कैलाश वानखेड़े की कहानी 'आज कल, कल, कल आज'
कैलाश वानखेड़े |
आज के अधिकाँश कहानीकार जब
वर्णनात्मकता को ही कहानी का मुख्य आधार बनाए हुए हैं युवा कहानीकार कैलाश वानखेड़े
ने अलग राह अपनाते हुए कहानी-कला में अपना खुद का एक नया शिल्प विकसित किया है।
प्रतीकों, बिम्बों के सहारे कैलाश वे बातें कह जाते हैं जो आम तौर पर वर्णनात्मकता
के दायरे में नहीं अंट पातीं। “आज कल, कल और आज” नामक कहानी में आप उनके शिल्प को
स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। यह कहानी एक वृद्धाश्रम के एक वृद्ध और एक बुढ़िया की मानसिक स्थितियों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है। विघटित होते जा रहे परिवारों की यह आज की एक बड़ी त्रासदी है। इसी क्रम में आज पहली बार पर कैलाश वानखेड़े की कहानी
“आज कल, कल और आज” से रु-ब-रु होते हैं।
आज कल, कल, कल आज
कैलाश वानखेड़े
बचपन की गली में माँ का धुंधला सा चेहरा याद आते ही माँ की बात याद आती रही। माँ हमेशा सुनाती थी कि मेरे को पैदा इसलिए नहीं किया कि मस्त होके खाये-पिये। तू तो काम करने के लिए पैदा हुआ है लेकिन दो कौड़ी का काम नी करे। नालायक इतना बड़ा हो गया लेकिन धेले भर की अकल नहीं आई।
अब हँसी आई। अकल क्या होती है? कब आती है अकल। अभी तक नहीं आई मुझे अकल। अकल कैसी होती है? किसे कहते हैं अकल? सब की अकल अलग-अलग होती है, लेकिन इस बात को कोई भी अपनी अकल से नहीं मानता। जो यह मानता है, क्या उसे अकल है?
उस नौ दस साल की उमर में घर से भाग गया था। क्यों भागा था? उस घर में सोता था, उस घर में खाता था और माँ की सुनता था। पिता की आवाज सुनी ही नहीं। पिता का चेहरा भूल गया हूँ। अब पिता की तस्वीर यादों में दिमाग में कहीं नहीं बनती। माँ का तमतमाया हुआ चेहरा धुंधला हो गया है। बोल होने से याद में जुड़ा हुआ है। माँ इतना बोलती नहीं तो माँ का चेहरा भी याद नहीं रहता।
माँ की याद के साथ देखता हूँ गुलमोहर। गुलमोहर लाल नहीं है। छूटपुट हरी पत्तियों के साथ गुलमोहर के फल, बीज ले कर लटके हुए हैं। फूलों का रंग उड़ गया क्या? बूढ़ी आंखों से तो यही लगता है। इतवार को मजदूर दिवस पर समाचार सुनने की बजाय गुलमोहर के बारे में सोचता हूँ। ये घनी छाया नहीं देता है। घर पर लगे हुए टीन की चद्दरें घनी छाया देती हैं लेकिन शीतलता नहीं देतीं। गुलमोहर का तना, टहनी, फूल की छाया में बैठ कर लेट कर मै पेड़ के बारे में सोचता हूँ, लगता है पेड़ से बात करता हूँ। हम दोनों की बातचीत में कोई खलल नहीं डालता। उम्र के इस आखरी पड़ाव में भी बातें करता हूँ गुलमोहर से।
अब निकल जाना चाहिए घर। घर है इस सूनी जगह से दूर। अब लग रहा है बहुत दूर है। उम्र के साथ घर की दूरी, लंबी लगने लगती है। खांसते और हांफते हुए मेरा सफर चलता है। तपती हुई धूप में निकलता हूँ कि पानी पीना है। पानी नहीं मेरे पास। ओंठों का पता नहीं, गला बुरी तरह से सूख गया है। अपने ओंठ पर उंगली ले जाता हूँ, तो लगता ही नहीं ये मेरे ओंठ हैं। जीभ के स्पर्श से दूर है, बहुत दूर। जीभ निकल नहीं पाती, यह बात धीरे-धीरे इतनी समझ में आई कि जैसे चलने में पैर साथ नहीं देते, वैसे ही जीभ चल नहीं पाती लेकिन चलता हूँ कि लू लग जाने का डर हावी हो जाता है। घर जाऊँगा तो लगेगा कि भट्टी पर बैठा हुआ हूँ। अब कहाँ जाऊँ? सूझ नहीं पड़ता। सच तो यह है कि उम्र के किसी भी मकाम पर मुझे सूझ ही नहीं पड़ा। मेरी उम्र का कोई साल याद नहीं है, जिसमें मुझे सूझ पड़ा हो, तो अब खुद से क्यों उम्मीद कर रहा हूँ? मेरे चलने की गति हर रोज कम हो रही है लेकिन उम्मीद बढ़ती जा रही है। प्यास बढ़ती जा रही है कि लगता है कि पानी नहीं मिलेगा, तो क्या होगा? प्यास से मर जाऊँगा मैं। मैंने कभी नहीं सुना कि कोई प्यास से मरा हो। मैं प्यास से मर जाऊँगा तो लोगों के अनुभव में यह घटना होगी लेकिन मेरा नाम नहीं होगा। सुनाने के लिए एक बात होगी कि प्यास से भी मरते हैं लोग। पानी नहीं है मेरे पास, घरों के दरवाजे बंद हैं। पूरा मोहल्ला काम की तलाश में चला गया है। किसी ने शहर की सीमा पार की, किसी ने अपने देस की। किसी का दरवाजा खटखटाना नहीं चाहता हूँ कि चलता हूँ, लगता है रेगिस्तान के बूढ़े क्या प्यास से नहीं मरते होंगे? अपनी उम्र की सारी यादों में चला जाता हूँ, लेकिन हर बार बिना समाचार के निकल आता हूँ।
