सुधा अरोड़ा का आलेख 'स्त्री शिक्षा और स्त्री समता की पहली पैरोकार : सावित्री बाई फुले'
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सावित्री बाई फुले |
'स्त्री शिक्षा और स्त्री समता की पहली पैरोकार : सावित्री बाई फुले'
(जन्मः 3 जनवरी 1831 निधन: 10 मार्च 1897)
सुधा अरोड़ा
ज्ञान नहीं, विद्या नहीं
अर्जित करने की चाह भी नहीं
बुद्धि हो कर भी जो उस पर चले नहीं
उसे इंसान कहें क्या
*** *** ***
दे दो ईश्वर बिना काम किए बैठे बिठाये खाट पर
ढोर-डंगर भी ऐसा कहता नहीं
जिसका कोई आचार विचार नहीं
उसे इंसान कहें क्या
*** *** ***
पत्नी बिचारी काम करे
और फोकट में पति मौज उड़ाए
पशु पक्षी में भी ऐसा होता नहीं
ऐसों को इंसान कहें क्या!
सावित्री बाई फुले - 1850
इस विद्रोही और क्रांतिकारी तेवर में अपनी बात बहुत दमखम के साथ कहने वाली सावित्री बाई फुले पहली जनकवि, महिला शिक्षिका और स्त्री मुक्ति की प्रवर्तक रही हैं।
एक आदर्श अध्यापिका, निःस्वार्थ समाज सेविका होने के साथ ही सावित्री बाई फुले एक तीखे तेवर वाली कवयित्री और सत्य-शोधक समाज का कुशल नेतृत्व करने वाली नेता भी थीं लेकिन, एक लंबे समय तक उनके संकल्प, साहस, नेतृत्व और तेवर को रेखांकित नहीं किया गया। उनके साथी और उनके प्रेरक व्यक्तित्व जोतिबा के नाम के साथ उनके सहयोग और योगदान का उल्लेख जरूर किया जाता रहा किन्तु उन्हें स्वतंत्र पहचान नहीं मिली।
भारत में नारीवादी आंदोलन के उभार के बाद ही सावित्री बाई फुले के काम और उनकी अगुवाई पर शोध किए गए। उनके विद्रोही तेवर की कविताएँ प्रमुखता से उभरीं और उनको एक अलग, विशिष्ट पहचान भी मिली। सावित्री बाई फुले का पहला कविता संग्रह 'काव्यफुले' 1854 में प्रकाशित हुआ। यह किसी भारतीय महिला कवि का संभवतः पहला कविता संग्रह था, जिसमें कवयित्री आम जन-भाषा में स्त्री-पुरुष की बराबरी का आह्वान कर रही थी और दलित, दमित वर्ग को सचेत करते हुए उन्हें जागरूक होने का संदेश दे रही थी।
सावित्री बाई फुले का जीवन कई दशकों से महाराष्ट्र के गाँवों-कस्बों की औरतों के लिए प्रेरणादायक रहा है। उनकी जीवनी एक औरत के जीवट और मनोबल को समर्पित है। उस समय के पुरातनपंथी, रूढ़िवादी और स्त्री शिक्षा विरोधी समाज के तमाम विरोध और बाधाओं के बावजूद सावित्री बाई फुले अपने संघर्ष में डटी रहीं। उनके धैर्य और आत्मविश्वास ने भारतीय समाज में स्त्रियों की शिक्षा की दिशा में अलख जगाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ऐसे जुझारू व्यक्तित्व पर बात करने से पहले यह जरूर देखना चाहिए कि वह कालखंड कैसा था, जिसमें सावित्री बाई और जोतिबा फुले का जन्म हुआ और वह समाज कैसा था, जिसमें उन्होंने अपने काम की शुरुआत की।
