृति में बुद्धि को आस्था से पृथक् कर के पेश किया है। दर्शन को धर्म से मुक्त किया है। वे दार्शनिक गलतियों को ज्ञानमीमांसीय परिघटना के रुप में देखते हैं। वे दार्शनिक गलतियों को दर्ज करने के साथ–साथ गलती की ऐतिहासिक रुप से अनित्य आवश्यकता, उसकी ज्ञानमीमांसीय जड़ों और वास्तविक अंतर्वस्तु के अध्ययन की पूर्वकल्पना को पेश करते हैं।         


“दर्शन-दिग्दर्शन” से हमें  राहुल सांकृत्यायन की भारतीय दर्शन परंपरा की अधूरी समझ का पता चलता है। मसलन्, ‘जिसे हम दर्शन कहते हैं, वह वैदिक काल में दिखलाई नहीं पड़ता।’ उनके यहाँ दर्शन की परंपरा उपनिषद काल से आरंभ होती है और शंकर तक आ कर खत्म हो जाती है। जबकि यह परंपरा नव्य-न्याय काल तक जारी रहती है। यानी नव्य न्याय काल के प्रतिनिधि गदाधर और उसके टीकाकारों तक यह परंपरा सत्रहवीं और 18वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक जारी रहती है। उल्लेखनीय है कि भारतीय दर्शन परंपरा में राहुल ने श्रीमद्भगवतगीता का जिक्र तक नहीं किया है। इसी तरह विशिष्टाद्वैत और द्वैत, शैव और शाक्त दर्शन, एकेश्वरवादी दर्शन और भक्ति आंदोलन के दार्शनिक चिंतकों का जिक्र नहीं करते। जबकि उपनिषदों, चार्वाक, गौतम बुद्ध, अजित केशकंवल, मक्खलि गोशाल, काश्यप, प्रकुध, कात्यायन, वेलाट्ठिपुत्त, वर्धमान महावीर, कपिल, नागसेन, कणाद, गौतम अक्षपाद, जैन धर्म, पतंजलि, जैमिनी, बादरायण, असंग, धर्मकीर्त्ति, दिड़.गनाग, नागसेन, गौडपाद एवं शंकर के दार्शनिक मत का विवेचन किया है। वेदान्त के भाष्यकारों में वे शंकर, रामानुजीय, निम्बार्क, माध्व, राधाबल्लभी सम्प्रदायों एवं भाष्यकारों मात्र नामोल्लेख किया है। इस तरह की प्रस्तुति में अनेक असुविधाएं हैं। मसलन्, वेदान्त की ये प्रणालियां- रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत, माध्व का द्वैत, निम्बार्क का द्वैताद्वैत और बल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत –ब्रह्म को ही इस जगत का अंतिम कारण मानती हैं। ये सभी आदर्शवादी दार्शनिक प्रणालियां हैं। किंतु शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित दर्शन की आदर्शवादी प्रणाली से ये मूलतः भिन्न हैं। इन सभी प्रणालियों का उदय शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त – जिसमें केवल ब्रह्म को यथार्थ माना गया था- के विरोध में हुआ है। दूसरे शब्दों में शंकराचार्य का अद्वैत वेदान्त जहाँ मनोवादी आदर्शवाद है, वहाँ ये सभी प्रणालियां वस्तुवादी आदर्शवाद पर आधारित हैं। इसके अलावा बौद्ध दर्शन के पतन के संदर्भ में तंत्र की भूमिका को भी राहुल जी ने रेखांकित नहीं किया। 

    

