रूचि भल्ला की कविताएँ
दुनिया का कोई भी कवि
अपनी कविताओं के लिए जरुरी संसाधन अपनी जमीन से जुटाता है. यह जमीन ही उसकी
कविताओं में जीवन के वे रंग भरता है जो अपने आप में अद्भुत है और आम हो कर भी सबसे
खास है. रूचि की कविताओं में इलाहाबाद उस जमीन की तरह आज भी उर्वर है जो अपने हर अंदाज
में जीवन्त रहता है. बकौल रूचि ‘जब तक जीती हूँ इलाहाबाद हुई जाती हूँ/ जब नहीं रहूँगी इलाहाबाद हो जाऊँगी मैं’. इधर के जिन कवियों ने अपनी रचनाओं के जरिए ध्यान आकृष्ट किया
है उनमें रूचि भल्ला का नाम प्रमुख है. रूचि ने कविता के साथ-साथ गद्य में भी अपने
को साबित किया है. हाल ही में उनकी कविताएँ साहित्य की जानी मानी पत्रिकाओं में
प्रकाशित हुईं हैं. आज पहली बार पर प्रस्तुत हैं रूचि भल्ला की कविताएँ.
रूचि भल्ला की कविताएँ
रंग का एकांत
राग वसंत क्या उसे कहते हैं
जो कोकिला के कंठ में है
मैं पूछना चाहती हूँ कोयल से सवाल
सवाल तो फलटन की चिमनी चिड़िया
से भी करना चाहती हूँ
कहाँ से ले आती हो तुम नन्हें सीने में
हौसलों का फौलाद
बुलबुल से भी जानना चाहती हूँ
अब तक कितनी नाप ली है तुमने आसमान की
हद
बताओ न मिट्ठू मियाँ कितने तारे
तुम्हारे हाथ आए
कबूतर कैसे तुम पहुँचे हो सूर्य किरण
को मुट्ठी में भरने
कौवे ने कैसे दे दी है चाँद की अटारी से
धरती को आवाज़
आसमान की ओर देखते-देखते
मैंने देखा धरती की ओर
किया नन्हीं चींटी से सवाल
कहाँ से भर कर लायी हो तुम सीने में
इस्पात ....
मैं पूछना चाहती हूँ अमरूद के पेड़ से
साल में दो बार कहाँ से लाते हो पीठ पर
ढो कर फल
मैं सहलाना चाहती हूँ पेड़ की पीठ
दाबना चाहती हूँ चींटी के पाँव
संजोना चाहती हूँ
धरती के आँगन में गिरे चिड़िया के पंख
पूछना चाहती हूँ अनु प्रिया से भी कुछ
सवाल -
जो गढ़ती हो तुम नायिका अपने
रेखाचित्रों में
खोंसती हो उसके जूड़े में धरती का सबसे
सुंदर फूल
कहाँ देखा है तुमने वह फूल
कैसे खिला लेती हो कलजुग में इतना भीना
फूल
कैसे भर देती हो रेखाचित्रों में जीवन
मैं जीवन से भरा वह फूल मधु को देना
चाहती हूँ
जो बैठी है एक सदी से उदास
फूलों की भरी टोकरी उसके हाथ में
थमा देना चाहती हूँ
देखना चाहती हूँ उसे खिलखिलाते हुए
एक और बार
जैसे देखा था एक दोपहर इलाहाबाद में
उसकी फूलों की हँसी को पलाश सा खिलते
हुए....
एक
गंध जो बेचैन करे .........
