रेनू यादव की कहानी 'दबे पाँव'

 

रेनू यादव 



परिचय

रेनू यादव का जन्म 16 सितम्बर, 1984 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में हुआ। वे इस समय गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।


इन्हें हिन्दी की संजीदा युवा कवयित्री एवं लेखिका माना जाता है। ये हिन्दी और भोजपुरी में लिखती हैं। पुस्तकों में काला सोना (कहानी-संग्रह) 2022, मैं मुक्त हूँ (काव्य-संग्रह) 2013, कथाओं के आलोक में : सुधा ओम ढींगरा (आलोचनात्मक) 2023, महादेवी वर्मा के काव्य में वेदना का मनोविश्लेषण (आलोचनात्मक) 2010, साक्षात्कारों के आईने में : सुधा ओम ढ़ींगरा (संपादित) 2020 प्रकाशित हैं। कहानियों में कोपभवन, चऊकवँ राड़, वसुधा, छोछक, टोनहिन, मुखाग्नि, दबे पाँव आदि, कविताओं में नमक, अस्तित्व, आम्रपाली, रास्ते पर प्रसव, ठुकराई हुई लड़कियाँ आदि, शोध-पत्र में स्त्री विमर्श के आईने में राधा का प्रेम और अस्तित्व, प‌द्मावत और पूर्वराग, प्रवास में स्त्री- विमर्श टहल रहा है आदि चर्चित हैं। मासिक पत्रिका साहित्य नंदिनी में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ निरंतर प्रकाशित होता है तथा इससे पहले कैनेडा से निकलने वाली पत्रिका हिन्दी चेतना में 'ओरियानी के नीचे' नामक स्तम्भ प्रकाशित होता था। स्त्री- विमर्श पर केन्द्रित कहानियाँ, कविताएँ एवं शोधात्मक आलेख आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता है।


वैखरी संस्था द्वारा 'काला सोना' कहानी संग्रह 'गोवर्धन लाल चौमाल कहानी पुरस्कार 2023' से पुरस्कृत, सृजन-सम्मान बहुआयामी सांस्कृतिक संस्था एवं प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, रायपुर (छत्तीसगढ़) से 'सृजन श्री' सम्मान 2013, भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली से 'विरांगना सावित्रीबाई फूले नेशनल फेलोशिप अवार्ड - 2012' प्राप्त है।



यह एक कड़वा सच है कि बच्चियों का यौन शौषण अधिकांशतया उनके निकट के परिजनों और संबंधियों द्वारा ही किए जाते हैं। ऐसे परिजन जिनके चेहरे दोहरे होते हैं। ऐसे परिजन जो अपनी साफ सफ्फाक छवि बनाए रखने के प्रति हमेशा सतर्क रहते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चियों की बात पर उनके माता पिता तक यकीन नहीं कर पाते। लेकिन हकीकत को कब तक झुठलाया जा सकता है। इस तरह स्त्रियों का जीवन संघर्ष कुछ ज्यादा ही  दिक्कत तलब होता है। रेनू यादव ने इसी पृष्ठभूमि को आधार बना कर एक नायाब कहानी लिखी है 'दबे पाँव'। कहानी पढ़ते हुए कहीं ऐसा नहीं लगता कि कहानीकार द्वारा कुछ अतिरिक्त कहा जा रहा हो। पात्र को जहां लाउड होना चाहिए, बस वहीं पर वह लाउडनेस दिखाई पड़ती है। कहानीकार का कौशल यहां पर दिखाई पड़ता है। रेनू को हाल ही में वर्ष 2024 का श्रीलाल शुक्ल इफको युवा सम्मान प्राप्त हुआ है। रेनू की कहानियां इस बात की तसदीक करती हैं कि वे इस सम्मान की हकदार हैं। इस युवा कहानीकार को पहली बार की तरफ से ढेर सारी बधाई एवम शुभकामनाएं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रेनू यादव की कहानी 'दबे पाँव'।



'दबे पाँव'


रेनू यादव 


‘आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है…? इतनी कोशिश करने के बाद भी मुझे नहीं मिल रहा...मैं क्या करूँ? कोई मुझे ढूँढ कर दे दो... मैं किसी से बात करूँ क्या? मुझे संयोजक के पास ले चलो... वे कहाँ हैं? इतने देर से हम सब परेशान हैं लेकिन कोई सुनता ही नहीं।... बहुतों को मिल गया पर मुझे क्यों नहीं मिल रहा? मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है’?


‘आप इतना क्यों परेशान हो रही हैं? हम ढ़ूँढ रहे हैं न। मिल जायेगा। अगर नहीं मिला तो आपका सर्टिफिकेट आपके पते पर पोस्ट कर दिया जायेगा’।


‘आप लोग किस तरह से ढ़ूँढ रहे हैं कि मिल नहीं रहा! मुझे पता है मेरा नाम ही नहीं होगा...! एक तो पैसे ले कर लोग कॉन्फ्रेन्स करवाते हैं, हजारों-हजारों की भीड़ जमा कर लेते हैं और सर्टिफिकेट देने के टाइम पर ठीक से जिम्मेदारी नहीं निभाते! धक्के-मुक्की के बीच मैं अपना सर्टिफिकेट कैसे ढूंढूँ। कोई सुनने के लिए तैयार ही नहीं’।


‘आप परेशान न हों… मैंने सारे सर्टिफिकेट्स देख लिये, उसमें आपका नाम नहीं है। संयोजक का कहना है कि वे आपको आपके पते पोस्ट कर देंगे’।


‘धन्यवाद… आपने मेरी इतनी सहायता की...।’


यह सुनते ही युवक वहाँ से जा चुका था और मेघना मन ही मन बुदबुदाते हुए भीड़ से छिटक कर अलग हो गयी, ‘पता नहीं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है… पता नहीं मैं क्या करूँ’?