महाराष्ट्र में पेशवाओं का राज्य था और पेशवाकालीन ब्राह्मण समाज में धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास काबिज था। जाति प्रथा और जाति विद्वेष अपने चरम पर था। चमार, मांग, वाल्मीकि, महार जैसी अछूत मानी जाने वाली जातियों की दुर्दशा का आलम यह था कि इन जातियों के लोगों को कमर के पीछे झाडू या कँटीली झाड़ी बाँध कर चलना पड़ता था, जिससे रेत या सड़क पर बने उनके पाँव के निशान मिटते चले जाएँ और किसी ब्राह्मण का पाँव उनपर न पड़े। उन्हें अपने गले में हँडिया या मटकी लटका कर चलना पड़ता था ताकि वह उसमें ही थूकें, सड़क पर नहीं, जिससे ब्राह्मणों के अपवित्र होने का खतरा न रहे। वे लोग सिर्फ तपती दोपहरी में घर से बाहर निकल सकते थे क्योंकि सुबह या शाम को उनकी लंबी परछाई किसी ब्राह्मण को अपवित्र कर सकती थी। किसी जरूरी काम से अगर सुबह बाहर निकलना ही पड़ता तो वह एक हाथ में पकड़ी थाली को दूसरे हाथ के पत्थर से टन-टन बजाते हुए अपने आने की सूचना देते हुए चलते। अछूत मानी जाने वाली जातियों के वजूद को किस तरह रौंदा जाता था, इसका आज सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। पेशवा बाजीराव द्वितीय निहायत स्वेच्छाचारी, व्यभिचारी और लंपट था। उसके व्यभिचार के किस्से इतने कुख्यात थे कि उसके दौरे की खबर मिलते ही पुणे से लगभग सौ किलोमीटर दूर वाई नामक गाँव की कई स्त्रियों ने कुएँ में कूद कर जान दे दी।
1818 में दलित विरोधी ब्राह्मणों के समर्थक पेशवा राज्य का अंत हुआ और अंग्रेजी हुकूमत कायम हो गई। ब्रिटिश शासन के समय भी जाति प्रथा की पहले से चली आती रूढ़ियाँ बदस्तूर जारी थीं। वह समय दलितों और स्त्रियों के लिए नैराश्य और अंधकार का समय था। समाज में अनेक कुरीतियाँ फैली हुई थीं और स्त्री शिक्षा का प्रचलन नहीं था। विधवा होने पर स्त्री का मुंडन कर दिया जाता और उसके खान-पान, पहनावे और घर से बाहर निकलने पर अंकुश लगा दिए जाते थे। स्त्रियों को ले कर तरह-तरह की जकड़बंदियाँ थीं और अंधविश्वासों से समाज अँटा पड़ा था। सती प्रथा और बाल विधवा जैसी प्रथाओं के स्वी विरोधी समय में जब यह निश्चित था कि लड़कियों को शिक्षा की जरूरत नहीं है और शिक्षित स्त्री के हाथ का बनाया खाना खाने से पति की मृत्यु हो सकती है, ऐसे अंधविश्वास से भरे समय में सावित्री।बाई ने परंपरागत कूपमंडूक स्त्री के सामने एक शिक्षित, बदली हुई स्त्री को ला खड़ा करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी।
महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगाँव में सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी सन 1831 को हुआ था। पिता का नाम खन्दोजी नवसे पाटिल और माँ का नाम लक्ष्मी बाई था। सावित्री बाई के बचपन की एक उल्लेखनीय घटना है, जब सावित्री छः सात साल की थीं। वह शिखल गाँव के हाट गईं। वहाँ कुछ खरीद कर खाते-खाते उन्होंने देखा कि एक पेड़ के नीचे कुछ मिशनरी स्त्री-पुरुष गा रहे हैं। एक लाटसाहब ने उन्हें रुककर गाना सुनते और खाते हुए देखा तो कहा- "इस तरह खाते-खाते रास्ते में घूमना अच्छी बात नहीं है।"
सुनते ही सावित्री ने हाथ का खाना फेंक दिया। लाट साहब ने कहा- "बड़ी अच्छी लड़की हो तुम" और उसे एक छोटी-सी पुस्तिका थमा दी। सावित्री ने सकुचाते हुए कहा कि वह पढ़ना नहीं जानती। उन्होंने फिर भी किताब थमा दी और कहा- "कोई बात नहीं, इसमें तस्वीरें भी हैं। किताब रख लो, इसके चित्र तुम्हें अच्छे लगेंगे।"
