संजय कृष्ण का आलेख 'रामकथा और आदिवासी'

 

संजय कृष्ण 



भारतीय परम्परा में राम कथा विविध भाषाओं में विविध रूपों में प्राप्त होती है। इससे भारतीय जन मानस गहरे तौर पर जुड़ा हुआ है। इस राम कथा की व्याप्ति को लोक स्वीकृति प्राप्त है। इंडोनेशिया, कंबोडिया, श्रीलंका, म्यांमार जैसे देशों में भी राम कथा का प्रचलन है। लोक गीतों में में भी राम अपने विविध कथ्य रूपों में आते हैं। आदिवासी समाज ने भी इस राम कथा को अपने गीतों में सुरक्षित संरक्षित रखा है। संजय कृष्ण न केवल सजग पत्रकार हैं बल्कि एक बेहतर रचनाकार भी हैं। उनकी खोजी दृष्टि इस तरफ गई है और उन्होंने इस तथ्य को उद्घाटित करने की कोशिश की है कि आदिवासी खासकर संथाल और बिरहोर आदिवासियों में रामकथा किस रूप में आती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं संजय कृष्ण का आलेख 'रामकथा और आदिवासी'।



'रामकथा और आदिवासी'


संजय कृष्ण


युगों-युगों से गाई जाने वाली राम कथा व राम काव्य भारतीय जन-मन में रचा-बसा है। भारतीय भाषाओं में इसकी बहुत समृद्ध परंपरा मिलती है। संस्कृत, जैन, पालि से ले कर अवधी, उर्दू, असमिया, बांग्ला, तेलुगु, मलयालम, गुजराती, मराठी से पंजाबी, कश्मीरी, सिंधी तक में...। यही नहीं, राम की लोक व्याप्ति दूसरे देशों तक देखी जाती है। श्रीलंका, तिब्बत, जावा, कंबोडिया, इंडोनेशिया, जापान, नेपाल, थाइलैंड आदि देशों में रामकाव्य के विविध रूप, स्थापत्य कला, काव्य कला, भित्ति चित्र आदि मिलते हैं। इसी व्यापक व अविच्छिन्न पृष्ठभूमि में भारत की आदिवासी भाषाओं में भी रामकथा से सम्बद्ध रचनाएं मिलती हैं। झारखंड की आदिवासी भाषाओं मुंडारी, बिरहोरी में रामकथा की उल्लेखनीय छिटपुट रचनाएं मिलती हैं। और, यह स्वाभाविक भी है। लोक में राम बसे हैं और झारखंड के जंगलों भी उनकी अनुस्मृतियां जीवित और जीवंत हैं। उनके सबसे बड़े सेवक हनुमान की जन्मस्थली रांची से 150 किमी दूर आंजन धाम में है, जहां माता अंजनी अपनी गोद में बाल हनुमान को ली हुई हैं। सिमडेगा जिले का रामरेखा धाम भी एक ऐसा ही परम पावन स्थल है, जहां मान्यता है कि यहां बनवास के दौरान कुछ दिनों तक राम, लक्ष्मण व सीता ने निवास किया था। यहां एक गुफा भी है। यहां हर कार्तिक पूर्णिमा पर चार दिनों का विशाल मेला लगता है।


राम से आदिवासियों को अलग नहीं किया जा सकता। हालांकि कि इस पर कम ध्यान दिया गया है। माता शबरी, शबर जाति की मानी जाती हैं। अपने 14 सालों के वनवास में आदिवासियों से उनकी गहरी मैत्री हो गई होगी। रावण के साथ युद्ध में ये वनवासी ही उनका साथ देते हैं। वे असुर राजा रावण के साथ नहीं खड़े होते। वैसे, भारतीय संस्कृति में आदिवासी समाज का बड़ा योगदान है। इसलिए, यह संबंध भी बहुत पुराना है। राम कथा में यह संबंध और प्रगाढ़ दिखाई देता है। भाषाई दृष्टिकोण से देखें तो सीता शब्द मुंडारी है, जिसका अर्थ होता है हल चलाना। बालि, सुग्रीव, हनुमान आदि आदिवासी ही कहे जाते हैं। असुर तो थे ही। झारखंड में यह जनजाति आज भी है। तुलसी दास ने भी मानस में कोल-किरात आदि वनवासियों की चर्चा की है। झारखंड में आदिवासी बहुत प्राचीन काल से रह रहे हैं। यहां भी मुंडारी, खड़िया, बिरहोरी भाषाओं में रामायण प्रचत्तित है। इनका कोई ग्रंथ नहीं है। डॉ राम दयाल मुंडा तो यहां तक कहते हैं कि अधिकांश पौराणिक कथा-कहानियों का आधार जनजातीय ही कहा जा सकता है। एक प्रचलित कथा है कि राजा जनक को सीता हल चलाते समय मिलीं। किंतु सीता शब्द की उत्पत्ति संस्कृत में अस्पष्ट ही कही गई है। दूसरी ओर प्रायः सभी मुंडा आदिवासी भाषाओं में सीता का अर्थ हल चलाना और तब वर्तमान कियास्पदबोधक प्रत्यय के रूप में प्रयुक्त होता है। मुंडारी भाषा में एक जदुर गीत भी गाया जाता है, जिसकी प्रथम दो पंक्तियों का अर्थ है-


