कौशल किशोर का आलेख 'लोकजीवन का सौंदर्य और श्रम संस्कृति की आभा'
अन्नदाता होने के बावजूद किसान सामाजिक रूप से खुद को हेय परिस्थितियों में पाता है। परिस्थितियां प्रायः विपरीत रहती हैं इसके बावजूद वह जूझता है। कवि लक्ष्मीकांत मुकुल खुद किसान हैं इसलिए किसानों की कथा व्यथा से अच्छी तरह परिचित हैं। हाल ही में उनका एक कविता संग्रह ‘घिस रहा है धान का कटोरा‘ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह पर एक समीक्षात्मक आलेख लिखा है कवि कौशल किशोर ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कौशल किशोर का आलेख 'लोकजीवन का सौंदर्य और श्रम संस्कृति की आभा'।
'लोकजीवन का सौंदर्य और श्रम संस्कृति की आभा'
(लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं)
कौशल किशोर
हिंदी की प्रगतिशील कविता लोकधर्मी कविता है जिसके केंद्र में किसान, मजदूर, गांव और लोकजीवन है। समकालीन कविता में इनकी उपस्थिति कम होती गई है। वहां नगरीय व महानगरीय जीवन बोध और मध्यवर्गीय संवेदना का पहलू प्रधानता ग्रहण करता चला गया है। कविता में किसानों की चर्चा हुई भी है तो मुख्य तौर से उनकी आत्महत्या को ले कर। इसी विषय पर कविताएं लिखी गई हैं। पिछले दिनों तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध दिल्ली बार्डर पर किसान आंदोलन चला, उसे ले कर भी काफी कविताएं लिखी गईं। ये आंदोलनपरक कविताएं हैं जिनका प्रमुख स्वर सत्ता और व्यवस्था के विरोध-प्रतिरोध का है।
लक्ष्मीकांत मुकुल लोकधर्मी कवि हैं। इनकी कविताएं लोकजीवन में गहरे धंसी है। इनकी अपनी माटी, भूगोल, भाव-भूमि और लोकेल है। उनका दूसरा संग्रह है ‘घिस रहा है धान का कटोरा' जो सृजनलोक प्रकाशन, नयी दिल्ली से आया है। इसमें 75 कविताएं संकलित हैं जो ‘किसानी संस्कृति को बचाए रखने के लिए जद्दोजहद करते कृषि योद्धाओं को समर्पित' है। शीर्षक और समर्पण से यह बात सामने आती है कि किसान संस्कृति संकट में है और कवि उसे बचाना चाहता है। उसकी प्रतिबद्धता इस संस्कृति के लिए संघर्षरत कृषि योद्धाओं के साथ है। कविताएं गांव, किसान और आम जीवन में प्रवेश करती हैं, इतिहास से लेकर वर्तमान की यात्रा करती हैं और इसी भाव-भूमि पर खड़े होकर अमानवीय होती वर्तमान व्यवस्था से टकराती हैं। इनमें लोक जीवन का सौंदर्य और श्रम संस्कृति की आभा है।
‘घिस रहा है धान का कटोरा‘ संग्रह की शीर्षक कविता है। यहां जिस ‘धान का कटोरा‘ की बात है, वह भोजपुर, बक्सर, रोहतास व कैमूर का अंचल है। यह किसान बहुल क्षेत्र है। यहां की मुख्य फसल धान है और यही जीवन का आधार है। गंगा और सोन जैसी नदियां खेतों की सिंचाई करती हैं। धान की पैदावार किसानों की खुशहाली और समृद्धि का कारण है। इसी से उनकी संस्कृति सृजित है जो सोन और गंगा की धारा की तरह जनजीवन में प्रवाहित है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण यह अंचल ‘धान का कटोरा‘ के नाम से लोकप्रिय हुआ। इसकी पहचान बनी। लेकिन आज यह कटोरा ‘घिस रहा है‘। वह दुर्गति का शिकार है। किसानों का आर्थिक से लेकर सामाजिक जीवन और उसकी संस्कृति व अस्तित्व संकट में है। कविता अतीत में जाती है और किसान संस्कृति को सामने लाती है, वहीं उसके क्षरण तथा इसके कारणों की पड़ताल भी करती है।
