ईप्सिता षड़ंगी की कविताएं

 

ईप्सिता षड़ंगी



स्त्री का जीवन अपने आप में ऐसा जीवन है जिसमें वह अपने अस्तित्व तक के लिए सतत संघर्षरत दिखाई पड़ती है। उससे सहज ही तमाम तरह की अपेक्षाएं की जाती हैं और उसके ऊपर तमाम तरह की पाबंदियां लगा दी जाती हैं। यही नहीं उससे खामोशी की इस कदर अपेक्षा की जाती है कि हद की इंतहा हो जाती है। ईप्सिता षड़ंगी ने स्त्री जीवन के इस संघर्ष को कविता में स्वर प्रदान किया है। वे मूलतः ओड़िया भाषा की कवयित्री हैं। लेकिन भाषा कोई भी हो स्त्रियों की पीड़ा तो सब जगह कमोबेश एक जैसी ही दिखाई पड़ती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ईप्सिता षड़ंगी की कुछ कविताएं।



ईप्सिता षड़ंगी की कविताएं 


स्त्री जन्म


यहां बोलना कम

सहने की दाय ज्यादा।

जितना ज्यादा हो अभिमान

उतना ज्यादा है यूपकाठ में जान।

मिट्टी से भी ज्यादा है

सहनशीलता की अपेक्षा....

खुशी से कोसों दूर

है जैसा यह

जिन्दगी का लक्ष्य।


जितनी सतर्क हो भी क्यों ना

शब्दों के प्रयोग में

स्वर निकल पड़ता है बाहर

जितना भी समेट के पकड़ो क्यों ना

सिरा को

कष्ट के आंसू

निकल ही आते हैं आंखों से चिबुक पर।


सांस की आहट

शब्दों के अंतर्दाह

खुशी की खनखन आहट

सब कुछ हमें गोपनीय रखने की ताकीद की गई है 


यहां जीवन का

आना जाना ही

अबाध है।



देह


एक लड़की की

देह या मन का अपना "मन" नहीं होता!

मन ही नहीं होता एक लड़की का।


जन्म से अन्त तक

उसकी शरीर कितनी

आवृत होगी

कितनी अनावृत

यह फैसला किसी और को लेना है।


लड़की की देह में भी

यौवन आता है।


गीत गाए वह भी 

झूमती है मलय पवन के साथ।

स्वप्न संजोती है रंग बिरंगे जीवन का,

मगर सिर्फ ख्याल में,

सिर्फ मन ही मन में, हाय!


गीत गुनगुनाये - तो वेश्या

नाचे सधीर तो- असती,

स्वप्न में जाने लगे तो- सीमा लांघने की आशंकाएं अनेक।


आशंकाओं से

आतंकों से

आबद्ध कर‌ लिया जाता है 

लड़की का शरीर।


जब कभी उसके शरीर को

अपने अधिकार में ले लेता है

कोई जादूगर 

तब उसका शरीर 

टूटे फूटे बिछौने की तरह 

घसीटा जाता है 

इधर से उधर 

बार बार 

बार बार।


लड़की का शरीर सुंदर, अनावश्यक,

उपेक्षित 

एक महाकाल फल।






 मैं : नारी

मूल ओड़िया: इप्सिता षड़ंगी

ओड़िया से अनुवाद: हरेकृष्ण दास


सौंप आई थी मैं अपना अल्हड़पन

मां की जरायू का उस फूल को

नष्ट होने के लिए मिट्टी में दफ्न होते हुए

पैदा हुई मैं जब।


बड़ी हुई मैं 

मां ने कहा अब तू रजस्वला है।

सीखना पड़ा है मुझे

अंदर ही अंदर सिमट जाना।

सीखा मैंने लाज।


खो दिया मैंने अपना अधिकार

पापा और भैया के पास उठने बैठने का

सीखा मिटना, सिमटना, सहना-मिट्टी सा।


छोड़ आई थी मैं अल्हड़ अंगड़ाइयां सब

बचपन की कोमल नर्म बिस्तर पर 

जब मैंने शादी की!!


अब मैं और मेरी अनिच्छा

बैठे हैं आमने सामने 

बंद कर के दरवाजे सारे 

अंधेरे में 

अपनी-अपनी अस्मिता को ढूंढते हुए।


कोशिश में लगे भी हैं

लाद देने को अपना अपनी ख्वाहिशे, अभिमान, अहंकार

और असूया को

एक दूसरे के कंधो पर।


हार और जीत 

सब कुछ एक है यहां,

यादों में गुम 

अपने ख्यालातों के अस्पष्ट बिंदुओं में 

समाए हैं जैसे।



पापा

मूल ओड़िआ : ईप्सिता षड़ंगी

अनुवाद : स्वयं कवि

          

 ‌‌(1)


मेरे जीवन में तुम

रंग बिरंगी सपनों की

स्याही भर रहे थे, पापा।


बूंद बूंद  कर 

शेष होते जा रहे थे तुम,

और मैं अपनी राह पर

आगे बढ़ती रहती थी

तुम्हारी स्वेद और लहू के नद में

बेफिक्र।

                   


(2)

शेष हो चले हैं अब

कलम के दिन, पापा

अब बाल पेन (ball pen) बन जाओ ना,

बोली मैं, 

गोजर की तरह संकुचित कर दिया तुमने

हर जरूरत को अपनी

और कठिन हो चला रक्त तुम्हारा



(3)

अब संस्कृति और समय का दौर

कुछ ऐसा अलग है

कि श्रवण कुमार की तरह

कोई तीर्थ ले जाने के लिए तुम्हें

न सामर्थ्य है, 

न ही समय मेरे पास, पापा।


अब इस्तेमाल कर फेंक देने की (use and through)

इस संस्कृति में

तुम्हारी लाचारी, तुम्हारा बुढ़ापा,

मैं कैसे न्याय दूं?

                     


(4)

तुम्हारा ज्ञान, अनुभव तुम्हारे

जरुरी है क्या सचमुच

जब मैं भी हूं

इस्तेमाल हो कर फेंक दिए जाने की

कलम बनने की धार पर?

        ‌


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की है।)

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