यादवेन्द्र का आलेख 'सारी बकरियाँ एकदम से कहाँ चली गईं?'

 


यादवेन्द्र 



समूचे ब्रह्मांड में हमारी यह पृथिवी जीवन से पूरी तरह आप्लावित है। यहां तरह तरह का चित्र विचित्र जीवन भरा पड़ा है। जीवन का यह वैविध्य इतना व्यापक है कि कुछ से तो हम आज भी अपरिचित हैं। जीवन की यही खूबसूरती है। हम इसे जैव विविधता के नाम से जानते पहचानते हैं। लेकिन विकास की अंधी दौड़ में हम कुछ इस तरह शामिल हुए कि अरसे से साथी रहे पशु पक्षियों को खोते चले गए। मारीशस का डोडो पक्षी इसका उदाहरण है। गिद्ध हमारे देखते देखते लुप्तप्राय हो गए। गौरैया जिनसे हमारी हर सुबह कभी गुलजार हुआ करती थी, दूभर होने लगी है। बैल अब बीते दिनों की बात हो गए। जो भेड़ बकरियां हमारे गांवों के दृश्य को अलग रंग प्रदान करते थे, अब कम दिखने लगे हैं। चिन्ता की बात तो यह है कि केवल जीवन से ही नहीं हमारे साहित्य और संस्कृति से भी अब ये गुम होने लगे हैं। मोबाइल के रील्स कल्चर ने हमें इस कदर व्यस्त कर दिया है कि हम अपने आस पास को ही जान समझ नहीं पाते। आजकल पहली बार पर हम प्रत्येक महीने के पहले रविवार को यादवेन्द्र का कॉलम 'जिन्दगी एक कहानी है' प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत वे किसी महत्त्वपूर्ण रचना को आधार बना कर अपनी बेलाग बातें करते हैं। कॉलम के अंतर्गत यह छठीं प्रस्तुति है। इस बार अपने कॉलम के अन्तर्गत यादवेन्द्र ने श्रद्धा श्रीवास्तव की एक प्यारी कहानी "मानुस हौं तो वही..." के बहाने से महत्त्वपूर्ण बातें रखी हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख 'सारी बकरियाँ एकदम से कहाँ चली गईं?'



'सारी बकरियाँ एकदम से कहाँ चली गईं?'



यादवेन्द्र 



कोई 10-12 साल पहले किसी से मिलने बोकारो जाना पड़ा था तब रास्ते में जो गांव कस्बे पड़े उसमें बड़ी संख्या में बकरियाँ देखने को मिली थीं। बरसात का समय था और मैंने अपनी भागती टैक्सी के अंदर से बरसात में भीगती बकरियों की कुछ बेहद सुंदर फोटो खींची थीं। मुझे एकदम से पीट सीग़र का यह मशहूर युद्ध विरोधी गीत याद आया : व्हेयर हैव ऑल द फ्लॉवर्स गॉन? (सारे के सारे फूल कहाँ चले गए)



मुझे लगा पहले तो हमारे जीवन में आसपास बकरियाँ दिख जाती थीं लेकिन अब सारी बकरियाँ निकल कर एकदम से कहाँ चली गईं? क्या हमसे रूठ गईं... या असभ्य समझ कर हम शहरी सभ्यों से जबरन दूर कर दी गईं?



बेटी के पास जाता हूँ तो कई बार मुझे सुबह की सैर करते हुए फरीदाबाद के नए बनते महानगर के बीच-बीच में फंसे हुए गाँवों  में बकरियाँ दिख जाती हैं पर जानता हूँ उनके दिन भी साल दो साल में लद जाएंगे। पटना आया तो सोनपुर हाजीपुर जाता करता हूँ। कुछ साल पहले तक गंडक किनारे नेपाली मंदिर के पास हाजीपुर में कई बकरियाँ दिखाई देती थीं पर अब तीन-चार साल से वे भी नहीं दिखीं। यहीं विवान ने पहली बार हाथ में पकड़ कर बकरी को पत्तियाँ खिलाई थीं तो कितना रोमांचित हुआ था।





बेहद सुखद आश्चर्य है कि अचानक 5-7 दिन पहले फिर से मेरे आस-पास प्यार से लहराती हुई में में करती हुई सुंदर बकरियाँ प्रकट हो गईं। पर अपने भौतिक शरीर के साथ नहीं बल्कि शब्दों के सुंदर चित्र के साथ - श्रद्धा श्रीवास्तव की एक छोटी सी प्यारी कहानी "मानुस हौं तो वही..." में (सेतु प्रकाशन द्वारा प्रकाशित संकलन "धूप नीचे नहीं उतरती" में शामिल)।


इस कहानी को लक्ष्य करते हुए ज्ञानरंजन ने बड़ी महत्वपूर्ण और प्रासंगिक बात लिखी:

'

इस कहानी पर मेरा ध्यान इसलिए गया क्योंकि यह हिंदी कहानी की सौ वर्ष की परंपरा से जुड़ती है। इस कहानी में भूली बिसरी बकरियाँ केवल पशु मात्र नहीं हैं वह कठिन पथरीली ऊंचाइयों पर दो पैर उठा कर एक दो पत्ती चुगती दिखती हुईं एक दुर्लभ दृश्य है हमारे समय का। इस कहानी में प्रकृति जीवित है जो हमारी आज की कहानी से लगभग गायब है।


श्रद्धा श्रीवास्तव


बरसात की एक दोपहर का वर्णन एक मनोरम दृश्य उपस्थित कर रहा है:


