विनोद दास की किताब पर शर्मिला जालान की समीक्षा

 




संस्मरण अपने आप में एक दस्तावेज की तरह होते हैं। इसमें उस समय की प्रतिध्वनियां भी करीने से दर्ज होती हैं। विनोद दास के संस्मरणों किताब 'छवि से अलग' हाल ही में प्रकाशित हुई है। इस किताब में अपने समय के पन्द्रह ख्यातनाम लोगों के बारे में विनोद जी के ऐसे संस्मरण हैं जिनसे एक दौर की मुकम्मल तस्वीर गढ़ी जा सकती है। इन आत्मीय संस्मरणों के साथ सन्नद्ध विनोद जी स्वयं तो हैं ही। शर्मिला जालान ने इस किताब को पढ़ते हुए एक समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विनोद दास की किताब 'छवि से अलग' पर शर्मिला जालान की समीक्षा संस्मरणों की दुनिया में एक आत्मीय यात्रा'।



'संस्मरणों की दुनिया में एक आत्मीय यात्रा'



शर्मिला जालान


विनोद दास जी की संस्मरणों की नवीनतम पुस्तक 'छवि से अलग' को मैंने उपन्यास की तरह पढ़ा है। उपन्यास में जैसे हम एक नगर बसाते हैं और उसमें तरह-तरह के चरित्रों का सृजन करते हैं-जिनके उजले और स्याह पक्ष होते हैं, सफलताएँ और दुर्बलताएँ होती हैं-वैसे ही यहाँ लेखकों का एक विस्तृत संसार हमारे सामने खुलता है। उनकी विडंबना और अंतर्विरोधों को जान पाते हैं। यहाँ दिल्ली, कोलकाता, पटना, लखनऊ, जयपुर आदि कई शहर आते हैं और उन शहरों के महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों, लेखकों के व्यक्तित्व और कृतित्व की तहें खुलती हैं। उनके लेखन से जुड़ी किताबों, विचारों और अन्तर्कथाओं का संसार भी हमारे सामने आता है।


पढ़ते-पढ़ते हम दो-तीन दशक पहले के उस समय में लौट जाते हैं-जहाँ जीवन थोड़ा धीमा, पर शायद अधिक गहरा था।


'छवि से अलग' में विनोद दास जी ने 15 लोगों के साथ जुड़े अपने अनुभवों को साझा किया है। परंतु, इन 15 व्यक्तियों में एक और नाम जोड़ा जाना चाहिए स्वयं विनोद दास जी का। हर संस्मरण में उन्होंने अपने जीवन के छोटे-छोटे हिस्से साझा किए हैं। बाराबंकी के छोटे-से गाँव कमोली के एक युवक विनोद दास जी के युवा दिनों के बारे में, दिल्ली और लखनऊ, जयपुर, कलकत्ता आदि, जिन शहरों में वे रहे, जिन साहित्यकारों से मिले, जो पुस्तकें वे पढ़ रहे थे, के बारे में जान पाते हैं। इस प्रकार, यह संस्मरण केवल उन 15 लोगों का नहीं है, जिनकी सूची पुस्तक में दी गई है, बल्कि यह विनोद दास जी के जीवन, उनके अनुभवों और उनकी साहित्यिक यात्रा, विकास यात्रा का भी है। इस तरह, यह पुस्तक 16 लोगों के बारे में है-विनोद दास जी के दृष्टिकोण से देखे गए संसार को हमारे साथ साझा करती हुई।


इन संस्मरणों की विशेषता यह है कि इन्हें पढ़ते हुए कई अन्तर्कथाएँ अनायास हमारे साथ हो लेती हैं। जैसे, श्रीलाल शुक्ल का स्मरण पढ़ते हुए सहसा गंगूबाई की छवि भी उभर आती है-एक स्त्री, एक दलित, जो मल्लाह परिवार में जन्मी थीं और ब्राह्मण से विवाह हुआ था। इस प्रसंग में विनोद दास चुटकी लेते हैं, और इसी चुटकी के बहाने बड़ी सहजता से अपनी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि साझा करते हैं कि श्रीलाल शुक्ल अपनी जाति और पद की श्रेष्ठता से पूरी तरह मुक्त नहीं प्रतीत होते। वे इस संकेत को और अधिक स्पष्ट करते हुए एक प्रसंग और उदाहरण भी देते हैं, किंतु तुरंत स्वयं को रोकते हुए विनम्रता से स्वीकारते हैं, "मैं राह भटक गया था।" यही विनोद दास जी का विशिष्ट शिल्प है-शालीनता से, अपनी बात कह जाना।


श्रीलाल शुक्ल पर लिखे संस्मरण के माध्यम से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय मिलता है।