‘घिस रहा धान का कटोरा’ लम्बी कविता है। इसके 17 खंड है। हरेक खंड में किसी खास पहलू पर बात की गई है। जैसे पहले खंड में धान के खेत के मनमोहक दृश्य का दर्शन होता है। कवि उसे प्रसूता की तरह देखता है। धान की बालियां हवा के संग अठखेलियां करती हैं। धान के खेतों का होना मनुष्य के लिए ही नहीं पक्षियों के लिए भी खुशी का सबब है। कविता में खेतों के बीच की पगडंडियों को ले कर बिम्ब द्रष्टव्य है:
‘खेतों के बीच से गुजरती है पगडंडियां
संवारे बाल के बीच उभरती मांग की तरह'।
इन पंक्तियां को पढ़ते हुए मनमोहक दृश्य उपस्थित होता है। वहीं, दूसरे खंड में धान को लेकर लोककथा है जो विभिन्न पीढ़ियों से होते हुए आज तक पहुंची है। इतिहास से ले कर वर्तमान तक की यात्रा में उसका रूप, रंग, प्रकार और प्रजातियां भी बदलती गई हैं।
लक्ष्मीकांत मुकुल अपनी इस कविता के माध्यम से कृषक संस्कृति को सामने लाते हैं। यह मात्र धान की खेती करने तक सीमित नहीं है बल्कि इसने कृषक संस्कृति को भी निर्मित किया है। इसमें सामूहिकता व सामाजिकता की भावना और आत्मनिर्भरता थी। लोगों की जरूरतें सीमित थीं। किसी के सामने हाथ पसारने की जरूरत नहीं थी। यह किसानों का हुनर और सृजनात्मक क्षमता थी कि उन्होंने किसिम-किसिम के चावल पैदा किये। उसके बीज सुरक्षित रखे। कवि मुकुल लोकजीवन में हर्ष और उल्लास देखते हैं। उन्हें रोपनी के गीत, कटनी के गीत याद आते हैं। उन्हें मानसून की पहली बूंद का इंतजार याद आता है, जिसमें लोग हर्षित होते थे। प्रेम के भाव उमड़ने-घुमड़ने लगते। कजरी के, प्रेम और प्रणय के गीत गाए जाते। बैलों के घुंघरू बजते और मन प्रफुल्लित हो जाता। किसान बैलों को अपने बेटे की तरह प्यार करते और माल मवेशियों को अपने जन की तरह ख्याल रखते। लेकिन अब वह बात नहीं है। समय के साथ समाज में बदलाव आया है। इस पर कवि की नजर है और उसे यूं व्यक्त करता है:
‘बदलता गया जमाना
बदलते गए समय के रिवाज
खेती के औजार
बैलों की जोड़ी
बदलते गए रिश्तों को आंकने के पैमाने
धान के भुस्से की तरह
उड़ गई ग्रामीण लोकधारा
गड़गड़ाते ट्रैक्टर दौड़ने लगे खेतों में
हाइब्रिड बीजों की गर्दन काट
नई बाजार लूट संस्कृति की धमक पर‘
वैसे तो परिवर्तन लाजिमी है। लेकिन कैसा है यह परिवर्तन? लक्ष्मीकांत मुकुल को इस बात की गहरी पीड़ा है कि लोक जीवन में जो चीजें गहरे पैठी थीं, वह आज नष्ट कर दी गईं या की जा रही हैं। यह परिवर्तन ‘नई बाजार लूट संस्कृति की धमक पर' हो रहा है। इसीलिए कवि के अंदर आक्रोश और बेचैनी है।
मतलब, यह पूंजीवाद का ग्राम्य जीवन और कृषि उत्पादन में प्रवेश है। पूंजीवाद की प्रकृति ही लूट और मुनाफा है और अपने लूट को छिपाने के लिए वह तरह-तरह के झूठ को समाज में फैलाता है। इस तरह समाज के सांस्कृतिक पर्यावरण को अपने अनुरूप ढ़ालता है। समाज में लाभ, लोभ और लालच की प्रवृत्ति बढ़ती है। समाज में स्वार्थपरता बढ़ती है। यह किसान संस्कृति के विरुद्ध है जिसकी बुनियाद लोक जीवन और सामूहिकता है। यही लक्ष्मीकांत मुकुल की परेशानी का कारण है। किसान संस्कृति के लिए उनके मन में जो छटपटाहट है, वह कविता में अभिव्यक्त होता है।
