परांस - 1 : अमिता मेहता की कविताएं

 

कमल जीत चौधरी 


कविता की दुनिया अत्यन्त व्यापक और अथाह है। अलग अलग पृष्ठभूमि, परिस्थितियों और परिवेश में रहने वाले कवियों ने अपनी अनुभूतियों और संवेदनाओं से हिन्दी कविता के फलक को समृद्ध किया है। अभी तक हम 'वाचन पुनर्वाचन' नामक स्तम्भ के अन्तर्गत प्रस्तुत कर रहे थे। इसी क्रम में हमने जम्मू के कवि कमल जीत चौधरी से आग्रह किया कि वे जम्मू कश्मीर के कवियों को सामने लाने का दायित्व संभालें। हमारे अनुरोध को कमलजीत ने विनम्रतापूर्वक न केवल स्वीकार किया बल्कि इस पर जिम्मेदारी से काम करते हुए एक नयी शृंखला की तत्काल शुरुआत कर दी जिसे उन्होंने जम्मू अंचल का एक प्यारा सा नाम दिया है 'परांस'। परांस को हम हर महीने के बीस तारीख को प्रस्तुत करेंगे। इसके  अन्तर्गत पहली कवि जिनकी कविताएं हम प्रस्तुत कर रहे हैं, वह हैं अमिता मेहता। कॉलम के अन्तर्गत अमिता की कविताओं पर कमल जीत चौधरी की एक सारगर्भित टिप्पणी भी आप पढ़ेंगे।

कोई भी जब अपनी जिंदगी में कविता लिखने की शुरुआत करता है तब उसके मन में एक भारी हिचक होती है। प्रायः यह काम छुप छुपा कर ही शुरू किया जाता है। ठीक जीवन के पहले प्यार की तरह जिसमें अमूमन निश्छलता और पवित्रता होती है। हमारे समाज में कविता लिखना आम तौर पर बहकने बिगड़ने का पर्याय माना जाता है। इससे बचने बचाने के लिए भी कवि अपनी शुरुआती कविताओं को छुपाता है। जैसे एक मां अपने बच्चों को बुरी नजरों से बचाने के लिए हमेशा सन्नद्ध रहती है। अमिता मेहता अपनी कविता कविता की डायरी में इसे दर्ज करती हैं जब उनसे उनके पिता ने कविता की डायरी छीन ली थी। कविता शीर्षक अपनी एक कविता में कविता कैसे लिख लेती हो के जवाब में वे लिखती हैं 'तुम्हारी झील भरी बादामी आँखें/ जैसे देखती हैं मुझे।' और लोग समझते हैं कि कविता लिखना खेल तमाशे की तरह है। वे किसी घटना या वस्तु को देखते हुए कवि से व्यंग्यपूर्वक कहते भी हैं कि आप तो इस पर भी कविता लिख देंगे। अब यह बात तो कवि ही जानता है कि कविता लिखना आसान नहीं होता। बहरहाल एक नए कॉलम 'परांस : 1' के अन्तर्गत हम आज पहली बार पर कमल जीत चौधरी की टिप्पणी के साथ अमिता मेहता की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं।

 


परांस : 1


(जम्मू-कश्मीर की कविताई)    


कविता और कल्पना के अभिन्न रिश्ते वाली कविताएं


कमल जीत चौधरी


हिन्दी कवि-लेखक व संपादक संतोष चतुर्वेदी जी के प्रस्ताव से जम्मू-कश्मीर की कविताई को रेखांकित करने के लिए एक स्तम्भ की शुरुआत कर रहा हूँ। इस स्तम्भ का नाम 'परांस' रखा है। यह हमारे वर्गबोध से जुड़ा शब्द है। धान रोपते हुए; निश्चित घेरे में पीछे की तरफ; और गेहूँ आदि काटते हुए आगे की ओर बढ़ने को परांस/ परास/ परांथ/ पराथ लगाना या पूरी करना कहते हैं। परांस ऐसी जगह है, जहाँ आगे बढ़ते हुए ही नहीं, पीछे जाते हुए भी हम आगे बढ़ते हैं। यह बढ़ना सामूहिक कर्म है। प्रायः खेत में अकेले कार्य नहीं किया जाता। इस शृंखला के अंतर्गत एक छोटा खेत रोपने और काटने का प्रयास रहेगा। पनीरी उखाड़ने और थ्रेशिंग का कार्य स्वयं को दिया है, इसे बहुत ईमानदारी से करूँगा। मगर निश्चित ही इस कार्य में घास-भूसे आदि के तिनके भी आएँगे, फसल में इनका भी महत्व है। परांस की पहली कवि; अमिता मेहता हैं। 