मैदान की हरी भरी घास बड़ी सुखदायी लग रही थी। उससे भी भली लग रही थी बकरियों की खिलंद, उनका खेल। 20-25 बकरियाँ, 10 -12 भैंसें, भैसों पर सवार बगुले। भैंसें घास चर रही थीं और उनकी पीठ पर सवार बगुले कान के आस-पास के कीड़े चुग रहे थे। बुद्धि के लिए बदनाम भैंसें और बुद्धिमान बगुले की दोस्ती पर बलिहारी जाने को दिल कर रहा था। गायों की लहराती पूंछ और उनके गले में बंधे घंटे सब मिल कर मनोरंजक दृश्य उपस्थित कर रहे थे।



26 बकरियों, ग्यारह भैंसों और सात गायों के  स्वामी रशीद मियां ने बड़े प्यार से उनके नाम रखें हैं - बकरियों के भूरी, कल्ली, कठपुतली, झबरी, सुल्ताना, रानी, दुलारी इत्यादि।


रशीद मियां बकरियों को खूब लड़ियाना दुलारना करते हैं, भोर में उठ कर रात सोने जाते तक उनके पास सिर्फ़ उन्हीं का काम और चिंता। सोचना सुस्ताना उनकी किस्मत में कहाँ, समय ही नहीं मिलता दिन भर। और तो और रात में नींद भी नहीं, जानवर चुराने वालों के डर से अक्सर इनकी नांद में सोने चले जाते हैं। नीम अंधेरे उठते हैं। दूध दुहने से पहले खुद धोते हैं उनके थन, गुनगुने पानी से। तालाब ले जा कर भरपेट पानी पिलाते हैं, नहलाते हैं मां जैसे बच्चे को रगड़ रगड़ कर नहलाती है वैसे। इस तरह स्नेह का पानी दोनों को भिगोता है दोनों को। फिर चारागाह में दिन भर, सात बजे शाम लौटते हैं। खाना बदल बदल कर देते हैं, आखिर इंसान की तरह इनको भी स्वाद बदलने का हक है।





मवेशियों का बखान सुनते सुनते अघा चुका वाचक जब रशीद मियां से उनके अपने बच्चों के बारे में पूछता है तो वह कहते हैं कि वे मवेशियों का कोई काम नहीं करते, उन्हें तो इनसे बदबू आती है। हाथ तक नहीं लगाते। उनके पीछे हमेशा पड़े रहते हैं, सिर पर सवार रहते हैं कि इन्हें बेच बाच कर छुट्टी करो, अब आपके आराम करने का वक्त है। पर वे टस से मस नहीं होते, बच्चों को खबरदार करते रहते हैं - नहीं बेचूंगा अपने जीते जी।


बच्चों की मवेशियों से अरुचि इतनी ज्यादा हो जाती है कि वह अपने पिता पर यह आरोप लगाने लगते हैं कि वे भी इनके बीच रहते रहते बिल्कुल उनके जैसे हो गए हैं - इंसान नहीं, जानवर।


"मैं चाहता हूँ यह "जैसा" शब्द भी गायब हो जाए, मैं "वह" हो जाऊं।", जब दुख उन पर हावी हो जाता तो रशीद मियां यही कहा करते। 


रशीद मियां 6 बेटों के बाप हैं- दो ऑटो चलाते हैं, दो मोटर मैकेनिक हैं और दो बिजली का काम करते हैं। उनके बार-बार ताना देने पर उन्हें लगता है कि बेचारे मशीन का काम करते-करते खुद भी मशीन हुए जा रहे हैं। उन पर तरस आता है।




कैसा दिलचस्प संयोग है कि जब मैंने यह कहानी पढ़ी उसी के एक-दो दिन के अंतर पर मनोज कुमार झा की वनमाली कथा पत्रिका में छपी कविता "एक है बकरी, एक रामप्रसाद जी" पढ़ने को मिली। इसके केन्द्र में जमींदार की भैंस चराने वाले रामप्रसाद हैं जो भैंस चराते चराते हुए बांसुरी बजाते। जब उन्हें अपना जीवन दुश्वार लगने लगा तो उन्होंने सोचा भैंस चराना मुश्किल काम है, कभी जब कुछ पैसे होंगे तो उस से बकरियों का एक झुंड खरीदूंगा। जब कुछ पैसे हाथ में आए तो तीन बकरियाँ। 


जब कुछ पैसे हाथ में आए तो तीन बकरियाँ  खरीदीं जिनकी संख्या बढ़ते बढ़ते 20 तक पहुंच गई। फिर घर में थोड़ी खुशहाली आई, बच्चों के शादी ब्याह हुए। लेकिन जल्दी ही बच्चे अपनी कमाई के लिए अलग-अलग शहरों में चले गए। अकेले रह गए रामप्रसाद, बुढ़ापा हावी होने लगा। न कोई चारा, न चरागाह। इन हालातों में जैसे बढ़ी थीं वैसे ही घटने लगीं बकरियाँ। फिर तो एक समय ऐसा आया - एक रह गए रामप्रसाद, और एक ही बची बकरी।


21वीं शताब्दी के तीसरे दशक के मध्य में शहरी अनुभवों के विशद हिंदी संसार में साहित्य के अंदर बकरियों की धमक देखना सुनना एक तरल अनुभूति है। उम्मीद है भले ही गधों की तरह बकरियाँ विलुप्ति की कगार पर पहुँच जाएँ, समकालीन हिंदी साहित्य में उनकी उपस्थिति उसी तरह स्थायी तौर पर बनी रहेगी जैसे वाइकम बशीर मुहम्मद की पुत्तमा की बकरियों की मलयालम साहित्य में है।



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