भरत प्रसाद का आलेख 'जनमन के अंचल-कवि'
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केशव तिवारी |
एक ही काल खण्ड में अनेक कवि रचनात्मक सहयात्री होते हैं। लेकिन आगे चल कर उसी कवि को याद किया जाता है जिसने बेबाकी से लोक को अपनी कविताओं में उकेरा हो। केशव तिवारी अपने समय के प्रतिनिधि कवि हैं। इनका चौथा कविता संग्रह "नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा" 2024 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह पर कवि आलोचक भरत प्रसाद ने आलोचनात्मक दृष्टि डाली है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं केशव तिवारी की कविताओं पर भरत प्रसाद का आलेख 'जनमन के अंचल-कवि'।
'जनमन के अंचल-कवि'
(केशव तिवारी पर केन्द्रित)
भरत प्रसाद
पिछले करीब तीन दशकों से कविता की खेतिहर जमीन पर निरंतर श्रमवान केशव तिवारी अपने ढंग की अलहदा छाप रखते हैं।यह छाप उनकी अपनी कमाई है, अपनी हुनर, अपनी शैली, अपनी बेलीकियत है। कहना जरूरी है कि इसके पीछे की उर्जा है, उनकी अपनी प्रगाढ़ भावना, खोजधर्मी दृष्टि और अर्थ को बीज की गरिमा देने की जिद। केशव तिवारी अपने समकक्ष और हमउम्र कवियों से गुणात्मक स्तर पर अलग चमके तो उसका ठोस कारण है। अपने सृजन के शुरुआती दिनों से ही उन्होंने अपनी जमीन तय कर ली, फिर उसे निराया, जोता, खर-पतवार की पहचान की, साफ-सूफ किया और हूबहू खेतिहर की तरह जम गये कविता की फसलें उगाने में।
पिछले तीन दशकों के दरम्यान कलम चलाते हुए केशव तिवारी के चार संग्रह हिन्दी जगत में उपस्थिति दर्ज कराए। वैसे तो गंभीर दृष्टि की उठान इनके पहले संग्रह- "इस मिट्टी से बना" (2005) में ही झलकने, अंखुवाने लगती है, किन्तु आकर्षक ऊंचाई हासिल हुई- "तो काहे का मैं" (2014) और "नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा" (2024) काव्य संग्रहों से।
उदासी, दुख, अंतर्पीड़ा की रागिनी सबके मन में करीब एक सी बजती, एक जैसी टीसती, एक जैसे कसकती है। किन्तु केशव तिवारी की भाव तीव्रता से गुजर कर वह अलहदा, मारक, मर्मबेधी और चटक हो जाती है। उसे एहसास में उतार देने की काबिलियत केशव जी में अलहदा और मंत्रमय है:
एक आवाज़ की तड़प
सुरों की बेचैनी के साथ
लौटा रहा है जोगी
जोगी जानता है कि
जागे हुए सुरों के साथ
पूरी जिंदगी जागना पड़ता है।
(कविता-जोग)
शब्द को कैसे, कहाँ और कितना खर्च करना है और कब धन की तरह बचा लेना है, बर्बाद बिल्कुल नहीं होने देना है, इसकी भी अनकही कला केशव तिवारी सिखाते चलते हैं। एक कविता है- "इस सृष्टि में" जिसमें कवि ने वह कहा है, जिसे कोई कह नहीं पाता, वह सुन लिया है, जिसे सांसारिक आदमी सुनता नहीं, वह परख लिया है, जिसको परखने की नजर हम रखते ही नहीं, वह देख लिया है, जिसे दोनों आंखें कभी देख नहीं पाएंगी। इस कविता में मूलस्थ है- गुमनाम, अदृश्य, अनसुनी उम्मीदों का अटूट विश्वास, जिसे एक सर्जक, कोई खोजी, कोई आकंठ चहेता ही बूझ सकता है, एकला हिम्मत से डट कर कह सकता है:
हर हाल में दर्ज होगा मनुष्य का दर्द
और उल्लास हर हाल में
कितने नये रास्ते बन रहे हैं
