काशी नाथ सिंह से प्रियंका कुमारी की बातचीत
अभिव्यक्ति की आजादी आज एक बड़ा सवाल बन कर हमारे सामने आया है। कट्टरपंथी ताकतें हमेशा इसके विरोध में होती हैं जबकि लोकतंत्रात्मक समाज में अभिव्यक्ति एक प्रमुख माध्यम के रूप में उभर कर सामने आता है। तमाम खतरों के बावजूद लेखक और पत्रकार यह जोखिम लेते हैं और प्रकारान्तर से इस दुनिया और मानवता को बचाए रखने का प्रयास करते हैं। अभी हाल ही में पत्रकार गौरी लंकेश की कुछ कट्टरपंथियों ने गोली मार कर हत्या कर दी। हमारे समाज का एक तबका इस हत्या पर ख़ुशी मना रहा है। वीरेन डंगवाल की पंक्ति याद आ रही है - 'ये कैसा समाज हमने रच डाला है?' प्रियंका कुमारी ने पिछले दिनों प्रख्यात रचनाकार काशी नाथ सिंह से एक लम्बी बातचीत की। इस बातचीत को समय-सन्दर्भ के रूप में हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं।
काशी
नाथ सिंह सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील रचनाकार रहे हैं। बीसवीं सदी के
अंतिम दशक से आज इक्कीसवीं सदी में सामाजिक सांकृतिक आकांक्षाएँ बदली हैं। इस
बदलाव को काशी नाथ सिंह ने बातचीत के दौरान शिद्दत से महसूस किया है। बीसवीं
सदीं के अंतिम दशक में सोवियत संघ के पतन के साथ-साथ उदारवाद, निजीकरण का सिलसिला शुरू हुआ और इस से किसी भी भाषा का साहित्य
अछूता नहीं रहा। हिन्दी साहित्य पर भी इसका प्रभाव पड़ना लाजमी था । लेकिन इसी
दौर में तमाम विमर्शों के आगमन से हिन्दी साहित्य के विषयगत फलक में वृद्धि हुआ
है। काशी नाथ सिंह के रचना कर्म को सामाजिक बदलाव के हिसाब से दो भागों में
विभाजित किया जा सकता है। प्रथम सोवियत संघ के विघटन से पहले और द्वितीय
सोवियत संघ के विघटन के बाद। विघटन के पहले जहाँ वे पूरे देश को झकझोर देने वाला
आन्दोलन नक्सलवाड़ी आन्दोलन से प्रभावित थे, वहीं विघटन के बाद उन्हें मोहभंग की
स्थिति का एहसास होता है। प्रस्तुत साक्षात्कार
के अंतर्गत काशी नाथ सिंह ने वर्तमान साहित्य तथा साहित्यकारों के समक्ष उपस्थित
चुनौतियों एवं उसकी स्थिति, साहित्यिक कर्म, वर्तमान शोध एवं शोधार्थी, नक्सलबाड़ी आन्दोलन की वर्तमान सन्दर्भ में
प्रासंगिकता, मुस्लिम जीवन तथा बहुत से ऐसे विषय हैं जो अब तक
क्यों उनके साहित्य में अभिव्यक्त नहीं हुए है? आदि मुद्दों पर पर चर्चा की है। यही नहीं
उन्होंने फ़िल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ से सम्बंधित उनके अनुभव तथा ‘उपसंहार’ उपन्यास के
पात्रों, उसकी रचना प्रक्रिया एवं उसमें मिथक तथा यथार्थ
के समन्वय आदि पर भी खुल कर बात की है । वर्तमान में उनकी चिंता है, जो पहले कर चुके हैं उससे बेहतर और नया करने की है।
इस साक्षात्कार से हिन्दी साहित्य के अध्येता लाभान्वित होंगे, ऐसी कामना करती हूँ।
- प्रियंका कुमारी
प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह से प्रियंका कुमारी की बातचीत
अभिव्यक्ति की आज़ादी का दमन हो रहा है
प्रियंका
कुमारी: साठोत्तरी
हिन्दी कहानी के बाद कथा-साहित्य में आए अब तक के बदलावों को आप किस तरह देखते हैं
काशी नाथ सिंह :देखो, मैं जिस
उम्र में हूँ उसमें अमूमन लोग कहते हैं कि बड़ा ह्रास हो रहा है। यानी अस्सी के दशक
में जब हम लिखते थे तो एक उत्साह था, जोश था और लगता था, साहित्य ही साहित्य लिखा जा रहा है । इन चीज़ों
को देखते हैं तो आज के युग में ऐसा लगता है कि साहित्य हाशिए पर है। साहित्य
लिखने वाले लोग बहुत कम हो रहे हैं। ज्यादातर लोग जो एक बदली हुई दुनिया है, जो
अर्थ-केन्द्रित दुनिया है, उसमें मशरुफ़ हैं। अब साहित्य वगैरह के बारे में सोचने
के लिए किसी के पास वक्त नहीं है। अमूमन हमारे उम्र के लोग ऐसा सोचते हैं। लेकिन
मैं ऐसा नहीं सोचता। मैं जब से लिख रहा हूँ तब से ले कर अब तक देखें तो जो बदलाव
साहित्य लेखन में हो रहे हैं, वे पॉजिटिव हो रहे हैं । यानी हमारे समय में एक भी
पत्रिकाएँ नहीं थीं, इतने प्रकाशक नहीं थे,
इतनी बड़ी तदाद में लेखक नहीं थे। वे अच्छा लिख रहे हैं, ख़राब लिख रहे हैं,
महत्वपूर्ण यह नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि पत्रिकाएँ निकल रही हैं। कोई ऐसा शहर
नहीं है जहाँ से ज्यादा से ज्यादा पत्रिकाएँ न निकल रही हों या एकाध पत्रिकाएँ न
निकल रही हों। दिल्ली प्रकाशनों से भरा पड़ा है। पहले गिने-चुने प्रकाशन थे। इसके
सिवाय जब पत्रिकाएँ निकल रही हैं तब बिक भी रही हैं। पत्रिकाओं के बिकने का मतलब
है कि पाठक ज्यादा हो रहे हैं और पत्रिकाओं के निकलने का मतलब है कि उसमें लिखने
वाले लेखक भी ज्यादा हैं तभी इतनी पत्रिकाएँ निकल रही हैं। इन सारी चीज़ों को देखते
हुए मुझे लगता है कि पहले से आज साहित्य विकास की स्थिति में है, पीछे नहीं गया है।
अब इक्के-दुक्के बड़े लेखक अपने-अपने दौर में पैदा हो जाते हैं। यह अलग बात है कि
अब तक दिखाई नहीं पड़ रहे हैं पर इन्हीं में से कल कोई बड़ा लेखक हो सकता है।
प्रियंका
कुमारी : लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी
है कि संख्या में भले ही ज्यादा साहित्य लिखा जा रहा हो, पत्रिकाएँ निकल रही हो,
प्रकाशकों की संख्या भी बढ़ रही हो। परंतु जैसा कि आपने अभी ऊपर संकेत किया है कि
ज्यादातर लोग बाज़ार की होड़ में शामिल होने के लिए लिख रहे हैं। और ऐसे में वे अपने
मूल उद्देश्य से भटक भी रहे हैं। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
काशी नाथ सिंह :
ये तो देखो होता है। जब हम ही लिखते थे 1960 से लगभग 1975 तक, तब इन आरंभिक
वर्षों में मेरी ही गणना चर्चित लेखकों में नहीं होती थी। हमने जो भी बेहतर लिखा
वो अस्सी के बाद लिखा। यानी लगभग 20 वर्षों तक मैं एक तरह से वर्जिश करता रहा,
मेहनत करता रहा, लिखता रहा । लेकिन लिखने का अपना छंद मुझे बाद में मिला। कौन सी
ऐसी विधा है जिस में मैं अच्छा लिख सकता हूँ। मैं क्या अच्छा कर सकता हूँ? यानी कि
अपनी तलाश मैंने निरंतर ज़ारी रखी। मैं अपने को ढूँढ़ता रहा कि मैं क्या अच्छे से
अच्छा कर सकता हूँ। यह हर लेखक के साथ होता है और एक तरह से कहा जाए तो अधिकांश
लेखकों के साथ होता है। इसमें दो राय नहीं
है कि आज के लेखकों के लिए बाज़ार सबसे बड़ा प्रलोभन है। लेकिन वे यह भी जानते हैं
कि केवल लेखन के भरोसे जीवित नहीं रह सकते। कुछ ही लेखक रहे हैं जिन की जीविका
साहित्य रही है। बाकी कोई-न-कोई नौकरी करते हुए साहित्य रचना करते रहे हैं। कोई
आई. ए. एस. रहा है, कोई आई. पी. एस. रहा है, कोई प्रोफ़ेसर रहा है तो कोई अन्य
छोटी-मोटी नौकरी करता रहा है। साहित्यकारों में यह धारणा अब तक बनी हुई है कि
जीविका के लिए साहित्य नहीं है।
प्रियंका
कुमारी : अर्थात्, बाज़ार की चुनौतियों का
सामना करते हुए साहित्यकारों को प्रयास करते रहना चाहिए?