बंद हवा चलने लगती है, यह अनुमान लग जाता है। कदम, सांस, प्यास की बजाय जीवन की आस के साथ चलने लगते हैं। प्यास कभी लगी नहीं इस तरह। ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्यास लगी है, तो पानी चाहिए। पानी के लिए सब काम छोड़ दिए हों, ऐसा याद नहीं आता। भूख का तो पता ही नहीं चलता। भूख लगी हो और खाना खाना चाहिए, ऐसा ख़याल भी जिन्दगी में कभी नहीं आया... कभी भी नहीं।
चला नहीं जा रहा मुझ से। प्यास लगी है जोर से। धूप पड़ी है जोर से। सांस तेज हो गई है। सिर घूमने लगा है। लगता है कहीं गिर जाऊँगा। लोगों की बातें सुनूंगा कि चलते-चलते हुई एक बूढ़े की मौत। मौत का कारण प्यास को छोड़ कर कुछ भी बताया जा सकता है। कोई भला मानुष अगर डाक्टर हो और उस डाक्टर से कोई पूछेगा, मेरी मौत का कारण तो वो बता देगा सबको, प्यास से हुई है मौत।
डाक्टर क्यों कहेगा? चलते-चलते बैठ गया हूँ। धूल उड़ रही है। बंद हवा चलने लगती है तो इससे बड़ा सुख कुछ नहीं होता। प्यास, हवा, धूप, सांस, थकान के बीच ये डाक्टर कहाँ से आ गया? डाक्टर के पास नहीं गया कभी। डाक्टर मेरे पास नहीं आया कभी। फिर अभी क्यों कहेगा डाक्टर? हस्पताल जाऊँगा नहीं। इस उमर में जिसकी कोई आस-औलाद नहीं है, उसे हस्पताल का डाक्टर क्यों हाथ लगायेगा?
हाथ देखता हूँ। माँस सूखने लगा है। कई बूढ़े देखे हैं जिनके माँस लटकते हैं। मैं, मैं हूँ और हवा के चलने का असर है कि उठता हूँ। बस वो गली। दूर है घर। पहुँच जाऊँगा, वरना यहाँ बैठा रहा तो लू लग जायेगी। लू से डर नहीं लगता। टट्टी से डर लगता है। पतली टट्टी, कब निकल जाये, पता ही नहीं चलता। दो साल पहले लगी थी तो उसकी बदबू से ही लगता था कि बस, अब दस्त नहीं लगनी चाहिए। कान पर हाथ रखने की कोशिश कर, डरता हूँ चलता हूँ। जानता हूँ तपती हुई धूप में बस घर में ही छाया है। गली में नहीं है छाँव। घर में तो छाया है लेकिन इतनी गर्मी लगती है कि लगता है, इस घर से भाग जाऊँ। घर से भागा हुआ कोई बच्चा अभी भी भागना चाहता है। अब भाग कर कहाँ जाऊँगा? गुलमोहर की याद आती है, गुलमोहर दिखता है।
घर में दरवाजा खोला। बैठना चाहता हूँ। लगता है कि सूखे हुए गले में पानी की बूँद अगर नहीं पड़ी, तो मर जाऊँगा। मरने की बात ने बैठने नहीं दिया। जैसे-तैसे थोड़े से पानी को बचाये हुए मटके में से आधा गिलास पानी लिया। घूंट लिया, गीला हुआ और सांस स्थिर होने लगी। सांस और पानी का आपस में गाढ़ा संबंध है कि पानी शरीर में उतरते ही जान पड़ा कि मेरा ही शरीर है। शरीर के भीतर पानी जाता जा रहा है और जीवन आग सुलगती है। प्यास से मरने के ख्याल पर पानी फिर गया। दूसरा घूंट लिया और लगा घूमता हुआ सिर स्थिर होना चाह रहा है। आधा गिलास इस तरह से धीरे-धीरे खत्म करने लगा। आँख बंद कीं, थक गईं थीं। आखरी दृश्य देखने की डगर वाली आँख अभी वर्तमान के लिए बंद हो रही थीं।
प्यास से मरता नहीं कोई, सब कहते है। मरने की बात क्यों कर रहा हूँ और वो भी प्यास से? इस प्यास पर हँसने की चाह रखता हूँ लेकिन नहीं आती, आता है डर कि अब मटके में पानी नहीं है। पानी लाना है। पानी मेरे मौहल्ले में नहीं मिलता। पानी की पाइप लाइन नहीं डाली है यहाँ। यहाँ से जाना है कॉलोनी में किसी से माँगना है। भरना है गौ-चौपाटी पर वहां टैंकर भरे जाते है उस जगह भरते हुए टैंकर के समय अपनी बाल्टी, हंडा रख देते है। जो पानी टैंकर में नहीं जाता है। जिस पानी को धरती पर बिखरना है उस पानी को जमीन पर जाने की बजाय अपने बर्तन में डालते है। उसी उक्त भरने वाले थोड़ा गीला हो जाते है। कीचड़ में पैर चले जाते हैं और उस कीचड़ में से पैर उठाना इतना बड़ा लगने लगता है कि भरी हुई बाल्टी हल्की लगती है इसलिए कॉलोनियों के बीच में से हो कर जाता हूँ कि किसी का ट्यूबवेल चल रहा होगा तो अपनी बाल्टी भर लूँगा। हॉ, उस भरते हुए टैंकर की जगह इसलिए जाना पड़ता है कि नहाना होता है। अपने घर पर कब नहाया था? याद करना पड़ेगा।