कितनी पदचापें गूंज रही हैं
जो नहीं सुन रहे हैं
एक दिन उन्हें भी सुनना पड़ेगा।
केशव तिवारी उस दौर के सर्जक हैं, जब कविता में कविता बहुत कम बची है, जब खांटी बतकही को कविता मानने पर विवश किया जा रहा है, जब सपाटबयानी और काव्य-कौशल का फर्क मिट चुका है, जहाँ गद्य ही कविता की अंतिम नियति है। ऐसे धुंआते वक्त में कवि ने नयी राह अपनायी है। वह राह है, शब्दों को भावों का अग्रदूत बनाने की राह, वह पथ है, मार्मिकता को कला में ढालने की राह, वह मार्ग है, नयी सोच को अचूक शब्दों में तराश देने की राह।
कहना जरूरी है, कि इसके लिए प्रतिपल सजगतावादी अंतर्दृष्टि चाहिए, परिपाटी से अलग चलने की हिम्मत चाहिए और मूल्यवान अर्थ को खोज लेने की जिद भी। एक कविता है-"अकाल", जरा पढ़िए कुछ पंक्तियां-
भाषा से कहो
बड़े अदब से जाए इनके पास
विचार तो बहुत ही सतर्क हो कर
तालों से लटक रहा है सन्नाटा
पास से ही कहीं आ रही है
बाघ की भी दुर्गंध।
अपने पाठक से सीधा संवाद करती, पूछती, सुनाती हुई कविताएं हैं- केशव तिवारी की कविताएं। जैसे कविताएं खुद कवि की आपबीती कथा हों, मगर रुकिए,कथा जैसी कथा नहीं, अनिवार्य पाठ जैसी,सीख जैसी,विचार और गूढ़ मर्म जैसी कथा।चरित्र तो इनकी कविताओं में ऐसे आवाजाही करते हैं, शब्दों के भीतर अर्थ।ठोस अनुभव की, यथार्थ की, आसपास की दुनिया रचते हैं, केशव तिवारी।
यह तयपूर्वक कहा जाना चाहिए कि कविता ने कवि को रचा है, तब जा कर कवि कविता रचने में कामयाब हो पाया है। बारीक और बेलीक परख रखना इनकी कविताई की एक और दुर्लभ उपलब्धि है। "उनके और तुम्हारे पास" शीर्षक कविता में कवि ने व्यक्ति और व्यक्ति में फर्क किया है।
दो कभी एक जैसे होते ही नहीं। बल्कि एक भी अपने जैसा नहीं रह पाता। वह भी रोज बदलता है, अच्छा या बुरा, जटिल या सरल, स्पष्ट या उलझाऊ। परन्तु एक ही आदमी एक ही जीवन में सैकड़ों रंग बदल लेता है। हमें या और किसी को पता चले न चले।
"डोर टू डोर सामान बेचती लड़कियां" कविता कवि की संवेदना नापने का पैमाना है। है तो कविता छोटी, मगर चोट गंभीर करती है। है तो संक्षिप्त शब्दों में, किन्तु तीखे अर्थों की ध्वनि बहुत दूर तक पैदा करती है। कितनी अटूट आत्मीयता, आकंठ नेह और अकथ बेचैनी से भरकर कवि ने परखा होगा इन श्रमशीला लड़कियों को, तब जा कर यह खनकती कविता संभव हो सकी। भाषा तो ठहरी भाषा, उसे क्या पता, कौन बोलता है, कौन जुबान में बैठाए हुए है। वह भला है या अच्छा, नेक है या चार सौ बीस। वह सबकी जुबान को अर्थ दे देती है। "अवधी में" शीर्षक कविता कुछ अलग ही अर्थ का स्वाद लिए-दिए है। अपने समय के प्रति, समाज और मनुष्य के प्रति लेखक, कवि, विचारक का क्या दायित्व होता है, इसकी भी अचूक समझ केशव तिवारी में है। "समय की पुकार सुनने के लिए" कविता इसका प्रमाण है :
दुनिया बदलने का गहरा दबाव था
अब बहुत हो गया वाले अंदाज़ में
उठ खड़ा होना था
समय की पुकार सुनने के लिए
बहुत सारी पुकारों को
अनसुना करना था।