काशी नाथ सिंह :
प्रयास करते रहना चाहिए, लेकिन आँखें मूँद कर नहीं; आत्मान्वेषण करते हुए, अपने को
ढूँढ़ते हुए कि हमारी सही विधा क्या है? हम कविता अच्छी लिख सकते हैं, उपन्यास अच्छा
लिख सकते हैं, कहानियाँ अच्छी लिख सकते हैं या संस्मरण अच्छा लिख सकते हैं? क्यों
कि इधर विधाओं का विस्तार हुआ है। पहले केवल कविता, कहानी, उपन्यास इन्हीं विधाओं
को लोग जानते थे। अब ट्रैवेलाग लिखे जा रहे हैं, डायरियाँ छप रही हैं, रिपोतार्ज
लिखे जा रहे हैं। उपन्यास भी अब पारंपरिक ढंग से नहीं लिखे जा रहे हैं। उनका भी
रूप बदला है। हर लेखक अपने को ढूँढ़ता रहे कि कहाँ वह सही ढंग से और किस विधा में
अपने को व्यक्त कर पा रहा है, तब उसे लिखना चाहिए। कोई भी लेखक लिखने के लिए तो सब
कुछ लिख सकता है लेकिन कौन सी ऐसी विधा है जिसमें वह समूचा व्यक्त हो सकता है, यह
तलाश बराबर एक लेखक जीवन भर करता रहता है।
प्रियंका
कुमारी : इस सन्दर्भ में आपके लेखन कर्म
की बात की जाए तो आपने अपनी रचनाओं के माध्यम से निरंतर कुछ-न-कुछ नया एवं भिन्न
तलाश करने की कोशिश की है। आप के अभी हाल में छपे उपन्यास ‘उपसंहार’ की बात
की जाए तो
उसमें आप विषय-वस्तु और भाषा-शिल्प की अपनी पूर्व-छवि के स्थापित विधान को
त्याग कर, अचानक नए रूप में सामने आए हैं। ‘उपसंहार’ लिखने के बाद, अब तक आप की
कोई रचना नहीं आई है। मेरा सवाल यह है कि फिलहाल आप क्या नया तलाश रहे हैं?
काशी नाथ सिंह :
(हंसते हुए) देखो! यह तो बड़ा मुश्किल सवाल है। हाँ, क्योंकि मेरी कमज़ोरी है कि
मैं अगर बता देता हूँ तो मैं लिख नहीं पाता हूँ। मेरे भीतर जो चल रहा होता है उसके
बारे में बोलता नहीं हूँ । ऐसे मोटे तौर पर मैं बताऊँ कि मैं आगे क्या करूँगा यह
चिंता मेरी ज़रूर है कि जो कर चुका हूँ उससे भिन्न हो और बेहतर हो। अगर मैं अच्छा
कर सकूँगा तभी लिखूँगा वरना नहीं लिखूँगा। यह मैंने बनारस के लेखकों से ही सीखा
है। मुंशी
प्रेमचंद और जय शंकर प्रसाद से सीखा है।
प्रेमचंद ने अपने आखिरी दिनों में ‘गोदान’ लिखा था और जय शंकर प्रसाद ने अपने
आखिरी दिनों में ‘कामायनी’ लिखी थी। प्रेमचंद ने अपने जीवन का सबसे अच्छा उपन्यास
और प्रसाद ने अपने जीवन का सबसे अच्छा काव्य। मैं भी कोशिश यही करता हूँ कि जो मैं
सबसे बाद में लिखूँ वह पहले से बेहतर हो।
प्रियंका कुमारी
: सत्तर से अस्सी के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर
रहा और आपकी रचनाओं पर भी, विशेष रूप से ‘आदमीनामा’ संग्रह की लगभग सभी कहानियों
पर। वर्तमान सन्दर्भ में यदि साहित्यकारों के यहाँ नक्सलबाड़ी आन्दोलन का प्रभाव
देखा जाए तो इसे आप कितना प्रासंगिक मानेंगे?
काशी नाथ सिंह : यह मुझे
व्यर्थ लगता है, पता नहीं क्यों? इसका एहसास मुझे तभी हो गया था जब मैं ख़ुद जुड़ा
हुआ था। नक्सलबाड़ी आन्दोलन के कई ग्रुप हैं और हर ग्रुप अलग-अलग ढंग से इसके बारे
में सोचता है। मार्क्सवाद, लेनिनवाद के बारे में सोचता है। सबकी अलग फिलॉसफी है।
उनकी बुनियादी चिंता यह है कि क्रान्ति कैसे हो? हथियारबंद होना चाहिए या कैसे
होना चाहिए? देश छोटा होता है तब तो क्रान्ति आप कर सकते हैं, हथियारबंद क्रान्ति
कर सकते हैं। लेकिन इतना बड़ा देश औरउसकी ‘डेमोक्रेसी’। सत्ता का परिवर्तन मतों से
होता है और कई बार मैंने महसूस किया है कि जो मतदान है वह लोकतंत्र का सबसे बड़ा
हथियार है। उससे आप लोकतंत्र की सत्ता को बदलिए। इस मामले में बराबर बदलाव होता
रहा है। यानी क्या वजह है कि सी. पी. आई. और सी. पी. एम. जो मार्क्सवादी सिद्धांतों में विश्वास करने
वाली पार्टियाँ रही हैं, आज उनका कोई नामलेवा नहीं है और ये जो हथियारबंद क्रान्ति
कर रहे हैं, वस्तुतः यह नक्सलवाद नहीं है । यह मूलतः उनकी बेरोजगारी है। उनकी अपनी
समस्याएँ
हैं, जल की, जंगल की, जमीन की, जीविका की, रोजगार की, गरीबी की।
मेरे ख्याल से थोड़े से नक्सलाइट सोच के लोग हैं जो उन जनजातियों, आदिवासियों को
बरगला करके यह करने के लिए बाध्य कर रहे हैं। वरना समस्याएँ उनकी दूसरी हैं। इसे
उन्हें समझाना चाहिए। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप बी.जे.पी. आ गई । बंगाल जो पच्चीस
वर्षों तक सी. पी. एम. का केंद्र था आज वहाँ उसका क्या हश्र इस चुनाव में हुआ है ? सी. पी. आई. के लोग उत्तर प्रदेश से हुआ करते
थे। शुरूआती दिनों में इनकी बहुत
अच्छी संख्या थी। केंद्र में मुख्य विपक्ष के रूप में सी. पी. एम. रह चुका है। आज
वे कहाँ हैं? मेरे खयाल से इस आईने में नक्सलबाड़ी आन्दोलन को देखा जाना चाहिए।
हमने जब छोड़ा तो मुझे ख़ुद लगा कि इस लोकतंत्र में क्रान्ति के लिए कोई गुंजाइश
नहीं है। अनेक मुद्दे लड़ने के लिए हैं, जिसे इसू बना कर लड़ा जा सकता है। जैसे
अभिव्यक्ति की आज़ादी का दमन किया जा रहा है। यह फिलहाल तुम्हारे ‘हैदराबाद
केंद्रीय विश्वविद्यालय’ में ही हुआ है। ‘जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय’ में हुआ
है और हो रहा है। दूसरे विश्वविद्यालयों में जहाँ छात्र-संघ नहीं हैं, वहाँ हो रहा
है। यह संविधान जो हिन्दू-मुस्लिम दोनों राष्ट्रों को स्वीकार करता है,
धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार करता है, इस पर आँच न आए। ये सारे मुद्दे हैं जिन पर