घर आ कर सावित्री ने वह किताब अपने पिता को दिखाई। नाराज पिता ने उसे कूड़े में यह कहते हुए फेंक दिया- "ईसाइयों से ऐसी चीजें लेकर तू भ्रष्ट हो जाएगी और सारे कुल को भ्रष्ट करेगी।" सावित्री ने पिता की नजर बचा कर उस छोटी-सी पुस्तिका को किसी कोने में दबा दिया और 1840 में जब नौ साल की सावित्री बाई का तेरह साल के जोतिबा फुले से विवाह हुआ तो वे उस किताब को सहेज कर ससुराल ले आईं।
विवाह के बाद सावित्री बाई के जीवन में बदलाव शुरू हुआ। विवाह के समय तक सावित्री बाई फुले की स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी। जोतिबा फुले तीसरी कक्षा तक पढ़े थे लेकिन उनके मन में शिक्षा के लिए गहरी ललक थी। जोतिबा का मन किताबों में खूब रमता था। उन्होंने सावित्री का रुझान भी किताबों में पाया। वे पूना में ईसाई मिशनरियों की पाठशाला में पढ़ने जाते थे लेकिन समाज के दबाव में आ कर उनके पिता ने पाठशाला से निकाल कर उन्हें व्यवसाय में लगा दिया। 1842 में सरकारी स्कूल में दाखिला ले कर उन्होंने दोबारा पढ़ाई शुरू की।
इस दिशा में समाज सेवा का जो पहला काम उन्होंने प्रारंभ किया, वह था - अपनी पत्नी सावित्री बाई को प्रशिक्षित करना, जिसकी ग्राह्य शक्ति तेज थी। उन्हें किसी स्त्री शिक्षिका की जरूरत थी, अतः जोतिबा ने ही सावित्री बाई को प्रशिक्षण देना शुरू किया। वे उनके पति ही नहीं, गुरू और सहयोगी भी थे। समाज सुधार के अपने मिशन में सावित्री बाई और जोतिबा दोनों को अपने परिवारों से पुरजोर विरोध का सामना करना पड़ा कि वे अछूत का काम कर रहे हैं, जो ब्राह्मण विरोधी है। जोतिबा के धर्मभीरु पिता ने पुरोहितों और रिश्तेदारों के दबाव में अपने बेटे और बहू को घर छोड़ देने पर मजबूर किया। फुलेवाड़ा संग्रहालय, पुणे में जोतिबा फुले और सावित्री बाई फुले की एक पेंटिंग है, जिसमें स्कूल जाते समय सावित्री बाई फुले पर लोग पत्थर और कीचड़ फेंक रहे हैं। वास्तविकता यही थी। सावित्री बाई जब घर से पाठशाला तक पढ़ाने के लिए जातीं तो रास्ते में खड़े लोग उन्हें गालियाँ देते, उन पर थूकते, पत्थर मारते और गोबर उछालते। जब यह रोज़ होने लगा तो सावित्री अपने साथ एक साड़ी और ले जाने लगीं ताकि शाला पहुँच कर कपड़े बदल लें। तब उस्मान शेख और फातिमा शेख ने दोनों के लिए अपने घर के दरवाजे खोल दिए थे।
फुले दम्पति ने पुणे के बुधवार पेठ में पहला बालिका विद्यालय खोला। यह स्कूल एक मराठी सज्जन भिंडे के घर में खोला गया था। पैसे की तंगी और अपने घर परिवार द्वारा लांछन और व्यवधान के साथ-साथ उन्हें सामाजिक-विरोध भी झेलना पड़ा। समाज से विरोध के बावजूद पति के सहयोग और समर्थन ने सावित्रीबाई की आगे की राह आसान कर दी। विरोध झेलते हुए भी दोनों जानते थे थे कि उन्हें हासिल क्या करना है और और किस दिशा में आगे बढ़ना है। कोई भी व्यवधान उन्हें अपने लक्ष्य से डिगा नहीं पाया। 1840 से 1890 तक यानी पूरे पचास साल तक दोनों एक प्राण हो कर समाज सुधार के अपने मिशन में जुटे रहे।