चलते चलते वह एक खुले मैदान में एक बेंच पर बैठ गयी। शाम की गुनगुनी धूप और हल्की ठंडी हवा उसके मन और तन को सहला रही थी लेकिन उसे संतोष नहीं हो रहा था। उसका सर भारी और गरम हो चुका था। वह जब भी टेंशन लेती है उसके साथ प्रायः ऐसा ही होता है। 


कुछ देर बाद उसने अपने जूट के बैग से पानी की बोतल निकाली और एक साँस में गट गट करके पी गयी। बेंच से अपना माथा टिका यह सोचते हुए सो गयी, ‘मेरे साथ हमेशा ऐसे ही होता है।मुझे कोई चीज आसानी से नहीं मिलती...। माँ-बाप दूर हो गये, घर वालों ने बहुत मुश्किल से मुझे अपनाया, अपनाया तब भी सबकी तरह खुल कर नहीं जी सकी, पढ़ने आयी तो जगह-जगह संघर्ष। संघर्ष करना सीख गयी तो भी कुछ भी आसानी से हासिल नहीं होता...। आखिर सर्टिफिकेट इतनी छोटी सी चीज़ है। वह भी...’।

 

अचानक से किसी के पैरों की आहट खट्-खट्-खट्’ सुनायी दी, जो दूर से उसकी ओर आ रही थी। लेकिन किसकी... यह आहट तो जानी पहचानी-सी लग रही है... नहीं... नहीं... ऐसा नहीं हो सकता। यहाँ इतनी दूर वही आवाज़... कैसे... यह आवाज़ बायीं ओर से आ रही है... कान फटे जा रहे हैं... (दोनों कानों को अपने हाथों से दबाते हुए) मैं इस आवाज़ को कभी दुबारा नहीं सुनना चाहती... लेकिन... मुझे यहाँ से चलना चाहिए...’। 


मन ही मन बुदबुदाते हुए मेघना बेंच पर दाहिनी ओर खिसकती जा रही थी और गिरने ही वाली थी कि आवाज आयी, ‘बिटिया... गिर जाओगी। इतनी रात को यहाँ अकेले...’?


‘ओह... तो आप कोई और हैं? आप कौन हैं? रात हो गयी क्या’?


‘हाँ, रात के नौ बज रहे हैं’?


‘नौ बज गए…! मुझे घर जाना है’। हड़बड़ा कर मेघना उठी और पाँव के नीचे पत्थर से टकरा गयी। गिरती मेघना को झपट कर बचा लिया वृद्ध व्यक्ति ने, ‘दिखायी नहीं दे रहा, सामने इतना बड़ा पत्थर है’?


‘दिखायी ही तो नहीं देता…।'


इतनी मायूस मासूम-सी आवाज़ सुन कर वृद्ध व्यक्ति झेंप गया और अपने कहे पर पछताने लगा, ‘माफ करना बिटिया… मुझे पता नहीं था। मैं ऐसा नहीं चाहता... मैं तुम्हें सड़क तक छोड़ देता हूँ। कहाँ रहती हो? मुझे बताओ, कैसे जाना है... मैं यहाँ का सिक्योरिटी गार्ड हूँ। मैं तुम्हें छोड़ सकता हूँ।’


‘मैं पी. जी. में रहती हूँ। मैं चली जाऊँगी, आप रहने दीजिए’। अपने साथ-साथ चल रहे कदमों की आवाज़ से वह सहमती जा रही थी, अपने में सिकुड़ती जा रही थी। उसे लग रहा था कि अभी वह आवाज़ उस पर आक्रमण कर देगी। उसका मुँह बाँध देगी। हाथों को मरोड़ देगी और यह निस्तेज पट्ट पड़ जायेगी।


‘ऐसे कैसे... मैं ऑटो तक छोड़ देता हूँ... रात हो गयी है’ चिन्तित होते हुए वृद्ध व्यक्ति ने कहा।


‘नहीं… मैंने कहा ना... मैं चली जाऊँगी’? झिड़कते हुए मेघना की चीख निकली। वृद्ध व्यक्ति ठिठक गया। उसे समझ में नहीं आया कि उसने ऐसा क्या कह दिया!






थोड़ी देर तक मेघना भी वहीं खड़ी रही। फिर उसने खुद को संभाला। शरीर ने जब काँपना बंद कर दिया तब वह धीरे से बोली, ‘माफ कीजिएगा। मैं ऐसा नहीं कहना चाहती थी... । (कुछ सोचते हुए) आपने अपने पैरों में क्या पहन रखा है? मुझे उससे डर लग रहा है’?


‘डर... अच्छा इससे ! (हँसते हुए) यह तो खडाऊँ हैं’।


‘आपने इसे क्यों पहन रखा है’?


‘हम पुराने लोग हैं बिटिया। हमारे दादा-परदादा भी पहनते थे। अब चमड़ा और रबड़ पहनने से अच्छा कि हम पवित्र लकड़ी ही पहने। (खड़ाऊँ निकाल कर नंगे पाँवों मेघना के साथ सड़क की ओर बढ़ते हुए) बच्चों को तो इसकी आवाज से डरते हुए देखा था, लेकिन तुम तो बड़ी हो गई हो बिटिया…’?


बिटिया सुनते ही वह फिर से काँप गयी। सामने ऑटो खड़ा था। बैठते हुए उसने वृद्ध व्यक्ति को धन्यवाद दिया और ऑटो अपनी गति से चल पड़ा। 


हॉस्टल पहुँचते ही मेघना ने वॉकिंग स्टिक निकाला, हालांकि वह इतनी अभ्यस्त थी कि उसे हॉस्टल में इसकी जरूरत नहीं पड़ती थी और तेज-तेज कदमों से कमरे की ओर बढ़ चली। हड़बड़ी में दरवाजा अंदर की ओर से बंद कर बिस्तर पर निढ़ाल होकर गिर पड़ी। खड़ाऊँ की खट्-खट्-खट् की आवाज उसकी कानों में फिर से चुभने लगी, उसने जोर से अपने कानों को दबाया और ‘नहीं..नहीं…’ बुदबुदाते हुए कम्बल में दुबक गयी। थोड़ी देर बाद उसके रूम के दरवाजे पर किसी लड़की ने खटखटा कर आवाज लगाई, ‘मेघना… ठीक तो हो... आज खाना नहीं खाया तुमने’।


‘न... नहीं... भ.. भूख नहीं है’ काँपती आवाज़ में कहते हुए उसने कम्बल को मुँह में ठूँस लिया।


‘तुम ठीक तो हो… (अपनी आवाज पर जोर देते हुए) ऐसे क्यों बोल रही हो’?