लड़ा जा सकता है लेकिन वो भी हथियार के साथ नहीं लोकतांत्रिक तरीके से। हड़ताल करें,
भूख हड़ताल करें, धरने पर बैठें, जुलूस निकालें, आन्दोलन का ये तरीका चलेगा। हमारी
इतनी बड़ी सीमा है, विकसित फ़ौज है उसके आगे गिने-चुने लोग हथियारबंद क्रान्ति कर क्या
कुछ कर पाएँगे? इस मायने में मुझे लगता है कि नक्सलबाड़ी आन्दोलन की एक ऐतिहासिक
भूमिका थी। उस समय में नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने तेलुगु, उड़िया, बंगला, हिन्दी,
पंजाबी, मराठी, कन्नड़ इन सारे साहित्यों को प्रभावित किया था। मेरे ख्याल से इसकी
वह भूमिका दस-पंद्रह वर्षों तक ही थी जो ख़त्म हो गई। नक्सलबाड़ी के जितने ग्रुप थे
वो टुकड़े-टुकड़े हो चुके हैं। अब संगठित स्तर पर प्रयास की कोई उम्मीद मुझे दिखाई
नहीं देती। अपने लेखन के आरंभिक दौर में मैं इस आन्दोलन से प्रभावित हुआ था।
‘आदमीनामा’ कहानी संग्रह की कहानियों पर इस आन्दोलन का प्रभाव है। ‘सुधीर घोषाल’,
‘जंगलजातकम्’, ‘मुसईचा’ आदि कहानियाँ इसी स्तर की थीं। लेकिन बाद में मुझे ख़ुद ही
लगने लगा कि अब इस तरह की सोच रखना व्यर्थ है। इस आन्दोलन की एक भूमिका थी जो
ख़त्म हो चुकी है। बाद में जिन लोगों ने इस आन्दोलन को अपने साहित्य के माध्यम से
जारी रखा और क्रान्ति कराते रहे, वह मैं समझता हूँ, बहुत सब्जेक्टिव किस्म का लिट्रेचर है । वह
आत्ममुग्धता का साहित्य है। यानी हम जो सोचते हैं उसे ही हम मान लेंगे की सारे लोग
ऐसे सोचते हैं। जबकि हर आदमी अलग-अलग ढंग से सोचता है। अब सन् दो हजार के बाद का
जो नया लेखक आया है उसके लिए तो मार्क्सवाद एक तरह से बेकार हो चुका है जो बुनियाद
थी क्रान्ति की या नक्सल आंदोलन की।
प्रियंका
कुमारी : आपात काल के बाद या अस्सी के दशक
के शुरूआती वर्षों से हिन्दी साहित्य में समकालीन साहित्य का आरम्भ माना जाता है ।
समकालीनता से आपका क्या तात्पर्य है? और समकालीन साहित्य की वर्तमान चुनौतियाँ
कौन-कौन सी हैं?
काशी नाथ सिंह : देखो! समकालीन
तो मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि हर युग में जो लिखा जाएगा उस दौर के लेखक के लिए
वह समकालीन ही होगा। अस्सी के दशक के बाद के साहित्य को तुम समकालीन कहती हो जबकि
समकालीन कहानी पर लेख साठ के दशक के आसपास ही लिखे गए थे। इस तरह से जो लिखने वाला
था उसके समय का जो लेखन था वह उसका समकालीन है या हमारे समय का लेखन हमारे लिए
समकालीन है। जो बाद के लोग लिख रहे हैं वे अपने लेखन को समकालीन कहेंगे। उनके बाद
जो लिखेंगे वे भी अपने को समकालीन लेखक कहते रहेंगे। इस मायने में समकालीन बहुत
व्यापक अर्थ रखता है। इसे तुम सीमित नहीं कर सकती। यानी ऐसे भी लेखक हैं जो कबीर
को अपना समकालीन कहते हैं। क्योंकि कबीर ने लगभग वही मूल्य स्थापित किए हैं जो
अपने यहाँ संविधान में हैं। वे हिन्दू और मुस्लिम दोनों को फटकारते हैं, और ये
चीज़ें आज भी चल रही हैं । इस तरह से जो सदियों पुराना लेखक है, वह भी हमारा
समकालीन हो सकता है। ऐसा मुझे लगता है। अब यह है कि उसके भीतर वे क्षमताएँ होनी
चाहिए, जो अपने समय में लिखते हुए भी सौ साल बाद के भारत को देख सके। तो समकालीन
का कोई सीमित अर्थ मेरे दिमाग में नहीं है। अब रही बात इसकी चुनौतियों की तो इसकी
चुनौतियाँ ग्लोबलाइजेशन, उदारीकरण, निजीकरण की हैं, जो पूंजीवादी देशों की ख़ासियत
रही है। जैसे विदेशों में, अब तो यहाँ भी है, हवाई जहाज बहुतों के निजी चलते हैं।
विदेशों में तो रेलवे तक निजी हैं जिनके लिए अपने यहाँ अलग से कैबिनेट हैं,
मंत्रालय हैं। पब्लिक सेक्टर का निरंतर सिकुड़ते जाना और निजी पूँजी का विस्तार
होते जाना,ये जो समस्याएँ पैदा हुई हैं, यह ग्लोबलाईजेशन और उदारीकरण के कारण हुई
हैं। इस पूरी दुनिया के बदले जाने का प्रमुख कारण रूसी समाजवाद का विघटन और वहाँ
समाजवाद का असफल होना है जिससे पूरी दुनिया को धक्का लगा है। पहले देखो! तीन
दुनिया मानते थे। एक रूस है, एक अमेरिका है, बाकी विकास करने वाली दुनिया है। अब
एकमात्र अमेरिका रह गया है बाकी उसके पिछलग्गू हैं। कोई भी देश किसी भी नीति
पर, बगैर अमेरिका के अपना अलग निर्णय नहीं ले सकता। हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि
हम विकास की सारी बातें करते हैं, विकास करना चाहते हैं लेकिन हम, हम रह जाते हैं
कि नहीं, यह देखने वाली बात है। हमारी सब से बड़ी आवश्यकता अपनी स्वायतता बनाए रखते
हुए विकास करने की है। हमारे प्रधानमंत्री हर देश में घूम रहे हैं। लोग कहते हैं
कि कटोरा ले कर घूम रहे हैं। हर देश के पूँजीपतियों से वे मिल रहे हैं और कह रहे
हैं हमारे देश में निवेश करो। अब स्थिति यह है कि जो आदमी निवेश करेगा वह मुफ्त
में धर्मार्थ करने के लिए तो नहीं करेगा। यानी वो आपकी भलाई के लिए आएगा? सबसे
पहले कोई भी अपने लाभ और हानि के बारे में सोचता है कि वहाँ निवेश करने से हमें
क्या मिलेगा? तब वो निवेश करेगा। तात्कालिक तौर पर यह आम जनता को या जनसाधारण को
लगता है कि बड़ा फायदेमंद है। देखिए! हमारे प्रधानमंत्री हमारे देश के लिए कितना कर
रहे हैं। हर जगह लोगों से निवेश करने के लिए निवेदन कर रहे हैं। ऐसी ट्रेन चलाई
जाएगी, ऐसा हवाई जहाज उड़ाया जाएगा, ये होगा, वो होगा। चुनौती सबसे बड़ी यह है कि
विदेश की गति के साथ अपनी गति को हम बनाए रखें। लेकिन अपने को भी हम बनाए रखें,