सीतान रेगे होवु नामेलिआ, 

सीता नुतुमेवु नुतुमिआ। 


अर्थात् 


'हमने हल चलाते समय उसे पाया था।

हम इसे सीता नाम ही देंगे।'


मध्य प्रदेश की वैगा-भूमिया जनजाति में प्रचलित एक दंतकथा में सीता कृषि की अधिष्ठात्री हैं। छोटानागपुर के उरांव खुद को रावण का वंशज मानते हैं। भाषाविज्ञान की दृष्टि से रावण-उरांव में नजदीकी संबंध है। दूसरे, वानर कहे जाने वाले आदिवासी राम की मदद करते हैं। भालु, गिद्ध और रीछ का संबंध भी आदिवासियों से है। मानसकार तुलसी ने भी आदिवासियों का जिक्र किया है। लेकिन हमने अभी तक रामकथा के इस पक्ष को देखने की कोशिश नहीं की।


झारखंड की आदिवासी भाषाओं में प्रचलित रामकथाओं का अनुशीलन नहीं हुआ है। अपने देश में जब तीन सौ से अधिक रामायण हैं तो उनमें आदिवासी रामायण की कोई चर्चा नहीं होती। छिटपुट राज्यवार जरूर काम हुए हैं। गुजरात, मध्य प्रदेश आदि में आदिवासी जीवन में रचे-बसे राम के आख्यान मिलते हैं, पर झारखंड में कोई विधिवत रामकथा को ले कर काम कतई नहीं हुआ है। आदिवासियों का साहित्य मौखिक ही है। अंग्रेजों ने जरूर उनकी भाषा सीख कर बहुत हद उनके साहित्य को पुस्तक रूप दिया। आदिवासी समाज का जो भी अध्ययन हुआ, वह मानव शास्त्र के दायरे में ही हुआ। जबकि उनके जीवन में रस घोलने वाले तमाम गीत हैं, नृत्य हैं, लोककथाएं हैं। सदियों से चली आ रहीं सृष्टि कथाएं, उनके अप्रवासन, उनकी मूल भूमि की कहानी भी उनके साथ-साथ चली आ रही हैं- गीतों के माध्यम से। वे अपने गीतों के माध्यम से ही अपने अतीत को याद रखते हैं। यह गीत की परंपरा ही उन्हें जीवित व जीवंत रखती आई है। उनके गीतों में राम भी हैं। राम को ले कर अलग-अलग कहानियां हैं। यहां राम को ले कर कोई ग्रंथ नहीं रचा गया। गीत रचे गए। झारखंड के जंगल-पहाड़ों के पास भी राम की अनेक कहानियां हैं। 14 साल के वनवास में राम किन पहाड़ों पर रहे, किन जंगलों से गुजरे, किस गुफा में रात गुजारी, ऐसी तमाम कथाएं वहां श्रुति परंपरा में सुरक्षित हैं। बाबा तुलसी ने भी कोल-भील-किरात आदि की चर्चा की है-


यह सुधि कोल किरातन्ह पाई, हरषे जनु नव निधि घर आई।

कंद मूल भरि-भरि देना, चले रंक जनु लूटन सोना ।।


वन में रहने वाले मुनि भी राम का स्वागत करते हैं, लेकिन जो स्नेह कोल-किरातों के हृदय में है, वह उनमें नहीं है। आदिवासी राम को इतना स्नेह करते हैं। राम को जानना, भारतीयता को जानना-समझना है। कुबेर नाथ राय लिखते हैं- सही भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण राष्ट्रीयता के दंभ से बिल्कुल अलग तथ्य है। यह सर्वोत्तम मनुष्य है। पूर्ण भारतीय बनने का अर्थ है- राम जैसा बनना। राम मनुष्यत्व के आदर्श की चरम सीमा हैं। उनका जीवन साक्षात करुण रस है।" यह राम ही हैं, जिन्हें सब अपना समझते हैं। खड़िया के विद्वान पौलुस कुल्लू कहते हैं कि राम खड़िया थे और उनके किया-कलापों की भूमि वही उपत्यका, यानी झारखंड थी। यही राम की लोकप्रियता है। हर कोई इनकी कथा कहते नहीं अघाता है और युग में एक नई कथा नए ढंग से कही जाती है।