‘ठ...ठीक हूँ’। काँपती आवाज़ में मेघना ने जवाब दिया। 


‘ओके... रेस्ट करो… बाय’ बाहर से आती आवाज़ दरवाजे से दूर हट गयी।


‘र...रोशनी... मुझे बचा लो...’…कहते कहते मेघना ने घुट्टी-मुट्टी मार कर बिस्तर में और भी सपट गयी। उसे लगा कि उसने खुद को बचा लिया फिर उसे एहसास हुआ कम्बल कमर की ओर उठा हुआ है और पैर उसके अंतरंगों को तो ढंके ही नहीं है! वह घबरा गयी और जल्दी-जल्दी अपनी कमर को कम्बल से लपेट ली, ‘अब ठीक है, सब कवर हो गया है... (कुछ सोचते हुए) हाँ कवर हो गया...। कवर...पर मैं तो हॉस्टल में हूँ! यहाँ तो कोई नहीं आ सकता... फ... फिर ये खट्-खट् की आवाज कैसी... हाँ, हाँ... ये आवाज़ तो कॉलेज में सिक्योरिटी गार्ड की थी, उसने तो वहीं अपनी खड़ाऊँ निकाल दी थी... फिर... फिर मुझे ये आवाज़ फिर से कैसे सुनायी दे रही थी...? कहीं वो... वो तो नहीं...? नहीं... नहीं, वो तो मर चुका है। फिर... फिर मैं इतनी डरी हुई क्यों हूँ?... मुझे किस बात का डर लग रहा है? मैं... मैं ठीक हूँ... मैं एक बहादूर लड़की हूँ...। अब मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता...। मैंने लड़ना सीख लिया है।... मैं सुरक्षित हूँ। हाँ...हाँ, मैं सुरक्षित हूँ।


मेघना खुद को आश्वस्त समझ रही थी लेकिन डर उसे दबोचे खड़ा था। उसने सोचा कि वह लाइट ऑन कर ले लेकिन उसने कम्बल हटाना उचित नहीं समझा और यह सोचते हुए लेटी रह गयी कि ‘लाइट जलाने से क्या होगा, अंधेरा और उजाला सब तो एक बराबर है’।





उसे महसूस हुआ कि उसे बहुत जोरों से भूख लगी है पर डर के मारे वह स्टडी टेबल पर रखे चिप्स का पैकेट उठाने के लिए उठ न सकी। कम्बल हटाने से डर था कि कहीं फिर से वह आवाज़ सुनायी न देने लगे। कम्बल वह सुरक्षा-कवच प्रतीत होने लगा जिसे भेद कर न कोई आ सकता था, न कोई उसे छू नहीं सकता था और न ही ये किसी और को सुन सकती थी। 


उसे याद आने लगा कि गाँव में जब वह अपने अम्मा-बाबूजी के पास थी तब ठंड में कैसे अम्मा गुदरा (कथरी) ओढ़ा कर उसे सुरक्षित रखती थीं। पुअरे की मोटी तह किसी गुलगुल गद्दे से कम न थी। एक लम्बा-सा पुअरे का बिछौना बिछाया जाता और उसका किनारा साड़ी से दबा दिया जाता, ताकि वह बाहर मुँह उचका-उचका कर किसी को गड़ने न लगे और उसके ऊपर से गुदरा बिछा कर हम सब यानी अम्मा, राजू, मैं, सोहन फिर बाबूजी सोते। सब लोग अलग अलग गुदरा ओढ़ लेते। सुबह गरम गरम बिछौने से निकलने का मन ही नहीं करता। ईया (दादी) तो भिनसारे चिल्लाने लगती, ‘पह फट गया और तुम लोगन की ओहाईं नाहीं टूट रही… जल्दी उठो, केतना कार (काम) अकाज हो गया...’।


‘का ईया, इ शीतलहरी में भी तुमको पह दिखायी दे रहा है’? सोहन आँख मलते हुए ईया को चिढ़ा देता। ईया तो जल-भुन जाती, ‘गरमी के दिन में ये ही टाइम पह फटता है, मालूम नाहीं है का? अरे सीधे-सीधे कहो ना कि ठंडी में उठ कर काम-काज करते समय तुहार हड्डी अकड़ती है...’ ईया गलगलाते हुए चली जाती। सोहन फिर सो जाता। बाबू जी आकर टन से उसके सर पर हाथों में लिए दातून से बजा देते। सोहन बेचारा उठ कर ऊँघते ऊँघते किताब खोल लेता। 


बाबू जी नहीं चाहते थे कि उनकी तरह उनके बच्चे भी अनपढ़ रह जायें। इसलिए ईया की बातों को अनसुना कर देते और हम सबको पढ़ने की हिदायत देते रहते। 