अपनी स्वायतता, निजी व्यक्तित्व, अहमियत और अस्मिता के साथ। इसीलिए जब वैश्वीकरण
की बात आई तब साहित्य में आंचलिकता की बातें चलने लगीं। इसी वैश्वीकरण की देन है
जनजातियों की चिंता, आदिवासियों की चिंता। यानी वे स्वयं अपने लिए सतर्क हो उठे।
अस्मिता का सवाल था, अपनी पहचान का सवाल था, हमारी भाषा मिट रही है हमारा खान-पान,
कपड़े-लत्ते मिट रहे हैं । हमारे तीज-त्यौहार मिट रहे हैं। झारखण्ड में, छत्तीसगढ़
में, मध्य प्रदेश में, आंध्र प्रदेश में जहाँ कहीं भी जनजातियाँ रह रही हैं उनके अंदर खलबली मची हुई है। एक लोकेलिटी की,
अस्मिता की, आंचलिकता की चिंता इनके भीतर
जगी है। कुछ ऐसे ही जैसे मान लो हमारा बेटा अमेरिका चला गया। हमारा अपना गाँव,
जमीन, रिश्ते-नाते जो कुछ भी अपना था सब कुछ छूट गया। तुमने ‘रेहन पर रग्घू’ पढ़ा
होगा, उसमें यह सब है। मोहल्ले में कोई बूढ़ा मर जाता है और उसके बेटों को ख़बर तक
नहीं होती। पड़ोसी मिल कर उसे फूँकते हैं। उसके बाद अगर बेटा आता भी है तो श्राद्ध
के समय और फिर लौट कर चला जाता है। उसके भीतर कोई भी इस तरह की फीलिंग नहीं होती
कि यह हमारा बाप था जिसने मुझे पढ़ाया-लिखाया था, पाल-पोस कर बड़ा किया था। इस तरह
से संवेदनाओं का निरंतर समाप्त होते जाना और संवेदनहीन होते जाना, ये चुनौतियाँ
हैं।
प्रियंका
कुमारी : बतौर लेखक क्या आपकी सारी
चिंताएँ अभिव्यक्त हो पाती हैं?
काशी नाथ सिंह : ना, जो कुछ
मुझे कहना चाहिए वो सोचता हूँ कहने के लिए लेकिन नहीं कह पाताहूँ। इसके कुछ और
कारण हैं। जैसे कायदे से बार-बार मेरे दिमाग में यह आ रहा है कि मुझे प्रेम को
डिफाइन करना चाहिए। मेरी रचनाओं में कहीं सच्चे अर्थों में स्त्री नहीं है। मैं
क्या सोचता हूँ एक स्त्री के बारे में, सेक्स के बारे में या स्त्री सम्बंधित अन्य
सभी बातों के बारे में। यह लिखना चाहिए लेकिन नहीं लिख पाता हूँ। अभी तक मेरे पास
वो भाषा नहीं आ पाई है।
प्रियंका
कुमारी - आपकी रचना ‘महुआ चरित’ की महुआ के चरित्र के माध्यम से स्त्री जीवन का ही
उल्लेख हुआ है?
काशी नाथ सिंह : कोशिश मैंने
की है, लेकिन उसे पर्याप्त नहीं मानता।
प्रियंका
कुमारी : आपने ‘गपोड़ी से गपशप’ पुस्तक में कहा है ‘प्रेम पर मैं मैच्योर हो कर लिखूँगा’ तो क्या अब मान लिया जाय
कि वह समय आ गया जब आप प्रेम पर लिखेंगे?
काशी नाथ सिंह : (हँसते हुए)
मुझे ध्यान था कि टॉलस्टॉय ने बुढ़ापे में प्रेम पर लिखा था। मेरे मन में भी यही
बात थी। लेकिन फिलहाल मैं नहीं लिख पा रहा हूँ। मेरे पास वो हिम्मत नहीं है। साहस की
कमी है क्यों कि एक तो अपनी छवि ख़राब होने की आशंका है, दूसरे परिवार पर भी इसका
असर पड़ता है। परिवार में पैदा हुए हैं, परिवार में रहे हैं, परिवार के लोग हैं,
बच्चे-बच्चियाँ, नाती, पोता दुनिया भर के लोग हैं तो इन सब वजहों से संभव नहीं हो
पा रहा है।
प्रियंका
कुमारी - आपने हमेशा से वही किया है जो
लीक से हट कर रहा है। वह विवादित भी रहा है। वह चाहे ‘काशी का अस्सी’ हो या ‘महुआ चरित’
हो या अभी हाल में छपा उपन्यास ‘उपसंहार’ हो। ऐसे में आपको अपनी छवि ख़राब होने की
चिंता है या कोई और बात है?
काशी
नाथ सिंह : मुझ में वो क्षमता नहीं है । देखो! आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने
‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ लिखी। भट्टिनी को बहुत लोग आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी
से जोड़ कर देखते हैं। बात चाहे जो भी हो लेकिन द्विवेदी जी में वो साहस था कि
शान्ति निकेतन में रहते हुए उन्होंने वो उपन्यास लिखा । कहीं न कहीं मेरे भीतर वो
हिम्मत नहीं है । जब तक मैं अकुंठ नहीं हो जाता हूँ तब तक नहीं लिख पाता हूँ। क्योंकि
देखो! लेखक के बारे में एक चीज़ मैं तुम्हें बताता हूँ, लेखक जब यह भूल जाए कि वह परिवार में
है। उसका कोई दोस्त है। उसका कोई दुश्मन है। यानी एक ऐसी स्थिति है जहाँ वो अपने
को हर चीज़ से निरपेक्ष मान ले। वो साधू संत की तरह दुनिया को देखे। जिसका दुनिया
से इतना राग हो कि उसे उस राग का पता ही न चले। अब मैं इसे कैसे व्यक्त करूँ?
लेकिन वो हर दुनियावी चीज़ से ऊपर उठ कर के उसे देखे। कोई उसे गाली दे, धमकी दे,
मारे-पीटे चाहे जो कुछ भी करे, उसे उसकी परवाह न रहे। मैंने‘काशी का अस्सी’ लिखने
के बाद गालियाँ सुनीं, धमकियाँ सुनीं। ‘उपसंहार’ के साथ भी ऐसा ही हुआ। ‘उपसंहार’
जब छप के आया तो करीब तीन-चार महीने के बाद जब बी. जे. पी. की सरकार सत्ता में आई
तब मेरे पास करीब सौ-डेढ़ सौ फोन आए कि साले! तुम्हें लिखना है तो तुमने ईसा पर
क्यों नहीं लिखा, मोहम्मद पर क्यों नहीं लिखा ।ये ‘बजरंग दल’ या ‘विश्व हिन्दू
परिषद्’, इस तरह के लोग थे । उनका कहना था कि उनके ईश्वर को मैं साधारण आदमी बना
रहा हूँ। इस तरह से लिखना जोख़िम का भी काम है। इस मामले में मैं अब तक तो कायर
रहा हूँ। मुझमें अभी तक प्रेम के बारे में, सेक्स के बारे में लिखने की हिम्मत
नहीं आई है।
प्रियंका
कुमारी - चूँकि आप बनारस से हैं
।बनारसप्रारम्भ से ही भारत का सांस्कृतिक केंद्र रहा है और यह सामासिक संस्कृति का
भी महत्वपूर्ण केंद्र है। ऐसे में मेरा सवाल यह है कि मुसलमान-जीवन आपकी रचनाओं से
क्यों उपेक्षित रहा?