वर्ग समाज में कोई भी संस्कृति द्वन्द्वविहीन या अंतर्विरोध रहित नहीं हो सकती। भोजपुर का अंचल सामंती प्रभुओं के जुल्म-शोषण-अत्याचार और सामंतवाद विरोधी किसान आंदोलन के लिए जाना जाता है। सामंतों और किसानों के संघर्ष का यह पहलू लक्ष्मीकांत मुकुल की कविता में अनुपस्थित रहता है। लेकिन पूंजीवाद का गांव, किसान और आम आदमी के जीवन में प्रवेश से जो समस्याएं पैदा हुईं हैं, उसे लेकर कवि की चिन्ता है। उसे अतीत के दिन याद आते हैं। प्रथम दृष्टया लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में अतीत के प्रति मोह दिखता है। वह परिवर्तन के विरुद्ध होने का आभास देती हैं। लेकिन कविताओं में प्रवेश करने पर लगता है कि वह उस परिवर्तन के विरुद्ध है जो मानव समाज द्वारा अर्जित सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध है।
एक महत्वपूर्ण बात, लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं अतीत के माध्यम से इतिहास को विलुप्त होने से बचाती हैं। यह तो ऐसा दौर है जब स्मृतियों को खत्म किया जा रहा है। ऐसे मे यह वर्तमान के संघर्ष का ही हिस्सा है। मुकुल अपनी यादों के सहारे वर्तमान की लड़ाई लड़ते है। बल्कि यह कहना ज्यादा श्रेयस्कर है कि स्मृतियां वर्तमान के संघर्ष में इंधन का काम करती हैं और मानवीय प्रतिबद्धता को सुदृढ़ करती हैं।
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लक्ष्मीकांत मुकुल |
‘छोटी लाइन की छुक छुक गाड़ी', ‘कुलधारा के बीच मेरा घर', ‘यादों में बसंत का प्यार', ‘जोलहल्लूट में बचे बद्ररूद्दीन मियां' आदि ऐसी अनेक कविताएं संग्रह में हैं जिनमें कवि वर्तमान और अतीत के बीच आवाजाही करता है। आज भले ही जीवन सुपरफास्ट ट्रेन की तरह दौड़ रहा हो लेकिन वास्तविक जिंदगी की स्थिति ठहरे हुए ट्रेन की तरह हो गई है। तमाम समस्याओं से लोग घिरे हैं, वहीं सांस्कृतिक स्तर पर पूंजीवादी मूल्यों ने उन्हें ग्रसित कर रखा है। स्वार्थपरता, निजता के प्रति आग्रह, सामाजिकता का हनन, द्वेष, ईर्ष्या, आपसी मार-काट जैसे मूल्य प्रभावी हुए हैं। ऐसे में कवि का पुराने दिनों को याद करना और स्मृतियों की ओर जाना स्वाभाविक है क्योंकि उसमें प्रेम व अपनापन होता था, संबंधों में प्रगाढ़ता और निश्च्छलता होती थी। उसमें दिखावापन नहीं था। लोगों में एक दूसरे के प्रति सहयोग का भाव रहता था। इसलिए उसे याद करने से कवि को मानसिक राहत मिलती है। इन पंक्तियों में देखें-
‘धीमी रेलगाड़ी धीमी चलती थी सबकी जीवन चर्या
तब मिलते थे लोग हाथ मिलाते हुए नहीं
बल्कि गलबहियां करने को आतुर खास अंदाज में
छा जाती थी रिश्ते नाते की उपस्थिति की महक‘
लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर हो रहे संक्रमणकालीन दौर की कविताएं हैं। सत्ता की राजनीति वोट की राजनीति में ढ़ल गई है। ‘पंचायत चुनाव में गांव‘ में कवि इस बात को ले आता है कि किस तरह वोट की राजनीति में गांव जाति-धर्म के मकड़जाल में फंस गया है। सामान्य जीवनचर्या सामान्य नहीं रह गई है। समाज में नया ध्रुवीकरण हुआ है। गांव युद्ध का मैदान बन गया है। गांव की पंचायत पर दबंगों का दबदबा है। वर्चस्ववादी शक्तियों का प्रभुत्व ऊपर से नीचे तक बना हुआ है। सच का साथ देने वालों को उसकी कीमत चुकानी पड़ती है। वोट तो जैसे बाजार-हाट की वस्तु बन गई है। वह कहते हैं:
‘जो बेचते नहीं अपना वोट सौदागरों को
नरमेघों की गिद्ध दृष्टि लगी रहती है उन पर
उनके खेत रखे जाते हैं बिन पटे
उनके बच्चे निकाल दिए जाते हैं स्कूल से
घर से निकलने को रोके जाते हैं उनके रास्ते
उनकी औरतें रहती हैं हरदम असुरक्षित'
यही लोकतंत्र है जिसमें ‘तंत्र’ बचा है, ‘लोक’ गायब है। इसमें गरीब श्रमिक समाज के लिए जगह नहीं है। गांव में रहने का आधार सिमटता गया है तो शहर में भी उनके श्रम की कोई इज्जत और मान-मर्यादा नहीं है। पूरब जिसमें भोजपुर का अंचल शामिल है, उसकी बड़ी समस्या विस्थापन-पलायन है। सामंतवाद की मार हो या पूंजीवाद की, उन्हें रोजी-रोटी के लिए शहरों-महानगरों की ओर पलायन करना पड़ा है। ‘बिहारी' कविता में विस्थापन के इसी दर्द की अभिव्यक्ति है - ‘दुखों का पहाड़ लादे सिर पर/चले आते हैं बिहारी‘ लेकिन क्या उन्हें सामान्य जिंदगी भी नसीब होती है? हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी जिल्लत की जिन्दगी मिलती है। ऐसे में अपना गांव और वहां की मिट्टी की सोंधी सुगंध की याद आना स्वाभाविक है। लक्ष्मीकांत मुकुल के काव्य की यह विशेषता है जिसमें वर्तमान में रहते हुए वह अतीत की ओर जाती है तथा ‘परदेस’ में जीते हुए ‘बिहारी’ अपना ‘देस’ यानी ‘गांव का गुलाबी चेहरा’ नहीं भूल पाता है। यह लोक संस्कृति ही है जो दुखों को सहने-उबरने की ताकत देती है:
‘बिहार से बाहर कमाने गए
युवकों के अंतस में महकती है मिट्टी की गंध
उनके पसीने की टपकन से
खिलखिलाता है गांव का गुलाबी चेहरा’
कोरोना काल ने ‘बिहारी’ मजदूरों की दशा-दुर्दशा और धनाढ्य व मध्य वर्ग की मतलबपरस्ती पर पड़े परदे को तार-तार कर दिया। इन्हीं बिहारी मजदूरों को ‘प्रवासी मजदूर’ कहा गया जिन्हें लॉकडाउन में महानगर छोड़ने को बाध्य किया गया। उन्हें सड़को पर ढ़केल दिया गया। वहां उनके साथ जो क्रूर व्यवहार हुआ, उसकी मार्मिक और यथार्थपरक अभिव्यक्ति ‘कोरोना-काल की जख्में टिसती हैं भगेलुआ को’ में है। यहां ‘भगेलुआ’ एक व्यक्ति नहीं है। वह पूरब के श्रमिक समाज का प्रतिनिधि पात्र है। वह महानगरों और उद्योगों में श्रम का मुख्य श्रोत हैं। कविता कोरोना काल में श्रमिक समाज के प्रति बरती गई सरकार और व्यवस्था की निष्ठुरता को उजागर करती है। आज वे यादें जख्म की तरह टीसती हैंः
‘जब-जब बहती है पुरवैया की बयार
स्वतः आते हैं लाठी से मार खाए जख्मों के दर्द
कोरोना-काल के घवाधुल जख्मों की यादें
बेचैन कर देती है भगेलुआ को
जैसे खाते समय मुंह में कुचल गए हों
आलूचाप में मिर्च....’