बाबूजी अपने अनपढ़ होने के लिए बाबा (दादा जी) को जिम्मेदार मानते थे। इस नाराजगी की वजह से वे कभी बाबा की कोठरी में नहीं जाते थे। चाहे जो भी हो जाये वे बाबा से नज़रे बचा कर निकल जाते ताकि उनसे आमना-सामना न हो सके। बाबा बहुत दबंग किसिम के इंसान थे। गाँव में उनका बड़ा दबदबा था। यहाँ तक कि उन्होंने उम्र को भी मात दे रखा था। पढ़े-लिखे न होने के बाद भी उनकी साहित्यिक भाषा और गंभीर आवाज का दबदबा मानने के लिए सब लोग मजबूर थे। उनकी सहमति के बिना गाँव में सरपंच या प्रधान कोई फैसला नहीं लेते। पुलिसिया कार्यवाही से ले कर कोर्ट-कचहरी तक का केस और खेती-बारी का कागज-पत्तर सब अकेले वही देख लेते। पुलिस-दरोगा, वकील, पटवारी सब उनको सलामी ठोकते। गंभीर से गंभीर मामलों में भी बाबा गाँव वालों के लिए ढ़ाल बन कर खड़े रहते, क्या मजाल कि कोई पुलिस या दरोगा उनकी अनुमति के बिना गाँव में कदम भी रख दे! सिर्फ अपने ही गाँव में नहीं बल्कि आस-पास के गाँवों में भी, कार्यक्रम कोई भी हो और किसी का भी हो बाबा ही मुख्य अतिथि होते। उनकी सफेद चमकती धोती और कुर्ता कार्यक्रम की शान होती। वे हमेशा खडाऊँ पहन कर खट्-खट् की आवाज में चलते। दूर से ही पता चल जाता कि बाबा अब किस ओर रूख किए हैं। उनका मानना था कि चमड़ा और रबड़ का चप्पल पहन कर अपने आपको अपवित्र नहीं करना चाहिए। हम लोग भगवान राम के पुजारी हैं तो उनके ही पदचिन्हों पर चलना हमारा परम कर्तव्य है। उनका यह भी मानना था घर में ढेर सारे पुत्रों का जन्म होना चाहिए। सबमें राम के भाईयों जैसा प्रेम होना चाहिए। लेकिन बढ़ते जमाने के साथ-साथ चलना भी बहुत जरूरी है, इसलिए हर क्षेत्र में अपने बेटों की पहुँच होनी चाहिए। कोई घर की विरासत यानी खेत-बारी देखे, तो कोई पुलिस या दरोगा हो, कोई वकील हो तो कोई डॉक्टर। संयोग से उनके तीन बेटे थे एक अनपढ़ बाबू जी, जिन्होंने अपनी जिन्दगी बाबा की विरासत संभालने में गुजार दी। दूसरा बेटा दिल्ली पुलिस में भर्ती हो गया और तीसरा वकील बन गया। 


बाबूजी के अनुसार बाबा ने जानबूझ कर उन्हें स्कूल नहीं भेजा, घर पर ही थोड़ा-बहुत पढ़ाया।अपने अनपढ़ होने का अपमान वे भूल नहीं पाते। बाबू जी के सामने मुँह खोलने की उनमें हिम्मत भी नहीं थी लेकिन मन ही मन उन्होंने ठान लिया था कि वे अपने सभी बच्चों को खूब पढ़ायेंगे-लिखायेंगे। न जाने क्यों उनकी किस्मत भी बाव (धोखा) दे गयी। उनके सात बच्चे हुए और सातों या तो गर्भ के अंदर ही या जनम लेने के पश्चात् दुनियाँ छोड़ गये। बाबूजी और अम्मा दोनों बहुत दुखी रहने लगे। आठवें गर्भ के समय घर में डॉक्टरों का ताता लगा रहता। जिस दिन जनम होने को था, खूब बरखा (बारीश) हो रहा था। उसी बरखा में ईया बड़ा सा फूले का थरिया-कटोरा लेकर बैठ गयी। जैसे-जैसे अम्मा की प्रसव पीड़ा की चीख निकली वैसे वैसे ईया लोढ़ा से थरिया-कटोरा कूचती गयी और भगवान से प्रार्थना करती रही, ‘हे नाथ! अबकी उबारो। हे भगवान! आठवाँ बेरी का बच्चा माँ-बाप को खा जाता है... ये ही बार उबार लो हे भगवान। बचा लो। हमरे लइकन को सुरक्षित रखो हो नाथ...’।


एक तरफ बच्चे की रोने की आवाज सुनायी दी, तो दूसरी तरफ ईया के हाथ से लोढ़ा टूट कर दो अद्धा हो गया। थरिया-कटोरा तो पहचान में ही नहीं आया लेकिन बच्चा लड़की थी, वो भी अन्धी...! ये सबने पहचान लिया था। ईया ने बदरे (बादल या आसमान) की ओर हाथ उठा कर बोली, ‘हे नाथ… का हे मेघनाथ! हमार प्रार्थना सुन त लिए पर ये रूप में...’!


सात बच्चों के मरने के बाद आठवें बच्ची को मारने की हिम्मत किसी में न थी, भले आन्हर ही सही। लगभग पच्चीस व्यक्तियों के संयुक्त परिवार में अम्मा-बाबू जी के अलावा घर में किसी ने भी उस बच्ची यानी मुझे प्यार देने की कोशिश नहीं की। लेकिन उसके दो साल बाद जब सोहन का जन्म हुआ तो घर में कुछ-कुछ मेरी भी इज्जत बढ़ गयी। सब लोग मेघना-मेघना कह कर बुलाने लगे और उसके तीन साल बाद जब राजू जन्मा तब राजू के साथ-साथ पहली बार बाबा ने मुझे गोदी में उठा कर हम दोनों को खूब लाड़-प्यार किया। तब से मैं बाबा की लाड़ली बिटिया बन गयी। 





पाँच साल तक जिस ईया-बाबा ने मुझे अपनी साड़ी या धोती का चिरकुट तक न दिया था अब उन्हीं लोगों ने मुझे खूब नए-नए कपड़े खरीदे। उसके बाद दिल्ली पुलिस में मझले चाचा जी की भर्ती हो गयी और उसके कुछ ही दिनों बाद छोटे चाचा गोरखपुर में वकील बन गये। जैसे-जैसे घर में बरक्कत बढ़ी वैसे-वैसे दादा जी मुझ जैसे आन्हर मगर खूबसूरत लड़की को दुनियाँ की नज़रों से बचाने लगे। गाँव के स्कूल में सोहन के साथ नाम लिखवा दिया गया था उसके बाद दिन भर मैं घर में रहती। कोई मुझे बाहर खेलने-कूदने नहीं देता। अम्मा-बाबूजी सुबह-सुबह खेत में काम करने चले जाते और शाम में लौटते। सोहन अपने दोस्तों के साथ खेलता और राजू ईया का चहेता नाती। मेरे लिए किसी के पास समय नहीं था। बाबा मुजबानी मुझे पढ़ाते और कहते, ‘अरे बिटिया, तू तो बड़ी तेज है पढ़ने में! एक बार जो बता दो वो तुम्हें झट से याद हो जाता है...!’