वनवास में सबसे प्रिय और विश्वसनीय साथी राम के जंगलवासी ही थे। शबरी भी जनजातीय समाज की हैं। शबर नामक की जनजाति आज भी है। असुर भी हैं। कुछ जनजातियों में शबरी को ले कर दंतकथाएं प्रचलित हैं। संथालियों में भी रामकथा प्रचलित है। लोगों की मान्यता है कि वनवास के दौरान राम वहां कुछ महीनों तक रहे। इसलिए राम काव्य की परंपरा यहां भी परिलक्षित होती है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-


बिधुरिये जानकी रावन लाइये गेल,

नहीं भेटें राम लक्षमन जनक दुलारी। 

एक वन ढूंढें दूसर वन ढूंढे,

नहीं भेटें राम लक्षमन जनक दुलारी।।


झारखंड की एक प्रमुख जनजाति मुंडाओं का मौखिक साहित्य अत्यंत समृद्ध है। इनकी लोक कथाओं में इनका इतिहास व अतीत दर्ज है। इनके गीतों में भी राम कथा के प्रसंग मिलते हैं, लेकिन ये आधुनिक काल के हैं। मुंडारी में जो राम कथा से जुड़े गीत मिलते हैं, वह बुधु बाबू के हैं, जिनका काल 1830 से 1910 तक का है। इनका पूरा नाम बुधनाथ शिखर था।बुधु बाबू ने रामायणपाला में आदिवासी समाज को ही चित्रित किया है। लंका विजय के लिए निकला हुआ वानर दल, और कोई नहीं, कर्म और संघर्षशील आदिवासी समाज ही है। बुधु बाबू ने स्वयं उन चरित्रों का जीवन जी कर उनका चित्रण किया है। इसलिए वे गीत इतने प्रभावशाली हो सके हैं।


राम की कथा भी इनके गीतों में शामिल हैं-


रावन राजाए खींसजन 

सिङ दुअरेरू दुबजन 

गेल मोचते मोसतेरू कजितन् 

मोलोङ तबु फलाओजन 

होड़ो गडिघ् को पेरेरूअकन 

सीता सती देबी इदिको हिअकन 


भावार्थः रावण राजा क्रुद्ध हो गया और सिंहासन पर बैठ गया। वह दसों मुख से एक साथ कहने लगा-हम लोगों का भाग्य खुल गया (कि) आदमी और बंदर भर गए हैं, जो सीता सती को ले जाने के लिए आए हैं।

(गीत संख्या 259)


भावार्थः रावण राजा कुद्ध हो गया और सिंहासन पर बैठ गया। वह दसों मुख से एक साथ कहने लगा-हम लोगों का भाग्य खुल गया (कि) आदमी और बंदर भर गए हैं, जो सीता सती को ले जाने के लिए आए हैं।

(गीत संख्या 259)





इसी तरह खड़िया में भी राम कथा मिलती है। यहां जो कथा मिलती है, वह वनवास काल की है। खड़िया लोगों की दृष्टि में अयोध्या के वैभव से इनका कोई सरोकार नहीं था। इसीलिए इन्होंने राम कथा में अपने विचारों और जीवन पद्धति से मेल खाते हुए विषयों को ही ग्रहण किया, या उनके अनुरूप कथाएं गढ़ीं। खड़िया में जो लोक कथा मिलती है, उसके केंद्र में राम हैं, लेकिन लोक गीतों के केंद्र में सीता हैं। इन गीतों में सीता का सौंदर्य, जंगल में उनका कष्ट, पशु-पक्षियों द्वारा कष्ट प्रदान, रास्ते की थकान आदि का वर्णन आया है। यहां संपूर्ण रामायण का गेय रूप नहीं मिलता है। डॉ रोज केरकेट्टा ने इन गीतों को भावानुवाद के साथ प्रस्तुत किया है।


एक गीत देखिए-


अतुतय डेलकी लिटी-बिरी हनुमान

सीता जोगी रावन ते हरायो?

मुनुतय डेलकी लिटी-बिरी हनुमान

सोमदोर पुःडकी लंका ते हरायोः।।


लोकगीतों की परंपरा का यहां निर्वाह किया गया है; इस परंपरा के अनुसार प्रथम कड़ी में प्रश्न पूछा गया है तो दूसरी कड़ी में उत्तर दिया गया है-


कहां से आया दुबला-पुतला कुरूप हनुमान

सीता जोगगी रावण को हराया?