समाज में जो घटता है, वह इतिहास में ही दर्ज नहीं होता है बल्कि वह साहित्य में भी संवेग और संवेदना के साथ अभिव्यक्त होता है। वह सृजनात्मक दस्तावेज बन जाता है। कोरोना काल में लिखी कविताएं उस यथार्थ को जिन्दा रखती हैं और इन्हें जिन्दा रखा भी जाना चाहिए ताकि सत्ता और व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र और बर्बरता को समझा जा सके।
लक्ष्मीकांत मुकुल की नजर हमारे समय पर है। कविताएं उससे साक्षात्कार करती हैं। ऐसा करतते हुए भी कवि एक पल के लिए भी अपने लोकजीवन की जमीन को नहीं छोड़ता है बल्कि उस पर मजबूती से खड़े हो कर वह देश-दुनिया और समय-समाज को देखता-परखता है। उसका नजरिया वर्तमान के प्रति आलोचनात्मक है। देखेंः
‘यह कैसा समय है
रोजगार मांगने वालों को कहा जाता है
टुकड़े टुकड़े गैंग वाला
न्याय की गुहार करने वालों को आतंकवादी
विश्वविद्यालय के होनहार छात्रों को
अर्बन नक्सल
रोटी के लिए भुखमरी झेल रहे लोगों को
देशद्रोही..... यह कैसा समय है
जब गहन अंधेरे को उजाला
संडास के पानी को गंगाजल
लुटेरों को सही मनुष्य
मानने का चलन हो गया है
इस समय'
ऐसा ही समय है जब अपराधी, हत्यारे, बलात्कारी, लुटेरे सम्मानित हो रहे हैं और सच्चाई और ईमानदारी की राह पर चलने वाले लोगों को जेल की काल कोठरी मिल रही है। विविधता हमारा संस्कृतिक वैशिष्ट्य है। उसे विलुप्त किया जा रहा है। प्रकृति का दोहन हो रहा है। प्राकृतिक ही नहीं सामाजिक पर्यावरण भी खतरे में है। इतिहास बदला जा रहा है। युवाओं के मानस को विषाक्त किया जा रहा है। कहने का आशय कि संस्कृति को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है और असामाजिकता ही सामाजिकता तथा अमानवीयता ही मूल्य है।
लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं विविधताओं से भरी है। इनके अनेक रंग हैं। एक तरफ बाजरवाद व संप्रदायवाद पर आधारित सत्ता संस्कृति के प्रति तीव्र नफरत और क्षोभ का भाव है, वहीं श्रमिकों-शोषितों के प्रति प्रेम की सलिला अनवरत बहती रहती है। संग्रह में एक कविता है ‘हरेक रंग में दिखती हो तुम’। यह प्रेम के रंग में सराबोर कविता है जिसमें यह व्यक्त है कि प्रेम में बड़ी जीवनी शक्ति है। वह कठोरता के हिमखण्ड को भी पिघला सकता है। यह भाव कविता में कुछ यूं व्यक्त होता हैः
चूल्हें की राख सा नीला पड़ गया है
मेरे मन का नीला आकाश
तभी तुम झम से आती हो
जलकुंभी के नीले फूलों जैसी खिली-खिली
तुम्हें देख कर पिघलने लगते हैं
दुनिया की कठोरता से सिकुड़े
मेरे सपनों के हिमखण्ड’
‘यादों में वसंत का प्यार’, ‘बिम्ब-प्रतिबिम्ब’, ‘देखना फिर से शुरू किया दुनिया को’ आदि कई कविताएं हैं जिनमें प्रेम छलछलाता हुआ मिलता है। लक्ष्मीकांत मुकुल के काव्य में जो बिम्ब हैं, वे गढ़े हुए नहीं हैं बल्कि लोकजीवन के हैं। उनमें कृत्रिमता नहीं सजीवता है। कविता में ऐसे बिम्ब-प्रतीक भरे पड़े हैं जैसे -