यह सुन कर मैं खुश हो जाती और मैं सोचती कि मैं कितनी सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे इतना प्यार करने वाला परिवार मिला है। सच ही कहते हैं बाबा। मुझे कोई बात झट से याद हो जाती है। बिन देखे मैं कदमों की आहट से पहचान लेती कि कौन आ रहा है, कौन जा रहा है! सभी खाने की चीजें सूँघ कर पहचान लेती कि कौन-सा मसाला है, खाने में क्या-क्या बना है या यह कौन-सी मिठाई है! घर से ले कर खेत तक मुझे हर जगह कितना खाल (गहरा) है और कितना ऊँच, सब पता होता! इसलिए कभी वॉकिंग स्टिक की जरूरत नहीं पड़ी। पर नई जगह जाते समय अंदाजा लगाने के लिए एक डंडा जरूर हाथ में ले लेती। 


ईश्वर ने आँख तो नहीं दिया लेकिन उसकी जगह सभी ज्ञानेन्द्रियों और संवेदन-तंत्रियों को इतने तीव्र रूप से संवेदनशील बनाया है कि मैं झट से चीजों को पहचान जाती। इसलिए मुझे कोई आसानी से धोखा नहीं दे सकता था। लेकिन... वह पहली बार था जब मैंने धोखा खाया, पहचान कर भी पहचान नहीं पायी...। 


मैं चौथी क्लास में पढ़ रही थी। नवम्बर की हल्की ठंड वाली रात थी। ओसारे में बाबा रामायण का पाठ कर रहे थे और मैं बगल में बैठ कर बड़ी तन्मयता से पाठ सुन रही थी। उसी समय किसी ने मेरी जाँघ पर हाथ रखी और मैं काँप गयी। मेरा हाथ जब तक उस हाथ तक पहुँचे, वह हाथ हट चुका था। मैं डर गयी, आस पास कोई हाथ मेरे हाथों की पकड़ में नहीं आया। फिर मैं धीरे से उठ कर घर में जा कर बैठ गयी। अम्मा से बताया भी लेकिन उसने कहा कि ‘वहीं बाबा, ईया और बाबू जी बैठे हैं । वहाँ कौन तुम्हें छुयेगा’। 


वह छूअन कई दिनों तक मेरी जाँघों से चिपका रहा। लेकिन अम्मा मेरा वहम समझ मुझे समझाती रही, ‘सब लोग तुहके बहुत मानते हैं। तू तो घर की लक्ष्मी हो, सब पूजते हैं। जबसे सोहन पैदा हुआ है तब से तो सबकी नज़र ही बदल गयी है। सब तो अपने ही घर के हैं। डरने की बात नाहीं है’।


अम्मा के विश्वास के आगे मैं हार गयी और फिर मैं हँसने-खेलने लगी। पाँचवी क्लास से कुछ कुछ दिनों बाद फिर से मुझे वही हाथ महसूस होने लगा। जो कभी मेरी छाती पर रेंग जाता तो कभी जाँघों पर। कभी सोते समय तो कभी जागते समय। आश्चर्य की बात थी कि वह हाथ मुझे जाना पहचाना लगता, लेकिन कदमों की आहट नदारद होने के कारण मैं अंदाजा नहीं लगा पाती। उससे भी अधिक आश्चर्य तब होता जब सब अपने ही लोग आस-पास होते, तब भी वह हाथ मेरे पीठ पर रेंग जाती। मैं अम्मा से बताती लेकिन अम्मा को मुझ पर विश्वास ही नहीं होता, बल्कि उसे तो भूत-प्रेत पर विश्वास होने लगा। उसने ईया से कह कर जंतर बनवा दिया। जिसमें इतनी शक्ति थी कि भूत-प्रेत तो क्या आस-पास जिन्न भी नहीं भटक सकता था।  


नौवीं क्लास में ठंड की दोपहर में ईया दुआरे पर कऊड़ा (आग जला कर) ताप रही थी, अम्मा बाबूजी कहाँ थे मुझे पता नहीं। सोहन और राजू स्कूल गये थे और हल्का-हल्का बुखार होने के कारण मैं अकेले गुदरा ओढ़ कर सोयी थी। मेरी आँख लगी ही थी कि उस समय कोई दबे पाँव आ कर भैंसे की तरह लम्बी-लम्बी साँसें लेते हुए मेरी फ्रॉक के अंदर से मेरी छाती को सहलाने लगा। अचानक से मेरी आँखें खुलीं और जैसे मैं चिल्लाना शुरू की वैसे ही मेरा मुँह कस के दबा दिया गया और उसके बाद उस पुअरा के बिछौना पर पुअरा की तरह लतिया दिया गया, मटिया दिया गया कि मैं पुअरा की तरह निढ़ाल सत्तहीन बिछ गयी। चारों तरफ खून-खून हो गया। मैं बेहोश हो गयी। 


शाम में जब अम्मा घर लौटी तो सन्न मार गयी। बड़ी मुश्किल से उसने मुझे उठा कर साफ-सुथरा की और रोते-रोते ईया को गरियाने लगी, ‘दुआरे पर बैठे-बैठे कऊड़ा तापती रहती हैं, जहाँ बैठती हैं दूब जाम जाता है... घर में का हो रहा है दिखायी नाहीं देता।... हमरे सोना जइसे लइकनी के...। अब कौने करे बइठेंगे हम लोग… हमरे बछिया का जीवन नास हो गया’।