प्रिय पाठकों, अधिक बोलना और लिखना मेरी सामर्थ्य में नहीं है। शायद इसी कारण शब्दों की मितव्ययिता मेरा स्वभाव बन गई है। आदरणीय संतोष जी इस स्तम्भ के हर कवि पर मेरी एक टिप्पणी भी चाहते हैं। इस दायित्व का निर्वाह करूँगा, मगर प्रायः लम्बी टिप्पणी सम्भव नहीं हो पाएगी। मेरे संयोजन, संकलन और संपादन को भी मेरी टिप्पणी ही समझा जाए। इसी आलोक में अमिता जी की आठ कविताएँ पढ़ सकते हैं। अमिता जी की कविताई में जिस जगह के मन-जीवन की अभिव्यक्ति हुई है, वह स्थान कमाधिक ही, मगर हर वर्ग, जाति, धर्म प्रांत और देश में है। यह जगह ऐसे कहन में देखी जा सकती है, जहाँ स्त्री, पिता, बेटी, प्रेमी और माँ होने की महानता या क्षुद्रता सिद्ध करने की चेष्टा नहीं हो रही है। इन्हें पढ़ते हुए पाठक भी पाठक होने के अतिरिक्त बोझ से बचा रहता है, और इनकी कविताएँ पढ़ने के बाद मर्म व संवेदना के पंख पाठक के कंधे पर आ जाते हैं। 


'कविता की डायरी', 'संदूक' और 'आग के फूल' शीर्षक कविताएँ, कथा-कविताएँ हैं। पिता को डायरी देने, सासू माँ के बाद सन्दूक की चाभी को दर्प व विश्वास के साथ सम्भाल लेने और प्रेमी द्वारा 'आग के फूलों की डाली' देने में जो भाव अभिव्यक्त हुए हैं, वे 'हाथ' के सही दिशा में होने को ध्वनित करते हैं। यह कविताएँ अपने अनकहे और छूट गए में भी सघनता से मुखर हैं। यहाँ और इनकी कुछ अन्य कविताओं में भी ऐसी स्त्री उपस्थित है, जिसके इर्द-गिर्द सपनों, इच्छाओं, कल्पनाओं, करुणा, प्रेम, संघर्ष, अभाव और बाज़ार अनिवार्य रूप से रहता है। 'गुलाब' नामक कविता में इच्छा, भय, आशंका, निर्णय और त्रासदी है। कविताई में कोई कमी नहीं है। यहाँ ही नहीं, इनकी अधिकतर कविताओं में यह प्रवृत्तियां दिख जाती हैं। इनका स्त्री-मन; जीवन के वसंत को, विपरीत के कारण सम्भव होते देखता है। मगर यह 'विपरीत' प्रचलित विरोध, विद्रोह या नारा नहीं है। यह प्रौढ़ की नहीं, बल्कि सहृदय परिपक्व की इच्छा है- एक ऐसी इच्छा, जो किसी सत्ता के विरुद्ध अन्य सत्ता खड़ी करने की लालसा न हो कर स्त्री-स्वभाव का आदिम उन्मुक्त सहभाव है। अमिता की कविताएँ निजी अनुभवों, इच्छाओं, करुणा और त्रासदी को समष्टिगत भावों में प्रेषित करती हैं। वे भाव और समर्पण की सीधी लकीर खींचती हैं, और उस लकीर को पीटती नहीं हैं। 


'संदूक' कविता में जो 'अभाव का भाव' है। यह अभाव का महिमामण्डन नहीं है। यहाँ 'हर हाल में संतुष्ट रहना चाहिए' का उपदेशात्मक आदर्शवाद भी नहीं है। कवि का निहितार्थ बहुत सकारात्मक और आशावादी है। पर्दा प्रथा से परे, यहाँ 'कुछ तो पर्दादारी हो' वाली बात है। अलग सन्दर्भ में देखें तो ए. आई. के युग में निजता का अधिकार लगभग ख़त्म होता जा रहा है। ऐसे में एक ताला जड़ा सन्दूक हमें निजता, बुज़ुर्ग और परम्परा से जोड़ता है। इनकी कविताएँ 'औरत ही, औरत की शत्रु होती है और स्त्री और पुरुष कभी दोस्त नहीं हो सकते' टाइप धारणाओं का ध्वंस करती हैं, मगर किसी लिंग पर अनावश्यक टिप्पणियाँ नहीं करतीं। 