जाने
का मन नहीं है। मटके में एक डेढ़ गिलास पानी बाकी होगा। दिन गया नहीं रात बाकी है। मटके का
आधा हिस्सा बाहर से गीला दिखता है कि लगता है कि मटके में पानी
होगा लेकिन ये हकीकत नहीं है। बाहर से आदमी जितना गीला दिखता है उतना होता नहीं
है। लगा कि रात में वान्दा पड़ जायगा। अँधेरी रात में पानी लेने कहाँ जाऊँगा? रात में निकला तो किसका दरवाजा खटखटाऊँगा। नहीं जा जाऊँगा किसी
के घर, भले ही मर जाऊँ। फिर लोग कहेंगे कि प्यास से मर गया एक बूढ़ा।
सच तो यह है कि मरना नहीं चाहता मैं। दरवाजा इस तरह से खुला कर बैठा हूँ कि गर्म हवा के थपेड़े पहले दीवार पर पड़े फिर मेरे पास आये। धूप के गर्म अंगारों से बचना है। हवा को पाना है। हवा टकराते हुए, लुढकती हुई, सरकती हुई मेरे पास पहुँच रही है, बस हवा के अहसास के साथ अकेला बैठा हूँ। रेडियो सुनता हूँ। मजदूर दिवस के दिन पायलेट की हड़ताल पांचवे दिन पहुँच गयी। पगार बढ़ाने के माँग करने वालों ने जंतर-मंतर के जन लोकपाल धरने का समर्थन किया है।
कब झपकी लगी, पता ही नहीं चला। रेडियो पर गाने बजने लगे। शाम होने वाली है तो उठ कर फिर आधा गिलास पानी पिया। पेशाब नहीं आई। सुबह की उम्मीद आई। मटके भर पानी के लिए रंग का खाली डिब्बा उठाया। वो मेरी बाल्टी है। रंग वाले इस डिब्बे में रंग नहीं है। रंग हो भी नहीं सकता। रंग होता तो मेरे पास नहीं होता ये डिब्बा। रंग इस घर का, मेरा दुश्मन है। रंग न सही पानी ही सही, क्या सोचता हूँ कि बाल्टी की तरह डिब्बे को उठाता हूँ। निकल जाता हूँ। हाइवे लग जाता है। कॉलोनी वालो का ट्रैफिक बढ़ जाता है। हर कोई गाड़ी आगे ले जाना चाहता है। मैं अकेला हूँ, जो पैदल चल रहा हूँ। सड़क किनारे पैदल चलना मुश्किल है। तेज आवाज में हार्न बज रहे है। बंसत विहार कॉलोनी में घुस जाता हूँ।
सीमेन्ट की सड़क के किनारे-किनारे गड्डे है। सड़क किनारे मेरी हमउम्र का बूढ़ा सफेद पालीथीन में से आटा निकाल कर फैलाता है। कदम ठिठके। वैसे भी थोड़ा रूकना था कि थकने लगा हूँ। जिज्ञासा या आटे को पाने की लालसा है। साफ सुथरे सफेद कुरते पाजामा वाला बूढा चींटियों को आटा खिला रहा है। मैंने पूछा क्यों खिला रहे हो, उसने मेरी तरफ देखा और फिर अनमनेपन से कहा, “काली चिंटियो को अन्नदान से पुण्य मिलता है। स्वर्ग मिलता है। वो कभी नहीं काटती। गरमी का असर नहीं है, बरसात के आने की संभावना है, इसलिए ढेर सारी चींटियाँ आ गई। चलो जो भी हो। अन्नदान महादान।’’ कई बातों को इस तरह से फटाफट कहा कि उसकी बात से हँसी आने के बाद भी नहीं हँसा। वो क्या क्या न बोल गया। मेरे दिमाग का सवाल बाहर निकलना चाह रहा था, मैंने कहा “लाल चींटियों को दान करने से स्वर्ग नहीं मिलता?’’
“नहीं वो माँसाहारी होती है। माँस खाती है। तेरको नहीं मालूम?’’
“लाल हो या काली। है तो चींटी ही न। फिर कायका भेद?”
“हद है। वो लाल की अलग जात उस काली की अलग जात।’’
मैंने कहा, “रंग, जाति से स्वर्ग नरक फायनल होता है?’’
“पगला गया क्या? इतना भी नहीं मालूम स्वर्ग किसे मिलता है?’’ उसका हाथ पोलीथिन में रुक सा गया। वो जवाब नहीं देना चाह रहा है।
“काली चींटी, कुत्ते, कौवे, गाय को अन्नदान से स्वर्ग मिलता है। पुण्य मिलता और भूखे इंसान को खिलाने से क्या मिलता है?’’ मेरी भूख का सवाल निकल आया। वो बोला, “’तर्क...?” फिर देर तक हँसता रहा और बोला, “मनुष्य को दान की आवश्यता नहीं है।’’
“भिखारी को, साधु को, बामन को तो दान देते है?’’
वो अब नहीं हँसा। गंभीर हो गया। आटे में शक्कर की चिपचिपाहट थी कि वह उस चिपचिपाहट को हटाने के लिए आटे में हाथ डाल कर मसलने लगा। मेरी तरफ देखे बिना बोला, “’बामन अलग चीज है, जैसे काली चींटी। गऊ होती है एकदम शाकाहारी।’’
“वे इंसान नहीं होते है?’’