गंवई प्रकृति का कवि निरीक्षण ही नहीं करता, सिर्फ दर्शक की तरह दूर से देखता भर नहीं, न ही लिखने मात्र के लिए प्रकृति को मोहरा बनाता है, बल्कि प्रकृति पर लिखकर स्वयं को पूरा करता है। उनका कलम चलाना, भीतर प्रकृति के खिले रहने का प्रमाण है। हर जगह की प्रकृति एक जैसी कहाँ होती है? गांव की अलग, कस्बों में बची, बची सी, शहरों में दबी-कुचली सी, किन्तु बियावान में अपनी अखंड सत्ता की घोषणा करती हुई। सच तो यह है, प्रकृति हमारे होने की जरूरी दवा है, आंखों की औषधि, चित्त की रसभूमि और कल्पनाओं का अक्षय स्रोत।बाबा नागार्जुन तो गांव की चंदनवर्णी धूल निरख कर लहालोट हो जाते थे। कवि केशव तिवारी भी अपने कवि होने का भान पीछे छोड़ देते हैं, जब प्रकृति के अंतर में उतरते हैं :
मौसम को कोसता बूढ़ा
बुदबुदा ज्यादा बोल कम रहा है
अभी और गिरेगा कुहिरा
ता लेगा खेत, पला जाएगी मटर
उसके पास घाघ और भड्डरी की
सम्मतियाँ हैं, अपने कहे के पक्ष मे।
(कविता : कुछ सम्मतियाँ मेरे पास भी हैं)
आग और आवाज, दुख आएगा, उसी दिशा में, मजाज की कब्र देख कर, बुद्ध सुन रहे हो, शिकायत, पाठा में चैत, पुकार, विदा और नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा..
ऐसी एक नहीं अनेक कविताएं है, जिनके भीतर से खूब मजा, सधा और तनकर खड़ा कवि का कद बोलता है। वह भी स्पष्ट, दो टूक और अकेला। अकेला इस अर्थ में भी कि केशव तिवारी की अपनी राह, अपनी चाल, दिशा, तेवर, तल्खी और तासीर है। जिसे उन्होंने स्वयं बड़ी समझदारी, बारीकी और हुनर के तालमेल से हासिल की है। उन्होंने अपना मुहावरा खोजा है, अपनी छाप गढ़ ली है, अपनी आवाज़ छोड़ दी है, साहित्य में। यह आवाज लोक से बंधी है, जन में रमी है, जीवन में धंसी है, अंचल में डूबी है।मुक्तिबोध के शब्दों में कहना जरूरी है, कि केशव तिवारी नाभिनाल बद्ध हैं, लोकसत्ता से।बल्कि रोम-रोम से, चित्त से, एहसास से, कल्पना और वेदना की एक एक तरंग से। यह जरूर है, यह लोक अनुरक्ति किताबी नहीं है, विचारवादी नहीं, सैद्धांतिक नहीं, न ही जनवादी सिद्ध होने के फैशन में है, बल्कि वे खुद उसी लोक की उपज है, इसी मटिहा, धूसर, अनगढ़, सरल, भावजीवी जन ने इन्हें रचा है, जन्म से बढ़ कर जन्म दिया है। आदमी से थोड़ा ज्यादा आदमी बनाया है,जमीन पर जीने का संस्कार दिया है।मिट्टी के साथ अदब से पेश आने की नम्रता दी है और आंतरिक पक्षधरता का ऐसा बेकाबू सैलाब सौंपा है, जो कि बस कलम के बहाने थमने का नाम लेता है।
परन्तु ठहरिए जरा.. क्या केशव तिवारी की यात्रा यहाँ पूरी हो गयी? क्या केशव तिवारी के कवि को हमने परिभाषित कर दिया? क्या चार संग्रहों के बूते केशव तिवारी के कवि की खोज पूरी हो गयी? मेरे देखे, नहीं। जिस लोक की जमीन पर बड़ी मजबूती से इनकी कविता खड़ी है, वह लोक, वह जन, वह जनता, जीवन और जमीन इतनी गहरी, व्यापक और बहुआयामी है कि मात्र एक लोकगायक से वह कहाँ अमर होने वाली? "एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं" मुक्तिबोध का यही विलक्षण एहसास उन्हें महत् कवि बना गया। हमारे लोककवि के तन-मन में भी प्रतिपल, प्रतिदिन यही बेचैनी जलती रहनी चाहिए, वह भी विद्युत की तरह, लौ के मानिंद। और अगर हो सके तो काल को रौशन करने वाली मशाल की तरह भी।