इच्छा, डर, प्रेम, प्रेरणा, कल्पना और निर्णय  इनकी कविताई की क्रमिका है। इसी सन्दर्भ में बाधा को भी देखा जा सकता है। इनके लिए बाधा भी ज़रूरी है, मगर यह कड़ियाँ जोड़ने वाली है, जकड़ने वाली बाधा नहीं। इनके लिए लेखन-कर्म, प्यार से देखने की तरह का काम है। प्यार से देखने में स्वभाविकता रहती है। देखने के अन्य भावों मसलन क्रोध, ईर्ष्या, लोभ आदि में आँखों और चेहरे पर स्वाभाविक लकीरें नहीं रहतीं। 'देखने' में अनेक जगह सुन्दर बिंब-फूल देखे जा सकते हैं। कविता और कल्पना का अभिन्न रिश्ता है। इनकी कविताओं में कल्पना तत्त्व विशेष स्थान रखता है। यहाँ कल्पना; कपोल-कथाओं में नहीं, यथार्थ-कथाओं और इनकार-स्वीकार के सहज भाषा-लोक में सम्भव होती है। यह कविताएँ अपने भीतर किसी विशेष का नामांकन, सीमांकन और चुनाव नहीं चाहतीं, जबकि यह पूरी तरह लोकतंत्र, अविशेष और सहभाव की पक्षधर ठहरती हैं। अमिता जी को अशेष शुभकामनाएँ! 


स्तम्भकार-परिचय:

कमल जीत चौधरी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे हिन्दी के सुपरिचित कवि-लेखक-अनुवादक व संपादक हैं। उनसे kamal.j.choudhary@gmail. com पर सम्पर्क किया जा सकता है।


अमिता मेहता 



अमिता मेहता की कविताएं



गुलाब 


छू तो लूँ गुलाब को मैं 

मगर डरती हूँ कि कहीं वह मैला न हो जाए 

या फिर कांटों से बिंध उंगलियां लहूलुहान न हो जाएँ 

और गुलाब को रक्त पीने की लत पड़ जाए 

इसलिए मैं उसे दूर से निहारती हूँ 

और इंतिज़ार करती हूँ

उसके मुरझा कर गिरने का,

वह गिरता है

और मेरे छुए बिना भी मैला हो जाता है।

  


विपरीत


उम्र के इस दौर में 

जब ज़िन्दगी ठहरने सी है

तब सूखे ठूंठ से निकल रही हैं

छोटी-छोटी कोंपलें।


जीवन में उमंग का संदेश 

हवा का मासूम सा झोंका

कानों में फुसफुसा कर कह रहा है: 

वसंत आ गया है।


अक्सर आहिस्ता से 

सोई हुई बिटिया के सिरहाने पास रखी 

उसकी स्कूटी की चाबी उठाती हूँ

और निकल पड़ती हूँ 

हवा को नापने के लिए

विपरीत...

  


कविता की डायरी

                    

आज मैं चल पड़ी हूँ   

गाँव में उस आंगन की ओर 

बाहों में भर लेने को बेचैन

उस खंडहरनुमा घर को


पोंछती हूँ, आँखों के गड्डों से डबडबाते आँसू

खोजती हूँ उस घर की आत्मा में 

स्नेह से सुलगती 

अंगारों जैसी कविता; और 

उसे सौंपना चाहती हूँ

बाबू जी के हाथों में 

जिन्होंने छीन ली थी एक दिन मुझसे 

मेरी कविता वाली डायरी।





कविता


मैं तुम्हारी आँखों में झांक रही थी 

जब तुम पूछ रहे थे:

कैसे लिख लेती हो कविता 


मैंने कहा:

तुम्हारी झील भरी बादामी आँखें 

जैसे देखती हैं मुझे।

 


संदूक


सासू माँ के संदूक पर जड़ा ताला 

अक्सर मुझे मुँह चिढ़ाता था 

पर एक उम्मीद थी कि

एक दिन यह खुल जाएगा

और सभी परेशानियों का हल निकलेगा


सासू माँ के परलोक सिधार जाने पर  

मैंने उम्मीद-भरी जिज्ञासा से उस ताले को खोला

मुझे उसमें दो जोड़ी कपड़ों के सिवा

कुछ नहीं मिला

कोने में मुड़ा-तुड़ा कागज़ रखा था

जिस पर लिखा था: 

'बिटिया, निराशा में भी आशा का भ्रम बनाए रखना।'


मैंने अपने दो जोड़ी कपड़े, और

वो कागज़ का टुकड़ा सन्दूक में रख कर

उस पर जड़ दिया, फिर ताला

और ताली पल्लू से बाँध ली...