उस्मान शेख के बाड़े में प्रौढ़ शिक्षा के लिए एक दूसरा स्कूल खोला गया। दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, विशेष रूप से लड़कियाँ, बड़ी संख्या में इन पाठशालाओं में आने लगीं। इससे उत्साहित हो कर फुले दम्पति ने, अलग-अलग गाँव कस्बे में, ऐसे ही कई स्कूल खोले।
अंग्रेज़ों के समय सती प्रथा पर तो कानूनन रोक लगाई जा चुकी थी लेकिन बाल विवाह की प्रथा जारी थी और पति की मृत्यु के बाद इस बाल विधवा का जीवन नारकीय बना दिया जाता था। उसके खाने और पहनावे पर भी रोक लगा दी जाती थी और मेले त्योहारों में भी उसका जाना वर्जित था। वह घर के एक कोने से बाहर सिर्फ मंदिर तक जा सकती थी, उसके घूमने-फिरने पर भी प्रतिबंध थे। पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा के बाल काट दिए जाते थे पर उसका यौन शोषण होना आम बात थी जिसके लिए उसे ही ज़िम्मेदार ठहराया जाता था। उन दिनों मजदूर नेता और समाज सुधारक नारायण मेघजी लोखंडे 'दीनबंधु' के संपादक थे। सावित्री बाई की प्रेरणा से लोखंडे ने अपनी पत्रिका के माध्यम से विधवाओं के मुंडन के विरोध में आंदोलन की शुरुआत की। शहर भर के तमाम नाइयों ने विधवाओं का मुंडन करने से इनकार कर दिया। दबाव डाला गया तो उन्होंने हड़ताल कर दी। हड़ताल को सफल बनाने के लिए सवित्री बाई फुले ने भी बढ़-चढ़ कर सहयोग किया। अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्रिका 'द टाइम' ने नाइयों की उस हड़ताल की खबर अपने एक अंक में प्रकाशित की।
1818 के बाद स्कूलों के संचालन के अलावा उन्होंने बाल-विधवा और भ्रूण हत्या पर भी काम शुरू किया और प्रसूति गृह, विधवा आश्रम और अनाथ बच्चों के लिए शिशु सदन जैसी संस्थाओं का निर्माण और संचालन किया। उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा प्रारंभ की और 1853 में 'बाल-हत्या प्रतिबंधक गृह' की स्थापना की। इसमें विधवाएँ अपने बच्चों को जन्म दे सकती थीं और यदि शिशु को अपने साथ न रख सकें तो उन्हें वहाँ छोड़ कर भी जा सकती थीं। विधवा आश्रम, प्रसूति गृह, अनाथ बच्चों के लिए शिशु सदन जैसी संस्थाओं का निर्माण और संचालन उस दौर का एक क्रांतिकारी कदम था। इस अनाथालय की व्यवस्था सावित्री बाई फुले के जिम्मे थी और बच्चों की परवरिश वे एक माँ की तरह करती थीं।
फुले दंपति का ध्यान खेत-खलिहानों में दिन भर काम करने वाले अशिक्षित मजदूरों की ओर भी गया। 1855 में दिहाड़ी मजदूरों के लिए उन्होंने रात्रि-पाठशाला भी खोली।
उस समय अस्पृश्य जातियों के लोग सार्वजनिक कुएँ से पानी नहीं भर सकते थे। 1868 में अंततः उनके लिये फुले दंपत्ति ने अपने घर का कुआँ खोल दिया। सन 1876-77 में पूना नगर अकाल की चपेट में आ गया। उस समय सावित्री बाई और जोतिबा दंपत्ति ने 52 विभिन्न स्थानों पर अन्न-छात्रावास खोले और गरीब जरूरतमंद लोगों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था की।