‘लीची की
मधुर आभास लिए
वैजन्ती फूलों-सी
आंचल लहराती
मसूर की पत्तियों की तरह
धीमी डुलती हुई’।
इनका प्रयोग वही कवि कर सकता है जिसका प्रकृति से गहरा और भावनात्मक लगाव हो।
सार रूप में हम कह सकते हैं कि लक्ष्मीकांत मुकुल हिन्दी के दुर्लभ कवि हैं जहां लोकजीवन व किसान संस्कृति की प्रामाणिक अभिव्यक्ति मिलती है। इसी बुनियाद पर वे कविता की दुनिया रचते हैं और उसे व्यपकता भी प्रदान करते हैं। यहां ‘दिल्ली की सड़कों पर किसान’ हैं तो ‘नए अवतार में चालबाज’ और ‘बेहाल पंछियों पर शातिर नजरें’ भी हैं। ‘आकाश की तरह विस्तृत पिता’ मिलेंगे तो ‘धनहर खेत’ व ‘नदी सरीखी’ मां का दर्शन होगा। कहने का आशय कि कवि के पास विषय की विविधता है। भाषा सहज-सरल और बोधगम्य हैं लेकिन अख्यानपरकता और कथात्मकता के कारण कविताएं विस्तार ले लेती हैं जिससे बचा जा सकता है। ग्रामीण अंचल की बोलियों का जिस तरह इस्तेमाल हुआ है, उससे हिन्दी को जिन्दगी मिलती है।
बात अधूरी रह जाएगी यदि संग्रह की आखिर कविता जो भोजपुरी में है की चर्चा न की जाए। इस कविता से गुजरते हुए मुक्तिबोध की कविता ‘तय करो किस ओर हो तुम?’ की बरबस याद आ जाती है। अपने देशज अन्दाज में कविता ललकार भी है और हम सबके सामने सवाल भी है कि पूंजीवादी-साम्राज्यवादी सत्ता जब ‘मारखाहवा भईंसा’ के रूप में हमारा सबकुछ खत्म कर देने पर आमादा हो, ऐसे में हम क्या करें?:
‘भागल जाव कि भगावल जाव ओके सिवान से
भकसावन अन्हरिया रात में लुकार बान्ह के।’
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कौशल किशोर |
सम्पर्क
एफ - 3144,
राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मोबाइल - 8400208031
लक्ष्मीकांत मुकुल जी की कविता संग्रह " घिस रहा है धान का कटोरा " की समीक्षा कौशल किशोर ने स्पष्टता और निरपेक्ष होकर किया है. पढ़ते हुए कविता और कविता की समीक्षा को समझते हुए इसके तह में जाने का मौका मिला।
जवाब देंहटाएंमुकुल जी किसान जीवन के कवि हैं और उनकी कविताओं में किसानों के प्रति मार्मिक संवेदनाओं को देखा जा सकता है। जहां एक ओर अतीत के प्रति प्रेम और वर्तमान में किसानों के दुख दर्द को कविताओं में समेटा है वहीं समाज की बिखरती संस्कृति को भी उजागर करने का भरसक प्रयास किया है। विशेष कर ग्रामीण जीवन में बिखरते संबंधों की डोर को भी ओर-छोर तक देखने का प्रयास किया है।
समीक्षक कौशल किशोर और कवि लक्ष्मीकांत मुकुल जी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं एवं बधाइयां।
डॉ. अभय कुमार, मुंगेर
आभार साथी
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