घर की लाडली


चेहरे पर सजी रहती है मुस्कान ज़िन्दगी की

खुशी से चहक रही है वह 

कि सदियों के संघर्ष के बाद 

उसने घर के बाहर कदम रखे हैं 

घर की लाडली, ज़िन्दगी के फैसले खुद करने लगी है 

मगर उसकी नसों में खून के साथ-साथ 

अनजाना सा भय भी दौड़ता रहता है 

जो चुप्पी के साये में, सांस लेता है 

बाहर हँसते चेहरे के भीतर 

किसी अनकहे दर्द को ढोता रहता है 

चुनौती बड़ी है

लेकिन इसे पार पाना होगा 

लाडली, तुम्हें आगे बढ़ना होगा।



कल्पना


बहुत लगाव है मुझे अपनी कल्पना से 

सागर से अधिक गहरी 

आकाश से अधिक विस्तृत

पृथ्वी से अधिक धैर्यशील


मृत्यु से इतर भी सत्य हैं 


बार-बार तुम्हारे द्वारा अपने अस्तित्व का भान

बाधित करता है 

मेरी कल्पना की उड़ान


संसार मेरा कल्पनामय रहने दो

वापस ले लो अपना नामांकन 

क्योंकि मैं नहीं चाहती कोई भी सीमांकन और चुनाव।


  




मेरे अपने


जब सो जाती दुनिया 

चाँद चुपके से खड़ा हो जाता है 

मेरी खिड़की के सामने 

और फिर मुस्कुरा कर कहता है:

खोज लो मुझ में वह चेहरा 

जिसकी तुम्हें तलाश है


खटखटा कर सांकल 

हवा पूछती है:

बहुत उदास हो न, 

अगली बार जब लौटूंगी, सपनों के देश से

ज़रूर ले कर आऊँगी उसका पता 

बादल कहते हैं:

हम तो दरवेश हैं 

भटकते हैं देश-विदेश

कभी चलना साथ हमारे 

मिल कर ढूँढ़ेंगे उसे 

चाँद, सितारे, कोयल, भंवरे

सब करते हैं, तुम्हारी ही बातें

मैं सुनती हूँ चुपचाप 

और सबके चले जाने के बाद

धीरे से बोलती हूँ एक शब्द

कि, तुम ही मेरे अपने हो।



गृहस्थन


सुबह से शाम, शाम से सुबह...

गृहस्थन जब देखती है बरसों बाद आईना 

दिखती हैं सिर्फ़ कुछ धुंधली लकीरें, और चंद सियाह सफेद बाल

आईने की तरफ देखते हुए 

गृहस्थन का मन कहता है कह दूँ

कि एक औरत के मन की गांठे खोल कर 

कभी पढ़ा है तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास पढ़ा है कभी उसकी चुप्पी की दहलीज पर बैठकर,

शब्दों की प्रतीक्षा में, उसके चेहरे को 

उसके अन्दर वंश-बीज बोते क्या तुमने कभी महसूसा है उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर 

क्या तुम जानते हो एक औरत के समस्त रिश्ते का व्याकरण 

बता सकते हो तुम एक औरत को औरत की दृष्टि से देखते 

उसके सतीत्व की परिभाषा 

अगर नहीं,

तो फिर जानते क्या हो तुम

रसोई और बिस्तर के गणित से परे औरत के बारे में

अचानक तंद्रा टूटी 

एक मरे हुए सपने ने सांस ली 

एक और उबाऊ दिनचर्या से बंधने के बाद 

दिन भर खटने के बाद

उसने देखी 

नई चमकदार लाल चूड़ियां, बिछुए और पायल 

और खुश हो गई, तैयार हो गई 

फिर से कल के कोल्हू में जुत जाने के लिए।



आग के फूल 


इत्तेफ़ाकन कचनार के पौधे के पास 

मिल गया वह एक दिन 

एक नर्म पत्ती मेरी हथेली पर रख बोला 

देखूं तेरे लहू में कितनी तपिश है 


मैं अन्दर-अन्दर ही हँसी 

पत्ती हथेली पर जल पड़ी...


