लेनिन पर कविताएं
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लेनिन |
आमतौर पर रचनाकार अपनी रचना का नायक उस व्यक्ति को बनाते हैं जो अतीत हो चुका हो। लेकिन कुछ विभूतियां ऐसी भी हुई हैं जिन्होंने अपने जीवन में ही वह नायकत्व प्राप्त कर लिया जिसके चलते वे रचनाकारों की रचनाओं और लोकगीतों तक में अपनी जगह बना लिया। लेनिन ऐसे ही व्यक्तित्व हैं। न केवल रूस बल्कि दुनिया के तमाम जाने अंजाने कवियों ने लेनिन पर कविताएं लिखीं। यह बात सर्वविदित है कि लेनिन सर्वहारा के पक्षधर थे। लेनिन के प्रयासों से ही रूस की सत्ता आभिजात्य वर्ग की जकड़बंदी से मुक्त हुई और मजदूरों एवं किसानों ने पहली बार सत्ता अपना वर्चस्व स्थापित किया। दुनिया में यह अजूबा पहली बार हुआ था। इस तरह लेनिन ने ही दुनिया में पहले समाजवादी राज्य की नींव डाली। शंभूनाथ शुक्ल ने लिखा है शौकत उस्मानी की पुस्तक, ‘मेरी रूस यात्रा’ के हवाले से लिखा है तब बोल्शेविक क्रांति के अग्रदूत लेनिन सोवियत देशों के संघ को मजबूत कर रहे थे। उनसे मिलने एक भारतीय राजा महेंद्र प्रताप आया। उस राजा के साथ उसका नौकर उस पर चँवर डुलाते हुए पीछे लगा था। लेनिन के कक्ष में घुसते ही राजा ने लेनिन की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाया। किंतु लेनिन उसके नौकर की तरफ़ बढ़े। उन्होंने नौकर का हाथ अपने हाथों में लिया। राजा को तब पता चला कि 'कामरेड' संबोधन से समाजवाद नहीं आता समता का भाव व्यवहार में उतारना पड़ता है। कल 22 अप्रैल को उन्हीं व्लादिमीर इलयिच लेनिन का जन्म दिन था। लेनिन की स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं लेनिन पर कुछ महत्त्वपूर्ण कविताएं।
लेनिन पर कविताएं
लेनिन की मृत्यु
व्लादिमीर मायकोव्स्की
(अनुवाद : रमेश कौशिक)
आ गया है समय
लेनिन की कथा
प्रारंभ करने का
नहीं इस कारण
व्यथा कम हो गई है
वरन् पहली बार के आघात ने
दर्द को स्पष्टतः
कुछ और गहरा कर दिया है
आ गया है समय
उसके स्वरों को फिर से
प्रबल गतिमय बनाने का
जो हुआ
उस पर नहीं आँसू बहाने का
इस विश्व में
लेनिन से अधिक कोई नहीं ज़िंदा
वह ज्ञान है
बल है
हथियार है अपना
जलयान है जनता
मगर थल का
पूर्व इसके पंथ निश्चित पार कर जाए
जल-जीव इसकी पसलियों से चिपटते हैं
प्रगति अवरुद्ध करते हैं
मगर जब तोड़कर तूफ़ान
बंदरगाह पर आता
तब खड़ा हो धूप में कोई
कीच-कचरा जलचरों को साफ़ कर देता
स्वच्छ होने के लिए
लेनिन निकट मैं जा रहा
तिर सकूँ जो क्रांति-पारावार
इस विरुदावली से मुझे
इस तरह संकोच है
बच्चा कोई जैसे
झूठ से भयभीत है
उस विवेकी सत्पुरुष वैराट लेनिन का
प्रभामंडित भाल है नभ में
काव्य की जयमाल यह पहना सकूँगा
हूँ सशंकित मैं
मुझे डर है
कि कहीं यह मक़बरे
उत्सवों की शान-शौक़त
भक्ति-पूजा
सुगंधों का प्रलेपन
कहीं लेनिन
और उसकी सादगी को ही न ढक दें
सोच कर यह काँप जाता हूँ
कहीं अपनी नुमायश से
नहीं अपकार कर दे ये
जिसे मैं प्यार करता हूँ
यही मेरे प्राण की आवाज़ है
कर नहीं सकता जिसे मैं अनसुना
यही मेरे गीत की है प्रेरणा
मस्क्वा सारा जमा है बर्फ़ से
काँपती फिर भी धरा आवेश से
शीत से आहत हुए
आग पर आ कर झुके
कौन है वह
क्या किया उसने
कहाँ जन्मा
मरण पर एक व्यक्ति के
सम्मान क्यूँ इतना
दिमाग़ी इस तिजोरी से
निकल कर शब्द आते हैं
निरंतर
किंतु इनसे काम
कुछ भी तो नहीं चलता
कितनी ग़रीबी है
शब्द के इस कारख़ाने में
उस मृतात्मा के लिए
कहाँ पाऊँगा
शब्द वह
जिसकी ज़रूरत है
घंटे मिले बारह
दिवस हैं सात कामों को
ज़िंदगी आई
गई
मौत से बचता नहीं कोई
अगर घड़ियाँ
समय के संकेत में असमर्थ
कलेंडर-बुद्धि भटकी है
तब तो यह कहूँगा मैं
वह 'युगांतर' था
'युग' या इसी-सा सार्थक कुछ
आओ बदल दें बात को अब कुछ
रात को सोते
दिवस में व्यस्त रहते
सभी अपना नीर
अपनी खरल में मथते
व्यर्थ ही जीवन गँवा कर
विदा हो जाते
किंतु आता है कभी कोई
जो सृष्टि के उपकार में
काल की इस धार को
मोड़ देता है
जिसे पैग़ंबर महामानव
प्रतिभाधनी कह कर बुलाते हैं
हम इस तरह के लोग हैं
जिनमें नहीं कोई बलवती इच्छा
सीटी बजी तो चेत जाएँगे
वरन् बेकार घूमेंगे
ज़्यादा किया तो
कर लिया ख़ुश बीवियों को
और इस पर ही लगेंगे सोचने
अपने गुणों को
अगर कोई आदमी
सामान्य लोगों से चला आया
किए मन-कर्म का एका
कहेंगे—
'यह रहा राजा'
'ख़ुदा की देन है'
इस तरह की बात में पूरी तरह
होती नहीं है बुद्धिमत्ता
होती नहीं है मूर्खता
ये हवा में तैरती हैं भाप-सी
अर्थहीन अंडे के खोल-सी
ज़रदी-सफ़ेदी
दोनों से शून्य हो
प्राणों को भावना
हाथों को कर्मठता देने में व्यर्थ हैं
लेनिन के लिए कौन-सा पैमाना है
हमने सभी कुछ देखा है
सभी को पता है
उसने जीवन कैसा जीया है
वह 'युग' हमारे द्वारों से भीतर आया
लेकिन देहलीज से
उसका सिर नहीं टकराया
उसकी जाकिट
सामान्य आकार से बड़ी नहीं होती थी
फिर कैसे कहा जाएगा कि हमारा नेता
ईश्वर ने नियुक्त कर भेजा था
यदि वास्तव में वह
दैवी या राजसी होता
तो मैंने अपने क्रोध से
उसका विरोध किया होता
लंबे जलूस के आगे
स्वयं को पटक दिया होता
भीड़ पर आक्रमण करता
सारे प्रदर्शन को अस्त-व्यस्त कर देता
इससे पहले कि वे
मुझको और मेरी आवाज़ को कुचलते
मेरा अभिशाप
गंधकी आवेश की तरह फटता
और ईश्वरीय पाखंड को
दंभी प्रकाश के मुँह पर दे मारता
फेंकता क्रेमलिन पर बम
मुर्दाबाद के नारे लगाता
तब कहीं साँस लेता
कफ़न के साथ द्ज़ेर्झिन्स्की शांत है
नौकरी उसकी ख़तरे में आई है
चेका की छुट्टी हो सकती है
करोड़ों की आँखों में
साथ ही मेरी दो आँखों में
केवल आँसू चमकते हैं
गालों तक बह कर जो नहीं आ पाते
वरन् जम करके वहीं पर सख़्त हो जाते
ईश्वर आदी है अतिरंजित शब्दों का
जिनमें होती है चीख़-चिल्लाहट
या कि प्रशंसा
आज का दु:ख सच्चा है
हृदय टूट गए हैं
हालाँकि जमे हैं
आज हम इस धरा के
सहजतम संसारी पुरुष को
दफ़ना रहे हैं
सहजतम उन सबों में
जो यहाँ जीने
और मरने के लिए आए
संसारी
मगर उनसे भिन्न
जिनकी आँख अपने सड़े बाड़े में
गड़ी रहती
उसके विचारों ने
निखिल संसार को जकड़ा
चिर रहस्यों औ' असत्यों को किया नंगा
सामान्य-जन की आँख से जो दूर थे
यद्यपि हर तरह से वह
तुम्हारी और मेरी ही तरह था
भाल उसका उठ गया
मीनार-सा ऊँचा
चक्षुकोरों में विचारों से
गहरा गईं थीं झुर्रियाँ
होंठ उसके सख़्त थे
और व्यंग्य करते-से
मगर उसमें नहीं थी
तानाशाह की सख़्ती
विजय रथ-चक्र के नीचे
खींच वल्गा
जो कुचल देती
दोस्तों के लिए दिल में प्यार था
दुश्मनों के लिए वह फ़ौलाद था
संघर्ष करने को
उसके पास भी बीमारियाँ थीं
कमज़ोरियाँ थीं
शौक़ थे
हम सबों के पास हैं जैसे
आँख अपनी मैं जमाता हूँ बिलियर्ड पर
उसके लिए प्यारी बनी शतरंज थी
जो एक नेता के लिए है
बहुत उपयोगी
आँख अपनी हटा कर शतरंज से
ज़िंदा दुश्मनों पर नज़र डाली
कल तलक जो दास थे
बोल पाते थे नहीं
उनका रहनुमा बन
वर्ग-भेदों को मिटाने के लिए
तब तक लड़ाई की
मज़दूर तबक़ा ही न शासक बन गया
आदमी जो क़ैद पूँजी के क़िले में था
उस क़िले को ध्वस्त करके रख दिया
1. द्ज़ेर्झिन्स्की : आंतरिक-विभाग का जन-अधिकारी और लेनिन का प्रबल समर्थक।
2. चेका : सोवियत संघ में क्रांति विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए बनाया गया एक विशेष आयोग जो 1917 से 1922 तक रहा।
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नाजिम हिकमत |
लेनिन
नाजिम हिकमत
उन्नीस सौ सत्रह
सात नवंबर
अपने धीरे-धीरे मंद स्वर में
लेनिन ने कहा :
‘‘ कल बहुत जल्दी होता और
कल बहुत देर हो चुकी रहेगी
समय है आज’’
मोर्चे से आते सैनिक ने
कहा ‘‘ आज’’
खन्दक जिसने मार डाला था मौत को
उसने कहा ‘आज’!
अपनी भारी इस्पाती काली
आक्रोश की तोपों ने
कहा ‘आज’
और यूं दर्ज की बोलेविकों ने इतिहास के
सर्वाधिक गंभीर मोड़-बिन्दु की तारीख
उन्नीस सौ सतरह
सात नवंबर
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ब्रेख्त |
लेनिन की मृत्यु पर कैंटाटा*
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
अनुवादः सत्यम
1.
जिस दिन लेनिन नहीं रहे
कहते हैं, शव की निगरानी में तैनात एक सैनिक ने
अपने साथियों को बतायाः मैं
यक़ीन नहीं करना चाहता था इस पर।
मैं भीतर गया और उनके कान में चिल्लायाः ‘इलिच
शोषक आ रहे हैं।’ वह हिले भी नहीं।
तब मैं जान गया कि वो जा चुके हैं।
2.
जब कोई भला आदमी जाना चाहे
तो आप कैसे रोक सकते हैं उसे?
उसे बताइये कि अभी क्यों है उसकी ज़रूरत।
यही तरीक़ा है उसे रोकने का।
3.
और क्या चीज़ रोक सकती थी भला लेनिन को जाने से?
4.
सोचा उस सैनिक ने
जब वो सुनेंगे, शोषक आ रहे हैं
उठ पड़ेंगे वो, चाहे जितने बीमार हों
शायद वो बैसाखियों पर चले आयें
शायद वो इजाज़त दे दें कि
उन्हें उठाकर ले आया जाये, लेकिन
उठ ही पड़ेंगे वो और आकर
सामना करेंगे शोषकों का।
5.
जानता था वो सैनिक, कि लेनिन
सारी उमर लड़ते रहे थे
शोषकों के ख़लिफ़
6.