निर्मल वर्मा पर लिखते हुए वे अज्ञेय का भी संदर्भ लेते हैं। निर्मल वर्मा के संदर्भ में 'कला का जोखिम' में संकलित लेख का उल्लेख आता है, जिसे फिर पढ़ने की उत्सुकता सहज ही जागती है।


विनोद दास जी पूरी निर्ममता और निःसंकोच भाव से लिखते हैं कि एक भारतीय देहाती की निजी और सार्वजनिक ज़िंदगी में प्रायः कोई द्वैत नहीं होता। शायद इसी सहजता के कारण उन्होंने दुस्साहस कर निर्मल वर्मा से उनके पारिवारिक जीवन के विषय में भी प्रश्न पूछ डाला था।


'गौरा पंत शिवानी' शीर्षक संस्मरण में यह भाव झलकता है कि हमारी लेखकों से जुड़ी अपेक्षाएँ अकसर उनकी वास्तविकता के सामने टिक नहीं पार्टी। विनोद दास जी यह आत्मस्वीकृति करते हैं कि शिवानी जी से मिलने का उनका सुयोग बाद में नहीं हो पाया, कहीं उसका कारण यह तो नहीं था कि उनके भीतर भी गंभीर साहित्य और लोकप्रिय साहित्य के बीच एक अदृश्य दूरी बनी रही, जिसके कारण वे शिवानी जी को पूर्ण साहित्यकार नहीं मान सके।


नामवर सिंह पर लिखा संस्मरण और उसमें अशोक वाजपेयी का संदर्भदिलचस्प है।


लेखक अखिलेश का संस्मरण पढ़ते हुए लखनऊ के साहित्यकार, वहाँ के साहित्यिक पर्यावरण, सक्रिय रचनाकारों को भी हम जानने लगते हैं। 'चिट्ठी' कहानी से लेकर 'अक्स' तक की अखिलेश जी की, विनोद दास की आँखों से देखी हुई जर्नी आती है, तो विनोद दास जी की स्वयं की जर्नी भी वहाँ पर है। इस तरह यह संस्मरण लखनऊ के साहित्यिक पर्यावरण की चर्चा करता है। यह पुस्तक इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है कि विशेष काल और समय में सक्रिय रचनाकारों, संपादकों, पत्रकारों, पत्र-पत्रिकाओं आदि की यात्रा हो जाती है।


ये संस्मरण रोचक और पठनीय हैं। मुद्राराक्षस पर पढ़ते हुए आगे बढ़ते हुए ऐसा लगता है हम संस्मरण नहीं, कोई उपन्यास ही पढ़ रहे हैं। आपातकाल का समय है और संगोष्ठी की बात है वह समय जो गहरा था भले ही धीमा था। इस संस्मरण में लच्छू महाराज की कथा दिलचस्प लगती है। यह अंतर्कथा हमें मुगलेआज़म के ज़माने में ले जाती है और मधुबाला की अपूर्व ठुमरी 'मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़ गयो रे' की याद से भिगो देती है।


विनोद दास 


इन संस्मरणों को पढ़ते हुए धीरे-धीरे यह बोध गहराता है कि व्यक्ति अंतर्विरोधों से घिरा होता है। हाँ, कुछ व्यक्तित्व ऐसे भी होते हैं जिनमें साधना का ताप होता है। वे केवल लेखक नहीं रहते, साधक बन जाते हैं। उन्होंने अपने जीवन को साधा होता है। पुस्तक पढ़ने के बाद निर्मल वर्मा का वह छोटा-सा कमरा और अशोक सेकसरिया याद रह जाते हैं।


विनोद दास जी लिखते हैं कि अशोक सेकसरिया जी से उनकी पहली मुलाकात 1982 में हुई थी। इस मुलाकात के निमित्त कवि कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल रहे।


"कुर्ता-पैजामा और उनकी वय से अनुमान लगा लिया कि यह अशोक जी हैं। अपना नाम बताने के बाद जैसे ही मैंने प्रयाग शुक्ल जी का ज़िक्र किया, उनकी आँखें जगमगा उठीं। इस शब्द की उष्म छुअन से हमारे बीच अपरिचय की बर्फ पिघलने लगी। फिर तो उनके सवालों का सिलसिला शुरू हो गया। मैं कौन हूँ? क्या करता हूँ? कहाँ का रहने वाला हूँ? जब मैंने बताया कि मैं बाराबंकी का हूँ, उनकी आँखों में चमक आ गयी 'आप दिग्विजय सिंह 'बाबू' के ज़िले के हैं।' अशोक जी बाबू के हॉकी के खेल कौशल के बारे में खासतौर से उनकी ड्रिब्लिंग के बारे में चर्चा करने लगे। जब वह बाबू की ड्रिब्लिंग के बारे में बता रहे थे तो ऐसा सजीव वर्णन कर रहे थे गोया वह महाभारत के संजय की तरह आँखों देखा हाल बता रहे हो।