“मनुष्य कहो। मनुष्य। इंसान और बामन दो अलग अलग बात है। इंसान शब्द सुनते ही माँसाहारियों के चेहरे याद आते हैं।’’ वह हँसता है और मुठ्ठी भर आटे से लाइन बनाता है। रंगोली लगने लगती है फिर बोला, “’न जाने कहाँ-कहाँ होंगी चींटियाँ। बिचारी स्वर्ग की सीढ़ी।’’
अब बोलने सुनने की बजाय लाल चींटी का ख़याल आया। उनके बारे में सोचता ही रहा। लगा यहाँ तो जो न काटे वही भाये इसलिए पुण्य के रास्ते से हटे।
वक्त बहुत हो गया था। लाल, काली चींटियों की बात से लगा बैठे-बैठे पैरों पर ढेर सारी काली चींटियों सवार हो गयी है। मैं पैर झटकने लगा। एक भी चींटी नहीं है। इसे चींटियाँ चढ़ना कहते है। पैरों का झटका देते हुए मुझे इस आदमी के कई झूठ मिले। मैंने सुना था काली चींटी को आटे के साथ शक्कर मिला कर खिलाने से कर्ज कम होता है। ये आदमी पुण्य और स्वर्ग का तर्क देने की बजाय ये बोलता कि किसी जीव को खिलाने से संतुष्टि मिलती तो भी मुझे संतोष होता और ये आदमी झूठ बोलने से बच जाता। सच कहने के मन पर चींटियाँ सवार हो गयी। देर हो रही है। उसको दिमाग में से निकाला। और उसे छोड़ कर निकल गया।
गली में मुडते ही मस्ती से भरी हुई हँसी सुनाई दी। सुकून सा अहसास हुआ। हँसी अच्छी लगने लगी और कदम उत्साह से भर कर बढने लगे। हँसी की तरफ खुशी की ओर, कार धुल रही थी। पाईप में से निकलने वाले पानी का प्रेशर बता रहा था टयूबवेल है। वे दोनो किशोर हैं कार धोते हुए वो एक दूसरे पर पानी डालने का अभिनय करता हुया आकाश की तरफ पाईप कर देता। पानी की बौछारें आकाश को छू नहीं पाती। वे उल्टे पांव लौटती और बिखरती हुई उस लड़के पर, कार पर आ जाती। आकाश की तरह मैं ताकने लगा। मेरे पास भी आसमान से छलकती हुई बूदें आ जाये तो, हँस लूँगा, भीग लूँगा, गरमी में बरसात का मजा ले लूँगा और इसी अंदाज से आगे बढा तो उन दोनों की हँसी धीरे धीरे दबने लगी। पाईप कार पर चढने लगा। भागम-भाग ठहर सी गई।
मुझे भी भीगना, हँसना था। वो रूक सा गया। खाली बाल्टी हो गया। दिमाग को सूझ नहीं पड़ा मैं खड़ा क्यों हूँ? कोई पूछे इसके पहले मैंने उस बड़े लड़के से कहा, ''इस बाल्टी में पानी डाल दो।''
उसने देखा। अनसुना किया और कार पर ही पानी डालने लगा। गली में बहता हुआ पानी बता रहा है कि बहुत देर से चल रहा है पानी हँसी कार्यक्रम। वो लड़का हँसने के लिए खुद को तैयार कर छोटे लड़के को बोला, ''ओय इधर आ।'' उसका भाई घर के भीतर जाने लगा। ये अकेला एकटक कार पर पानी डालता रहा। मैंने फिर कहा, ''पानी चाहिए।'' उसने देखा और चुप रहा।
अंधेरा बढने लगा। मैं रूकूं या जाऊँ
में अटक गया। जो पानी आकाश की ओर फेंका जा सकता है, जो पानी कार को दिया जा सकता है। बहता हुआ पानी गली
में कीचड़ कर सकता है लेकिन मैं और मेरी बाल्टी खाली और सूखी कैसे रह सकती है?
पहली बार भिखारी का अहसास हुआ जिसने पूरी जिंदगी भीख नहीं माँगी वो पानी की भीख माँगता नजर आया। छोटा लड़का जो घर के भीतर गया था, उसने आते ही कहा, ''दे दे यार... एक बाल्टी तो है।''
‘’क्यों दूं? नहीं देता जा। तू भी जा उसके साथ।'' बड़ा बोला और हँसते हुऐ पाईप उसकी तरफ किया। छोटा वापस घर में चला गया।
कार पर नम्बर नहीं है। एकदम नई है। अशोक के पेड़ के किनारे बिल्डिंग का बड़ा परिसर है। मन तो कह रहा है कि एक बार पाईप मेरे उपर लगा दे। बस थोड़ी सी देर। इस थोड़ी सी देर में कपडे उतारे बिना नहा लूँगा। नहाने से धूल, पसीना, थकान सब चली जायेगी। खुशी से भरी ताजगी आ जाएगी। पानी इतनी तेजी से मेरे उपर आयेगा तो... तो गिर जाऊँगा इसलिए बैठ जाऊँगा... नहला दे... इस तरह कब नहाया था?