और वो सैनिक शामिल था
शीत प्रासाद पर धावे में,
और घर लौटना चाहता था
क्योंकि वहाँ बाँटी जा रही थी ज़मीन
तब लेनिन ने उससे कहा थाः
अभी यहीं रुको !
शोषक अब भी मौजूद हैं।
और जब तक मौजूद है शोषण
लड़ते रहना होगा उसके ख़लिफ़
जब तक तुम्हारा वजूद है
तुम्हें लड़ना होगा उसके खिलाफ।
7.
जो कमज़ोर हैं वे लड़ते नहीं। थोड़े मज़बूत
शायद घंटे भर तक लड़ते हैं।
जो हैं और भी मज़बूत वे लड़ते हैं कई बरस तक।
सबसे मज़बूत होते हैं वे
जो लड़ते रहते हैं ताज़िन्दगी।
वही हैं जिनके बग़ैर दुनिया नहीं चलती।
9.
जब लेनिन नहीं रहे और
लोगों को उनकी याद आई
जीत हासिल हो चुकी थी, मगर
देश था तबाहो-बर्बाद
लोग उठकर बढ़ चले थे, मगर
रास्ता था अँधियारा
जब लेनिन नहीं रहे
फुटपाथ पर बैठे सैनिक रोये और
मज़दूरों ने अपनी मशीनों पर काम बंद कर दिया
और मुट्ठियाँ भींच लीं।
10.
जब लेनिन गये,
तो ये ऐसा था
जैसे पेड़ ने कहा पत्तियों से
मैं चलता हूँ।
11.
तब से गुज़र गये पंद्रह बरस
दुनिया का छठवाँ हिस्सा
आज़ाद है अब शोषण से।
‘शोषक आ रहे हैं!’ः इस पुकार पर
जनता फिर उठ खड़ी होती है
हमेशा की तरह।
जूझने के लिए तैयार।
12.
लेनिन बसते हैं
मज़दूर वर्ग के विशाल हृदय में,
वो थे हमारे शिक्षक।
वो हमारे साथ मिलकर लड़ते रहे।
वो बसते हैं
मज़दूर वर्ग के विशाल हृदय में।
’कैंटाटाः वाद्य यंत्रों के साथ लयबद्ध गायी जाने वाली रचना (साभार : Theleaderhindi.com)
लेनिन ज़िन्दाबाद!
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
पहली जंग के दौरान
इटली की सानकार्लोर जेल की अन्धी कोठरी में
ठूँस दिया गया एक मुक्ति योद्धा को भी
शराबियों, चोरों और उच्चकों के साथ।
ख़ाली वक़्त में वह दीवार पर पेन्सिल घिसता रहा
लिखता रहा हर्फ़-ब-हर्फ़ –
लेनिन ज़िन्दाबाद!
ऊपरी हिस्से में दीवार के
अँधेरा होने की वजह से
नामुमकिन था कुछ भी देख पाना
तब भी चमक रहे थे वे अक्षर – बड़े-बड़े और सुडौल।
जेल के अफ़सरान ने देखा
तो फौरन एक पुताई वाले को बुलवा
बाल्टी-भर क़लई से पुतवा दी वह ख़तरनाक इबारत।
मगर सफ़ेदी चूँकि अक्षरों के ऊपर ही पोती गयी थी
इस बार दीवार पर चमक उठे सफ़ेद अक्षर:
लेनिन ज़िन्दाबाद!
तब एक और पुताई वाला लाया गया।
बहुत मोटे ब्रश से, पूरी दीवार को
इस बार सुर्ख़ी से वह पोतता रहा बार-बार
जब तक कि नीचे के अक्षर पूरी तरह छिप नहीं गये।
मगर अगली सुबह
दीवार के सूखते ही, नीचे से फूट पड़े सुर्ख़ अक्षर –
लेनिन ज़िन्दाबाद!
lenin art
तब जेल के अफ़सरान ने भेजा एक राजमिस्त्री।
घण्टे-भर वह उस पूरी इबारत को
करनी से खुरचता रहा सधे हाथों।
लेकिन काम के पूरा होते ही
कोठरी की दीवार के ऊपरी हिस्से पर
और भी साफ़ नज़र आने लगी
बेदार बेनज़ीर इबारत –
लेनिन ज़िन्दाबाद!