1948 में 'बाबू' हॉकी के जादूगर ध्यानचन्द के साथ उपकप्तान थे। फिर 1952 में ओलंपिक में स्वर्णपदक दिलाने में किस तरह योगदान किया था, उसके बारे में उत्साह से मुझे बताने लगे। मुझे अपने ज़िले के नायक के बारे में सुनना प्रीतिकर लग रहा था। यह भी दिलचस्प लगा कि मुझसे अशोक जी उस शख्स के बारे में पूछ रहे थे जिसके बारे में वह मुझसे ज़्यादा जानते थे। इस तरह वह मुझे प्रेरित भी कर रहे थे कि मुझे अपने ज़िले के गौरव पुरुष के बारे में कुछ और ज़्यादा जानना चाहिए।


मैंने उन्हें उत्साह से बताया कि जब मैं राजकीय इंटर कॉलेज में छठी कक्षा का छात्र था तो वार्षिक क्रीड़ा उत्सव में दिग्विजय सिंह बाबू मुख्य अतिथि के रूप में आए थे। बाबू इसी कॉलेज के छात्र भी रह चुके थे। मैंने अशोक जी को यह खबर भी दी कि लखनऊ में खेल स्टेडियम उनके नाम पर है। अशोक जी सिगरेट के धुएँ को फेंकते हुए भारत में हॉकी के खेल के प्रति घटती लोकप्रियता पर अफ़सोस जताने लगे, जैसे उनके भीतर हॉकी की स्टिक सूखी टहनियों की तरह जल रही हो। तब तक मुझे यह नहीं पता था कि वह लम्बे अरसे तक दिल्ली में 'हिंदुस्तान टाइम्स में खेल पत्रकार रह चुके थे।


बाद में भारत में एशियाड आयोजन पर उनका एक लेख भी पढ़ने का सुयोग मिला जिसमें उन्होंने एशियाड के दौर में बने स्टेडियम के निर्माण में अपने जीवन की आहुति देने वाले श्रमिकों का बहुत मार्मिकता से उल्लेख किया था।"


"अब अशोक जी का पार्थिव शरीर नहीं है। उनके जैसा परदुखकातर और करुणा से आप्लावित मन आज के स्वार्थ-केंद्रित समय में दुर्लभ है। कोलकाता में अब ऐसा दरवाज़ा कहाँ होगा जहाँ ताला न लगता हो। कोई भी निःसंकोच जा सकता हो। अपनी व्यथा-कथा कह सकता हो, जिसे कोई कान करुणा और धैर्य से सुनता हो, उसकी मदद के लिए बेचैन इधर-उधर हाथ-पाँव मारता हो। जहाँ मदद मिले, मदद की डुगडुगी न बजे। वह दरवाज़ा बस अशोक सेकसरिया का ही हो सकता था जो अब सिर्फ हमारी स्मृति में है।"


पुस्तक में अन्य जो छवियाँ हैं इंदिरा गांधी, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, केदार नाथ सिंह, गुलशेर खान शानी, अरुण कमल, वीरेन्द्र यादव, विजय कुमार उनको पढ़ कर भी हम समृद्ध होते हैं।


'छवि से अलग' का अर्थ है किसी स्थापित या सामान्य रूप से स्वीकार की गई छवि, धारणा या स्टीरियोटाइप से अलग होना। यहाँ जो संस्मरण हैं वे क्या अलग हैं? कैसे आदि बातें पढ़ कर ही जानी जा सकती हैं।


इन संस्मरणों में कई ऐसी पंक्तियाँ हैं जिन्हें हम उद्धरण के तौर पर अपनी डायरी में लिख सकते हैं। एक को यहाँ पर उद्धृत कर रही हूँ:

नामवर सिंह पर 'आलोचक के सिरहाने कविता' से -

"साहित्यकार से रिश्ता जोड़ने के लिए उतना मिनना नहीं, जितना पढ़ना ज़रूरी होता है। किताब के पाठ से हम लेखक के रूप-रंग और आँखों को पहचान लेते हैं। उसकी आवाज़ सुन पाते हैं, उसके स्पर्शों को छू पाते हैं, उनके इशारों को समझ पाते हैं, उसके मन को पढ़ पाते हैं।"


शर्मिला जालान 


सम्पर्क 


ई मेल : sharmilajalan@gmail.com



टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं