सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'लेखक संगठनों को कोसना तो अब आम बात है?'

 

सेवाराम त्रिपाठी



कहा जाता है कि संगठन में शक्ति होती है। प्राचीन काल में बौद्ध धर्म के त्रिरत्नों से हम परिचित हैं जिसके अन्तर्गत बुद्ध, धर्म (शिक्षा) और संघ (समुदाय) आते हैं। बौद्ध धर्म के अनुयायी इन्हें अपने मार्गदर्शकों के रूप में स्वीकार करते हैं। कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए यह जीवन जीने का एक महत्वपूर्ण तरीका था। इसी क्रम में पराधीन भारत में जनता के बीच चेतना जागृत करने के लिए 1936 में 'प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना की गई। 

भारतीय इतिहास में राजनीतिक तौर पर 1977 का वर्ष इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है कि भारत में पहली बार केंद्रीय स्तर पर  जनता पार्टी के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार बनी। लेकिन शीघ्र ही इसका पतन हो गया। जनता पार्टी के बिखराव के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी के बाद लोकतांत्रिक ताकतों की बड़े पैमाने पर गोलबंदी हुई थी। ऐसे ही वातावरण में बनारस में 1980 में प्रेमचंद की जन्म शताब्दी पर आयोजित एक सम्मेलन में राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और पटना के एक सम्मेलन में नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा का गठन हुआ था। इसी परिप्रेक्ष्य में 'जनवादी लेखक संघ' (जलेस) की स्थापना 1982 में की गई जबकि 'जन संस्कृति मंच' (जसम) की स्थापना 1985 में दिल्ली में हुई। ये संगठन सांस्कृतिक और साहित्यिक तौर पर लोगों को जागरूक बनाने और प्रगतिशील मूल्यों को स्थापित करने के लिए कार्य करते हैं। प्रतिबद्धता और वैचारिकता को ले कर इन संगठनों के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर चलता रहता है। आज जब इस बात की कहीं अधिक जरूरत है कि ये लेखक संगठन मिल जुल कर प्रतिरोध करें, तब ये आरोप प्रत्यारोप, ये आपसी संघर्ष प्रतिरोध की लड़ाई को कमजोर करते हैं। आलोचक सेवा राम त्रिपाठी थोड़े तल्ख स्वर में लिखते हैं : 'हक़ीक़त यह है कि जुगाड, लफ्फाजी से राजनीति, साहित्य संस्कृति और कलाओं की बड़ी-बड़ी दुकानदारियां चल रही हैं। प्रकाशन, पत्रिकाएं और सम्मान के विभिन्न रूप विकसित होते जा रहे हैं। वो लेखन, वो यथार्थ बहुत बड़ी चीज़, दुनिया और बहुत बड़ी ताक़त भी होती है। कवि या लेखकों-कलाकारों की जिम्मेदारियां भी बहुत अधिक हुआ करती हैं। इन सरपोटियों से कौन कहे कि दुनिया के चिंतकों की व्याख्या अपने मन मुताबिक नहीं करनी चाहिए? और अपनी ज़रूरत के अनुसार भी ये गोलमटोल व्याख्याएं नहीं हो सकती? ये जन जीवन की बेहतरी से संचालित होती हैं और इन्हीं के लिए प्रतिबद्ध और कटिबद्ध भी। लेकिन ये किस्म-किस्म के लिलधारी ये स्वार्थ में पारंगत बहुरूपये इन्हीं धुरियों से संचालित होते हैं और तरह-तरह के जाल रचते रहते हैं।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवा राम त्रिपाठी का आलेख 'लेखक संगठनों को कोसना तो अब आम बात है'।



'लेखक संगठनों को कोसना तो अब आम बात है?'


सेवाराम त्रिपाठी 


“क्या है गुप्त

क्या है व्यक्तिगत

जब गर्भ में बंद बच्चा भी इतना खुला है 

इतना प्रत्यक्ष

.. कैसा समय  कि छुट्टा साँड

गाँवों की नींद में सींग मार रहा है

और कोई बोल नहीं सकता 

कैसा समय कि खून के छींटों से भरा सफेद घोड़ा 

गाँवों को रौंदता जा रहा है

और कोई रोक नहीं सकता

.. जहाँ कहीं  दुःख में है आदमी 

जहाँ कहीं मुक्ति के लिए लड़ता है आदमी 

वहाँ कुछ भी नहीं है निजी

कुछ भी नहीं है गुप्त 

फिर भी तुम चुप क्यों हो?


अरुण कमल


     

कुछ वर्ष पहले किसी जिज्ञासु ने सवाल उठाया था कि क्या लेखकों-कलाकारों के संगठन भी होने चाहिए? इसका सीधा सादा उत्तर है कि जब झूठों, गुंडों, लफंगों, उठाईगिरों, हत्यारों और अपराधियों के संगठन विधिवत काम कर रहे हैं बल्कि बढ़-चढ़ कर काम कर रहे हैं तो लेखक कलाकार अपने संगठन बना कर क्यों नहीं काम कर सकते? धीरे-धीरे अंतर यह आया है कि सच्चाई में लोगों की दिलचस्पी लगातार कम हुई है। झूठ-महाझूठ और अफ़वाहों का अनुपात  कहीं बहुत ज़्यादा बढ़ गया है। इस भारत में सबसे पुराना लेखक संगठन प्रगतिशील लेखक संघ  ही है, जिसका आविर्भाव 1935 में हुआ था और भारत में 1936 में। इस संगठन की पहली अध्यक्षता महान लेखक प्रेमचंद जी ने की थी। तब हमारी लड़ाई गुलामी और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ थी। उसमें जन जीवन की बेहतरी, शोषण उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक बेहतर भविष्य के निर्माण का प्रयास हुआ करता था। प्रेमचन्द का कहना था कि लेखक स्वयं में प्रगतिशील होता है। उनके कहे को गंभीरता से समझना चाहिए। बिना प्रगतिशील स्वभाव के कोई व्यक्ति लेखक ही नहीं हो सकता। लेखक देश दुनिया की कमियों के लिए बेचैन होता है। लेखक की संवेदनशीलता समाज के प्रति और उसके सुखद भविष्य के लिए होती है। उनके कथन के आशय भी अलग-अलग लगाए जाते हैं, अपने स्वार्थों के अनुसार उसकी व्याख्याएं भी की जाती हैं। धुर दक्षिणपंथी भी अपने ढंग से कई तरह की व्याख्याएं आए दिन खोंसते रहते हैं। प्रेमचंद ने प्रलेस के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए कुछ बातें कही थीं। उसे इतने बदल गए समय के बाद भी स्मरण करना चाहिए। स्वार्थों की पिपिहरी नहीं बजाते रहना चाहिए। ज़ाहिर है कि इसी प्रलेस से निकले संगठन हैं 'जनवादी लेखक संघ' और 'जन संस्कृति मंच'। इनके मोटे- मोटे हेतु एक ही हैं। लेकिन व्यवहार जगत में कुछ अंतर भी हैं। तथ्य यह है कि लेखकों कलाकारों की वृहत्तर राजनीति होती है जो तथाकथित राजनीति के नक्शे क़दम पर प्रायः नहीं चला करती? या उनके परकोटे में अंटती ही नहीं है। और जो ऐसा समझते हैं वे  भारी भ्रम में हैं। यह तथ्य जान लेना भी ज़रूरी है कि संगठन किसी को लेखक नहीं बना सकते लेकिन एक दिशा और दृष्टि ज़रूर दे सकते हैं? एक वातावरण तो निर्मित कर ही सकते हैं? यदि लेखक के भीतर तड़प, बेचैनी, जनसरोकार और जनसंबद्धता है। और गहराई से जनजीवन की हक़ीक़तों को जानने समझने का जज़्बा है तब।अन्यथा सब हवा हवाई ही है। केवल शब्दों की खोखली बाज़ीगरी है। ज़्यादातर राजनीति तो अब स्वार्थों का भरपूर अखाड़ा बन चुकी है।मनुष्य का कल्याण नहीं बल्कि अपनी राजनीति को चमकाने का वह केंद्रबिंदु भी हो गई है। अपने भरम की लंबी लंबी उद्घोषणाएं हैं। इसे हम स्वार्थों का अखाड़ा और  महारास भी कह सकते हैं। ये तीनों लेखक संगठन प्रगतिशील, जनवादी और जन संस्कृति मंच जन जीवन से गहरे संबद्ध संगठन हैं। इसलिए बेहद कड़ियल और मज़बूत भी हैं। शायर गुलज़ार की पंक्तियां ध्यान कर रहा हूँ - 


“न मैं गिरा और न मेरी उम्मीदों के मीनार गिरे

पर लोग मुझे गिराने में कई बार गिरे” 


ये लेखक संगठन तो निरंतर ज़हर पीते हैं और मूल्यों सरोकारों और सपनों के लिए जीतें हैं। ये बड़ी जिजीविषा वाले लेखक संगठन हैं जो सामाजिक सांस्कृतिक जीवन यथार्थ को बहुत संजीदगी से देखते परखते हैं। इनमें यथार्थ भी है और भविष्य का सपना भी है।

   

आज के भयावह, जटिल और विकट दौर में तानाशाही और फासिस्टवादी ताक़तों के बढ़ते ख़तरे को देखते समझते हुए इनके संयुक्त मोर्चे और प्रलोभनों से जूझने की भरपूर आवश्यकता है जिसे उन्नीस सौ साठ के दशक में अमृत राय जी ने अनुभव किया था और एक क़िताब लिखी थी - 'साहित्य में संयुक्त मोर्चा'। इन लेखक संगठनों के पास जन जीवन के कल्याण, मूल्यों और सरोकारों के लिए एक स्थाई विकल्प हैं जिनमें कोई प्रलोभन नहीं है बल्कि एक विशेष प्रकार के भविष्य का आश्वासन और सपना है। विश्वशांति, सद्भाव और मानव कल्याण की महती परियोजनाएं हैं।

  

लेखक संगठनों पर कई प्रश्नवाचक चिन्ह क्रिएट किए जाते रहे हैं और कई लांछन भी लगाए जाते रहे हैं। आगे भी निम्नतर सोच के लोग ऐसा करते रहेंगे? यही तो उनका स्वभाव और बाना है। यूँ तो कई हवाले हैं लेकिन मैं केवल साथी राजेंद्र राजन की फेसबुक पोस्ट को संदर्भित कर रहा हूँ। ज़ाहिर है कि आरोप लगा देना किसी प्रश्न का न तो सार्थक कारण होता और उसका सक्षम उत्तर ही हो सकता। इन संगठनों को मुखौटा और शरणस्थली तक कहा गया है। यानी 'जाकी रही भावना जैसी’। इसके इतिवृत्त के साथ उन्होंने उत्तर भी दिए हैं। इस दौर में मनमानापन और दृष्टिदोष की अनंत छवियां हैं। समय की जटिलताओं पर जाएं तो आसानी से कहा जा सकता है कि हम सांप्रदायिकता, तानाशाही मनोविज्ञान और फासीवादी, अत्यंत कट्टर और संकीर्णताओं, तर्कहीनताओं की प्रवृत्तियों से अनवरत जूझ रहे हैं। इसे मैं दुहराना भी ठीक नहीं समझता और न किसी भी सूरत में कोसना। कोसना हमारा काम नहीं है और न संकीर्णतावादी प्रवृत्तियों के साथ यात्रा करना ये भी केवल संकेत हैं।

  




कुछ बातें संकेत में समझने की हैं विस्तार में जाने की नहीं। राजनीतिक हलकों में और लेखक संगठनों में पाला बदलना, एक आम फिनॉमिना के रूप में विकसित हो गई प्रविधि है। जब तक कोई वहाँ हैं, संगठन में है और उसके क्रिया- कलापों में शामिल हैं तब तक तारीफ़ करना भी आम फैशन और प्रचलन में हो गया है। हालाँकि ये लेखक संगठन निरंतर कमियों को दूर करने के लिए संघर्ष करते रहे हैं और यथार्थ की गहरी छानबीन भी। कुछ ताक़तें मतभेद होते ही अपना समूचा गुस्सा, समूची ताक़त के साथ उस संगठन के ख़िलाफ़ झोंक दिया जाता है, संबद्ध संगठनों के ख़िलाफ़ अभियान चलाना भी इसमें अनिवार्य रूप से शामिल है। कुछ अपवाद भी हो सकते हैं? यह अब आम प्रचलन में काबिज़ हो चुका है।कोई क्या कहेगा, इसकी कोई चिंता नहीं? यह सब कुछ बेहद निर्लज्ज तरीके से संपन्न होता रहता है। और विरोध के इस भंडारे में जीमने के लिए तमाम प्रकार के विरोधी, दक्षिणवर्ती और ओछे मनोविज्ञान वाले लोग मिल कर एक साथ हमलावर की शक्ल में एक साथ पिल पड़ते हैं।इस वस्तुस्थिति को एक लंबे अरसे से देखता आ रहा हूँ। अब तो इनकी बाढ़ है। ये इक्का दुक्का मामला या प्रसंग नहीं है।

  

राजनीतिक दलों में ऐसे हादसे पूर्व से होते रहे हैं और आगे भी निम्नतर स्थिति में होते रहेंगे? ये स्थितियां अब लेखक संगठनों को भी भुगतनी पड़ रही हैं, आगे तो इसके अनेक विकृत रूप भी देखने को मिलेंगे ही। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए। विरोध प्रदर्शन करना और संबद्धों पर राशन पानी ले कर चढ़ जाना। एक विशेष प्रकार का आयोजन हो गया है। यही नहीं एक विशिष्ट ढंग का पागल प्रलाप भी शुरू हो जाता है। कुछ अग्गू-भग्गू और विशिष्ट तरीक़े के नुमाइंदे भी उनके साथ ताल से ताल और क़दम से क़दम मिलाते हैं और उनकी मददगार की भूमिका में आसानी से आ जाते हैं। संगठनों को कोसना और उनकी छीछालेदर करना वे अपनी शान समझते हैं और फ़र्ज़ भी। इसे बहादुरी भी मानते हैं। ज़ाहिर है कि राजनैतिक दलों में जो बेशर्मी होती थी या अब भी भरपूर ढंग से बरक़रार है। उसका अनुपात भी सैकड़ों गुना ज़्यादा बढ़ गया है। न कोई लज्जा, न कोई हया न शर्म है और न कोई संकोच ही है। इसकी कोई हद भी नहीं निर्धारित की जा सकती और न सीमारेखा ही बताई जा सकती और न खींची जा सकती है? होने को कुछ भी संभव हो सकता है।


पता चलता है कि जिस पार्टी में पचास साल रह कर गुजारे हैं उसकी एक-एक नीति के बारे में न जाने कितने वक्तव्य दिए हैं और मुद्दे उठाए हैं।उनकी ही ताबड़तोड़ ढंग से खटिया खड़ी करने में निर्लज्जता की सभी सीमाएं तोड़ दी जाती है।उनकी बुराई के बारे में कोई आगा पीछा नहीं और न ही कोई कोर कसर बाक़ी रखी जाती। ये तमाम प्रश्न और प्रसंग राजनीति में भी हैं और लेखक संगठनों में भी सक्रिय हो चुके हैं। न कोई पश्चाताप, न कोई  शर्मिंदगी और न कोई हिचक। लगभग वही स्थिति साहित्य-संस्कृति की दुनिया में घृणास्पद और निर्लज्जतापूर्वक तरीके से हो रही है। लेखक संगठनों और खासकर प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच से बाहर आते ही यह प्रक्रिया खल पात्र की भांति शुरू हो जाती है। प्रसिद्ध है कि - 


'जाहि निकारो गेह से क्यों न भेद कह देय।' 


स्थिति का सही ढंग से सामना करने का साहस संकल्प ख़त्म हो जाता है और उसकी परिणति, कोसने, गरियाने और उसकी निंदा करने में भरपूर ताक़त के साथ लगा दी जाती है और इसी को अपनी सफलता के रूप में विकसित करना या भुनाना प्रारंभ हो जाता है। कुछ चिढ़े टाइप के लेखकनुमा लोग बुराई के प्रचार में एक विशेष किस्म के अभियान की तरह जुट जाते हैं। उनका प्रयास केवल बुराई करना और संगठनों की छवि को 'डैमेज' करना ही होता है। ये बिन काज दाएं बाएं होते ही हैं?





हमें समय की गतिकी को भी समझना चाहिए।सत्ता के साथ जुलूस निकालने में शामिल होने वाले अनेक तरह के धुरंधर लेखक इस काम में बड़े उत्साह के साथ भिड़ जाते हैं। गलबहियां डाल लेते हैं। इनका मनोविज्ञान बड़ा ही क्रूर,  , संघातक और संकीर्ण मानसिकता वाला होता है। इस प्रसंग और मुद्दे को गंभीरता से समझने की ज़रूरत है। किसी का आख़िर क्यों नाम लिया जाए? और इसकी ज़रूरत ही क्या है? एकदम खुला खेल है और सब कुछ ओपन हो गया है।इनके लिए सब कुछ को नकार देना भी एक महान तथ्य बन जाता है। वे इसमें छिपे कारकों और हेतुओं को प्रायः नहीं देखते? ये तो केवल पगड़ी उछालने में विश्वास करते हैं। सिद्धांतों की आँच पर कुछ नहीं पकता। स्वार्थ के घरौंदों में ही सिद्ध किया जाता है। ज़ाहिर है कि हम राजनैतिक दलों, समूहों और लेखक संगठनों की कार्यविधियों को ले कर मतभेद होना कोई आश्चर्यजनक न तो पहलू है और न कोई ठोस क़दम। सब कुछ तो स्वीकार भी नहीं किया जा सकता। ये विघ्न संतोषी तटस्थ होने के अनेक पैंतरे भाँजते  रहते हैं। ये अपने को 'फ्री थिंकर्स' ' यानी तटस्थता की गटर मालाएं भी जपते देखे जाते हैं। यह एक किस्म का राग भी है और रोग भी है। और उसी में नत्थी है उनका घटियोत्तम स्वरूप।


देखिए अनुभव हमें निरंतर सिखाते हैं। परिस्थितियोंवश कोई भी संगठन से छिटक सकता है लेकिन विचार और जीवन प्रविधियों और हक़ीक़तों से नहीं? अक्सर देखता रहा हूँ कि कई बार लेखक संगठनों पर हमला या लांछन पूरी तरह से वैचारिक हमला ही होता है। ऐसे प्रसंग आते रहते हैं। इसलिए इन पर काफ़ी गंभीरता और सतर्कता बरतने की आवश्यकता है।

 

इस प्रसंग के सिलसिले में बीसवीं शताब्दी के महान गद्य लेखक हरिशंकर परसाई का एक कथन याद दिलाना चाहता हूँ - “वास्तविकता ये है कि आज परिवर्तन की माँग बहुत है। यहाँ वहाँ सुधार से काम नहीं चलेगा। पूरा ही परिवर्तन चाहिए। इसमें जो बाधक हैं उन्हें जानना चाहिए कि इतिहास जब आगे बढ़ता है तो उसके पहियों को पकड़ के रोकने वाले के हाथ टूट जाते हैं। हम लेखक इस परिवर्तन के संघर्ष में भागीदार हैं। हमें सामाजिक जीवन का यथार्थ और वैज्ञानिक दृष्टि से चित्रण करके साक्षात्कार कराना है और परिवर्तन की चेतना  को जगाना है। हमें सही मूल्यों की स्थापना करनी है। हमने संगठन इसलिए बनाया है। हम किसी लेखक को फुसलाते या पटाते नहीं  हैं। लेखक जन्म से और आज के जीवन संघर्ष से गुज़र कर अपने आप प्रगतिशील बनते हैं। शिक्षित वे चाहे बाद में होते हों संगठन की ज़रूरत है। आपसी मेलजोल होता है। समस्याओं पर चर्चा होती है। विचार विनिमय होता है। एक प्रकार का बौद्धिक और मूल्यगत अनुशासन रहता है। इस संगठन को हम लगातार विस्तार देते हैं। और जो लेखक हमारे मूल विश्वासों और मान्यताओं से सहमत हैं उन्हें साथ लेते हैं।”


कुछ लोग तो अनायास ही तोप चलाने की शक्ल में कवि धर्म या लेखक धर्म की बड़ी-बड़ी डींगें हाँकते हैं और लंबी-चौड़ी दुहाइयां भी देते रहते हैं, और किसी तरह थकते नहीं हैं। वे ऐसा सोचते हैं कि उन्होंने मैदान मार लिया है। बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और बड़े-बड़े हाँके भी डालते हैं। वे सोचते हैं कि किसी भी तरह की बयानबाज़ी करके वे अपने आप को सही साबित कर देंगे?लेखक धर्म और कवि कर्म कोई कढ़ी सरपोटना नहीं होता? नहीं किसी प्रकार का कनकौआ उड़ाओ अभियान ही है। दरअसल सच्चा लेखन बहुत कठिन और दुष्कर चीज़ है जो बातों से सर होगी नहीं। उसे अपने लेखन में प्रमाणित करना होता है। इस्पाती और जन जीवन के मूल्यों सरोकारों के बिना यह किसी भी सूरत में संभव नहीं है बल्कि वो ज़मीर और जिम्मेदारी का काम है। किसी भी सूरत में कोई बैठे-ठाले का धंधा नहीं है जो अगड़म-बगड़म तरीक़े से संभव नहीं हो सकता है।

   

हक़ीक़त यह है कि जुगाड, लफ्फाजी से राजनीति, साहित्य संस्कृति और कलाओं की बड़ी-बड़ी दुकानदारियां चल रही हैं। प्रकाशन, पत्रिकाएं और सम्मान के विभिन्न रूप विकसित होते जा रहे हैं। वो लेखन, वो यथार्थ बहुत बड़ी चीज़, दुनिया और बहुत बड़ी ताक़त भी होती है। कवि या लेखकों-कलाकारों की जिम्मेदारियां भी बहुत अधिक हुआ करती हैं। इन सरपोटियों से कौन कहे कि दुनिया के चिंतकों की व्याख्या अपने मन मुताबिक नहीं करनी चाहिए? और अपनी ज़रूरत के अनुसार भी ये गोलमटोल व्याख्याएं नहीं हो सकती? ये जन जीवन की बेहतरी से संचालित होती हैं और इन्हीं के लिए प्रतिबद्ध और कटिबद्ध भी। लेकिन ये किस्म-किस्म के लिलधारी ये स्वार्थ में पारंगत बहुरूपये इन्हीं धुरियों से संचालित होते हैं और तरह-तरह के जाल रचते रहते हैं। ये कवि धर्म या लेखक धर्म को ओढ़ते बिछाते अक्सर देखे जाते हैं। इनके बारे में यही कुछ-कुछ संकेत दिए जा सकते हैं। अब वास्तविकताओं की सही छानबीन के लिए किसी भी प्रकार के संतुलन और गहन विचार विमर्श का समय ही नहीं रह गया है। इसलिए चमड़े के सिक्के भी चल रहे हैं। राजनीति की नौटंकी की तरह ये साहित्य की नौटंकी चलाने में तरह-तरह के पैंतरे भाँज रहे हैं। यही अंतर्कथा विराट पैमाने पर घटित की जा रही है। इसे हमें भूलना नहीं चाहिए।





यह संकीर्णताओं से संचालित मनोविज्ञान, क्रूरताओं, लंपटताओं और क्षुद्रताओं का ही नया तिलिस्म है। इन सूरमाओं का फोकस प्रगतिशीलता, उसकी असलियत और गुणवत्ता पर नहीं रहता। रहता है तो केवल खेमेबाजी पर ही रहता है। पता नहीं ये कब तक किस प्रकार की तटस्थता के कुएं से संवाद में विश्वास करने में जुटे जाएंगे और वहीं अपने कान खुजानें में लगे रहेंगे। वैचारिकताओं के बावजूद अच्छा लेखन हमेशा संभव नहीं हो सकता? न गणित के सवालों की तरह हल ही हो सकता। अपने आप को महान बनाए रखने के लिए या साबित करने के लिए किसी विशेष किस्म के सृजन धर्म का हवाला दे दिया जाता है। जैसे सृजन धर्म का हवाला देकर बड़े आराम से बरी भी हुआ जा सकता है। यह सृजन कौतुक की तरह इस्तेमाल किया जाता है और इसी बानगी के द्वारा अपनी बातों का अहसास दिलाते हुए अगड़म-बगड़म का पिटारा खोल दिया जाता है और अनेक भरमाने की बातें रख दी जाती  हैं। सच्चा लेखक वही है जो हर प्रकार की जड़ता का प्रतिरोध करता है। लेखकों कलाकारों ने पुरस्कार और पदवियों को सहर्ष अस्वीकार किया। जो सत्ताएं लेखकों कलाकारों को नीचा दिखाती हैं। उनकी छवि को धूमिल करती हैं। उनका विरोध और प्रतिरोध लेखक और कलाकार नहीं करेंगे तो आख़िर कौन करेगा? इस पर भी इन सूरमाओं को भरपूर आपत्ति है। इस प्रसंग में इतनी हाय तोबा क्यों?

    

केवल स्मरण कराना चाहूँगा कि ज़ाहिर है कि विवेचना, विश्लेषण कभी भी व्यक्तिगत ईमानदारी, आत्मालोचन, निष्ठा और तड़प के बिना संभव नहीं हो सकता? वो चितवन ही औरे कछू है न ही किसी रंगीन चश्में से देख कर इसे पहचाना जा सकता। विचार और विचारधाराओं को कुछ तथाकथित होशियारचंदों ने न जाने क्या समझ रखा है? वे इन्हें देख कर छुट्टा साँड की तरह बिदकते हैं। जीवन यथार्थ से हरा कुछ भी नहीं होता। खुशफहमियों के' नैरेटिव' गढ़ लिए गए हैं। उसी के सहारे हमेशा गोलीबारी की जाती है। इस विमर्श का कोई न तो अंत है और न कोई सीमांकन ही किया जा सकता। 'फ्री थिंकर्स' का कनकौआ उड़ाने वाले इन्हीं विडंबनाओं में रमे हुए हैं। यही इनकी जकड़बंदिया  हैं। हम तर्कों के भाल फोड़ते रहते हैं और खुश होते हैं। मैं तो इसी प्रकार के संतों को तलाशते-तलाशते इतना बड़ा हुआ हूँ। आप अपनी भूमिका के लिए अपने सिद्धांतों के लिए स्वतंत्र हैं। इसीलिए तो इतनी बड़ी संख्या में मुहिम चल रही है या हामियों के साथ इतने बड़े सेंटर हैंडलिंग किए जा रहे हैं। कुछ बातें शेयर कर दीं। अब उसमें विमर्श की ज़रूरत नहीं है। कभी प्रेमचंद के कंधे में रख कर तोप दागी जाती है और कभी हरिशंकर परसाई के हवाले से गोलीबारी की जाती है। इन संदर्भों और प्रसंगों कठहुज्जतियों  पर क्या कहना और क्या सुनना? लेकिन संकीर्णताओं तर्कहीनताओं के घटाटोप पूर्व में भी जारी थे और आगे भी जारी रहेंगे।


ओछा मनोविज्ञान कई तरह की दुहाइयां देता रहता है। जैसे मैं तो  किसी गुट में नहीं हूँ, कुछ जानता ही नहीं हूँ। मेरे बारे में आप कितना जानते हैं या नहीं जानते। कितना भोला और बचकाना तर्क है। आपके बारे में मैं कितना जानता हूँ। किसी के बारे में कोई गारंटी नहीं।  समय सभी की छानबीन करता है। इस समय तो सभी के सिर पर ईमानदारी और तड़प मंडरा रही है। सभी की सफाइयां दौड़ रही हैं। मुझे किसी के वृतांत को जानने की इच्छा भी नहीं है। संकीर्ण मनोविज्ञान को जान भी लेंगें तो कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। पूरी दुनिया में इंसानियत का समुद्र बह रहा है। परिदृश्य बदला तो दुनिया में जो सच के रास्ते पर चलता है। वही बेईमान है। और जो लुगदा-लुगदी से सतत खेलता है वही बेमिसाल है। इसका न तो कोई  पूर्ण विराम है। और न ऐसा आगे होने वाला है। बहस  के द्वार आगे भी खुले रहेंगे। संवाद की अपनी भूमिका और प्रकृति भी। दुनिया बहुत बड़ी है और उसी अनुपात में मुद्दे भी। ज़ाहिर है कि ग़लत चीज़ों के अनेक जायज़ नाजायज़ संबंध होते हैं। फिर दिक्कत यह है कि कोई इतिवृत्त नहीं देखना चाहता।


अंत में एक कविता का अंश पढ़ें - 


“हमारी मजबूरी है कि 

जब भी पूरा दर्ज़ करना चाहते हैं 

आख़िर पूरा कहाँ कह पाते हैं 

कुछ कह पाते हैं 

लेकिन हमेशा कुछ न कुछ छूट जाता है 

इन छूटी हुई जगहों को भरने की कोशिश मे

 पूरी उम्र गुज़र रही है'”




(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)




सम्पर्क


मोबाइल : 7987921206

टिप्पणियाँ

  1. डॉ डी एम मिश्र6 जून 2025 को 11:10 am बजे

    पठनीय आलेख

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  2. आदरणीय सेवाराम त्रिपाठी जी ने सभी प्रकार के अन्याय के खिलाफ कलम चलाने के लिये प्रेरित किया है. कोशिश करूँगा कि मैं भी आँखन देखी लिखने का प्रयास करूँगा. सही दिशा दिखाने के लिये तहे दिल से शुक्रिया.

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  3. गंभीर और समसामयिक लेख जो संगठनकर्ता को लेखक संगठन के संचालन में सहायक होगा

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  4. आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यही कीचड़ भभकी मार रहा है,ऐसे में यह आलेख किसी कमल से बढ़कर है। लेखन स्वाधीन होना चाहिए।

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