तब उस मुक्तियोद्धा ने कहा,
अब तुम पूरी दीवार ही उड़ा दो!
लेनिन
वालेरी ब्रियुसोव
(अनुवाद : रमेश कौशिक)
वह था कौन विश्व का नेता
जनता की संपूर्ण कामना का
निर्देशक
जिसने मनुज नियति को बदला
निःशेष किया
उन धाराओं को
भँवर-जाल में डाल
मनुज के विविध पथों को
अस्त-व्यस्त कर रख देती जो
अक्तूबर से जन्मा एक नया युग
जिसने पुनर्जागरण
या कि अत्तिल्ला
या ऐतिहासिक किसी वस्तु से
अधिक गहन रेखा खींची है
अक्तूबर की झंझाओं से
डगमग होता
ध्वस्त हो गया
विश्व पुरातन
और नया फिर जन्मा इससे
सारी जनता का हित-चिंतक
नए विश्व के जन्म
पुरातन के खंडहर पर
खड़ा हुआ है लेनिन
जैसे ऊर्ध्व शिखर
इस ब्रह्मांड के ग्रह-मंडल में खोए
ओ भू-मण्डल
उसका नाम
तुझे ज्योतित कर देगा ऐसा
जैसा नहीं आज तक देखा होगा
वह नहीं रहा अब
सीमाहीन समय में
उसका जीवन
केवल एक निमिष है
लेकिन उसका कर्म
मृत्यु के बाद अभी जीवित है
उसकी दर्शन-दीप्ति
सदा पथ दिखलाएगी।
1. अत्तिल्ला : हूण सम्राट (406-453 ईस्वी), जिसने यूरोप पर 451 ईस्वी में आक्रमण किया और रोमनों द्वारा पराजित हुआ।
घंटे
सेम्योन किर्सानोव
(अनुवाद : रमेश कौशिक)
कभी एक जैसे लगते थे सारे घंटे
किंतु मुझे अब यह लगता है
ये हो सकते हैं
छोटी-सी बूँद सरीखे
सागर जैसे
औ’' पिस्सू-से
या पर्वत-से भारी-भरकम
कुछ युग ऐसे भी होते हैं
नहीं छोड़ते अपने पीछे कोई रेखा
जिससे कोई याद कर सके सतयुग को—
या लिलीपुटी बौनों को
ऐसे भी क्षण होते हैं महिमा से मंडित
जिनके कारण सारे युग को यश मिलता है
लोग अमरता पा जाते हैं
जिनसे सारी निष्फलताओं
व्यर्थ हुए सारे दिवसों का
पूरा हर्ज़ाना मिलता है
ऐसे क्षण मैंने भी जाने
पीये प्यार के थे जब प्याले
अब वे प्रतिपल मुझे याद आते हैं
अपने में वे
स्वयं एक दुनिया थे
मेरे जीवन में अंत समय तक साथ रहेंगे
वह महान् क्षण भी शाश्वत है
जब लेनिन बोला था—
'फैंक चुके हैं पासा'
लेनिन का युग
जीवन से ज़्यादा लंबा है
सूरज से ज़्यादा चमकीला
वक़्त नापते हैं हम
घड़ियों की टिक-टिक से
घंटों की गूँजों से
लेकिन युग वे कैसे हम नापेंगे
जिन्हें शेक्सपीयर के पन्ने जिएँगे।
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इक़बाल |
लेनिन
अल्लामा इक़बाल
ऐ अन्फ़ुस ओ आफ़ाक़ में पैदा तिरी आयात
हक़ ये है कि है ज़िंदा ओ पाइंदा तिरी ज़ात
मैं कैसे समझता कि तू है या कि नहीं है
हर दम मुतग़य्यर थे ख़िरद के नज़रियात
महरम नहीं फ़ितरत के सुरूद-ए-अज़ली से
बीना-ए-कवाकिब हो कि दाना-ए-नबातात
आज आँख ने देखा तो वो 'आलम हुआ साबित
मैं जिस को समझता था कलीसा के ख़ुराफ़ात
हम बंद-ए-शब-ओ-रोज़ में जकड़े हुए बंदे
तू ख़ालिक़-ए-आसार-ओ-निगारंदा-ए-आनात
इक बात अगर मुझ को इजाज़त हो तो पूछूँ
हल कर न सके जिस को हकीमों के मक़ालात
जब तक मैं जिया ख़ेमा-ए-अफ़्लाक के नीचे
काँटे की तरह दिल में खटकती रही ये बात
गुफ़्तार के उस्लूब पे क़ाबू नहीं रहता
जब रूह के अंदर मुतलातुम हों ख़यालात
वो कौन सा आदम है कि तू जिस का है मा'बूद
वो आदम-ए-ख़ाकी कि जो है ज़ेर-ए-समावात
मशरिक़ के ख़ुदावंद सफ़ेदान-ए-रंगी
मग़रिब के ख़ुदावंद दरख़्शंदा फ़िलिज़्ज़ात
यूरोप में बहुत रौशनी-ए-इल्म-ओ-हुनर है
हक़ ये है कि बे-चश्मा-ए-हैवाँ है ये ज़ुल्मात