इसी तरह “दर्शन-दिग्दर्शन” में यूरोपीय परंपरा के विवेचन में भी काफी बड़ा असंतुलन है। मसलन्, वहां पर सत्रहवीं शताब्दी से दार्शनिकों का विवरण दिया है। इससे पूर्व की परंपरा का कोई विवरण नहीं है। भारतीय दर्शन मध्य काल से आगे नहीं बढ़ता वहीं पर यूरोपीय दर्शन में 17वीं शताब्दी के पहले का जिक्र नहीं है। यूरोपीय दर्शन परंपरा के विवरण में भी राहुल ने सुसंगत नजरिए का परिचय नहीं दिया है। मसलन्, देकार्त्त पर उन्होंने लिखा है ‘द-कार्त्त पूरा लोकोत्तरवादी, ईश्वर के इशारे पर ज़ड-चेतन को नचाने वाला मानता था”...” गंभीर विचारक होते हुए भी दकार्त्त मध्ययुगीन मानसिक बंधनों से अपने को आजाद नहीं कर सका था।’ और अपने दर्शन को सर्वप्रिय रखने के लिए भी वह धर्मवादियों का कोपभाजन नहीं बनना चाहता था। स्वयं द-कार्त्त के अपने वर्ग का स्वार्थ इसी में था कि धर्म और उसके साथ प्राचीन समाज व्यवस्था को न छेड़ा जाए।” राहुल सांकृत्यायन की इस धारणा का खंडन देकार्त्त की मुख्यकृतियों “विधि के विषय में तर्कणा” (1637) और “दर्शन के सिद्धांत” (1644) से होता है। वह तर्कबुद्धिवाद का प्रणेता था। उसने प्रकृति के बारे में भौतिकवादी मत प्रतिपादित किया, प्रकृति के विकास के सिद्धान्त, भौतिक शरीर क्रिया विज्ञान एवं उनकी यंत्रवादी विधि की धर्मशास्त्र से शत्रुता थी। उसने नए युग के भौतिकवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया। यांत्रिकी के क्षेत्र में उसने गति और अविचलता की सापेक्षता लक्षित की, क्रिया और प्रतिक्रिया के सामान्य नियम को निरुपित किया। ब्रह्माण्डोत्पत्ति के क्षेत्र में सौरमंडल के नैसर्गिक विकास का विचार दिया, जो विज्ञान के लिए नया था। गणित के क्षेत्र में वह विश्लेषणात्मक ज्यामिति के प्रवर्तकों में से एक है। वह मानता था कि कणों की भ्रमित गति अन्तरिक्षीय भूतद्रव्य की  गति का मुख्य रुप है, जो संसार की संरचना तथा आकाशीय पिण्डों की उत्पत्ति निर्धारित करती है। उसकी प्राक्कल्पना ने प्रकृति की द्वंद्वात्मक समझ की प्रेरणा दी। हालांकि वह इसे यांत्रिक ढ़ंग से ही समझता था। देकार्त्त का भौतिकवादी शरीरक्रियाविज्ञान अभौतिक आत्मा विषयक उसके दृष्टिकोण के विपरीत है। राहुल सांकृत्यायन ने देकार्त्त की इन मूलभूत बातों की मूल्यांकन करते हुए उपेक्षा की है। बेकन और देकार्त्त को मुक्ति की धारणा का सर्वप्रथम वैज्ञानिक प्रणेता भी माना जाता है। मुक्ति की समस्या दर्शन की मुख्य समस्या रही है। 

     

राहुल सांकृत्यायन ने दर्शन के विवेचन के लिए विवरणात्मक पद्धति का इस्तेमाल किया है। इसमें वे दर्शन की अवधारणाओं को रुपवादी ढ़ंग से सरलीकृत रुप में पेश करते हैं। इससे इन धारणाओं के साथ समाज के अन्तस्संबंध को समझने में असुविधा होती है। वे इस क्रम में सिद्धान्त चर्चा तो करते हैं लेकिन ऐतिहासिक प्रक्रिया की अनदेखी करते हैं। इससे सभी अवधारणाएं एक-दूसरे से स्वायत्त और संपूर्ण नजर आती हैं। यहां धारणाओं का सर्वसंग्रहवाद पेश कर दिया गया है। इससे दर्शन की युगीन बहस और अन्तर्विरोध नजर नहीं आते, और किसी भी अवधारणा के बारे में कोई सुसंगत समझ नहीं बन पाती।      