फुले दंपति के जीवन की एक घटना उल्लेखनीय है। विवाह के कई सालों के बाद भी संतान नहीं हुई तो उनके परिवार और मित्रों की ओर से दबाव बनाया गया कि जोतिबा दूसरा विवाह कर लें। जब सावित्री बाई के पिता भी उनसे दूसरी शादी करने के लिए आग्रह करने लगे तो जोतिबा फुले परेशान हो गए। आखिर उन्होंने कहा- "ठीक है। मैं दूसरा विवाह करूँगा, पर मेरी एक शर्त है।"
सबने राहत की साँस ली कि बेटा तैयार तो हुआ।
जोतिबा ने कहा- "मैं विवाह इस शर्त पर करूँगा कि उसी समय, उसी मंडप में सावित्री बाई का भी विवाह किसी और के साथ आप करवा दें। हो सकता है दूसरे विवाह से उन्हें मातृत्व का सुख मिले।"
यह सुन कर सब खामोश हो गए और यह प्रकरण हमेशा के लिए बंद हो गया।
यह घटना इस बात की ओर भी संकेत करती है कि इतने दशकों पहले, जब बहु-विवाह प्रथा आम थी, जोतिबा जैसी क्रांतिकारी सोच के व्यक्ति हमारे समाज में मौजूद थे।
कोई ताज्जुब नहीं कि भारतीय समाज में बाँझ शब्द सिर्फ औरतों के लिए ही गढ़ा गया । जिस स्त्री की संतान न हो वह बाँझ है। लेकिन पुरुष के लिए ऐसा कोई शब्द बनाया ही नहीं गया कि जो पुरुष संतान न दे सके, वह क्या है। कह सकते हैं कि नपुंसक शब्द पुरुषों के लिए भी बना है लेकिन उसका अर्थ बांझ के समानांतर बिल्कुल नहीं है।
जोतिबा ने स्त्री समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह विधि की रचना की। उन्होंने नये मंगलाष्टक (विवाह के अवसर पर पढ़े जाने वाले मंत्र) तैयार किए। वे चाहते थे कि विवाह विधि में पुरुष प्रधान संस्कृति के समर्थक और स्त्री की गुलामगिरी सिद्ध करने वाले जितने मंत्र हैं, वे सारे निकाल दिए जाएँ। उनके स्थान पर ऐसे मंत्र हों, जिन्हें वर-वधू आसानी से समझ सकें। जोतिबा के मंगलाष्टकों में वधू वर से कहती है - ‘‘स्वतंत्रता का अनुभव हम स्त्रियों को है ही नहीं। इस बात की आज शपथ लो कि स्त्री को उसका अधिकार दोगे और उसे अपनी स्वतंत्रता का अनुभव करने दोगे।’’ यह आकांक्षा सिर्फ वधू की ही नहीं, गुलामी से मुक्ति चाहने वाली हर स्त्री की थी। उस काल में जब शूद्र अतिशूद्र और लड़कियों के लिए कहीं आज़ादी की एक सांस लेने की गुंजाइश नहीं थी, जोतिबा ने अपने समय से बहुत आगे के सुधार की बातें कहीं, लिखीं और उन्हें व्यवहार में भी ले कर आए।
फुले दम्पति ने 1874 में एक विधवा ब्राह्मणी के नाजायज बच्चे को गोद लिया। यशवंत राव फुले नाम का यह बच्चा पढ़-लिख कर डॉक्टर बना।
28 नवंबर 1890 को महात्मा जोतिबा फुले के निधन के बाद सावित्री बाई ने बड़ी मजबूती के साथ इस आन्दोलन की जिम्मेदारी सम्भाली और सासवड, महाराष्ट्र के सत्य शोधक समाज के अधिवेशन में ऐसा भाषण दिया, जिसने दबे-पिछड़े लोगों में आत्म-सम्मान की भावना भर दी। सावित्रीबाई का दिया गया वह भाषण उनके प्रखर क्रान्तिकारी और विचार-प्रवर्तक होने का परिचय देता है।