------ घर से भागने से पहले बरसात में जगदेव के साथ नहाया था। बरसात में कीचड़ ही कीचड़... और जगदेव कीचड़ में फिसला था। जोर से हँसी आई और हँसा था उतनी ही जोर से। ठहाके मार कर हँस रहा था तब जगदेव ने कीचड़ फेंकना शुरू किया था। मस्ती, गुस्सा और हँसी से भरा हुआ था कीचड़। वो फेंकते जा रहा था। मैं भागते, बचते हुए जोर से हँसता जा रहा था। उसका कीचड़ मुझे छू नहीं रहा था। इस कीचड़ फेंकने, बचने और भागते हुए हम कब जगदेव के घर के पास पहुँचे, पता ही नहीं चला। जगदेव चिल्लाता जा रहा था। मेरी हँसी बढती जा रही थी। बच्चो की हँसी बेलगाम होती है। मेरी हँसी, जगदेव के पिता को देख कर अचानक रूक गई। ब्रेक बड़ा वाला लग गया था। पता नहीं वे हमें कब से देख रहे थे। उन्होंने मेरी कॉलर पकडी और तेजी से चांटे मारने शुरू किये। मैं समझ ही नहीं पाया कि ये क्या हो गया। मेरे गालों पर चांटे तड़ा तड़ पड रहे थे। पानी बरस रहा था, रोना नहीं आ रहा था मुझे। बर्फ की तरह जम गया था। न बोल रहा था। न रो रहा था। उसके बाप का गुस्सा बढता जा रहा था। फिर मेरे बाल पकडे और बोले, ''इतनी हेकडी? साले गंदे खून, तेरे को कुछ फरक ही नहीं पड रहा।'' मैं चुप था। बेबस था। जिस तेजी से वे मेरे बाल पकडने के साथ झिंझोड रहे थे कि लगा मेरे सिर में से बाल हाथ को अलग करना चाह रहे हो। वे बेहद आक्रोशित थे। बोले, ''तेरी हिम्मत कैसे हुई खेलने की? महारवाडे वालों ने सिखाया नहीं कुछ? हमारी गली में आ के हमारी बराबरी करेगा? अकल नहीं आई तेरे को? आईंदा इधर पैर भी रखा तो यहीं जिन्दा गाड दूँगा। समझा। जिन्दा गाड दूँगा। जिन्दा।'' इतना बोलते ही बहुत ही जोर से मुझे धक्का दिया। मैं कीचड़ में गिर गया। संभला और उठ कर गुस्से में देखते हुए जगदेव के पिता पर कीचड़ फेंकते हुए बोला, ''तू भाग यहाँ से।''
उसके बाप को भागने का बोला था और मैं खुद ही भाग गया। घर से। गाँव से। देस से। खुद से...।
वो थी आखरी बरसात। वो पानी। जगदेव कहाँ होगा? कैसा होगा। उसकी हँसी इस बच्चे में दिख रही है। बैठ गया हूँ मैं। खो गया था मैं। बारिश में था कि पाईप से पानी के इंतजार में हूँ। नहा लूँगा। कि बच्चा बन जाऊँगा। बस एक बार पाईप को मुँह की तरफ कर दे। अब पाईप से पानी बंद हो गया है। ट्यूबवेल की मोटर बन्द हो गई। तीखी कर्कश आवाज बन्द होते ही टी. वी. के समाचार की आवाज आई। इंजीनियरिंग परीक्षा का पर्चा आउट हो गया। परीक्षा से पहले ही छ:-छ: लाख में पेपर बिक रहा था। स्टूडेंट और उनके पैरेंटस ने हंगामा मचाया। वे माँग कर रहे थे कि नई तारीख घोषित क्यों नहीं की।
बैठा हुआ हूँ मैं। समाचार की तरफ कान जाते-जाते उस लड़के की आवाज आई, “यहाँ मत बैठो। जाओ।'' जैसे मेरे बचपन को इसने छीनकर बूढापे में पटक दिया। मैंने कहा, ‘’एक बाल्टी। एक बाल्टी भर दे बेटा।''
''बाल्टी? बड़ा आया जा।’’ खट से बड़े वाले लड़के ने वार किया। वो शायद इस बात से नाराज था कि टयूबवेल की मशीन को उसके पूछे बगैर बंद कर दी थी और वो चालू करके आया।
छोटे वाला आया। वो बोला, ''भर दे रे।'' उम्मीद आई जबकि जाने वाला था मैं। दरवाजे पर अधेड उम्र की महिला आई उसकी तरफ देखते हुए बड़ा बोला, ''देखो न मॉम ये पानी देने की बोल रहा है। एक को देंगे तो पूरी झोपड-पट्टी आ जायेगी, मैं नहीं देता पानी।''
छोटा कभी मुझे तो कभी उसकी माँ को देख रहा था। सब चुप थे। चुप थे कि इंजीनियरिंग का पेपर छ: लाख में किसने खरीदा था? किसी ने नहीं किया विरोध। किसकी औलादों के लिए पेपर बेचा जा रहा था। किसकी औलादें छ: लाख का पेपर खरीद कर इंजीनियर बन रही थी, कोई कुछ नहीं बोलता। सब चुप। एक जानकारी वाला समाचार चला गया। चली गई औरत चुपचाप। चला गया बड़ा लड़का चुपचाप। पाईप नहीं है चुप। चुप नहीं हूँ मैं कि उठता हूँ और उस बच्चे से बिना बोले पाईप छीनता हूँ। बाल्टी भरता हूँ कि बोल नहीं पाता वो लड़का और कुछ सेकेंड में मै आधी से कम भरी हुई बाल्टी को उठाता हूँ। इतने प्रेशर से बाल्टी का पानी बाल्टी में रूकता नहीं है। बाल्टी से बाहर निकलता है कि उसी पानी की तरह मैं अपने घर की तरफ निकल जाता हूँ चुपचाप।
पानी भर कर वापस चलते हुए दिमाग में राशन कार्ड की बात अटक गयी। कई बरस नगर पालिका में अपनी बारी का इंतजार करता था। वे मानते ही नहीं कि मैं नगर का निवासी हूँ। मेरे पास वोटर कार्ड भी नहीं है। वोटर कार्ड बनाने वाला कहता है कि पहले राशन कार्ड बनाओ। राशन कार्ड वाला कहता है, पहले अपना नाम वोटर लिस्ट में डलवाओ। इस इधर और उधर वालो को बोल-बोल के थक गया, तो चुप बैठ गया। सोचता हूँ, रुकता हूँ फिर चलता हूँ। जिस तेजी से लगा कि राशन कार्ड होना चाहिए, उतना दो तीन साल पहले लगा था।
राशन कार्ड तो होना ही होना, घर तक पहुँचते-पहुँचते यह ठान किया जबकि नगर पालिका का चक्कर लगाते-लगाते तब हार मान ली थी।
कटोरे में थोड़ा सा पानी लिया। टीन के कोने में रोटी, पोटली में बांध कर रखी हुई है ताकि चूहे या बिल्ली रोटी तक न पहुँचे। पक्की व्यवस्था कर रखी है। रोटी पूरी तरह से सूख चुकी है। गर्मी का असर ज्यादा था। रोटी हफ्ते भर पुरानी है। कब तक गर्मी को सहन कर सकती। इस वक्त में उसके भीतर नमी रह नहीं सकती। नमी नहीं रही लोगों में। कभी थी क्या?