काशी
नाथ सिंह : देखो! दरअसल उस जीवन से मेरा कोई परिचय ही नहीं है। कोई ऐसा मुस्लिम
परिवार नहीं मिला जिस परिवार में मेरा आना-जाना, उठना-बैठना, घुलना-मिलना रहा हो।
उनकी समस्याओं एवं मुश्किलों को जानने का मौका मिला हो। और लेखन में किसी भी
विषय-वस्तु को उतारने से पहले उससे केवल एक-दो बार रू-ब-रू होने से नहीं होता है। हम
उनके घर ईद या मुहर्रम जैसे त्योहारों पर जाते हैं। उनसे मिलते हैं। यहाँ मशहूर
शायर नज़ीर बनारसी हैं। उनके बेटे ज़हीर साहब हैं। मैं उनके घर त्योहारों पर जाता
हूँ। उनसे मिलता हूँ। बचपन में मेरे कुछ मुसलमान मित्र भी थे। मैं उनके यहाँ
आता-जाता रहता था। उन के यहाँ बुर्का प्रथा इतनी ज्यादा है कि आपको खिला-पिला
देंगे, आपके साथ खा-पी लेंगे। आप उनके घर जाएँगे, बैठेंगे बातचीत कर लेंगे लेकिन
उनके घर आँगन में आप का प्रवेश वर्जित है। आप उनके घर-आँगन में जा नहीं सकते हैं। हाँ,
दोस्त हमारे मुसलमान ज़रूर हैं लेकिन मैं उस घर को, उस परिवार को, उसकी ज़िन्दगी को
जान नहीं पाया। ऐसे में लिखता तो झूठ होता या कल्पित होता। यह मुझसे नहीं होता है।
प्रियंका कुमारी:
अगला सवाल बनारस से ही संबंधित है। बनारस शुरू से ही साहित्यिक केंद्र रहा
है। जब कि आज बनारस में गिने-चुने साहित्यकार बचे हैं जिसमें आप और ज्ञानेन्द्रपति
जी आदि हैं। आज जब सारे साहित्यकारों का रुख़ दिल्ली की ओर है, तब वह कौन-सा मोह है
जो आपको बनारस में घेरे हुए है ? छोटे शहरों जैसे इलाहाबाद, बनारस, कानपुर, भोपाल,
पटना आदि से साहित्यकारों के पलायन को आप किस रूप में देखते हैं?
काशी
नाथ सिंह :बनारस से बाहर जितने भी लेखक गए वो पलायन साठ के आस पास शुरू हुआ। साठ
के बाद ही कवि केदार नाथ सिंह पडरौना गए। विष्णु चंद्र शर्मा एवं त्रिलोचन जी
दिल्ली गए। नामवर जी सन् 65 में दिल्ली गए। विद्यासागर नौटियाल देहरादून में
प्रैक्टिस करने लगे। ये सारे लोग गए और काम की तलाश में गए। रोजगार के लिए गए। क्योंकि
बनारस में संभावनाएँ नहीं थीं। पटना, इलाहाबाद और कानपुर आदि इन छोटे शहरों के लेखक
यदि दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता गए तो रोजगार के लिए गए। पचास के आस पास के लेखक
कलकता जाते थे क्योंकि तब रोजगार कलकत्ते में ही संभव था। आज़ादी के बाद जब दिल्ली
का विकास शुरू हुआ तो संभावनाएँ दिल्ली की तरफ गईं। फिर सन् साठ के आस पास बम्बई
का विकास दिखाई पड़ा तो लोग बम्बई की तरफ गए। वस्तुतः रोजी-रोटी की समस्याएँ लोगों
को छोटे शहरों से बड़े शहरों के तरफ ले गईं। जहाँ नौकरी और काम-धाम के लिए ज्यादा
गुंजाइश थी। मैं भी गया होता लेकिन मुझे सन् 64-65 में ‘काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय’ में नौकरी मिल गई। मेरे साथ मेरे पिता जी थे, माँ थीं, बड़ी भाभी
थीं, मेरे अपने बच्चे थे, भाभी के बच्चे थे । गाँव बगल में था जहाँ खेतीबारी होती
थी। दरअसल जब यहाँ नौकरी नहीं मिल रही थी और लगा कि संभावना यहाँ नहीं है तो मैं जाने वाला था। हमारे गुरु आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी जब ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ से निकाल दिए गए और चंडीगढ़ जा रहे
थे तब उनके साथ उनके कुछ शिष्य भी जा रहे थे। मैंने द्विवेदी जी से कहा कि मैं भी
आपके साथ चलना चाहता हूँ। द्विवेदी जी ने कुछ सोचते हुए कहा, देखो! नामवर को तो
नौकरी मिलेगी नहीं क्योंकि वे बनारस से निकाले गए हैं दूसरे, सागर से भी निकाले गए
हैं। अब उन्हें आगे नौकरी मिलेगी या नहीं, मैं नहीं कह सकता। तुम्हारे पिता जी की
क्या उम्र है? माँ जीवित हैं कि नहीं? मैंने उनको अपने बारे में सब बताया।
उन्होंने कहा कि यदि आप चले जाएँगे, तब घर कौन देखेगा? क्योंकि नामवर जी बेकार हैं
और आपके पिताजी भी रिटायर हो गए हैं। उन्होंने कहा कि तुम यहीं रहो और स्ट्रगल
करो। तुम्हारा जैसा कैरिअर रहा है देखो! क्या होता है। संयोग से मुझे सन् 1964
में ही नौकरी मिल गई। एम. ए. करने के बाद सौ रुपये स्कॉलरशिप मिलती थी और जब
स्कॉलरशिप बंद हुई तो उसी के तत्काल दो-तीन महीने बाद बनारस में ही एक व्याकरण की
पुस्तकालय खुली थी। मेरा पी-एच.डी. में व्याकरण पर काम था इसलिए वहाँ मुझे दो सौ
रुपये पर काम मिल गया। अभी वहाँ काम कर ही रहा था तभी हिन्दी विभाग में
रिक्ति निकली और मेरी नियुक्ति वहाँ हो गई।
इसके बाद लगा कि लेक्चरर्स ग्रेड दिल्ली में भी वही है जो बनारस में है तो फिर
दिल्ली क्यों जाएँ? रह गई बात उसके बाद की तो धीरे-धीरे जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं।
माँ मेरे ही पास रहती थी। सन् 1972 में माँ की मृत्यु हुई । सन् 1985 में पिता जी
गुजरे। भइया की बेटी हमारे ही साथ रह कर पढ़ती थी। इंटरमीडिएट के बाद वह दिल्ली चली
गई। तब मैं जिसे परिवार कहते हैं, पत्नी और पाँच बच्चों के साथ जीवन में पहली बार
सन्1985 में रहा।
प्रियंका कुमारी: ‘मोहल्ला
अस्सी’ से क्या अनुभव रहा?