कहते हैं कि एक और एक मिल कर ग्यारह होते हैं। जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने हर स्तर पर कंधे से कंधा मिला कर काम किया और कुरीतियों, अंध श्रद्धा और पारम्परिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर गरीबों, शोषितों के हक में खड़े हुए। मिशनरी महिलाओं की तरह किसानों और अछूतों की झुग्गी झोपड़ी में जा-जा कर लड़कियों को पाठशाला में भेजने का आग्रह करना या बालहत्या प्रतिबन्धक गृह में अनाथ बच्चों और विधवाओं के लिए दरवाज़े खोल देना और उनके नवजात बच्चों की देखभाल करना या महार, चमार और मांग जाति के लोगों की प्यास बुझाने की तकलीफें देख कर अपने घर के पानी का हौद सभी जातियों के लिए खोल देने जैसा हर काम पति-पत्नी ने डंके की चोट पर किया।
दोनों एकजुट हो कर आपसी तालमेल के तहत इतने विराट स्तर पर काम कैसे कर पाए, यह जानने के लिए सावित्री बाई के अपने पति के नाम लिखे गए पत्रों को पढ़ना बहुत जरूरी है। कविताओं के साथ-साथ उनके पत्र भी एक दस्तावेजी संकलन हैं।
सावित्री बाई फुले द्वारा जोतिबा फुले को लिखे गए पत्र, जिनकी पहली पंक्ति अपने जीवन साथी के प्रति उनके सम्मान को दर्ज करती है-"सत्यरूप जोतीबा जी को, सावित्री का सविनय प्रणाम।" पूरे पत्र में वृहत्तर समाज की चिंता, सभी समुदायों के प्रति गहरे प्रेम, अन्याय के प्रति विद्रोह, जातिवादी मानसिकता के खिलाफ आक्रोश और समता-आधारित समाज की चाहना है। ये पत्र उनकी चिंतनशील, उन्नत, वैचारिक चेतना को स्पष्ट करते हैं। इन पत्रों को पढ़ते हुए यह समझ में आता है कि वे किसी भी मनुष्य के दुःख से कितना विचलित होती थीं और उस दुःख को दूर करने के लिए वे किस हद तक कुछ भी करने को तैयार हो जाती थीं।
ये पत्र बताते हैं कि फुले दंपत्ति के बीच संवेदना और चेतना के स्तर पर कितनी समानताएँ थीं। दोनों के सरोकार और चिंताएँ एक थीं। जोतिबा उनके जीवन-साथी होने के साथ उनके शिक्षक और मार्गदर्शक भी थे। दोनों के बीच कितनी आत्मीयता थी, इसकी गहराई इन पत्रों में मिलती है। उनकी संवेदना और सरोकार के केंद्र में 'समाज' ही रहा।
सावित्री बाई के कुल तीन पत्र हैं। ये पत्र मराठी में प्रकाशित 'सावित्री बाई फुले समग्र वांड्मय' में संग्रहीत हैं। पहला, 10 अक्टूबर 1856 को नायगांव पेठ खंडाला, सतारा से, दूसरा 29 अगस्त 1868 को और तीसरा, 20 अप्रैल 1877 को ओतूर जुन्नर से लिखा गया।
एक पत्र अपने भाई को, जो फुले दंपत्ति के काम के हमेशा खिलाफ रहा, वे लिखती हैं- "भाई, आपकी बुद्धि को क्या हुआ है? आपको समझ क्यों नहीं आता हैं कि आपकी मति ब्राह्मणों की चाल की शिकार हो गई है। उनकी घुट्टी पी-पी कर, उनके पाखंडी उपदेश सुन कर आपकी बुद्धि दुर्बल हो गई है और आपके विवेक ने काम करना बंद कर दिया है। एक ओर आप इतने दयालु हैं कि बकरी और गाय को खूब प्यार करते हैं, उन्हें दुलारते हैं, नागपंचमी के त्यौहार पर विषैले साँपों को भी दूध पिलाते हैं। आपके ये कृत्य धर्मसम्मत हैं और दूसरी तरफ महार-मांग जैसे इन्सानों को आप इन्सान ही नहीं समझते। उनसे आप परहेज करते हैं, उन्हें अछूत, अस्पृश्य समझ कर दुत्कारते हैं। क्या आप नहीं जानते कि ब्राह्मण लोग आपको भी अछूत समझते हैं? हमारे स्पर्श से भी उन्हें नफरत है। वे भी तो आपसे महार जैसा व्यवहार करते हैं कि नहीं?"