रानाई-ए-तामीर में रौनक़ में सफ़ा में
गिरजों से कहीं बढ़ के हैं बैंकों की इमारात
ज़ाहिर में तिजारत है हक़ीक़त में जुआ है
सूद एक का लाखों के लिए मर्ग-ए-मुफ़ाजात
ये 'इल्म ये हिकमत ये तदब्बुर ये हुकूमत
पीते हैं लहू देते हैं तालीम-ए-मुसावात
बेकारी ओ 'उर्यानी ओ मय-ख़्वारी ओ इफ़्लास
क्या कम हैं फ़रंगी मदनियत की फ़ुतूहात
वो क़ौम कि फ़ैज़ान-ए-समावी से हो महरूम
हद उस के कमालात की है बर्क़ ओ बुख़ारात
है दिल के लिए मौत मशीनों की हुकूमत
एहसास-ए-मुरव्वत को कुचल देते हैं आलात
आसार तो कुछ कुछ नज़र आते हैं कि आख़िर
तदबीर को तक़दीर के शातिर ने किया मात
मय-ख़ाना की बुनियाद में आया है तज़लज़ुल
बैठे हैं इसी फ़िक्र में पीरान-ए-ख़राबात
चेहरों पे जो सुर्ख़ी नज़र आती है सर-ए-शाम
या ग़ाज़ा है या साग़र ओ मीना की करामात
तू क़ादिर ओ 'आदिल है मगर तेरे जहाँ में
हैं तल्ख़ बहुत बंदा-ए-मज़दूर के औक़ात
कब डूबेगा सरमाया-परस्ती का सफ़ीना
दुनिया है तिरी मुंतज़िर-ए-रोज़-ए-मुकाफ़ात
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दिनकर |
लेनिन
रामधारी सिंह "दिनकर"
लेनिन, आप से मिलने के पूर्व
मैं गांधी से मिला था।
भारत के अध्यात्म का फूल
राजनीति में खिला था।
वह फूल गांधी थे।
गांधी अंग में मंद-मंद लगाने वाली
शीतल बयार थे।
आप तो तूफान और आंधी थे।
पहाड़ों से आपने झुकने को भी
नहीं कहा।
धक्का मारा और सीधे
उन्हें जड़ से उखाड़ दिया।
साँप और साँप के बच्चे,
दोनों को
जमीन के नीचे गाड़ दिया।
बापू ने हमें अहिंसा सिखायी थी,
मगर शर्म है कि वह हमसे नहीं चली।
माचिस को हमने छाती पर
बार-बार घिसा,
लेनिन-गांधी वाली आग
नहीं जली।
अब तो गांधी के बच्चे भी
उस पुरुष के इन्तजार मे हैं,
जो उजले घोड़े पर चढ़ा
रक्त-रंजित करवाल लिये आएगा,
जो लोग धर्म का हुक्म मानने से
इनकार करते है,
पृथ्वी को उनसे मुक्त कर जाएगा।
मौका था कि भगवान अब आते
और पाप के विरुद्ध युद्ध ठानते।
लेनिन, आपने अगर
भारत में जन्म लिया होता ,
हम आपको कल्कि का अवतार मानते।।
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सच्चिदानंद राउतराय |
लेनिन
सच्चिदानंद राउतराय
(ओड़िया से अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र)
सारी जनता का निशान है लेनिन
लेनिन है जीवन-ज्योति
(और) वास्तविकता का टीका है
स्वप्न से बढ़कर वह जो दूर की
वास्तविकता के निकट है
वह मानव-समाज की
अंतर से अंतरतम
विस्तृति चेतना की
लेनिन ध्वजा है सारे विश्व की मेहनतकश जनता की
लेनिन! लेनिन! पुकारती है मेरी लेखनी
जब चाहे जितनी बार—
तृप्त नहीं होता, छू नहीं पाता, मैं
कभी भी देशांश रेखा उसकी
लेकिन हठात् दिखाई देता है वह जो
अकारण ही फिर कभी
खेत, और खलिहान, कारखानों में
किसान और श्रमिक जब
कभी मुकाबला करते हैं
स्थायी स्वार्थ-पुंज के किसी चमचमाते हथियार से
रात्रि के अंतिम पहर की एक आवाज
शहर की तलहटी के किनारे
जंगलों और पहाड़ों पर
किसानों के जयघोष में
किसान स्त्रियों की भौंहों पर
वह काजल की रेखा तो सांवले बादल के इंतजार में है
लेनिन, लेनिन वह एक सरणी है,
वह एक पथ की संज्ञा है,
अतीत के संपूर्ण मानचित्र पर
वह एक नया पहलू
मनुष्य की नई सीमा!