काशी
नाथ सिंह : देखो! जब मैंने ‘मोहल्ला अस्सी’ बनाने के लिए चंद्र प्रकाश जी को हाँ की
थी तो उस समय मेरे मन में दो तीन बातें थी। एक तो जो ग़ालिब की पंक्ति है न ‘जो
तेरे नज़्म से निकला वो परेशाँ निकला’। मैंने उनसे कहा कि बंबई जो भी गया चाहे वो
प्रेमचंद गए हों, भगवती चरण वर्मा गए हों, अमृत लाल नागर गए हों सब वहाँ से
पिट-पिटा कर अपमानित होकर लौटे हैं । इस पर चंद्र प्रकाश जी का कहना था कि वे लोग
गए थे और मैं यहाँ आया हूँ। बहरहाल! मैंने कहा कि एक बात का
ध्यान रखिएगा कि लेखक का सम्मान बचा रहना चाहिए। क्योंकि और सभी लोगों के बड़े बुरे
अनुभव रहे हैं । मैं वह अनुभव बर्दाश्त नहीं कर सकता। आप हमारे उपन्यास पर फ़िल्म
बनाएँ और हम अपमानित भी होते रहें। उन्होंने कहा आप निश्चिन्त रहिए। मैं जब शूटिंग
शुरू होने वाली थी तब बम्बई गया था। फ़िल्म सिटी में पूरे मोहल्ले का लोकेशन बनाया
गया था। उस समय मैंने देखा कि चंद्र प्रकाश जी समेत अन्य सभी कलाकार वह चाहे
साक्षी तंवर हों, रवि किशन हों, मल्लाहिन की एक्टिंग करने वाली आजमगढ़ की लड़की हो या
बाकी के जितने कलाकार हों इवेन सन्नी देओल भी यह जानने के बाद कि जिस उपन्यास की
विषयवस्तु पर फिल्म बन रही है, उसका लेखक आया है, जितना सम्मान मिलना चाहिए एक
लेखक को उतना उन्होंने मुझे दिया। मेरे जाने पर खड़े हो जाते थे। उठने पर उठ जाते
थे। चंद्र प्रकाश जी स्वयं बहुत आदर करते थे। मैंने देखा ऐसी कोई भी चीज़ नहीं है
जिससे अपमानित होने का भाव महसूस हो सके। इन कारणों में से एक कारण यह भी था कि
चंद्र प्रकाश जी ने मेडिकल में एम. बी. बी. एस. किया था। उन्होंने महीने भर का इंटर्नशिप
भी किया था। इसके बाद भी वे उसे छोड़कर फ़िल्मों में आ गए। शुरू से ही उनका ध्यान
फ़िल्मों की तरफ था। वे बहुत पढ़े-लिखे और इतिहास के, वेदों के, पुराणों के, नाट्य-शास्त्र
के पंडित आदमी हैं। उन्होंने‘चाणक्य’ सीरियल बनाया था जो अपने ज़माने में बहुत पॉपुलर
हुआ था। उन्होंने अमृता प्रीतम के उपन्यास पर ‘पिंजर’ फ़िल्म भी बनाई थी। इसी को
ध्यान में रख कर मैंने फिल्म बनाने के लिए उन्हें ‘हाँ’ बोला था। चंद्र प्रकाश जी
ने जैसे चाहा वैसे फ़िल्म बनाई। फिल्म बनने के बाद दूसरी समस्या यह आई कि फ़िल्म का
जो प्रोड्यूसर था वह दूसरे दिमाग का था। वह फ़िल्मी दुनिया का आदमी नहीं था। पहले
वह दूसरा धन्धा करता था। उसके पास पैसा हुआ तो सोचा कि इसे फिल्मों में लगाना
चाहिए और पैसा पैदा करना चाहिए। जिससे एक तरह से देखा जाए तो प्रोड्यूसर और
डायरेक्टर के बीच की वैचारिक टकराहट होने की वजह से फ़िल्म आज तक रुकी हुई है।
हालाँकि हफ्ते भर पहले सनी देओल का ‘द टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ में बयान आया था कि
फ़िल्म तो आएगी भले ही थोड़ी देर हो रही है। लेकिन फ़िल्म रिलीज होगी। चंद्र प्रकाश
द्विवेदी भी इस बात से आश्वस्त हैं कि देर-सबेर ही सही फ़िल्म रिलीज होगी। ‘उड़ता
पंजाब’ फिल्म को भी सेंसर बोर्ड ने रिजेक्ट कर दिया था, फिर पास किया। इसी तरह से
इन लोगों की भी लड़ाई चल रही है।
प्रियंका कुमारी
: अब ‘उपसंहार’ पर आते हैं। प्रस्तुत
उपन्यास में एकतरफ तो आप राधा को अत्यंत प्रासंगिक दिखाते हैं वहीं दूसरी तरफ
रुक्मिणी को नंगा करवा कर उससे हल जुतवाते हैं, इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
काशी नाथ सिंह : वस्तुतः राधा
के बारे में लिखने के दौरान मुझे लगा कि मुझे राधा के चरित्र को इस रूप में दिखाना
है जैसा वह पहले किसी दूसरे की नज़र में न आया हो। परंतु उपन्यास में राधा का
चरित्र पूरी तरह से उभर नहीं पाया है। वह सिर्फ एक झलक भर है। मैं अपने से इस की
आलोचना करता हूँ। हमारे यहाँ जितने भी चित्र मिलते हैं वह राधा और कृष्ण के ही
मिलते हैं। कृष्ण और रुक्मिणी के नहीं मिलते हैं। इन बातों से ज़ाहिर होता है कि
प्रेम को ज्यादा महत्त्व उस समय दिया गया था। मेरे दिमाग में तब सिर्फ यही था कि
बरसाने के बाद राधा कृष्ण से मिली थीं या नहीं? पर कहीं उसका उल्लेख नहीं मिलता है।
‘उद्धव शतक’ में ऐसा जिक्र आता है कि वृद्धावस्था में कृष्ण को मेले में राधा
दिखाई दी थीं। वे दूर से देखते हुए कहते हैं कि देखो! राधा कितनी बूढ़ी हो गई है। और
मथुरा बरसाने से दूर ही कितना था, आस पास ही है दोनों। ऐसे में यह कैसे हो सकता है
कि इतने वर्षों तक कृष्ण मथुरा में रहे हों और वे दोनों न मिले हो। कृष्ण को भले
ही मौका न मिला हो पर राधा तो मिल सकती थी। इस संभावना को ध्यान में रखते हुए
मैंने कल्पना की थी कि वो मालिन के रूप में कृष्ण से मिलने आती है। जब कृष्ण राजा
हो गए साधारण लोगों से उन्हें नहीं मिलने दिया जा रहा था तब तो वह नहीं जा सकी। परन्तु
जब कृष्ण संकट के दिनों में जेल में थे तो वह उनसे मिलने जाती है। उन्मुक्त प्रेम
का यह रूप हमें याद हो आता है। वह कृष्ण से मिलने के दौरान यह कहती है कि अब जब
तुम्हें मिलना होगा तो मैं तुम्हें यहाँ नहीं मिलूँगी। वह कृष्ण से जमुना के
कछारों में मिलने के लिए कहती है, जहाँ उनका प्रेम फला-फूला था। यहाँ उस के भीतर
का अहम् पैदा होता है कि चाहे भले ही कृष्ण राजा हो गए हों या भले जो कुछ भी हो गए
हों पर है तो वह मेरा कन्हैया ही। वह कृष्ण के लिए दही ले कर जाती है। यहाँ मैंने
यह दृश्य भर दिखाया है और इस दृश्य के माध्यम से मैंने राधा के पूरे व्यक्तित्व को
प्रोजेक्ट करने की कोशिश की है कि असल में राधा है क्या? समग्र उपन्यास में वह एक
ध्वनि की तरह आती है। ऐसी ध्वनि जो छा जाती है। दूसरे रुक्मिणी, द्वारका के जो
द्वारिकाधीश कृष्ण हैं उनकी पत्नी है। इसलिए उसका जो रूप दिखाई देता है वह
परंपरागत है। आज भी लोग पशु की तरह या मवेशी की तरह औरत को ट्रीट करते हैं। यह
ट्रीट कोई और नहीं वर्णव्यवस्था करती है जिसने ब्राह्मणवादी व्यवस्था या मनुवादी