मार्क्सवादी नजरिए के अनुसार सिद्धान्त बनी-बनायी धारणाओं तक सीमित नहीं होता। अपितु धारणाएं अध्ययन, सामाजिक विकास और विचारधारात्मक संघर्ष की प्रक्रिया में तेजी से बदलती भी हैं। उनमें भेद नजर आता है, साथ ही जोड़ने वाला कारक भी नजर आता है। इस क्रम में धारणाएं अपनी संरचना का निर्माण करती हैं। प्रणाली बनाती हैं। वे अन्य चिन्तन प्रणाली के रुपों के साथ समन्वयन, अधीनीकरण, बहिर्वेशन, सामान्यीकरण और विकास करती हैं। दर्शन का मार्क्सीय अनुसंधान नयी परिघटनाओं, नियमों और संज्ञान के विषयों की खोज करता है और नए प्रवर्गों और उनकी प्रणालियों को निर्मित करता है। 

      

“दर्शन-दिग्दर्शन” देख कर यह महसूस होता है कि दर्शन तो भ्रान्तियों का भंडार है। लेकिन इस विशाल भंडार का अपना निजी वैशिष्ट्य है। राहुल जी ने कौशल के साथ विभिन्न दर्शनों में मौजूद अंतर को रेखांकित किया है। साथ ही यह रेखांकित करने की कोशिश की है कि विभिन्न दर्शनों का उदय किसी एक दर्शन के गर्भ से नहीं हुआ है। वे यह भी नहीं मानते कि सभी दर्शन सही हैं। दर्शनों के बीच में अंतर दर्शाने के लिए उन्होंने संक्षिप्त ढ़ंग से ऐतिहासिक विधि का यांत्रिक ढ़ंग से इस्तेमाल किया है। कहीं पर दार्शनिक और गैर-दार्शनिक अध्ययन और क्रियाकलाप को एक-दूसरे के विरोध में खड़ा करने की बजाय अन्तर्ग्रथित रुप में पेश करते हैं और इस तरह वे भाववादी नजरिए की आलोचना करने में सफल हो जाते हैं। वे प्रत्येक अदार्शनिक चीज को दर्शन की उपज नहीं मानते। दिलचस्प बात है राहुल के यहां दर्शन का इतिहास नहीं है लेकिन दर्शन का वैविध्य और विकास जरुर मिलता है। यह वस्तुतः बुर्जुआ नजरिया है। दर्शन के विकास के लिए दर्शन की पुरानी समस्याओं का पुनर्रुज्जीवन महत्व रखता है। इससे दर्शन के विकास में मदद मिलती है। “दर्शन-दिग्दर्शन” का महत्व यह है कि उसमें सरल हिन्दी में दार्शनिक अवधारणाओं को पेश किया गया है।   





दर्शन में सरलीकरण करने से दर्शन में निहित संश्लिष्टता और जटिलता का बोध नहीं होता। दर्शन की परंपरा के मूल्यांकन में काल विभाजन, को वर्गीकरण एवं तदनुरुप जीवन्त एवं मृत दार्शनिक तत्वों का बोध महत्वपूर्ण स्थान रखता है। एक मार्क्सवादी को इसके लिए ऐतिहासिक एवं तार्किक दोनों ही विधियों का प्रयोग करना होता है। इस पद्धति को राहुल ने गंभीरता के साथ लागू नहीं किया है। ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में वे दार्शनिक विचारों का संग्रह तैयार करने की दिशा में चले गए। इसके लिए भी वे सरलीकरण से काम लेते हैं। इसके कारण वे विभिन्न भौतिक विचारकों के बीच अंतर नहीं कर पाते। वे लोकायत, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक, वैभाषिक, सौत्रान्तिक और जैन दर्शनों के आदर्शवाद के विरोध में अंतर नहीं कर पाए हैं। आदर्शवाद के प्रतिपक्ष की परंपरा को सुसंगत रुप में पेश करने में असमर्थ रहे हैं। ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ देख कर यही लगता है कि भारतीय दर्शन परंपरा में आदर्शवादी चिन्तकों का ही वर्चस्व रहा है और उनका प्रतिपक्ष कमजोर रहा है। जबकि हकीकत इसके विपरीत है। औपनिषदिक चिंतकों, महायानी बौद्धों और अद्वैत वेदान्तियों के एक हिस्से को छोड़ कर भारतीय दर्शन में आदर्शवाद का किसी ने भी समर्थन नहीं किया। इसका अर्थ नहीं है कि आदर्शवादियों की शक्ति और लोकप्रियता कम रही है। हां, यह शक्ति और लोककप्रियता उन्हें राजनीतिक संरक्षण और वित्तीय समर्थन के कारण प्राप्त थी। 


भारतीय दर्शन परंपरा का जो वर्गीकरण डी. पी. चट्टोपाध्याय किया है वह हमारी मदद कर सकता है। मसलन्, आदर्शवाद विरोधी दार्शनिकों में चार्वाक या लोकायत, कपिल, जैमिनी, उलूक, कणाद, गौतम अक्षपाद, श्रीलाभ, बांधव सौत्रांतिक, कात्यायनी पुत्र, महान उमास्वति, ईश्वरकृष्ण, शबर, वात्स्यायन, प्रशस्तपाद, शुभ गुप्त, अकलंद, प्रभाकर, कुमारिल, उद्योतकर, जयन्त भट्ट, वाचस्पति मिश्र, उदयन, गंगेश, गदाधर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी तरह आदर्शवाद विरोधी इन दार्शनिकों को दो वर्ग में रख सकते हैं। पहली श्रेणी उन दार्शनिकों की है जो ठोस रुप में आदर्शवाद का विरोध करते हैं। इनमें प्रमुख हैं- लोकायत, न्याय-वैशेषिक और सांख्य-दर्शन। दूसरी श्रेणी में वे दर्शन आते हैं जो आदर्शवाद के विरोध की परिधि पर हैं। ये हैं, मीमांसक, वैभाषिक, सौत्रान्तिक, जैन आदि। दार्शनिक आदर्शवाद का विरोध करने में इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

   

राहुल जी के विवरण की यह विशेषता है कि वे जिसे पसंद करते हैं, उसके सिर्फ सकारात्मक पक्ष को ही बताते हैं और उसकी कमजोरियों को नजरअंदाज करते हैं। मसलन्, कुमारिल के बारे में राहुल जी का कहना है, ’कुमारिल ने मीमांसा दर्शन में कोई खास तत्व का विकास नहीं किया, बल्कि जैमिनि के सिद्धान्तों को युक्ति और न्याय से पुष्ट करना चाहा।’ (दर्शन-दिग्दर्शन, 616) इस तरह के निष्कर्ष की पहली समस्या यह है कि इसके साथ कुमारिल के दार्शनिक विचारों का विवरण नहीं है। उनके विचारों का जिक्र धर्मकीर्ति के विचारों के खंडन के प्रसंग में आया है। सच यह है कि कुमारिल ने पुरोहितों के विचारों का पक्ष लेने के बावजूद आदर्शवाद के खंडन में महत्वपूर्ण योगदान किया। 

    

इसी तरह राहुल जी ने कणाद के बारे में जो विवेचन प्रस्तुत किया है वह भी समस्यामूलक है। परमाणुवादी कणाद को राहुल जी ने आत्मवादी कहा है, साथ ही यह भी लिखा है उनकी ‘विवेचना का मुख्य लक्ष्य है धर्म के प्रति होती शंकाओं को युक्तियों से दूर कर फिर से धर्म की धाक स्थापित करना।’ (दर्शन-दिग्दर्शन, 585) राहुल जी का मानना है कि धर्म की प्रामाणिकता का अर्थ है वेद की प्रामाणिकता को स्थापित करना। यह भी लिखा कणाद के ‘वैशेषिक सूत्र’ का लक्ष्य है धर्म की व्याख्या या मानक वैदिक परंपरा में श्रद्धा पैदा करना। इससे भिन्न देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय का मानना है ‘वैशेषिक सूत्र’ का वेदों की दार्शनिक धारा से कोई संबंध नहीं है। ‘वैशेषिक सूत्र’ में मुख्यतः द्रव्य, गुण आदि छह पदार्थों या तत्वों पर विचार विमर्श है। जिनके अंतर्गत जगत की सभी ज्ञात और अभिधेय वस्तुओं को वैशेषिक दर्शन के अनुसार वर्गीकृत करने का प्रयत्न किया गया है। बीच-बीच में पुरोहितों की महिमा एवं विशेषाधिकारों की सराहना कर दी गयी है। इस ग्रंथ में जो कुछ भी कहा गया है, वह प्रारंभ में घोषित उसके उद्देश्य से एकदम विपरीत है। यह कुल मिला कर ऐसा ही है कि “सागर की ओर जाने की घोषणा कर के हिमालय की ओर चल देना।” राहुल जी ने आरंभिक घोषणा को गंभीरता से लिया है जबकि देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने इसे वाक्-छल के अलावा कुछ नहीं माना है। चट्टोपाध्याय का मानना है कि यह वाक्-छल अनावश्यक नहीं है, क्योंकि ऐसा न करने पर ग्रंथ अधार्मिक घोषित कर दिया जा सकता है। कणाद, जैसे भी, ऐसी स्थिति से बचना चाहते हैं। साथ ही धर्मशास्त्र प्रणेताओं और निहित स्वार्थी तत्वों के संभावित आक्रमण से अपने विज्ञान की रक्षा करना आवश्यक था और इसका सबसे सरल आसान तरीका यही था कि आधिकारिक रुप से स्वीकृत अंधविश्वासों की मोहर उस पर लगा दी जाय। 

    

‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में व्यक्तिकेन्द्रित दर्शन परंपरा की प्रस्तुति है। जब कि मूल्यांकन को दार्शनिक तत्व केन्द्रित होना चाहिए। राहुल जी की मुश्किल यह है कि वे गौतम अक्षपाद को बुद्धिवादी और कणाद को अध्यात्मवादी मानते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि न्याय-वैशेषिक दर्शन की मुख्य चिंता तर्कशास्त्र और परमाणुवाद से जुड़ी है। यह दर्शन पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण को व्यक्त करता है। इसी तरह अक्षपाद गौतम के बारे में राहुल जी ने लिखा है वे कर्मकांड समर्थक थे। ईश्वर की सत्ता मानते थे। पुनर्जन्म या परलोक में विश्वास करते थे। यह कहना ठीक है कि ‘न्यायसूत्र’ में वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार किया गया है। पर देखना होगा कि किस तरह वेदों की प्रामाणिकता को वे स्वीकार करते हैं। अक्षपाद गौतम के  ‘न्याय सूत्र’ पर वात्स्यायन ने भाष्य लिखा है, वात्स्यायन ने रेखांकित किया है वैदिक कर्मकांडों के प्रति उनकी श्रद्धा का सार तत्व बड़ा ही खोखला है। देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है कि तर्कविज्ञान और वैदिक कर्मकांड, पुनर्जन्म, अंधविश्वासों आदि को एक ही साथ पेश करने के पीछे एकमात्र प्रमुख कारण यही था कि तर्कबुद्धिवाद के लिए दंडित होने से बचा जाय। वस्तुतः।वैदिक निष्ठा का नाम ले कर उन्होंने तर्कशास्त्र की रक्षा की। 

          

देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने “भारतीय दर्शन में क्या जीवंत है और क्या मृत” में रेखांकित किया है कि कणाद और गौतम वेद के प्रति जो श्रद्धा भाव प्रकट करते हैं उसमें वास्तविक वैदिक दर्शन –मिसाल के तौर पर याज्ञवल्क्य और दूसरों के द्वारा प्रतिपादित उपनिषदों में वर्णित दर्शन के बारे में वे कुछ भी नहीं लिखते।  क्योंकि वे जानते थे कि वे जिस दर्शन को मानते हैं उसका उपनिषद आदि के दार्शनिक नजरिए से अंतर्विरोध है। 

