सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य का बाज़ार बनाम बाज़ार का व्यंग्य'

 

सेवा राम त्रिपाठी



'व्यंग्य का बाज़ार बनाम बाज़ार का व्यंग्य'


सेवाराम त्रिपाठी 



वैसे बाज़ार कब नहीं थे। बहुत लंबे अरसे से तरह-तरह के बाज़ार हुआ करते थे। पूर्व में भी बाज़ार की सत्ताएं थीं और आज भी हमारे चारों ओर बाज़ार का महान छत्र तना हुआ है। जिधर देखिए उधर बाज़ार। स्वार्थ तब भी थे और आज भी हैं। उसके रूप और आकार ही नहीं बल्कि भाव-भंगिमाएं तक बदल गई हैं। आजकल सत्ताएं और व्यवस्थाएं भिन्न-भिन्न रूपों में हमारे सामने अपना संगठित बाज़ार बना चुकी हैं एक विराट उद्योग की भांति। यही नहीं जो भी पवित्र है उसे अपवित्र बनाने के लिए बाज़ार व्यापक रूप से प्रयत्नशील है। बाज़ार तो चुनावों के बांड का भी है लेकिन इसके बारे में कोई कुछ पूछे नहीं। आपने पूछा तो गए काम से। सत्ताएं  हाथ धो कर पीछे पड़ जाती हैं। ये काबिज़ सत्ताएं कह रही हैं कि कोई उन पर सवाल भी न उठाए। विज्ञापन का बाज़ार, वोट का बाज़ार, मूर्खताओं का बाज़ार, झूठ-झांसों का बाज़ार और लूटने-खसोटने का एक बहुत बड़ा बाज़ार हमारे सामने है ही। जिनकी निरंतर लीलाएं जारी हैं। और हमारा देश इसी में भरमाया हुआ है।



किसी की भी समझ से परे है कि आख़िर सरकार  का काम क्या है? वह किसलिए चुनी गई है। मन में आए तो बुलडोजर से सब कुछ जमींदोज हो जाता है। शोषण-उत्पीड़न और भ्रष्टाचार को कोई रोकने वाला नहीं। आजकल चलन में है कि थोड़ी सी सुविधाओं का लालीपॉप दिखा कर सब कुछ लूट लो। इसी में भरम  का बाज़ार रच दिया जाता है। कभी कबीर ने बाज़ार पर ये दो टिप्पणियां की थीं। 


कबिरा खड़ा बज़ार में लिए लुकाठा हाथ 

या रमइया के दुल्हिन लूटे बाज़ार। 


अब तो बाज़ार हमारी पगडंडियों और घरों तक पहुंच चुका है। हर आदमी के दिमाग़ और आंखों में कुलांचें भर रहा है। सुविधाओं का मायाजाल इस छोर से उस छोर तक फैला हुआ है। गाँव के लोगों तक को पता है कि सुविधाओं से वोटों का कनेक्शन जुड़ा हुआ है। इतना कुछ जनता को दिया जा रहा है वह वोटों को जुगाड़ने का सही तरीका है। यह नागरिकों के लिए कोई धर्मादा नहीं है। वैसे जो भी सुविधा दी जाती है। वह पैसा जनता का ही है। न तो वह किसी के पिता जी की संपत्ति है और न किसी की  व्यक्तिगति जागीर है। यह सीधा सीधा मामला है कि एक हाथ लो, दूसरे हाथ दो यानी 'गिभ एंड टेक'। पूरी दुनिया इसी 'गिभ ऐंड टेक' से चल रही है। अब तो इतिहास को भी स्वार्थों का रसवान बाज़ार ही नहीं बल्कि बहुत बड़ा अड्डा बना दिया गया है। 





चुनाव आयोग अब एकदम बेचारा हो चुका है। उसे सत्ता व्यवस्था के पक्ष में कोई बुराई नहीं दिखती। वे चाहें भरे मंच से गोली मारने की धमकी दें। खुलेआम या संसद में गालियां बकें। वह घाऊ- घुप्प बना रहता है  और सत्ता के इशारे पर विपक्ष पर बुरी तरह से टूट पड़ता है। उसकी जिम्मेदारी और भूमिका विपक्ष को ठीक करने की है। सत्ताएं चुनाव के पूर्व मखमली वादे बिछाती ओढ़ती हैं। सुविधाओं की गंगा बहातीं हैं। लाडली बहना योजना, गर्व की झमाझम यात्राएं बरसात की शक्ल में रिमझिम-रिमझिम बरसती रहती हैं। और वोटों के रूप में छा जाती हैं। जो पांच सालों तक जनता के पास झाँकने तक नहीं जाते, वे भी गिड़गिड़ाते हैं, पांव  पकड़-पकड़ कर चिरौरी विनती करते हैं। दांत चियारते हैं और वोटों की फसलें लहलहाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। यह तो लागी लगन जैसा मामला लगता है। कौन कितना चकमा दे सकता है। यह सम्मोहन लीला हर तरह की सत्ताएं रचती हैं। न साहित्य पीछे है और न व्यंग्य का इलाका। ज्यादातर व्यंग्य लेखन इसी प्रक्रिया में शामिल हो चुका है। हां, दिखावा अलग है।