आसानी से रोटी का चूरा बन रहा है। मेरा भोजन यही है। चूरे को पानी मे डालता जा रहा हूँ। रोटी का चूरा पानी में जा कर गल जाता है फिर उसका आकार बड़ा हो जाता है। पानी ने उसे बड़ा रूप दिया। पानी किस किस को नई जिन्दगी देता है? उम्मीद से भरी खुशी में सूखी रोटी और कटोरे के भीतर की रोटी को देखता हूँ।
ऐसा पानी कौन सा है, जो इस सूखे हुए शरीर को वास्तविक जीवन दे सके?
बुढिया राशनकार्ड बनवाने के लिए जब जाता था नगरपालिका, वहॉं वो बुढिया दिखी थी। वो थोड़ी देर बाद बैठ जाती थी। वो ज्यादा देर खड़ी नहीं रह पाती थी। उसके पैरो में कोई दिक्कत थी। उसके चेहरे से उसके दर्द का कोई अंदाज नहीं लगा सकता। वो भी राशनकार्ड बनवाना चाहती थी। वो वृद्धाश्रम में रहती थी। वृद्धाश्रम से चकमा दे कर आती थी। उसे खुद का राशन कार्ड चाहिए था। क्यों?
वृद्धाश्रम में खाना मिल जाता है फिर क्यों चाहिए राशन कार्ड? काउंटर वाले के इस सवाल का जवाब उसके पास था, ‘’मेरको चाहिए। सबके पास होता है। मेरे पास भी होना चाहिए।”
काउन्टर उसके इस जवाब से संतुष्ट नहीं होता। वो जाने के लिए कहता है तो वो जिद कर खड़ी रहती। ‘’कैसे भगा सकते है? ये नगर पालिका किसी के बाप की है? “गुस्से से तमतमाती है, जिद से भरी हुई। तब उसकी सांस तेज होती है और तब तक उसके पैर जवाब दे चुके होते। वो भीड़ में से हट जाती कि बैठ जायें।
अगर उसका साथ उसके पैर देते तो वो हर हाल में अपना राशनकार्ड तभी बनवा लेती लेकिन वो खड़ी नहीं रह सकती। मैं खड़ा रह सकता हूँ लेकिन इतनी जिद नहीं है मेरे पास। मै काउन्टर पर बैठे हुए आदमी के बदलने के इंतजार में हर दिन आता। काउन्टर वाले को देखता और घंटे- दो घंटे बैठ कर चला जाता था।
काश उस बुढिया के पास मेरे पैर होते या उसकी जिद मेरे पास होती। गीली रोटी में उसके बारे में सोचता हूँ। पानी में भीगी हुई रोटी को चबा नहीं सकता तो उसे तो मुँह के गलियारे में घूमाता हूँ कि पूरी तरह से गल जाये तो गटक लेता हूँ।
ग्रास गटकते हुए हँसी आई। एक दिन मै उस बुढिया के पीछे-पीछे गया था वृद्धाश्रम तक। पीछा किया था। क्यों? आज अभी लगा कि इस टापरे में रहने से बेहतर है उस वृद्धाश्रम में रहूँ, जिसमें वो रहती है। वो राशनकार्ड इसलिए बनवाने आई थी कि उसको सरकारी पेंशन मिल सके। उसे पैसा चाहिए था। काउन्टर पर उस दिन उसने कहा था, “पैसा धेला होना चाहिए।”
वृद्धाश्रम में रहने के बाद किस काम के लिए चाहिए पैसा? काउन्टर वाले ने उत्सुकता से पूछा था। छोटा मुँह चमकती ऑंख। झुर्रियों से भरा हुआ चेहरा जिसमें से उम्मीद की लौ जल रही थी कि चमक रहा था उसका चेहरा कि उससे हर कोई बात करना चाहेगा। ऐसी आँखें थी उसकी।
“वो आश्रम वाले भगा दे तो कहॉं जाऊँगी?” बोलते बोलते उदासी से भर गई थी। डर से डूबी हुई थी। मेरा मन कर रहा था कि बोलूँ उससे मेरे घर आ जाना। साथ रहेगें। मैं बोला नहीं। चुप रहा। जिसके खुद के खाने पीने के लाले पड़े है वो किसी को क्या खिलायेगा।
“कैसे भगायेंगे वो।” बहुत देर बाद मैने कहा तो मेरी तरफ एक नजर देखी उसने। उसे अच्छा नहीं लगा मेरा बोलना। वो काउन्टर वाले से बोली, “आज अगर नहीं बना तो कभी नहीं आऊंगी बनवाने और ये भी बता देती हूँ आज बनवा के ही जाऊँगी।” गुस्सा जिद से भरा हुआ था उसका चेहरा। क्या जवानी में भी इतनी जिद्दी होगी ये बुढिया। उसके बारे में तब सोचा था उसके बारे में अब सोच रहा हूँ कि उसी वृद्धाश्रम में चला जाऊँ उसी कांउटर पर चला जाऊँ और अपना राशनकार्ड बनवा लूँ। मुझे पेंशन नहीं चाहिए। मुझे अनाज नहीं चाहिए। मुझे पहचान चाहिए थी इसलिए मैं अपने नाम का राशनकार्ड बनवाना चाहता था।