केशव तिवारी का मूल्यांकन करना एक दीर्घ अंतर्यात्रा से गुजरना भी है, जिसका एहसास वही कर पाएगा, जिसने उनकी कविताओं को बस पढ़ा ही न हो, उन्हें गुना हो, गुनगुनाया हो, जी भर कर चाहा हो और उन कविताओं को मन ही मन अपना संस्कार करने वाली तरंगें बना लिया हो। समापन के ठीक पूर्व याद करना जरूरी समझते हैं, केशव तिवारी की ये पंक्तियां :
चतुर कवि तो कविता में गाल बजाएगा
नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा।
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भरत प्रसाद |
सम्पर्क
भरत प्रसाद
हिन्दी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय
शिलांग-मेघालय
पिन - 793022
मोबाइल : 9077646022
बहुत सुन्दर। दोनों रचनाकारों को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर बधाई दोनों रचनाकारों को
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविता संग्रह पर बेहतरीन लिखा है भरत जी ने।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन संग्रह पर बेहतरीन लेख।
जवाब देंहटाएंकवि केशव तिवारी हिंदी के आधुनिक कवियों में लोकजीवन और आंचलिक सौंदर्य की छवि मुद्राओं को नई भंगिमाओं
जवाब देंहटाएंके द्वारा जिस जीवन के व्यक्ति करते हैं वह एक अलग प्रकार की आलोचना की अपेक्षा करती है। कवि केशव और समालोचक भरत प्रसाद बधाई के पात्र हैं
डॉ चंद्रिका प्रसाद दीक्षित
ललित
पूर्व प्रोफेसर ,अध्यक्ष एवं शोध निदेशक पंडित जवाहरलाल नेहरू स्नातकोत्तर हिंदी विभाग शोध केंद्र बांदा, उत्तर प्रदेश
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जवाब देंहटाएंडॉ. भरत प्रसाद का आलेख "जनमन के अंचल-कवि" केशव तिवारी की कविताओं की संवेदना और सामाजिक प्रतिबद्धता को गहराई से पड़ताल करता है। तिवारी की रचनाएँ जीवन के विविध अनुभवों यथा; दुख, आशा, संघर्ष और उल्लास - का सजीव चित्रण करती हैं, जो समाज के अनदेखे पहलुओं को सामने लाती हैं।
जवाब देंहटाएंलेखक ने तिवारी की कविताओं में सरलता और गहराई के संतुलन को रेखांकित किया है, जहाँ उनकी भाषा में निहित मधुरता और सामाजिक संदेश पाठकों को प्रभावित करते हैं। "नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा" जैसे शीर्षक पाठकों में जिज्ञासा और संवेदना का संचार करते हैं, जो कवि की प्रतीकात्मकता और सामाजिक चेतना को दर्शाते हैं।
आलेख में यह भी बताया गया है कि तिवारी की कविताएँ समाज के उन वर्गों की आवाज बनती हैं, जो अक्सर मुख्यधारा से कटे रह जाते हैं। 'डोर टू डोर सामान बेचती लड़कियाँ' जैसी कविताओं के माध्यम से कवि ने रोजमर्रा के संघर्षों और आशाओं को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है।
डॉ. भरत प्रसाद का यह विश्लेषण साहित्य को समाज का दर्पण मानते हुए, पाठकों को आत्मनिरीक्षण और सामाजिक संवेदनाओं की ओर प्रेरित करता है। यह आलेख न केवल साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणास्पद है, बल्कि समाज के अनकहे पहलुओं को उजागर करने में भी सहायक है। इस उत्कृष्ट विश्लेषण के लिए डॉ. भरत प्रसाद जी का हार्दिक धन्यवाद।