सोच का निर्माण किया है। मनुस्मृति में स्त्री, पशु से या मवेशी से भिन्न नहीं है।
इस व्यवस्था में औरत से जैसा चाहो वैसा करवा लो,वह करने के लिए मजबूर है। यहाँ
राधा तो मुक्त है लेकिन जो पत्नी है समग्र राजमहल की रानी है, वह हल में जोती जाती
है। यह प्रसंग मैंने ऐसे ही नहीं ले लिया है। यह महाभारत के अनुशासन पर्व में आता
है। एक नारी की
समाज में जो हैसियत है उसको दिखाने के लिए मैंने रुक्मिणी का चरित्र गढ़ा है।
रुक्मिणी को जो जोतता है वह है ब्राह्मणवादी मानसिकता का परिचायक दुर्वासा है। इस
पर लोगों ने काफी हो-हल्ला मचाया था। मेरे पास तो बाद में फोन आया परन्तु इसके
प्रकाशक अशोक महेश्वरी
जी के पास पहले फोन आया था कि यह प्रसंग लेखक ने कहाँ से लिया है? इस प्रसंग को
मैंने तो दूसरी जगह से लिया था। बाद में मथुरा के किसी महंत से इस प्रसंग के बारे
में अशोक महेश्वरी जी ने पूछा था। उसीने बताया था कि महाभारत के अनुशासन पर्व में
यह प्रसंग आता है। फिर मैंने उस किताब को पूरा पढ़ा तो देखा कि रुक्मिणी के साथ
दुर्वासा ने यही किया था। कृष्ण से दुर्वासा ने कहा था कि तुम अपने शरीर पर खीर
पोतो तो उन्होंने स्वयं खीर पोती थी। जबकि रुक्मिणी के शरीर पर दुर्वासा ऋषि ने
अपने खुद के हाथों से खीर पोती थी। फिर उन्होंने छकड़ा मँगवाया और उस छकड़े में
रुक्मिणी को जोता। वे स्वयं चाबुक ले कर छकड़े पर बैठे और बीच शहर से उसे घोड़े की
तरह मारते हुए ले गए थे। जब वे द्वारका के बाहर जंगल में आ गए तब उन्होंने कहा था,
कृष्ण की मृत्यु तो एक साधारण आदमी की तरह होगी। लेकिन तुम्हारा सौन्दर्य या
तुम्हारा जो कुछ भी है वह अक्षुण्ण बना रहेगा। मैंने रुक्मिणी के चरित्र के माध्यम
से नारी के ‘ट्रेडिशनल फॉर्म’ को उतारा है। यानी जो एक नारी की परंपरागत छवि इस
देश में रही है उस रूप में उतारा है । यहाँ राधा आधुनिक नारी है और रुक्मिणी
परंपरागत नारी है।
प्रियंका कुमारी:
मौजूदा दौर विमर्शों का दौर है। इससे कोई भी लेखक अछूता नहीं रह सकता।
‘उपसंहार’ के पात्र जरा के माध्यम से आपने आदिवासी-विमर्श का उल्लेख करना चाहा है
या कुछ और?
काशी
नाथ सिंह : जरा के चरित्र के माध्यम से मैंने एक नया काम किया है जो मुझे अध्ययन
के दौरान पता चला कि जरा जिसने कृष्ण को मारा था वह बहेलिया था। मैं ढूँढ़ता रहा कि
कृष्ण को मारने वाला कोई साधारण व्यक्ति नहीं रहा होगा। महाभारत में केवल जरा नाम
आता है जिसने कृष्ण को मारा था। मेरे दिमाग में गांधारी का कृष्ण को दिया गया वह
शाप याद आ रहा था कि ‘जिस तरह से तुमने कौरव वंश को आपस में लड़ा कर समाप्त किया उसी
तरह से यादव वंश भी एक दिन आपस में लड़ कर समाप्त हो जाएगा’। तब मुझे लगा कि जब
कृष्ण यादव थे तो उनको मारने वाला भी कोई यादव ही होगा। कृष्ण को कोई दूसरा क्यों
मारे। पढ़ने के दौरान मुझे पता चला कि वासुदेव की चार बीवियाँ थीं । इनमें से दो
देवकी और रोहिणी का तो उल्लेख मिलता है। देवकी के पुत्र कृष्ण और रोहिणी के पुत्र
बलराम थे। परन्तु बाकी की दो बीवियों का उल्लेख नहीं मिलता। इसका प्रसंग मुझे हित
हरिवंश में मिला जिसमें यह बताया गया है कि वासुदेव की अन्य दो पत्नियों में से
तीसरी का नाम सुतनु और चौथी का नाम सुतारा था। इनमे से एक जनजाति समुदाय से थी। जनजातिसमुदाय
की स्त्री, वासुदेव कीपत्नी कैसे थी? यह मेरे दिमाग में घूम रहा था। तब मुझे लगा
कि जब वासुदेव कृष्ण के साथ द्वारका गए थे तब वे आज की तरह केवल गद्दी पर बैठे
नहीं रहे होंगे। वे जंगलों में शिकार के लिए जाया करते रहे होंगे। जब वे जगंलों
में जाया करते होंगे तो वे वहीं खाते-पीते होंगे, ठहरते होंगे तो वही सुतनु या
सुतारा जो भी उन्हें मिली होंगी। फिर संबंध हुआ होगा। उसके बाद फिर गर्भ रहा होगा
और तब जरा पैदा हुआ होगा। यह उस समय के राजाओं की परंपरा में था। चूँकि यह मामला
आदिवासी का था इसलिए वासुदेव उन्हें ले कर के द्वारका अपने राजभवन में नहीं गए
होंगे। वह और उसका बच्चा दोनों जंगल में ही रह गए होंगे। इसीलिए वह अपने को
वासुदेव का बेटा बताता है। ऐसा मैंने अनुमान लगाया है।
प्रियंका कुमारी:
बलराम और कृष्ण के बीच जो संवाद है, वह आपकी कल्पना है या उसे आपने कहीं से
लिया है?
काशी
नाथ सिंह : बलरामका पूरा प्रसंग लिखते समय मुझे गाँव का पूरा प्रसंग याद आ रहा था।
गाँव में जब हम लोग दुआर पर सोते थे। तब रातभर बातें किया करते थे। इसी पारिवारिक
प्रसंग को मैंने कृष्ण और बलराम के बीच संवाद के परिप्रेक्ष्य में दिखाया है ।जहाँ
कृष्ण और बलराम खुल कर बातें किया करते हैं। क्योंकि कोई दूसरा नहीं है जो कृष्ण
से इस तरह से बात कर सके। वह बड़ा भाई ही कर सकता है। बलराम
कृष्ण पर दोषारोपण भी करते हैं। मैंने एक तरह से बलराम के चरित्र को खड़ा किया
है क्योंकि बलराम का ये रूप न कहीं पुराणों में है और न महाभारत में है। यह मैंने
कल्पना की है। बलराम युद्ध के पहले बिना बताए नाराज़ हो कर चले गए थे। वे इस पक्ष में
नहीं थे कि उनके प्रिय शिष्य दुर्योधन और भीम के बीच युद्ध हो। परंतु कृष्ण इस
युद्ध के पक्ष में थे और भीम का भरपूर साथ दे रहे थे। इस पर बलराम नाराज़ हो हिमालय
पर चले गए थे। बताया यह जाता है कि वे पुनः उसी दिन लौट कर आए थे जिस दिन दुर्योधन
और भीम के बीच युद्ध होना था। यह तो पुराणों में मिलता है लेकिन बाकी की जो कल्पनाएँ
हैं वे हमारी हैं। मतलब कि यह सिर्फ पुराणों का अनुवाद नहीं है। इसमें कल्पनाएँ
ढेर सारी हैं। जैसे उपन्यास जहाँ से आरम्भ होता है वहाँ एक प्रसंग आता है मछुआरों
और मगर का पुल बनाना। समुद्र में मगर नहीं होता है। ऐसे ही द्वारका में बारिश के
दिनों में सड़कों पर मगर तब घूमते हैं जब नदी घूमती है। नदी द्वारका में होगी।
इसतरह से बहुत सी ऐसी चीज़ें हैं जिनकी कल्पना मैंने की है ।
प्रियंका कुमारी:‘उपसंहार’ में एक प्रसंग चुड़ैल का आता है,वह कुछ
स्वाभाविक नहीं लगता है?
