हेमन्त शर्मा का आलेख '26 जून की वो मनहूस सुबह… '
'26 जून की वो मनहूस सुबह… '
(आज कविताओं के ज़रिए)
हेमन्त शर्मा
वह 26 जून का मनहूस सवेरा था. उदास और डरावना. जिसे मैंने चौदह बरस की किशोर आँखों से देखा था. आधी रात में इमरजेंसी लग चुकी थी. दिल्ली में बड़े नेताओं की गिरफ़्तारियाँ भी हो गयी थीं. दिल्ली में तो अख़बारों ने अपने एडिशन रोक कर यह खबर ले ली पर बनारस के सुबह के अख़बारों में यह खबर नहीं छपी थी. सुबह- सुबह जनवार्ता के सम्पादक ईश्वर देव मिश्र का फ़ोन पिता जी के लिए आया. जनवार्ता जेपी मूवमेंट का अख़बार था. फ़ोन सुनते ही पिता जी के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें थी. उस समय मेरे मोहल्ले में सिर्फ़ मेरे यहां ही फ़ोन होता था. नंबर था 5574. पिता जी ने बताया इमरजेंसी लग गयी है. मई में ही मैं नौवीं कक्षा से दसवीं में गया था. इमरजेंसी के नाम पर सिर्फ अस्पताल की इमरजेंसी जानता था. समझ नहीं पाया कि इमरजेंसी क्या है? वैसे भी उस वक्त बच्चों में एक्सपोज़र कम होता था.
हालांकि पिता जी बनारस में जेपी की संघर्ष वाहिनी के सह-संयोजक थे. कुछ ही रोज पहले मैं जेपी की बेनियाबाग वाली सभा से पहले निकले जुलूस में भी शामिल था. संतोष भारतीय जीप के बोनट पर बैठे थे. मैं एक बैनर उठाए चल रहा था. मेरे बैनर पर लिखा नारा उस वक्त मेरी समझ से परे था. बाक़ी बैनरों पर तो “जो हमसे टकराएगा, चूर चूर हो जाएगा या डायरेक्ट एक्शन वाले नारे थे. और मेरे बैनर पर अहिंसक नारा लिखा था. “हमें सत्ता नहीं, व्यवस्था परिवर्तन चाहिए”. यह मेरे गले नहीं उतर रहा था. इसलिए मैं उस वक़्त के जेपी आन्दोलन और देश की स्थिति से तो वाक़िफ़ था. पर इमरजेंसी की भयावहता से परिचित नहीं था.
बहरहाल पिता जी के पास फ़ोन इसलिए आया था कि जनवार्ता अख़बार का दस बजे विशेष संस्करण छपना था और उसमें उनकी कार्टून कविता- संकटमोचन जानी थी. जनवार्ता बनारस का दैनिक अख़बार था जिसकी गिनती जेपी आन्दोलन के अग्रणी अख़बारों में होती थी. सन् 1970 में बनारस के कुछ मित्रों ने मिलकर सहकारिता के आधार पर यह दैनिक पत्र निकाला था. उसके संपादक मंडल में उस समय के प्रतिष्ठित पत्रकार ईश्वर चन्द्र सिन्हा, श्यामा प्रसाद शुक्ल ‘प्रदीप’, ईश्वर देव मिश्र , धर्मशील चतुर्वेदी, और मेरे पिता जी थे. इसके प्रबंध संचालक खाद के एक व्यापारी बाबू भूलन सिंह थे.
इस अख़बार के एडिट पेज पर हर रोज़ पिता जी एक कविता लिखते थे. पांच-छह लाइन की. इसे आप ‘खबरदार कविता’ या कार्टून कविता भी कह सकते हैं. जिसके तहत उस रोज की किसी खबर या वक्तव्य पर सार्थक व्यंग प्रधान टिप्पणी होती थी. पिता जी ‘संकटमोचन’ छद्म नाम से लिखते थे. प्रतिदिन. रविवार के अलावा. आपातकाल के समय को छोड़कर लगातार तेईस वर्षों तक वे लिखते गए. शायद हिंदी में लिखी जानी वाली कविताओं में यह सबसे लंबा सिलसिला था. इन्हें संदर्भों के बिना नहीं पढ़ा जा सकता. ऐसी कोई सात हज़ार कविताएँ होंगी.
यह सब बताने का मेरा मकसद है कि कैसे साहित्य अपने युग का दस्तावेज होता है. कैसे उस वक्त की कविताओं में उस समाज की घुटन और बग़ावत दर्ज है. चाहे वो संकटमोचन हो. धर्मवीर भारती की मुनादी हो. बाबा नागार्जुन की इन्दु जी हो. भवानी बाबू की त्रिकाल संध्या हो. अटल जी की क़ैदी कविराज की कुण्डलियाँ हों. रेणु और दिनकर की ललकारती कविता हो या दुष्यन्त की तेज़ाबी कलम. हालाँकि दुष्यंत ने इमरजेंसी कुछ ही महीनों तक देखी. इन कविताओं से आपको इमरजेंसी का संत्रास और अत्याचार का पता चलेगा.
जैसे ही हमें पता चला इमरजेंसी लगी है, हम रेडियो की ओर दौड़े. तब वह सुबह के बाद सूचना का इकलौता साधन हुआ करता था. पर यह क्या. ये आकाशवाणी है के बाद समाचार वाचक की जगह इन्दिरा जी की आवाज़ थी. उनका देश को सम्बोधन चल रहा था. वो बता रही थी कि देश में राष्ट्रपति ने आंतरिक आपातकाल की घोषणा की है. सारे नागरिक अधिकार समाप्त कर दिए गए हैं क्योंकि आंतरिक अशांति की आशंका थी. कुछ तत्व सुरक्षाबलों को बग़ावत के लिए भड़का रहे थे. उनका इशारा एक दिन पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश जी की रैली की तरफ़ था. अबतक हम मामला और उसकी गम्भीरता समझ चुके थे कि नागरिक अधिकारों का गला घोटा गया है. लोकतंत्र अंधे कुएँ की ओर गया.
पिता जी चिंतित थे. हमने पूछा, आप गम्भीर क्यों हैं? उन्होंने कहा, इमरजेंसी लोकतांत्रिक इतिहास का काला पन्ना है. अब जुबान पर डाका डाला जाएगा. कलम कैद हो जाएगी. संकटमोचन छपेगा या नहीं, यह भी सवाल था. उस रोज़ पूर्वान्ह में बनारस के सभी अखबारों का विशेष संस्करण छपा. ‘जनवार्ता’ ने भी विशेष संस्करण निकाला. जो दोपहर ग्यारह बजे तक बाज़ार में आ गया. उसमें देश की स्थिति पर आशंका से ग्रस्त यह कविता छपी-
कौन जाने हमारी कलम,
कल से स्वच्छंद न रह जाए।
हमारी जुबान बंद हो जाए,
क्योंकि लोकतंत्र भस्म हो रहा है।
उसकी राख को नमस्कार,
चींटी के निकलते पांख को नमस्कार।
प्रजातंत्र के भटके राही को सलाम,
उगती हुई तानाशाही को सलाम।
देश पर तानाशाही चस्पा हो गई. लोकतंत्र नजरबंद हो गया. सेंसरशिप लागू हुई. अख़बारों के दफ्तर में पत्र सूचना कार्यालय का एक सरकारी अफ़सर खबरों को मंज़ूरी देता. पत्रकारिता बंधक बना ली गई. 26 जून को आसमान में बादल थे. दूसरे रोज़ यानी 27 जून के अख़बार के लिए पिता जी ने मौसम की ओर संकेत करते हुए यह कविता लिखी और छपी.
मौसम की आंखों में नमी हो गई है,
लगता है कोई गमी हो गई है।
मेरी टेबुल पर पड़ी,
संविधान की पुस्तक से,
बहुत सारे पन्नों की कमी हो गई है।
सेंसर की सख्त नजर के नीचे से यह रचना होशियारी से सरक आई और 27 जून के अंक में प्रकाशित हुई. सेंसर के दफ्तर में कोहराम मचा. बनारस में पत्र सूचना कार्यालय के प्रमुख शम्भूनाथ मिश्र थे. वे फ़िल्म अभिनेता संजय मिश्र और मेरे मित्र सुमित मिश्र के पिता थे. मिश्र जी की सूचना आई, पंडित जी दबाव बहुत है. छोड़ दीजिए संकटमोचन को. सूची बन रही है उसमें आपका भी नाम है. पर पिता जी ने उसे गम्भीरता से नहीं लिया. दूसरे रोज फिर अधरों पर अंगुली धरे हुए एक अजीब चुप्पी थी. इस सन्नाटे को तोड़ते कवि ने लिखा-
शोर मत मचाइए,
चुपचाप बगल से गुजर जाइए,
यह मत देखिए,
कि यहां क्या हो रहा है,
यह अस्पताल का,
इमरजेंसी वार्ड है,
यहां प्रजातंत्र सो रहा है।
इस कविता में जनभावनाओं के साथ जनाक्रोश प्रकट हो रहा था. इसलिए यह कविता सेंसर ने जब्त कर ली और अखबार को कड़ी चेतावनी भी मिली. कविता को तो छपना नहीं था. नहीं छपी. लखनऊ में राज्य सरकार के सूचना विभाग में ठाकुर प्रसाद सिंह थे. उनका भी संदेश आ चुका था. अगले अंक के लिए एक दूसरी युक्ति निकाली गई. पुराने कवियों की पंक्तियों की तलाश शुरू हुई. अगले अंक में श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियों का सहारा लिया गया. पहली दो पंक्तियां सुभद्रा कुमारी की और अंतिम दो पंक्तियां इसमें उन्होंने अपनी तरफ़ से जोड़ी.
‘भूषण अथवा कविचंद नहीं,
बिजली भर दे वह छंद नहीं,
है, कलम बंधी स्वच्छंद नहीं
फिर हमें बताओ कौन हंत?
होगा इस गति का कहां अंत?’
इसके बाद तो कवि की गिरफ्तारी का बाकायदा फरमान जारी किया जानेवाला था. धरपकड़ हो, इससे पहले अपनी पारिवारिक मजबूरियों के चलते संकटमोचन को समर्पण करना पड़ा. शायद उनके सामने हम दो भाइयों और बहनों की सूरतें रही होंगी. जेल गए तो इनका क्या होगा. उन्होंने कलम रख दी. पर ग्लानि और पीड़ा से आहत संकटमोचन ने अपनी वेदना फिर भी लिख डाली और इसी के बाद संकट मोचन स्थगित हो गया.
हम एक लचीली डाल हैं,
जिसे जिस ओर चाहो उस ओर झुका लो,
पर जिसे टूटना कतई पसंद नहीं।
आज उसी डाल में कांटे उग गए हैं,
जो हमारे चारों ओर छाए हैं
उन्हीं के बीच खिलकर
हम अपनी गंध खुद-ब-खुद पी रहे हैं।
शानदार मौतों के साए में
बेहयाई की जिंदगी जी रहे हैं।
किन्तु भीतर-ही-भीतर,
हमारी चिंतना टूटती है और भी टूटेगी।
हम एक कमान से बन जाएंगे।
हमारी अस्मिता बाण- सी छूटेगी।
वह घड़ी इनकलाब की होगी
अंधेर की घाटी से निकले
नए धधकते आफताब की होगी।
आखिर इनकलाब हुआ. 18 जनवरी 1977 में आपातकाल का अंधेरा छंटा. 20 जनवरी 77 से संकटमोचन फिर शुरू हुआ. चुनाव हुआ. तानाशाही ताकतों को भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा. कुर्सियां ज्यों-की-त्यों थी, मूर्तियां बदल गईं. पर ज़्यादा गुणात्मक परिवर्तन नहीं था. उन मूर्तियों को आगाह करते हुए आपातकाल के खत्म होते ही लिखा गया.
ये सारे के सारे गुर्गे
ऐसे हैं मुर्गे
जो आपको घेरे रहेंगे
और यही कहेंगे
कि हमारे ही बोलने से बिहान होता है
कुर्सियाँ मिलती हैं
आदमी महान होता है
इन गुर्गों को पहचानते रहना
निहायत ज़रूरी है
पर इनसे घिर जाना
कुर्सी की अपनी मज़बूरी है
इमरजेंसी भले 26 जून को लगी पर भूमिका सात आठ महीने से बन रही थी. 4 नवम्बर 1974 को जेपी ने गांधी मैदान पटना में एक रैली की. रैली पर पुलिस का बर्बर लाठीचार्ज हुआ. जेपी घायल हुए. नानाजी देशमुख का कूल्हा टूटा. अखबारों में धक्का खाकर नीचे गिरे हुए बूढ़े जेपी, उनपर तनी सुरक्षा बलों की लाठियों वाली तस्वीरें छपी थी. पुलिस की लाठी, बेहोश जेपी और फिर घायल सिर पर तौलिया डाले लड़खड़ाकर चलते हुए जेपी की तस्वीरें.
9 नवम्बर 1974 को धर्मवीर भारती ने बेहद ग़ुस्से में यह कविता- मुनादी लिखी.
खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का...
हर खासो-आम को आगाह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढ़ाकर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है !
शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजीर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और अस्मत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाय !
जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है!
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटरवालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?
क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवाँमर्दी की दाद दें
अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए !
नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।
ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुँचो
बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पुछ जाए!
बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं !
भारती जी ने यह कविता बम्बई में लिखी. बिजनौर में बैठे दुष्यन्त भी यही सोच रहे थे. उस माहौल का सजीव बखान-
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देख कर हैरान है
ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है
इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है.
दुष्यंत ने लिखा-
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।
बाबा नागार्जुन इन्दिरा जी के मंशा ताड़ गए थे. संजय गांधी के उद्भव पर उन्होंने लिखा.
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
आपकी चाल-ढाल देख- देख लोग हैं दंग
हकूमती नशे का वाह-वाह कैसा चढ़ा रंग
सच-सच बताओ भी
क्या हुआ आपको
यों भला भूल गईं बाप को!
बाबा नागार्जुन आपातकाल के खिलाफ ललकारते हैं.
मोर न होगा ...उल्लू होंगे
ख़ूब तनी हो, ख़ूब अड़ी हो, ख़ूब लड़ी हो
प्रजातंत्र को कौन पूछता, तुम्हीं बड़ी हो
डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है
वो बेचारी अगली गति-विधि भाँप गई है
देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा
तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा
तुम से छोटा राष्ट्र हिन्द का, तुम्हीं बड़ी हो
खूब तनी हो, खूब अड़ी हो, खूब लड़ी हो
मौज, मज़ा, तिकड़म, खुदगर्जी, डाह, शरारत
बेईमानी, दगा, झूठ की चली तिजारत
मलका हो तुम ठगों-उचक्कों के गिरोह में
जिद्दी हो, बस, डूबी हो आकंठ मोह में
सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है प्रबल पिटाई
सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है 'इन्द्रा' माई
बन्दूकें ही हुईं आज माध्यम शासन का
गोली ही पर्याय बन गई है राशन का
कविवर भवानी प्रसाद मिश्र तो आपात काल को समर्पित हर रोज़ तीन कविताएं लिखते थे. उन्होंने आपातकाल के खिलाफ सुबह, दोपहर और शाम कविताएं लिखीं. उनकी किताब ‘त्रिकाल संध्या’ ऐसी कविताओं का संकलन है. इन कविताओं में युगबोध है. आपको आपातकाल का चारण साहित्य भी मिलेगा. इतिहास में उसकी गिनती नहीं होती. विनोबा भावे जैसे लोग इसे अनुशासन पर्व बता इन्दिरा गांधी की चाटुकारिता कर ही रहे थे.
भवानी बाबू आपातकाल के माहौल पर लिखते हैं-
बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले,
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़े, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्यौहार कहें, सब उसे मनाएं
कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये.
हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में
हाथ बांध कर खड़े हो गये सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़े कौए-कौए गायें
भवानीप्रसाद मिश्र ने सत्ता के गिर्द रहने वालों पर टिप्पणी की.
कठपुतली
गुस्से से उबली
बोली — ये धागे
क्यों हैं मेरे पीछे - आगे ?
तब तक दूसरी कठपुतलियाँ
बोलीं कि हाँ हाँ हाँ
क्यों हैं ये धागे
हमारे पीछे - आगे ?
हमें अपने पाँवों पर छोड़ दो,
इन सारे धागों को तोड़ दो !
बेचारा बाज़ीगर
हक्का - बक्का रह गया सुनकर
फिर सोचा अगर डर गया
तो ये भी मर गईं, मैं भी मर गया
और उसने बिना कुछ परवाह किए
ज़ोर - ज़ोर धागे खींचे
उन्हें नचाया !
फणीश्वर नाथ रेणु अपनी कविता इमरजेंसी में लिखते हैं-
“इमर्जेंसी-वार्ड की ट्रॉलियाँ
हड़हड़-भड़भड़ करती
आपरेशन थियेटर से निकलती हैं- इमर्जेंसी!
सैलाइन और रक्त की
बोतलों में क़ैद ज़िन्दगी!
-रोग-मुक्त, किन्तु बेहोश काया में
बूंद-बूंद टपकती रहती है- इमर्जेंसी!
सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम
और तमाम चुपचाप हवाएँ
एक साथ
मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर- इमर्जेंसी!
इमरजेंसी में जेल में बंद अटल बिहारी वाजपेयी ने व्यवस्था पर चोट करती जेल से क़ैदी कविराज की कुण्डलियाँ लिखी.
अनुशासन के नाम पर
अनुशासन का खून
भंग कर दिया संघ को
कैसा चढ़ा जुनून
कैसा चढ़ा जुनून
मातृ-पूजा प्रतिबंधित
कुलटा करती केशव-कुल की
कीर्ति कलंकित
कह कैदी कविराय,
तोड़ कानूनी कारा
गूंजेगा भारत माता की
जय का नारा।
जेल में सुविधा के नाम पर कुछ नहीं था. इसपर अटल जी का व्यंग्य-
डाक्टरान दे रहे दवाई, पुलिस दे रही पहरा
बिना ब्लेड के हुआ खुरदुरा, चिकना-चुपड़ा चेहरा
चिकना-चुपड़ा चेहरा, साबुन तेल नदारद
मिले नहीं अखबार, पढ़ें जो नई इबारत
कह कैदी कविराय, कहां से लाएं कपड़े
अस्पताल की चादर, छुपा रही सब लफड़े।
कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने जब इंदिरा गांधी को भारत माता बताते इन्दिरा इज़ इण्डिया का नारा दिया तो अटल जी चुप न बैठ सके. उन्होंने करारा व्यंग्य किया-
'इंदिरा इंडिया एक है: इति बरूआ महाराज,
अकल घास चरने गई चमचों के सरताज,
चमचों के सरताज किया अपमानित भारत,
एक मृत्यु के लिए कलंकित भूत भविष्यत्,
कह कैदी कविराय, स्वर्ग से जो महान है,
कौन भला उस भारत माता के समान है?
आपातकाल पर बहुत लिख गया. पर उस काल की बर्बरता को समझने के लिए उस वक्त का साहित्य पढ़ा जाना चाहिए. आज बहुत से लोग आपातकाल पर लिखेंगे. लेकिन राजनीतिक लेखन की अपनी एक परिधि और स्वार्थ है. वो उसमें ही रमता-समाता है. कवि की कलम राजनीति भी बताती है और व्यक्तिगत-सामाजिक संवेदना भी. केवल राजनीति में स्वार्थ हो सकता है लेकिन संवेदना में स्वार्थ ये ज्यादा यथार्थ रहता है. इसीलिए किसी काल को समझने के लिए, किसी इतिहास के पन्ने को जानने के लिए जो भी लिखा कहा बताया गया, वो जानें लेकिन साहित्य देखना न भूलें.
साहित्य की यही तात्कालिकता उसको कथा और कल्पना से निकालकर एक बड़ा कैनवास दे देती हैं जो यथार्थ भी है, मानवीय भी और इतिहास भी. आपातकाल को याद करते हुए इतिहास का ये पुनर्पाठ बहुत ज़रूरी है.
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