     

राहुल जी ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में धर्मकीर्त्ति के प्रति भी अपने एकांगी दृष्टिकोण को व्यक्त किया है। एकांगी इस अर्थ में कि धर्मकीर्त्ति के नजरिए में सबसे प्रमुख धारणा है “सहोपालंभ–नियम”, लेकिन राहुल जी ने उसका जिक्र तक नहीं किया है। साथ ही धर्मकीर्त्ति  के अंतर्विरोधों के बारे में भी राहुल।जी चुप हैं। वे धर्मकीर्त्ति के विचारों की आलोचनाओं का जिक्र तक नहीं करते। मसलन्, दिङ्गनाग को राहुल जी ने बौद्ध दर्शन को भारत में प्रतिष्ठित करने वालों में से एक माना है। लेकिन दिङ्गनाग की तर्कप्रणाली में बौद्ध जैसी कोई चीज नहीं है। देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है कि उनकी प्रणाली से तर्कशास्त्र और तत्वमीमांसा की एक नयी प्रणाली का बोध होता है। दिङ्गनाग ने अपनी रचना “आलम्बन-परीक्षा” में इस तरह की शैली अपनायी है जिसे प्रत्यक्ष जांच पड़ताल द्वारा पदार्थ की अवधारणा को विलुप्त कर देने वाली शैली कह सकते हैं। धर्मकीर्त्ति ने दिङ्गनाग की कृति “प्रमाण समुच्चय” की व्याख्या करते हुए ही “प्रमाण वार्त्तिक” का निर्माण किया। वे मौलिक चिन्तक हैं, राहुल जी ने उनकी तुलना हेगेल से की है। स्तचेर्बात्स्की ने उन्हें भारतीय कांट कहा है। लेकिन उनकी तुलना बर्कले से करना समीचीन होगा। 

     

धर्मकीर्त्ति अपने युग के सबसे मेधावी दार्शनिक हैं। उनका तर्कविज्ञान में महत्वपूर्ण योगदान है। इसका उनके युग के विज्ञान और तकनीकी विकास से गहरा सम्बन्ध है। उनके नजरिए में आदर्शवादी पूर्वाग्रह और तर्कविज्ञान के मध्य अन्तर्विरोध व्यक्त हुआ है, जिसकी ओर राहुल जी ने ध्यान नहीं दिया। धर्मकीर्त्ति के भाष्यकारों में विनीत देव और धर्मोत्तर का नाम प्रमुख है। विनीतदेव का भाष्य सरल और धर्मोत्तर का भाष्य पंडिताऊ है। विनीत देव ने लिखा धर्मकीर्त्ति का प्रमाण विषय़क लेखन दृढ़ प्रतिज्ञ आदर्शवादी के दृष्टिकोण को सामने नहीं लाता। देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने “भारतीय दर्शन में क्या मृत और क्या जीवंत” ग्रंथ में धर्मकीर्त्ति के प्रमाण के बारे में लिखा कि यह विवेचन मौटे तौर पर विभ्रमों के आम ढाँचे में विवेचन है। ठेठ आदर्शवादी दृष्टिकोण से तर्क सिद्धान्त की सार्थकता भ्रांति की सीमाओं के अंतर्गत ही है। धर्मकीर्त्ति के विचारों की गंभीर आलोचना के अध्ययन के लिए कुमारिल, शुभ गुप्त और अकलंक की कृतियां महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इन दार्शनिकों ने “सहोपालंभ–नियम” की आलोचना की है। इस प्रसंग में शुभ गुप्त के “बाह्यार्थ सिद्धि”, एम. जे. शाह के “अकलंस क्रिटिसिज्म ऑफ धर्मकीर्त्तिज फिलॉसफी” और कुमारिल के “सर्वास्तिवाद” नामक ग्रंथ में विस्तार से इस अवधारणा पर विचार किया है। 