काशी
नाथ सिंह : यह जो पूरा दृश्य है इसका कुछ अंश महाभारत में आता है और कुछ नहीं आता
है। जो नहीं आता है वह लोक-कथाओं में आता है। कृष्ण के सन्दर्भ में तो लोक-कथाओं
में भी चीज़ें नहीं आती हैं। लेकिन लोक में चुड़ैल आदि का प्रसंग आता रहता है। इसे मैंने
वहाँ से जोड़ा है। जब सब है तो चुड़ैल क्यों नहीं? गिद्ध का भी प्रसंग आता है। जब
कुरुक्षेत्र में लाशें बिछी होती हैं तो बड़े-बड़े आकार के गिद्ध आते हैं और उन्हें
खाते हैं। एक और सूत्र मुझे मिलता है कि गरुण रथ पर चढ़ कर कृष्ण युद्ध किया करते
थे, वह सूर्य का दिया हुआ था। कर्ण सूर्य का बेटा था। अपने बेटे को मारने के लिए
कोई भला उसके शत्रु को रथ कैसे दे सकता है? इसलिए मैंने दिखाया है कि कृष्ण का रथ
जो है वह कुरुक्षेत्र की सीमा पर ही रुक गया आगे नहीं गया। इसके बाद जिस रथ पर
सवार होकर कृष्ण ने युद्ध किया था वह रथ अग्नि ने अर्जुन को दिया था। और जैसे ही
युद्ध समाप्त हुआ उस रथ में अपने आप आग लग गई और वह रथ जल गया। यह भी एक प्रतीक
है। इतिहास अपना रोल प्ले करता है। आज़ादी मिली महात्मा गांधी मारे गए। क्योंकि
उनकी भूमिका ख़त्म हो गई थी। भारत चीन के बीच में युद्ध हुआ जिसमें भारत अपमानित
हुआ और नेहरू सन् चौंसठ में चल बसे। इतिहास की सबके साथ बराबर अपनी एक भूमिका रही
है। ऐसे ही कृष्ण की भूमिका महाभारत तक थी। महाभारत के बाद कृष्ण की जो ईश्वरीय
शक्तियाँ थीं वो समाप्त हो गयीं। यह इतिहास में संकेत में मौजूद था। लेकिन उन
शक्तियों के जाने का विवरण जो है वो मेरा है। जैसे समुद्र का पूरा घास का मैदान बन
जाना और वहीं चारों घोड़े जो रथ में जोते जाते हैं उनका दौड़ते हुए जाना। यानी अपनी
सारी शक्तियों का जो महाभारत के युद्ध के दौरान कृष्ण को मिला था धीरे-धीरे समाप्त
होना वे देखते रहे। दूसरे, वे बताते हैं कि कुछ क्षणों के लिए हर मनुष्य ईश्वर हुआ
करता है। मैं कुछ ज्यादा देर के लिए था और फिर एक सामान्य आदमी की तरह जीवन बसर
करने के लिए मजबूर हो गया।
प्रियंका कुमारी :
आख़िरी सवाल! चूँकि आप एक अच्छे विद्यार्थी, शोधार्थी एवं प्राध्यापक रहे
हैं और उच्च कोटि के साहित्यकार भी हैं । आपका अपना एक व्यापक अनुभव संसार है। ऐसे
में हमारे जैसे शोधार्थियों के लिए आप क्या कहना चाहेंगे?
काशी
नाथ सिंह : देखो! मेरा एक अनुभव है। शोध के काम को बहुत महत्वपूर्ण मान लेना या यह
मान लेना कि यह बहुत बड़ा काम होगा और इसी के सहारे मैं जीवित रहूँगी या हम जीवित
रहेंगे या यह हमेशा याद रखा जाएगा, यह सारी बातें एक भ्रम है, मिथ्या है। शोध
डिग्री के लिए की जाती हैं और शोधार्थी इसे डिग्री के लिए ही करें। सृजनात्मक लेखन
इस से एकदम भिन्न चीज़ है। कविता लिखना, कहानी लिखना, उपन्यास लिखना, आलोचना
करना,यह एकदम अलग चीज़ है। इसमें शोध की कोई भूमिका नहीं होती। शोध तुम्हें केवल एक
अच्छा काम करने के लिए मानसिक रूप से तैयार करता है। लेखक बनने में उसकी भूमिका
खाद मिट्टी की तरह होती है। जैसे खाद काम करता है मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए,
वैसे ही शोध जो है खाद की तरह है। मेरा ख्याल है कि नामवरसिंह के आलोचना कर्म में
उनके शोध की कोई भूमिका नहीं है। और यदि
है भी तो एम. फिल. में जो डिस्सर्टेशन लिखा था ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का
योगदान’ उसकी है। पी-एच. डी. को तो कोई जानता भी नहीं है। हमारे ही पी-एच. डी. को
कोई नहीं जानता। डिस्सर्टेशन मैंने लिखी है उसे भी कोई नहीं जानता। लेकिन जो
कहानी, उपन्यास और संस्मरण मैं लिखता रहा हूँ उसे लोग जानते हैं। मेरे साथ सिर्फ़
इतना है कि मैंने जो व्याकरण के क्षेत्र में काम किया था, नाम धातुओं पर, संयुक्त
क्रियाओं पर उससे मैंने भाषा के महत्व एवं उचित शब्दों के चयन को जाना। शब्दों की
क्या भूमिका होती है, एक विशेषण को कहाँ लगाना चाहिए, क्रिया में कौन-सी क्रिया
कहाँ लगेगी या संयुक्त बनाई जाएगी उसकी क्या भूमिका होती है? इसकी एक समझ मेरे
भीतर पैदा हुई जिसका उपयोग मैंने साहित्य लिखने के क्रम में किया। मुझे लगा कि कोई
भी आदमी पढ़े तो उसे लगे की वह उसकी अपनी भाषा है। उसके सोचने का ढंग भी इसी भाषा
में है। मेरी इच्छा थी कि मेरी जबान पाठक की जबान हो जाए। काशीनाथ सिंह की नहीं।
यह मैंने व्याकरण पर काम न किया होता तो शायद नहीं कर पाता। तो ऐसे ही तुम एम.
फिल. में ‘उपसंहार’ पर काम कर रही हो। आगे पी-एच. डी. करोगी। विषय चाहे जो भी हो, डिग्री
मिल जाएगी। मुझे यह विषय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दिया था जिस पर मैंने पी-एच.
डी. की थी। उस समय हमने कहा था कि पंडित जी यह विषय हमारे किसी काम का नहीं है।
मेरी दिलचस्पी तो लिखने-पढ़ने में है। मैं तो उपन्यास और कहानी पर काम करना चाह रहा
था। पंडित जी ने कहा तुम वह सब भी करते रहना और तुम यह भी काम कर लोगे। शोध
तुम्हें तुम्हारे काम के प्रति उद्भूत करता रहे, जगाता रहे यह ज्यादा ज़रूरी है । बाकी
ये तो सर्विस के लिए काम आने वाली चीज़ है । पी-एच. डी. या एम. फिल. की डिग्री
सिर्फ़ खाद की तरह है। इसे कर तुम महान काम कर जाओ यह ज़रूरी नहीं है।
प्रियंका कुमारी |
सम्पर्क -
प्रियंका कुमारी,
शोधार्थी,
संपर्क: कमरा संख्या -141, लेडिज हॉस्टल - 7, साउथ
कैंपस
हैदराबादविश्वविद्यालय,
हैदाराबाद – 500046
Email–pandeyp597@gmail.com
(यह साक्षात्कार बनारस
स्थित काशी नाथ सिंह जी के निवास पर रिकॉर्ड किया गया।)
(पल-प्रतिपल के अंक 81 से साभार.)
बेहतरीन साक्षात्कार ... साधुवाद |
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