सुबह हुई जैसे तैसे। सोचा तो था आज राशनकार्ड बनवाने जाऊँगा लेकिन सिरदर्द हो रहा है। नींद नहीं हो पाई बदन भी अकड सा गया। कभी लगता है माथे की नस दबा दूं तो कभी लगता है इससे अच्छा तो पैर दबा लूँ। कमर, पीठ को कैसे दबा पाऊँगा? किस-किस को दबाउं? करवट बदलता हूँ। फिर कुछ करने का मन नहीं हो रहा। बेकाम की चीजों की तरह अपने आपको पाता हूँ। पीठ सीधी हो जाए, यही सोच कर टीन को देखता हूँ, बरसात रोकने के लिए ही टीन डलवाये जाते हैं।
सबसे पहले जब छत के लिए बाजार गया था। सन अस्सी के आसपास की बात है। बीस पच्चीस साल पहले। हर साल प्लास्टिक की पतली पन्नी घर पर चढाई जाती थी। वो गरमी सहन नहीं कर पाती और बरसात आते आते उसमें छेद हो जाते थे। इसलिए लोहे की चद्दर चढानी चाहिए, सोचा और दूकान गया। दुकानदार ने देखते ही बोला, ''ये वाली खरीद ले। सस्ती है, कम पैसा, बड़ा काम। गरीबी हटाओ इसका नाम।'' उसके चेहरे पर हँसी थी। तब लगा वो मेरी खिल्ली उडा रहा है। यह कौन लोग है जो हमें सामान बेचते हैं और हमारी औकात बताते हुए हँसते हैं। आज सोचता हूँ तो बडी बैचेनी सी होने लगती है। कितना अजीब था कि जो सबसे सस्ता छत था उसका नाम, 'गरीबी हटाओ' रख दिया था। दुकानदारों ने उस लोहे के चद्दर को कील लगाने से मना किया था। उसने कहा था, ‘’कील मारोगे तो गरीबी हटाओ की ये चादर फट जायेंगी।’’ वो लोहे की सबसे पतली चादर सा टीन था। उसे मकान पर डाल कर चार-छ: जगह से वायर से बांधने के लिए लोहे का वायर अलग से यह कह कर दिया था कि इससे बांधोगे तो गरीबी हटाओ टीन बना रहेगा। भूल कर भी कील मत ठोकना।
एक अजीब सी भावना के साथ दो टीन खरीदे थे। उसके दो साल बाद ये वाले टिन के चद्दर खरीदे थे। ये गरमी में बेहद तपता है। सूरज की गर्मी इस तरह से इन टीन में से आती कि लगता है पसीने से नहा रहे हो, जब वो पतले वाले '' गरीबी हटाओ'' वाले टीन दो साल में जगह-जगह से छेद होने लगे थे तब बताया था कि इस पर रंग चढाना चाहिए था। इन पर रंग चढाया था, आसमानी लेकिन अब कोई रंग नहीं दिखता। काला हो गया है।
खामोशी है कि तभी किसी बच्चे के रोने की आवाज आती है, पूरी ताकत कान में लगा कर उस आवाज को सुनता हूँ। किसी औरत की आवाज है। दहाडती हुई। माँ की याद के साथ कुछ याद इस तपती हुई धूप के साथ मेरे भीतर आ गई। तेज बदन जलाती धूप, हवा को गरम कर के मेरे घर में भेज रही है। सिर भारी होने लगा दिमाग की नस फट न जाए, ऐसा लगता है कि बचपन में पहुँच नहीं पा रहा हूँ यही बूढापे में ठिठक गया हूँ कि तभी बच्चे की आवाज आती है, ''तोड़ दे। मेरे पैर तोड़।''
थका शरीर, अधूरी नींद के बाद ये सुनकर टूट सा गया। आज कोई बच्चा फिर भागेगा। हर बार भाग जाते हैं बच्चे। भागते रहते हैं। रोने की आवाज के साथ मेरी आँखें गीली होने लगती है। मेरे भीतर की माँ रोने लगती है। आँसू ढूलकते हैं। आवाज नहीं है। न यहाँ न वहां। कहीं नहीं है। बस आँसू है, अकेलेपन के। माँ के। याद में है। डर में है, यह आँसू क्यों निकल रहे हैं?