यहां पर राहुल जी के मूल्यांकन की सीमाओं का उदघाटन करने लिए दो अवधारणों का विवेचन पेश कर रहे हैं। सहोपालंभ नियम-       


धर्मकीर्त्ति के दार्शनिक नजरिए का मूलाधार है ‘सहोपालंभ नियम’। इसके कई पहलू हैं जिनको ध्यान में रखा जाना चाहिए। खासकर अवधारणात्मक धरातल पर उसका विश्लेषण करना जरुरी है। देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने इस अवधारणा पर विस्तार से विचार किया है।  ‘सहोपालंभ नियम’ का शाब्दिक अर्थ है तत् क्षणिक (सह) बोध (उपालंभ)। यानी विचार और वस्तु दोनों का अनिवार्यतः एक साथ बोध होने के कारण–वस्तु के रुप में वस्तु का स्वतंत्र ज्ञान न होने के कारण – उसी वस्तु रुप में वस्तु के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस तरह के प्रमाणाभाव के कारण यह स्वीकार करना होगा कि विचार से पृथक कथित वस्तु की कोई सत्ता नहीं। इसका आशय है कि विचार और उस वस्तु में कोई अंतर नहीं। दार्शनिकों के यहाँ ‘सह’ पदबंध व्याख्याएँ भिन्न-भिन्न रुपों में व्यक्त हुई हैं। शुभ गुप्त ने ‘बाह्यार्थ सिद्धि’ में तर्क दिया है कि बोध और साथ ही बोध की वस्तु का चेतना में एक ही क्षण (सह) उदय होता है। लेकिन दोनों की समरुपता सिद्ध नहीं होती। कोई वस्तु किसी अन्य वस्तु के साथ घटित होती है; दो भिन्न तत्वों की सह–उपस्थिति को स्वीकार किए बिना सहगामिता की अवधारणा निरर्थक है। केवल एक तत्व का ही अस्तित्व स्वीकार करने पर सहगामिता की चर्चा करना एकदम अर्थहीन हो जाता है। शुभ गुप्त ने ‘सह’ शब्द के ‘तादात्म्य’ अथवा ‘एकार्थ’  के ‘अभिप्राय’ से की गई व्याख्याओं का भी खंडन किया है। जैन दार्शनिक अकलंक ने इसी प्रसंग में लिखा कि ‘सह’ शब्द को ‘समरुपता’ अथवा ‘एकार्थ’ के अर्थ में स्वीकार करने से इसमें द्विरिक्त दोष पैदा हो जाता है । 

    

एन. जे. शाह ने ‘अकलंकस क्रिटिसिज्म ऑफ धर्मकीर्तिज फिलॉसफी’ में लिखा कि अकलंक मानते हैं कि वास्तव में यह उदिष्ट निष्कर्ष और इसे प्रमाणित करने के अभिप्राय से प्रस्तुत आधार दोनों के बीच में कोई अंतर नहीं रहने देता। कुमारिल ने धर्मकीर्त्ति की ‘सहोपालंभ नियम’ अवधारणा की आलोचना करते हुए लिखा ज्ञान की पड़ताल ज्ञात वस्तु से स्थापित नहीं की जा सकती, क्योंकि दोनों में लाक्षणिक भिन्नता है। आदर्शवादी दार्शनिक मानते हैं कि सब कुछ भाव मात्र अथवा ज्ञान मात्र है, कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जो ऐसी न हो। ऐसी हालत में ज्ञाता और ज्ञात क्या हैं? आदर्शवादी दृष्टिकोण से स्वयं ज्ञान ही कभी ज्ञाता और कभी ज्ञात के रुप में दिखायी पड़ता है। कुमारिल ने ‘सर्वास्तिवाद’ में लिखा कि यदि ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञात में कोई वास्तविक अंतर नहीं, तो इस दावे का कोई विशेष अर्थ नहीं होगा कि ज्ञान कभी ज्ञाता के रुप में और कभी ज्ञात के रुप में प्रकट होता है। वे कहते हैं कुछ न कुछ अंतर जरुर होता है।