  


समाज और संस्कृति के अलावा धार्मिकता के नित नूतन आकार  बन गए हैं। ताज्जुब है कि व्यंग्य की धार निरंतर कुंद होती जा रही है। वह कबीर की लुकाठी नहीं बन पाया। तथाकथित गुणियों ने या गुणीजनों ने व्यंग्य को भी कायदे से खेल लिया है। वे लगातार खेलते हुए उसे अपडेट कर रहे हैं। आजकल व्यंग्य लेखन पूरी तरह से खेल का मैदान बन गया है। कबीर बाज़ार के बीच खड़े हो कर सबकी खैर माँगते थे। हम चौआए हुए खड़े हैं और कायदे से लुट पिट रहे हैं। लूट के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया जा रहा है। लेकिन क्या करिएगा व्यंग्य की लोकप्रियता के कारण व्यंग्य के लिए दिल नहीं मानता। सो सूरमा अपना-अपना छत्र चढ़ाए हुए हैं। अपने-अपने व्यंग्य लेखन को सभी के लिए धर रहे हैं। कि ले लो जी व्यंग्य। यही असली है।



यूं तो साहित्य की दुनिया में बेहद खलबली है और प्रतिरोध का साहित्य बराबर लिखा जा रहा है। मात्र उसकी गुणवत्ता पर न जाइए। वहां  गुणवत्ता और अर्थवत्ता का एकदम अकाल नहीं है। व्यंग्य भी साहित्य का ही इजहार है। समाज सामाजिकता के तमाम रूपों और सत्ताओं पर उसकी पैनी नज़र होनी चाहिए। उस लेखन पर कुछ अंश व्यंग्य के भी होते हैं। लेकिन उसमें कई प्रकार के लेकिन-वेकिन टहल रहे हैं और उसका भी एक सुपर बाज़ार बन चुका है। लेकिन व्यंग्य की लोकप्रियता और चमचमाहट के बाज़ार ने व्यंग्य की असली औकात समेट कर धर दी है। उसकी मारक क्षमता को एकदम भोंथरा और निरीह कर दिया है। प्रशंसा का बाज़ार सजा है बिना किसी हिचक, शर्म और हया के। सब चलता है की शक्ल-ओ-सूरत में। आलोचना कभी- कभार दिख भी जाती है लेकिन एकदम लहूलुहान और जगह-जगह से उखड़ी-पुखड़ी हुई सी। आलोचना मात्र बुराई नहीं है जैसा आम तौर पर समझ लिया गया है बल्कि वह अच्छी और भरपूर कमियों का रेखांकन भी करती है और बेहद संतुलित विश्लेषण भी करती है। व्यंग्य लेखन की दुनिया से आलोचना लगभग विदा हो गई है।





अनेक साथी अपने किए किराए का व्यंग्य धका रहे हैं। उनकी नज़र में वे जो लिख मारें वही व्यंग्य है, वह व्यंग्य के अलावा कुछ और नहीं हो सकता है। इस भोलेपन पर लुट जाने वाले भी होंगे। कुछ तो व्यंग्य का सुट्टा लगा रहे हैं। एक फूंक व्यंग्य की ले लो यारो। उनका व्यंग्य कहीं भी छुट्टा सांडों की तरह किसी भी मीडिया में छा जाए। जनता की कोई चिंता नहीं। उसकी हालत स्थिर है और उसे नहीं सुधरना है। न किसी को सुधारने की कोशिश करना है। सरकार उसे परम पोंगा समझती है। और वोट कबाड़ने का महत्त्वपूर्ण संसाधन भी। बाज़ार का अघोरी समाजशास्त्र उसे हुडुकचुल्लू समझता है। 


    