वह जिसने लिखे हैं सारी उम्मीदों के नवीनतम शीर्षक
लेनिन हमारा साथी है
लेनिन जो हमारे जीवन की ज्योति है
हटाकर भय और वश्यता
नए मूल्यों की ध्वजा
आज वह हर हाथ में सौंपकर
दूर करता है सारी गलतफहमियां
आज लेनिन के नाम से
नई धड़कनें उठने लगती हैं सुदूर वियतनाम में
सुदूर भारत में आज भी वह चमक रहा है
हर शहर-गांव में
लाल तारे की तरह ही वह जल रहा है
अफ्रीका के घने जंगलों में
लाखों मील लांघकर वह जल रहा है
मलयद्वीप के आकाश में
उसी प्रगति के अग्रदूत को आज मैं स्मरण करता हूं
बुलाता हूं ले उसका नाम
उसी के नाम से जागता है कोरापुट, पुरी और गंजाम
वह तो सुबह का स्वर है
लेनिन! लेनिन! पुकारती है मेरी लेखनी
जब चाहे जितनी बार
तृप्ति नहीं होती, फिर भी मैं पुकारता हूं,
हर युग में उसे बार-बार.
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सतीश कालसेकर |
लेनिन के लिए
सतीश काळसेकर
अनुवाद : चंद्रकांत पाटील
घनघोर और बरसाती रात
समूचे महानगर में फैला हुआ अंधकार
और उसके भीतर से आती हुई रोशनी
इस महानगर में भी झींगुर गाते हैं
एकाग्र हो कर अपना गीत
आज यह महसूस हुआ पहली बार।
लेनिन, मैंने नहीं देखीं कभी इस महानगर के
उदर में बिखरी हुई जटिल उलझनें ठीक से,
मैंने नहीं की मुसाफ़िरी मस्ती में
मुक्त होता चला गया फिर भी
इस महानगर की गंदी बस्तियों में,
मेरी आँखों पर चश्मा वैसा ही रह गया
निरंतर धुँधला
लगातार टपकती हुई बारिश जैसा
और मैं मुड़ गया
अपने सभी पूर्व कर्म पीठ पर बाँधे हुए
कविता-पंक्तियों के ज़रिए।
व्यवस्थावादियों से जूझते हुए।
तो लेनिन,
मैंने विद्रोह किया कविताओं की पंक्तियों में
अपने साफ़-सुथरे कपड़ों के साथ
और उन पंक्तियों को ले कर
जिस समय मैं पहुँचा
विद्रोह के अगले चरण तक
तब समझ में आया
कि व्यवस्था के गले में नाख़ून लगाते ही
वह झपट्टा मारती है
किसी घिरी हुई बिल्ली की तरह
सीधे तुम्हारे गले पर।
तब मैं और मेरी कविता
दोनों बदलते गए पंक्ति-दर-पंक्ति
और मैं तुम्हारे पीछे आ गया
अपनी पीठ के सभी ज़ख़्म
सँभाले हुए पीठ पर और पेट पर
और तुम्हारे साथ सीखता चला गया
अपने बारे में और अपने
परिवेश के बारे में
पहली बार।
बहुत सुंदर प्रस्तुति
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