ईया रो-रो के खुद बेहाल हो गयी कि उसके दुआरे पर रहते हुए भी घर में कौन पैठ गया कि एतना बड़ा कांड हो गया। बाबू जी को काटो तो खून नहीं। सोहन और राजू को कुछ समझ में नहीं आया। चाचा-चाची लोग हाय-हाय कर के अफसोस जता-जता अपने-अपने काम में लग जाते। बुआ लोग डर के मारे छोटी ईया के पास सपट गयीं। छोटे बाबा तो बहुत दिनों से बीमारी से खटिया पकड़े थे, इसलिए उनसे कोई कुछ कहता नहीं। उनकी पतोहियों (बहुओं) को हम लोगों से कोई खास मतलब नहीं था लेकिन उस दिन देख देख कर अफसोस जतातीं।


बाबा उस रात आगबबूला हो कर कहीं से घर लौटें और सबको एक लाइन से खड़ा कर के डाँटने लगे। बाबा को इतने अधिक गुस्से में कभी किसी ने नहीं देखा था। सोहन को डंडे से पीटना शुरू किया और ईया को गाँव के बाहर चहेट दिया। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि बाबा को आखिर हुआ क्या है? किस बात के लिए वे इतना गुस्से में हैं? जो जहाँ थे सब वहीं सपट कर सो गये। आधी रात को ईया बाबा से छिप कर घर लौटी। किसी में हिम्मत नहीं हुई कि घर में घटे घटना को कोई उनसे बता सके। 


अम्मा ने समझा-बुझा कर, इज्ज़त का हवाला देते हुए मुझे ही समझा दिया कि किसी से कुछ नहीं बताना। मैं बताना चाहती थी कि मुझे वह हाथ किसका महसूस हुआ। शायद मैं पहचान रही हूँ। लेकिन खानदान की इज़्ज़त इतनी जरूरी थी कि मेरी इज़्ज़त के साथ समझौता किया जा सकता था। 


उस दिन के बाद बाबा के कहने पर मेरी पढ़ाई पर पाबन्दी लग गयी। अगर कहीं जाना होता तो सोहन या राजू साथ जाते। बाबा मुझे ढेर सारी चॉकलेट, ब्रेड और कपड़े खरीद कर देते। अम्मा का पूरा ध्यान मेरी ओर रहने लगा। मैं बड़ी मुश्किल से उस घटना से उबरने लगी। अब मुझे अकेले घर में डर लगता इसलिए मैं ओसारे में या दुआरे पर या खेत में अम्मा बाबूजी के साथ होती। लगभग दो साल बाद धान कट रहा था। मैं बाबू जी के साथ खेत में थी। पेशाब की इच्छा होने पर ऊँखियाड़ी में चली गयी। ऊँखियाड़ी की खड़खड़ाहट के बीच फिर से वही घटना घटी। मेरी आवाज दूर तक न पहुँच सकी। इस बार मैं बेहोश नहीं हुई पर उठने की हिम्मत नहीं रही। ऐसा लगा कि ऊँख की तरह ही गड़ासे से मुझे जगह जगह से काट दिया गया है।


मैं बहुत देर बाद काँपती हुई बाहर आयी। घर में खोजहट पड़ी थी कि मैं कहाँ चली गयी। जब मिली तब मुझे देख कर अम्मा बेहोश हो गयी। उस रात मैं डरी-डरी सहमी-सहमी अंधेरे में बैठी रही। न जाने उस दिन भी ऐसा क्या हुआ था कि बाबा बहुत गुस्से में थे। उस दिन उन्होंने राजू को बहुत पीटा। वकील चाचा को घंटों गरियाते रहे। उस दिन भी बाबा से कोई कुछ नहीं बता सका और मेरी आवाज़ दबा दी गयी। लेकिन उस दिन मुझे विश्वास हो चला था कि वह हाथ किसका था। लेकिन कदमों की आहट हाथों से मेल न खाने की वजह से मैं किसी से कुछ नहीं बता सकी। 


मुझे अब हर खड़खड़ाहट, हर आहट से डर लगने लगा। चप्पल की चट्-चट्, खड़ाऊँ की खट्-खट् या जूते की टक-टक या दबे पाँव की सरसराहट... मैं हर आवाज़ से डरने लगी। लेकिन हर आवाज़ को आंकने भी लगी थी। मेरे मन में चोर समा गया और मैं सबके कदमों की आहट को ध्यान देने लगी कि चप्पल निकलने पर किसके पैर की आहट कैसी सुनायी देती है? सबके कदमों की आहट का अंदाजा लगाने के बाद भी बाबा के कदमों की आहट कभी नहीं सुन पायी। लोगों से हमेशा सुना था कि बाबा बिछौने पर सोने जाते समय ही अपना खडाऊँ निकालते हैं। 


बाबा मुझे हर दिन नैतिकता का पाठ पढ़ाते, नयी नयी मिथकीय कहानियाँ सुनाते और बताते रहतें कि कौन-सी स्त्री कितनी महान चरित्र की थी। अपनी प्यारी बिटिया को आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहते। घर में सभी भाई-बहनों को मुझसे जलन होती कि बाबा मुझे सबसे अधिक प्यार करते हैं। लेकिन मुझे मन ही मन उनसे नफरत होने लगी थी। मैं नहीं चाहती थी कि कोई भी पुरूष मेरे आस-पास हो पर मैं कदमों की आहट सुनने के लिए घंटों उनकी कामगर बातें, जो मुझे बकवास लगतीं मैं चुपचाप सुनती रहती। मुझे बहुत डर लगता लेकिन मैं अपने डर पर विजय पा कर बैठी रहती और अकेले में खूब चिल्ला-चिल्ला कर रोती। 