चाल चलन व्यंग्य का दिन-ब-दिन अपने स्थान से खिसकता चला जा रहा है जैसे किसी बच्चे की ढीली पैंट लगातार खिसकती रहती है। कुछ व्यंग्यकारों ने अपनी क़मर कसी हुई है और वे सार्थक ढंग से लिख रहे हैं और कुछ तो व्यंग्य लेखन के तथाकथित सुजान बेचारे ढिल-ढिल पुक-पुक हो गए हैं। कहीं भी उनका व्यंग्य लेखन सरकने लगता है। ऐसे महानों को भी व्यंग्य का बुखार चढ़ा रहता है। व्यंग्य को चाहे जहां जाना हो जाए उनका पांव अंगद की तरह व्यंग्य की दुनिया में अड़ा रहेगा। व्यंग्य का कचूमर भले निकल जाए। इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं। किसी के गुमान से उन्हें क्या लेना और क्या देना। यह उनका बाज़ार है। और यही उनका तिलिस्म भी है। हम तिलिस्मों के महामाया जाल में फंसे हैं।

   

  

भाषा की चतुराई और तुरपाई में व्यंग्य लेखन यात्रा कर रहा है। नाटक-नौटंकी कर रहा है। विरूपताओं की बाढ़ के बाद भी सब कुछ गुमसुम है। व्यंग्य लेखन एक हद तक टाइप्ड भी हुआ है और लुंजपुंज भी। मित्रता का निर्वाह भी वहां मौजूद है। उसमें ज़मीर का कोई कोना कोतरा नहीं है। विसंगतियों, अंतर्विरोधों, पाखंडों और अंधविश्वासों का ठीक से रेखांकन नहीं हो पाता। फिर भी एक बार फिर भी व्यंग्य की छटा छाई हुई है। व्यंग्य हिलकी दे-दे कर खलास होने की कगार पर पहुंच गया है। व्यंग्य होने को तो है ही लेकिन उसका तेज़ निरंतर कम से कमतर हो रहा है। समूचे राष्ट्र की तरह, राजनीति की चोंचलेबाजी की तरह व्यंग्य की दुनिया भी भक्ति संप्रदाय में  ढल रही है। जहां भजन-पूजन हो रहा है। पूजा-अर्चना और संकीर्तन संस्कृति विकसित हो रही है। व्यंग्य का स्पेस निरंतर कम हो गया है लेकिन उसकी केवल दहंका-दहंकी चल रही है। व्यंग्य की ज़िंदादिली का गायब होना या कमतर होते जाना, कई प्रश्नवाचकों में आ चुका है। व्यंग्य की एक धार होती है। उसकी असलियत नैतिकता और यथार्थ होता है। उसका काम कुछ चीज़ों की चिपका-चिपकाई से किसी तरह संभव नहीं हो सकता। लेकिन चिपका-चिपकाई की कला इस समय भरपूर है। कुछ संगी-साथी व्यंग्य लेखन की दुनिया में इसे संक्रमण का दौर मानते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि वह संक्रमण काल कहां छिपा हुआ है? कब मुक्त हो कर कार्रवाई करेगा। यह कहा जा सकता है। कहते हैं कि जब ज़मीर गायब होता है और हम व्यंग्य लेखन के इलाके में भाषा से सवारी गांठने लगते हैं तब तो यह भाषा की फुग्गा फुलाई ही तो हुई। यदि यही स्थिति रही तो व्यंग्य का यही हाल होना है।



चिंता मत करिए अब व्यंग्य में पर्याप्त बाज़ार की छाया और माया है। कुछ तो केवल व्यंग्य की छायाएं छू रहे हैं। सब अपने-अपने को साध रहे हैं। सत्ता की जाजिम बिछी है। व्यंग्य की भी बहुत बड़ी दुनिया है। व्यंग्य लेखन का बाज़ार प्रतिरोध की क्षमता खो देता है। उसमें न ज़मीर है और न सच का सामना करने की हैसियत। इस दौर में व्यंग्य का बहुत बड़ा बाज़ार खड़ा हो गया है और वह विदेशों तक अपनी पहुंच रखता है। अब तो पूजा स्थलों का भी एक भारी भरकम बाज़ार है। जसिंता केरकेट्टा की कविता का यह मार्मिक अंश पढें -


"भूखी असुरक्षित बेरोज़गार पीढ़ियां

अपने पुरखों की संपत्ति

और समृद्धि वापस माँगते हुए

उन भव्य प्रार्थना-स्थलों के दरवाजे पर 

अब सिर छुपाए बैठी हैं

आदमी के लिए

ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता 

बाज़ार से हो कर क्यों जाता है?"  



(इस पोस्ट में प्रयुक्त होने वाली पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


मोबाइल : 07987921206

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही जोरदार लेखनी,स्वागत है सेवाराम त्रिपाठी जी का

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