अब वह अक्सर मुझसे मिलता है 

और लाता है मेरे लिए 

आग के फूलों वाली डाली।



कवि-परिचय:

अमिता मेहता हिन्दी कवि-लेखक व समीक्षक हैं। वे टी. वी. पत्रकारिता और विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से भी सम्बद्ध हैं। लगभग दो दशकों से लिख रही हैं। इनकी  कविताएँ, आलेख और समीक्षाएँ; सृजन सन्दर्भ, अभिव्यक्ति, शीराज़ा, अपना देश, कलमकार, इस्पात भारती आदि साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। इसके अलावा इनकी कविताएँ दो महत्वपूर्ण साझे कविता संग्रहों- 'मुझे आई डी कार्ड दिलाओ' (स. कमल जीत चौधरी) और 'तवी जहाँ से गुज़रती है' (स.अशोक कुमार) में भी संकलित हुई हैं। वे विभिन्न मंचों से कविता-पाठ कर चुकी हैं। फिलहाल इनका कोई कविता संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है। 



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


 96/3, नानक नगर, 

जम्मू  


ई मेल  - amitamehta1505@gmail.com 


टिप्पणियाँ

  1. जम्मू और कश्मीर की कविताई। स्वागत। इसे उम्दा व्यंजनापूर्ण नाम भी दिया है 'परांस'। सामूहिकता में सृजन जीवन का। बहुत उम्दा शीर्षक दिया है। भाई कमलजीत चौधरी को शुक्रिया इसके लिए।
    अमिता जी की इन कविताओं से पहली बार रूबरू हुआ हूँ। उनकी कविताओं में कविता सायास नहीं है बल्कि सहज ही निकल आई हैं किसी पानी के सोते सी या एकांत में बैठी आंखों से निकल आये आंसुओं सी। उनकी इन कविताओं में कोमलता, सहजता और सरलता है, उनमें बड़ी कविता बन जाने की कोई कोशिश नहीं है। यह ईमानदारी महत्वपूर्ण है।
    'विपरीत', 'कविता की डायरी', 'सन्दूक', कवितायें मुझे बहुत अच्छी लगी। कवि को बहुत शुभकामनाएं।

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  2. प्रिय 'पहलीबार', भाई संतोष चतुर्वेदी जी, 'परांस' को जगह देने के लिए आभार प्रकट करता हूँ। ज़िंदाबाद रहें!
    प्रिय पाठको, आपका स्नेह-साथ हमारी ताकत है। 'परांस' को पढ़ते रहें, इसे साझा करें। हमारे कवियों को अच्छा लगेगा। धन्यवाद! आपको शुभकामनाएँ!
    ~ कमल जीत चौधरी

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  3. पढ़ लीं। अमिता की कविताएं बढ़िया हैं। छोटीं और प्यारीं। शुभकामनाएं।

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  4. पढ़ लीं। अमिता की कविताएं बढ़िया हैं। छोटीं और प्यारीं। शुभकामनाएं।
    पवन करण

    जवाब देंहटाएं
  5. जम्मू कश्मीर के कवियों को मुख्य पटल पर रेखांकित करने के लिए समय समय पर बहुत प्रयास हुए हैं, इनमें अशोक कुमार ,मनोज शर्मा, और कमलजीत चौधरी के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं, कमलजीत निरंतर इस श्रृंखला को आगे बढ़ाते नित नए पुराने कवियों की कविताओं को समय के थाल पर अपनी टिपण्णी सहित रख देते हैं, कमलजीत के इस प्रयास की जितनी तारीफ को जाए कम होगी, अमिता मेहता जी की लगभग सभी कविताएं स्त्री विमर्श का नेतृत्व करती मिलती हैं अमिता मेहता को इन कविताओं के लिए बधाई और कमलजीत के इस सार्थक प्रयास को सैल्यूट

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  6. परांस के रूप में हिंदी को समृद्ध करती अमिता मेहता की छोटी कविताओं का स्वागत है।

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  7. सीधे सीधे बतियाती कविताएँ मन के किसी कोने में छुप कर बैठी किसी बात को जैसे यख़लख़स्त सर ए आम कर देती हो बधाई दोनों मित्रों को
    विजया ठाकुर

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  8. बहुत अच्छा उपक्रम। कविताएं बढ़िया हैं।

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  9. कमल जीत कमाल हैं, अमिता जी की कविताएं बहुत सहज हैं।
    परांस खूब विख्यात हो🌻

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