बारहवीं क्लास के आखिरी परीक्षा के बाद मैं घर आकर औंधे मुँह सो गयी। ऐसा लग रहा था कि मैं सदियों से सोई नहीं थी। फरवरी का महीना था। पुअरा का बिछौना अभी भी पड़ा हुआ था। पता नहीं क्या समय था और कौन घर पर था और कौन नहीं? लेकिन कोई मेरे ऊपर आ कर फिर से पुअरा की तरह मुझे लतियाने की कोशिश करने लगा। इस बार मैंने चिल्लाया नहीं बल्कि अपनी सारी शक्ति अर्जित करके उसके पैरों के बीच में अपना लात दे मारा। वह गिर गया मैंने उसका मुँह बुरी तरह से नोच लिया। उसके चेहरे पर पसीजते खून से मुझे अंदाजा था कि वह बुरी तरह से खुनिया गया है। वह अपनी धोती संभालते हुए उठ कर भागने की कोशिश करने लगा कि मैंने उसका पैर पकड़ कर खींचा। वह तो भाग गया लेकिन उसे पकड़ने के चक्कर में मैं बिछौने से बहुत दूर आ चुकी थी और उसकी खडाऊँ मेरे हाथ में आ गयी। बहुत देर तक मैं उस खडाऊँ को ले कर जमीन पर पटकती रही, रोती रही, चिखती-चिल्लाती रही। 


ईया घंटे भर बाद घर में लौटी। वह समझ गयी। उसने किसी से न कहने के लिए मिन्नतें की। बाबा और खानदान की इज़्ज़त की खातिर मेरे सामने अपना अचरा पसार दी। अम्मा बाबूजी के घर लौटने पर मैंने खड़ाऊँ दिखाया और बताया कि ‘मुझे वे हाथ उन्हीं के लगते थे लेकिन आप लोग विश्वास नहीं करते। इसलिए मैं कह नहीं सकी…। अम्मा उन्हें भगवान मानती रही…। अम्मा ने भी नहीं सुनना चाहा कि मैं क्या कहना चाहती थी। लानत है ऐसे घर-खानदान को…। लक्ष्मी की तरह पूजते हो तुम लोग। डर के छिपे रहो बिल में…। करते रहो बबवा की पूजा। उसे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। मैं उस राक्षस को फाँसी के फंदे पर ले जाऊँगी…’।


अम्मा-बाबूजी के सामने ईया पलट गयी और अपना छाती पीट-पीट कर चिल्लाने लगी, ‘अरे हयी अन्हरी, हमरे मरद पर एतना बड़ा लच्छन (इल्ज़ाम) लगा रही है...। बुढ़ापे में इह दिन देखना था। अरे... उनका पैर तो वैसे ही चिता में लटका है... ऐसे समय में एतना बड़ा इल्जाम...! हे भगवान... ये ही दिन रात के खातीर तुहसे इसको माँगा था... अरे उठा लो हो हम के... उठा लो...। इ दिन देखने से पहले काहें नाहीं उठा लिए हमके...’। अम्मा-बाबूजी चुपचाप सब सुनते रहे। आखिर अपनी माँ से कहते भी क्या!


बाबा के लिए अब मेरे मुँह से सम्मान की कोई भाषा नहीं निकल रही थी। मैं कितनी देर क्या-क्या बड़बड़ाई मुझे खुद नहीं पता था। मेरा गला बैठ गया और आँखों का आँसू भी सूख कर ककट गया।


हर बार की तरह बाबा आज भी गुस्से में घर लौटा। उसके पैरों में खड़ाऊँ नहीं थी। उसके अनुसार उसका किसी से झगड़ा हो गया था जिसके जिम्मेदार बाबूजी थे। उसका कहर बाबूजी पर टूट पड़ा। बाबूजी को गरियाते हुए जैसे ही बाबूजी के ऊपर उसने हाथ उठाया, बाबूजी ने हाथ रोकते हुए दाँत पीस लिया, ‘बस... अब और नाहीं। बहुत हो चुका... मेरे साथ भी और मेरी बेटी...’।





उसके हाथ पर बाबूजी के हाथ की पकड़ टाइट हो गयी। वह समझ गया कि उसका भेद खुल गया है। फिर भी, वह दिखाने के लिए गुस्सा दिखा रहा था लेकिन सच तो यह है कि वह गुस्से की प्रत्यंचा पर अपनी अक्षमता से उत्पन्न असमर्थता को साधने की कोशिश कर रहा था, जो बार बार प्रत्यंचा से कहीं खिसक जा रही थी या टूट जा रही थी। 


ईया बाबू जी के सामने बिछ गयी। बाबू जी उस अपराधी के सामने हार गये जो रिश्ते में उनका बाप लगता था। वे मंझले चाचा से फोन पर कह कह कर रो पड़े और घर परिवार की खातिर मुझे चाचा के पास दिल्ली भेज दिए। चाचा ने मेरा एडमिशन दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज में करवा दिया। 


मेरी जिन्दगी का एक नया सफ़र शुरू हुआ। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ मैंने पाया कि मैं आत्मविश्वास से भर गयी। मुश्किलें बहुत आयीं लेकिन मैंने मुश्किलों से लड़ना सीख लिया। 


एक साल बाद फिर से किस्मत ने करवट ली। उस अपराधी बाबा को हार्ट की बीमारी हो गयी। चाचा को पता था कि मुझे कदमों की आहट का कितना अंदाजा है और हर आहट से मुझे कितना डर लगता है। मैं डाइनिंग हाल में नाश्ता ले कर बैठी ही थी कि दबे पाँव एक आहट अंदर आती हुई मुझे सुनायी दी और मैं जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ‘बचाओ… बचाओ मुझे...। वो कहाँ से आ गया... वो हरामी... यहाँ कहाँ से...? बाबू जी... बाबू जी... बचाओ...’।


इतना सुनते ही चाची जी ने मुझे अंकवारी में पकड़ लिया, ‘चुप हो जा… चुप हो जा... कोई नहीं है... मैं हूँ.. मैं हूँ’।


‘नहीं... आप झूठ बोल रही हैं... यह बाबा है... वही है...। है ना... बताइये चाची, बताइये... ये वही है ना’…?