  

फणि भूषण तर्कवागीश ने ‘न्याय दर्शन’ में लिखा कि प्रथमतः ज्ञात के साथ ज्ञान की एकात्मकता का वास्तव में कोई प्रमाण नहीं। आदर्शवादी तर्क प्रस्तुत करता है कि ज्ञान से भिन्न ज्ञानात्मक वस्तु की चेतना संभव नहीं, अथवा ज्ञात से संबंधित चेतना अनिवार्यतःऔर निरपवाद रुप से मात्र ज्ञान की चेतना होती है। लेकिन यह सब कुछ कल्पना मात्र है, तथ्य नहीं। इसके विपरीत अनुभव का निर्णय यह है जो कुछ भी ज्ञात है, वह ज्ञान से भिन्न रुप में ज्ञात है। और ज्ञानात्मक तथ्य के वास्तविक स्वरुप के विश्लेषण से इस निर्णय की पूर्णतया पुष्टि होती है। ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्यतः एक प्रकार की क्रिया है, और जिसे ज्ञात किया जाना है वह इस क्रिया का लक्ष्य होता है। किसी क्रिया के लक्ष्य को स्वयं क्रिया से समीकृत नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार काटने की क्रिया खुद अपने को काट नहीं सकती; ठीक उसी प्रकार ज्ञान प्राप्ति की क्रिया स्वयं ज्ञान नहीं हो सकता। कोई एक आदमी लकड़ी का टुकड़ा इसीलिए काट सकता है, क्योंकि लकड़ी, काटने की क्रिया से भिन्न होती है। इसी भांति कोई आदमी किसी वस्तु को इसीलिए जान पाता है, क्योंकि ज्ञात वस्तु ज्ञान प्राप्ति की क्रिया से भिन्न होती है। 

      

धर्मकीर्त्ति के आदर्शवादी दृष्टिकोण के खंडन में अकलंक ने कहा कि विष के ज्ञान या भाव से ही मृत्यु नहीं हो जाती। यदि गरल की कोई बाह्य सत्ता नहीं; बल्कि वह चेतना अथवा भाव का ही एक स्वरुप है तो उसका पान करने से शरीरपात कैसे हो सकता है? विष का नाम मात्र लेने से ही किसी की मृत्यु नहीं हो जाती। शुभ गुप्त ने लिखा कि कोई आदमी स्वप्न देखता है कि उसका शरीर टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया है। यह वास्तव में एक आत्मपरक भाव है और किसी वस्तुपरक यथार्थ से इसकी संगति नहीं बैठती। वे यह भी तर्क देते हैं कि जब कोई इस विचार का स्वगत करता है कि अकेले मन सत्य है, तब वह कैसे दान आदि जैसे प्रारम्भिक कर्त्तव्यों का पालन करता है? जब कोई बारंबार दान-चिन्तन (अर्थात् निपट चिंतन के रुप में दान का, अथवा और भी सरल शब्दों कहें तो, दान के मात्र विचार का ) सहारा लेता है, तो इससे कभी दरिद्रता दूर नहीं होती। अतःअकेले भाव या विचार को सत्य नहीं माना जा सकता। जो कि धर्मकीर्त्ति के दृष्टिकोण की धुरी है।


जगदीश्वर चतुर्वेदी



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टिप्पणियाँ

  1. राहुल जी की कृति दर्शन-दिग्दर्शन पर जगदीश्वर जी का आलोचनात्मक आलेख इस कृति की विशेषता के साथ साथ उसकी भ्रामक निष्पत्तियों को बड़े ही तार्किकता के साथ सामने लाता है। दर्शन की विभिन्न सरणियों को रेखांकित करते हुए इस कृति की सीमाओं को भी सामने लाता है। इस आलोचनात्मक आलेख के जगदीश्वर जी का आभार। पहली बार को धन्यवाद।
    जितेन्द्र धीर कोलकाता

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