एक अदद शरीफा भी आपको प्यार में
पागल बना सकता है
सुमन बाई आजकल शरीफे के प्यार में पागल
है
शरीफे को आप आदमी न समझिए
पर आदमी से कम भी नहीं है शरीफा
कमबख्त पूरी ताकत रखता है मोहपाश की
मैंने देखा है सुमन बाई को
उसके पीछे डोलते हुए
उसके पेड़ की छाँव में जा कर
खड़े होते हुए
जब देखती है उसे एकटक
उसके होठों पर आ जाता है निचुड़ कर
शरीफे का रस
मुझे देखती है और सकपका जाती है
जैसे उसके प्यार की चोरी पकड़ ली हो
मैंने
आजकल उसका काम में मन नहीं लगता
एक-आध कमरे की सफाई छूट जाती है उससे
पर एक भी शरीफा नहीं छूटता है
उसकी आँखों से
उसने गिन रखा है एक-एक शरीफा
जैसे कोई गिनता है तनख्वाह लेने के लिए
महीने के दिन
उसे याद रहता है कौन सा शरीफा पक्का है
कौन सा कच्चा
शरीफे को हाथ में पकड़ कर दिखलाती है
उसकी गुलाबी लकीरें
कि अब बस तैयार हो रहा है शरीफा
जैसे पकड़ लेती हो शरीफे की नब्ज़
कभी उसे फिक्र रहती है कि कोई पंछी न
उसे खा जाए
कभी तलाशती है पंछी का खाया हुआ शरीफा
बताती है पंछी के खाए फल को खाने से
बच्चा जल्दी बोलना सीखता है
मैं शरीफे को नहीं सुमन को देखती हूँ
जब वह तोड़ती है शरीफा
उसके बच्चों के भरे पेट की संतुष्टि
उसके चेहरे से झलकती है
शरीफे सी मीठी हो आती है सुमन
अब यह बात अलग है कि शरीफे के ख्याल में
उससे टूट जाता है काँच का प्याला
पर वह शरीफे को टूटता नहीं देख पाती
इससे पहले कि वह पक कर नीचे गिर जाए
वह कच्चा ही तोड़ लेती है
ले जाती है अपने घर
मैं देखती हूँ उसके आँचल में बंधा हुआ
शरीफा
मुझे वह फल नहीं प्यार लगता है
जिसे आँचल में समेटे वह चलती जाती है आठ
किलोमीटर तक
पर उसे गिरने नहीं देती
बारिश से भरी सड़कों पर अपने कदम
संभाल कर चलती है
उसे खुद के गिरने का डर नहीं होता
पगली शरीफा खो देने से डरती है
[उपर्युक्त कविताएँ पहल 108 अंक में प्रकाशित]
(1)
यह सारी दुनिया बहुत सुंदर है
पर सबसे सुंदर मेरा शहर इलाहाबाद है
हालांकि मैं 95 में निकल आयी थी
शहर की गलियों से अपने आलता लिए पाँव
पर इक्खठ-दुक्खठ मैं अब भी वहीं खेल रही हूँ
नन्हें पाँवों से .......
(2)
मेरे आलता लगे पाँव की छाप पर
इलाहाबाद जब अपने पाँव धरता है
मुझे याद करके
मेरे नाम की आवाज़
इस शहर के सूरज को चीरते हुई
चली आती है मेरे पास ....
मेरी खैरियत लेने
जानती हूँ ....
मेरा शहर मुझे रोज़ याद करता है ...
रोज़ खेलना चाहता है इक्खठ-दुक्खठ
मेरी यादों के संग
और गोटी मेरे नाम की उछाल देता है
सूरज की तरफ़
(3)
वैसे एक बात कहूँ
लद्दाख की छत पर भी खड़े हो कर
देखी है मैंने दुनिया
पर इलाहाबाद की खिड़की से
दुनिया बड़ी दूर तलक
दिखाई देती थी मुझे ..........
(4)
कभी नहीं सोचा था
इतने याद आओगे तुम
जो जानती तो तुझमें
घर बना लेती थी मैं
(5)
सुनो! इलाहाबाद
तुम विश्व के मानचित्र में एक शहर होगे
उस शहर में बसता होगा तीन नदियों का संगम
मेरे लिए तुम शहर और संगम नहीं हो
मेरी माँ का आँचल
मेरे पिता की छाया हो तुम
मेरी बचपन की सहेली
सोलहवें साल में हुआ
मेरा पहला प्यार हो तुम
मेरा पहला....
मेरा अंतिम ठिकाना हो तुम ......
(6)
जब तक जीती हूँ इलाहाबाद हुई जाती हूँ
जब नहीं रहूँगी इलाहाबाद हो जाऊँगी मैं
- रुचि भल्ला
[इलाहाबाद श्रृंखला की कविताएँ ‘दुनिया इन दिनों’ पत्रिका में प्रकाशित]
सम्पर्क
ई-मेल : ruchibhalla72@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त की गयी पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
क्या खूब कहा है आपने इलाहाबाद के बारे में। अपना शहर शायद इसी तरह शामिल होता है अपनी शख्सियत में।
जवाब देंहटाएंक्या खूब कहा है आपने इलाहाबाद के बारे में। अपना शहर शायद इसी तरह शामिल होता है अपनी शख्सियत में।
जवाब देंहटाएंइलाहाबाद इलाहाबाद इलाहाबाद
जवाब देंहटाएंकवितायें बहुत प्रभावशाली हैं
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-09-17 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2727 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जब तक जीती हूँ, इलाहाबाद हुई जाती हूँ
जवाब देंहटाएंजब नहीं रहूँगी तो इलाहाबाद हो जाऊँगी मैं.....
इलाहाबाद इलाहाबाद इलाहाबाद
शानदार जबरदस्त जिंदाबाद....
यहाँ मेरी एक दुकान है। कभी फुर्सत मिले तो जरूर आएँ...
sachkidukan.blogspot.com