यहां एक बेहद दिलचस्प बात उजागर होती है कि एक ओर इस पत्र में अपने भाई को तार्किक अंदाज में लताड़ते हुए और अपनी बात को पुरजोर अंदाज में कहते हुए समझाने की कोशिश करती हैं, वहीं दूसरी तरफ जब वे अपनी बीमारी के समय अपने मायके जाती हैं तो जोतिबा को पत्र लिखते हुए अपने भाई की तीमारदारी और लगाव की प्रशंसा भी करती हैं। वे जोतिबा को लिखती हैं- "वैसे तो मेरा भाई स्वभाव से दयालु प्रवृत्ति का है लेकिन वह भावुक और नासमझ भी है। बिरादरी की बातें सुन-सुनकर और उनकी बातों में आकर उसने न केवल मुझे भला-बुरा कहा, बल्कि आपकी भी बुराई की। हम दोनों की निंदा करने में उसे कोई झिझक न हुई।"
सावित्री बाई के तीनों पत्र उनके स्पष्टवादी, इंसानियत और ममता से भरे स्वभाव की बानगी हैं। अपने तीसरे पत्र में वह लिखती हैं- "मेरे पत्र लिखने का आशय है अकाल पर रोशनी डालना। जिधर देखो, पशु-पक्षी अन्न व पानी के बिना तड़प-तड़प कर मर रहे हैं। उनकी लाशें चारों तरफ फैली हुई हैं। इंसानों के जिंदा रहने के लिए अनाज नहीं है, पशुओं के लिए चारा और पानी नहीं है। इस भयंकर आपदा से बचने के लिए गाँव के गाँव पलायन कर रहे हैं। कुछ माँ-बाप अपने जिगर के टुकड़े बच्चे व जवान बेटियों को बेचकर, अपने लिए दो वक्त की रोटी के जुगाड़ के लिए मजबूर हो गए हैं।"
इस अकाल के बारे जिस तकलीफ के साथ सावित्री बाई ने लिखा है, वह उनके सामाजिक सरोकारों का एक उदाहरण है। वे यह भी लिखती हैं कि– "सत्यशोधक समाज अकाल पीड़ितों की मदद कर रहा है।"
1890 में जब जोतिबा फुले की मृत्यु हुई तो सावित्री बाई ने तयशुदा सामाजिक अनुष्ठान के विपरीत जा कर अपने पति का अंतिम संस्कार किया और उनकी चिता को अग्नि दे कर परंपरावादी समाज के सामने एक नयी मिसाल पेश की।
1896 में एक बार फिर महाराष्ट्र अकाल की चपेट में आ गया। सावित्री बाई सत्यशोधक समाज के अपने कार्यकर्ताओं के साथ गरीबों और जरूरतमंदों की मदद में जुट गईं। अकाल के साथ प्लेग महामारी भी फैल रही थी। सावित्री बाई ने अपने दत्तक पुत्र यशवंत को, जो सेना में डाक्टर था, रोगियों की देखभाल के लिए बुला लिया। लोग अकालग्रस्त इलाकों को छोड़ रहे थे और परिवार के साथ, सुरक्षित स्थानों पर जा रहे थे। यह जानते हुए भी कि प्लेग बहुत संक्रामक रोग है, सावित्री बाई मरीजों की तीमारदारी में जुटी थीं। जैसे ही उन्हें पता चला कि मुंधावा गांव के बाहर महार बस्ती में पांडुरंग बाबाजी गायकवाड का बेटा भी महामारी से ग्रस्त है, वे महार बस्ती में पहुंच गईं। वहां जाकर देखा कि बीमार लड़के को छूने के लिए कोई तैयार नहीं था। सावित्री बाई ने किसी की नहीं सुनी और बेटे को पीठ पर लाद कर अस्पताल तक ले गईं। लगातार प्लेग के मरीजों के साथ बने रहने का खामियाजा सावित्री बाई ने अपने जीवन से चुकाया। आखिरकार उन्हें भी इस संक्रामक रोग ने घेर लिया और 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया।
भारत में उस समय अनेक पुरुष समाज सुधार के कार्यक्रमों में लगे हुए थे लेकिन जोतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने एकजुट हो कर स्त्री अधिकारों और स्त्री शिक्षा के लिए काम किया। उनका एक लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन, आदर्श दाम्पत्य की मिसाल बन कर चमकता है। अपने पति जोतिबा फुले के समाज सुधार के कार्यों में पूरी तरह सहयोग देते हुए वह एक परछाई की तरह पूरी लगन और समर्पण के साथ लगी रहीं लेकिन इस परछाई ने आगे चल कर अपना एक स्वतंत्र आकार गढ़ लिया।
संदर्भ : फुलवंताबाई झोडगे, डॉ. माली, रजनी तिलक।
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सुधा अरोड़ा |
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