माँ के बाद वो बुढिया याद आने लगी। राशनकार्ड बनवाने वाली कतार में सबसे दमकता हुआ चेहरा। उसकी बारीक आँखों में तेज था। सुबह की रोशनी थी। सूरज की किरण थी। अप्रैल महीने में हल्के सा लाल ताम्बई रंग पीपल के पत्तों के मानिंद उसका चेहरा चमक रहा था। कोमल कपोल की ताम्बई रंग से भरी हुई थी। उसी वक्त लाइन के पास से आफिस जाते हुए सूट पहने हुए एक आदमी ने मुझसे कहा, ''फालतू बात करते हो चुपचाप खडे रहो।'' वो बोला तो उसका यह अंदाज बुढिया को अच्छा नहीं लगा। मुझे बुरा लगा। पता ही नहीं चला कि मैंने बात की ही नहीं। जबान खुली नहीं थी फिर फ़ालतू वाली बात कौन सी थी। अकेला हो गया था मैं। प्यास लगी थी। अपमान लगा तो उस लाईन से हट गया था। पानी नहीं मिला। भटकता रहा। राशनकार्ड तो मिला नहीं उपर से अब पानी भी नहीं मिल रहा था। छाया भी नहीं मिल रही थी। तो वही सड़क पर बैठ गया। मोटर साईकिलों की भीड में। धूप में सड़क पर बेजान मोटर साईकिलों के साथ बैठ गया था। हांफ रहा था। लग रहा था कि अब जान निकल जायेगी। यही पर लुढक जाऊँगा। मर जाऊँगा। पानी पानी बोलते भी नहीं बन पा रहा था। किसी के पास पानी नहीं दिख रहा था। मोटर साईकिल निकलती रही। प्यास बढती गई और आवाज खो गई। मैं बैठा रहा। इसके अलावा कुछ नहीं कर सकता था। जब सांस ठीक हो जायेगी तब उठूंगा।
उठ नहीं पाया। किसी ने पूछा भी नहीं कि इतनी धूप में क्यो बैठा हूँ। कोई नहीं पूछता। कोई नहीं पूछेगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा कि मरने वाला बूढा कौन था? क्या नाम है? उमर कितनी थी? काश, मेरे पास राशनकार्ड होता तो उसमें मेरा नाम होता। पता होता। उमर होती और अखबार वाला , थाने वाला अस्पताल वाले सब खुश होते। लावारिश होकर भी इसका नाम पता है। अज्ञात नहीं है लाश तो वे छपवाते अखबार में। फोटो के साथ छपता, कोई रिश्तेदार हो तो आ जाये। लाश ले जाए।
कौन पहचानता? यहाँ का पेपर नहीं जाता महाराष्ट्र। गांव में नहीं पहुँचता। पहुँच भी जाता तो कौन पहचानता? पहचानने वाली माँ मर गई होगी। बाप तो कभी का मर गया होगा। फिर कौन? जगदेव। जगदेव पहचान सकता है। जगदेव का बाप भी मर गया होगा। उसे कीड़े पडे होगें क्या? बच्चे को बेरहमी से मारने वालों को मरने के बाद कीड़े पडते है। कीड़े। कितने कीड़े पड़े होगें?
आँख धूंधलाने लगी थी। पैंरो में चिंटिया लगने लगी थी। आँखों के आगे कीड़े ही कीड़े दिख रहे थे। लग रहा था जगदेव के बाप के पास बैठा हूँ। वो मरा हुआ है और उसमें से जो कीड़े निकल रहे है उन कीड़ों को खाना खिला रहा हूँ।
कि उस गिरते लुढकते वक्त बुढिया दिखी। उसने पानी पिलाया था। जान आई। उसने जीवन दान दिया था।
सच्ची बोलूँ तो न समझ पडी। न सूझ पडी थी। उस बुढिया ने पिलाया था या किसी और ने। पता नहीं। लेकिन यह लगा था और अब भी लगता है उसने ही पानी पिलाया था। उस वक्त थोड़ी देर बेहोशी थी। मैने मान लिया था कि उसने अपने नर्म और कांपते हाथों से मुझे पानी पिलाया होगा। जिसके माथे को चूमने की ख्वाहिश थी। उसने मेरे चेहरे पर पानी के छीटें मारे होगें। मेरे चेहरे को धोया होगा उसने।
उसकी यादों में दिन कब निकल गया पता ही नहीं चला। भूख भी लग गई, प्यास भी। तो सूखी हुई रोटी को बारीक किया। कटोरे में डाला। दो रोटी बच गई। उन्हें अलग रखा। सुबह जब उठूंगा तब इन रोटियों को अपने साथ रख लूँगा। बाल्टी भी साथ में ले जाऊँगा। एक बोतल भी रखूंगा। अब राशनकार्ड बन जायेगा अब बुढिया से होगी मुलाक़ात। एक बात और एक बार माथा चूम लूँगा। जिंदगी मुकम्मल हो जायेगी।
(पाखी के हालिया अंक से साभार.)
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-09-2017) को
जवाब देंहटाएं"चलना कभी न वक्र" (चर्चा अंक 2730)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शानदार प्रस्तुति है ।
जवाब देंहटाएंकैलाश वानखेड़े की कहानी आज कल, कल और आज हमारे समाज और समय की तल्ख सच्चाइयों से रूबरू कराती है. यह कहानी दृश्यों से गुजरते हुए हमें एक ऐसी अमानवीय दुनिया में ले जाती है, जहाँ कोई अपने हिस्से की छाया, पानी, बारिश और रोटी पाने की जंग लड़ते हुए भी सदियों से चुप रहने को अभिशप्त है तो दूसरी तरफ उसी तरह के परिवेश से एक बुढिया अपने आक्रोश को बचाकर रखती है और इस व्यवस्था के प्रति उसी आक्रोश को अपना हथियार बनाती है. कहानी की भाषा और शिल्प में नए प्रयोग हैं जो एक साथ कई तरह के बिम्ब बनाते हैं और कहानी का विस्तार अपने तई होता रहता है. यह कल्पना के रूमानी संसार की नहीं हमारे आसपास पसरे कठोर तथा कठिन जीवनानुभवों की कहानी है. यह दृष्टि सिर्फ देखने से नहीं आती, इसके लिए जीबन में धंसने वाली अंतर्दृष्टि और उसे आत्मसात करने के अनुभव से बनती है... एक समाज के लिए पानी बच्चों के खेल और कार धोने का साधन है तो दूसरे के लिए जीवन का आधार. जीवन के लिए पानी जरूरी है लेकिन समाज का एक तबका अब भी पानी ही नहीं छाया, हवा, पानी, छत और रोटी तक के लिए तरस रहा है... बहुत बधाई कैलाश भाई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबधाई कैलाश , कहानी के रूप में आज के समाज के विद्रूप की सुंदर प्रस्तुति .
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