‘अच्छा चुप हो जाओ... बताती हूँ...। मेरी बच्ची...। मेरी बात ध्यान से सुनो...।’


‘वही है ना…? यहाँ क्यों आया है’?


‘हाँ... वही हैं ।... उनके हार्ट में कुछ प्रॉब्लम है। उनकी दवा करवानी है’।


‘नहीं...आप लोग उसे यहाँ क्यों ले आये? उसे मरने दो...। उसी के लायक है वो... उसे मरने दो’।


‘बेटा... सुनो, उठो मेरे साथ रूम में चलो...’।


‘वो यहाँ नहीं रह सकता...। उसे वापस भेज दो…। वापस भेज दो चाची...’।


उस समय चाची मुझे रूम में ले जा कर मेरे साथ घंटों बैठी रहीं।


शाम में उन्होंने विश्वास दिलाया कि वो मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ेंगी। वैसे भी बाबा अब बहुत बुढ़े और लाचार लगने लगे हैं। अपनी करतूत पर बहुत शर्मिन्दा हैं। उन्हें तो मौत की सज़ा से भी बढ़ कर सज़ा मिली है। घर से ले कर समाज-बिरादरी ने उनका परित्याग कर दिया। खेताड़ी में छान डाल कर किसी तरह गुजर-बसर करते रहे हैं। उनसे कोई बोलता-बतियाता नहीं। इस अपमान को वे सहन नहीं कर पाये और बीमार पड़ गये। पर मुझे किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था । बहुत कुछ समझाने के बाद उन्होंने पूछा, ‘तुम्हें पता न चले इसलिए हमने उनकी खडाऊँ घर के बाहर ही उतरवा दिया था, फिर भी तुमने उनकी आहट कैसे पहचान लिया’?


‘खडाऊँ की आवाज तो पहचानती थी, हाथों को भी। लेकिन (रोते हुए) दबे पाँव की आहट पहचाने में बहुत समय लग गया... इसलिए तो...।’


चाची मुझे पकड़ कर बहुत देर तक अहक अहक कर रोती रहीं। लेकिन माँ-बाप होने के कारण और अपने पति का पिता होने के कारण कहीं न कहीं उनके प्रति उनमें दया-भावना भी थी। वे उस लाचार इंसान को वापस घर नहीं भेज सकती थीं। लेकिन मेरे जिद्द पर उन्होंने मुझे पी. जी. में भेज दिया क्योंकि उस समय कॉलेज का हॉस्टल मिलना मुश्किल था। मेरी सुरक्षा के लिए बहुत सारी तरकीबें सिखाती रहीं, थोड़ा-बहुत जूड़ो-कराटे सिखाने के साथ-साथ मिर्च पाऊडर का स्प्रे भी साथ में रखने के लिए देती रहीं। मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया। बी. ए. के बाद मैंने एम. ए. हिन्दी में दाखिला लिया। दोस्तों के साथ प्रोजेक्ट पर काम की। मुझे मेरे शिक्षकों ने जीने का तरीका सिखाया। मैं घर नहीं लौटी लेकिन उस अपराधी के मरने की खबर मुझ तक जरूर पहुँची। उस दिन सारी घटना मेरे आँखों के सामने घूम गई, मैंने एक गहरी साँस ली और क्लास में प्रथम आने की खुशी में डूबी रही। पहली बार दोस्तों के साथ सिनेमा हॉल में जा कर उसकी तेज आवाज में झूमती रही, गाती रही।


दरवाजे पर फिर से खटखटाने के साथ ही आवाज आयी, ‘मेघना... चलो, ब्रेकफास्ट कर लो’। मेघना की तंद्रा टूटी। 


‘रोशनी…! सुबह हो गयी क्या? क्या टाइम हो रहा है’?


‘नाइन थर्टी। जल्दी आओ, हम लेट हो जायेंगे’?


‘आ रही हूँ । (उठ कर दरवाजा खोलते हुए) हमें कहाँ जाना है’?


‘भूल गयी! आज तुम्हें पी-एच. डी. में एडमिशन लेना है डियर...। तुम इतनी बड़ी बात कैसे भूल सकती हो’?

‘ओ हाँ... पता नहीं कैसे’?


‘तुम ठीक तो हो? रात में तुम सोई नहीं थी क्या’?


‘नहीं’


‘मैं रात में आयी थी, मुझे लगा तुम सो रही हो...!  तुम सोई नहीं थी तो रूम में इतना अँधेरा क्यों कर रखा था’?


‘जिन्दगी में हमेशा अंधेरा तो नहीं रहेगा…(मुस्कराते हुए) चलो, फ्रेश हो कर आती हूँ।’



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


रेनू यादव

फेकल्टी असोसिएट

भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग (हिन्दी)

गौतम बुद्ध युनिवर्सिटी

यमुना एक्सप्रेस-वे, गौतम बुद्ध नगर, 

ग्रेटर नोएडा – 201 312


ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com

renu@gbu.ac.in

टिप्पणियाँ

  1. निशब्द। रेणु जी लेखन कमाल है।

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  2. भरोसा शब्द खत्म हो गया अब। कोई रिश्ता नहीं बचा ।यह इस जीवन का सबसे बड़ा कड़वा सच है कि अधिकांश स्त्रियां अपने बचपन में यौन शोषण का शिकार होती है और अपराधी अपना ही कोई होता है।
    रेणू की कहानी में बहुत बड़ा संदेश छिपा है कि अब डरने की ज़रूरत नहीं है, मजबूत होना पड़ेगा और आवाज़ उठानी होगी कम से कम अपने और अपनों के लिए तो यह कदम उठाना ही होगा। सकारात्मक सोच पर खत्म होती कहानी के लिए रेणू को बधाई।
    विनीता बाडमेरा
    अजमेर, राजस्थान

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