मुनु से आया दुबला-पतना कुरूप हनुमान 

समुद्र को छलांग लगाया लंका को जलाया।

सीता जोगी रावण को हराया।।


एक दूसरे गीत में सीता को जंगल में कष्ट झेलने पड़े, उसकी ओर ग्रामीणों का संकेत हैं-


बाबू रे राम लछमन

अता बीरू ते डेरायेम?

डेना को डेलकिम, डेराना को डेरायेम

सीता बेटी ते इना ओलोः ब।।


गोटा किनिर डेनेऽव अयिःज, गोटा किनिर जुरः अयिःज 

सीता बेटी ते इना जोतोःव ।। 


बाबू रे राम लक्ष्मण 

किस पहाड़ पर डेरा डालोगे?


अर्थात्


तुम तो आए, डेरा भी डालोगे 

पर सीता कुमारी को क्यों लाए,


एक लोक गीत में वनवास जीवन का प्रसंग आता है-


हरे हरे कौवः मुदई 

सीता बेटी एड़ी से ठोठकाय ट्योःव 

यारे कौवः जियोम ते डोडे रो 

कःकोम ठोर वोडः जियामनोम चोना।


यानी 


अरे अरे दुष्ट कौवे 

सीता कुमारी की एड़ी पर तुमने चोंच मार दी 

भागो कौवा, प्राण ले कर भागो 

तीर की नौक से तुम्हारा प्राण जाएगा ।।


यहां भी सीता के प्रति एक सम्मान भाव है। गीत में कौवे को चेताया गया कि अब तुम्हारा भी प्राण जाएगा। तुमने एड़ी पर चोंच मारा है। आदिवासी परंपरा में स्त्री का ऊंचा स्थान है। कई तो मातृप्रधान समाज भी हैं। कमोवेश ऐसी ही दृष्टि अन्य आदिवासी भाषाओं की राम गाथा में भी दिखाई देती है। यह सब अध्ययन से आगे और स्पष्ट होगा।


झारखंड की आदिवासी भाषाओं में संथाली ही एकमात्र भाषा है, जिसे आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। संथालों का लिखित साहित्य बहुत नया है, लेकिन उनका लोक गीत बहुत पुराना। इन लोक गीतों में ही इनका इतिहास समाया हुआ है। इन गीतों ही इनके प्राचीन नगर, संस्कृति का भी जिक्र है। इनकी उत्पति के बारे में भी हम जान सकते हैं। संथाली लोक गीतों में भी राम कथा से जुड़े कई गीत हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कि उनके लोक गीतों से यह स्पष्ट होता है कि भगवान राम से उनका त्रेता काल में संबंध था। राम उनके लिए उतना ही श्रद्धा के पात्र हैं, जितना हिंदुओं के लिए हैं। संथाली कथा में यह वर्णित है- "हम लोगों के पूर्वजों की कहानी है कि प्राचीन काल में राम राजा थे, उनको खेरवार जाति के लोगों ने लंका के राजा को हराने में सहायता दी थी। मालूम हो कि खेरवार संथालों का प्राचीन नाम है।


राम जी के जन्म के संबंध में एक लोकगीत संथालों में प्रचलित है।


गुरु मुनि कहायेते सुनुभा 

या राजा दासारथे, 

कोन गाछे चारयाम जो फेराय, 

हो यामवाला यानी देहो।


ये हो ये हो भाया राजा दासाराथे 

बाएं हांथे माराय हो 

दहिन हांथे वाला लुकीले हो। 

याम केरा फल जुगीरे 

देवला राजा हाते 

से हो खाया तीनो रानी 

बाना आस पति हो।


छमासे होलो रानी 

देखा चलो दोसार रूपे; 

नामोस होयलो रानी 

बेदान जी वाला भेलाय हो।


कौसल्या बेटवा जो राम 

सुमित्रा बेटवा जजो लखन। 

कैकाययर बेटा गोचायोतो होरा 

पुता भरत आर शत्रुहन।


झिकमिक केरा रूप रामे लखन 

देखाये जतथो होरे चांद सुरज हो 

दिने दिन बढ़ायेते राम हो लखन 

सोवाई लोके लाखे लाखे खुमई हो।


अर्थात-गुरु मुनि कहते हैं कि सुनो भैया दशरथ। य्कसी आम के पेड़ में चार आम के फल हैं, उनको लाओ।


हे भइया राजा दशरथ बाएं हाथ से उसे मारो व दाहिने हाथ से उसे लोक तो। इन आमों के फलों को मुनि ने राजा के हाथ में दिया। इन फलों को खा कर रानियां गर्भवती हो गई।


छह मास बीतने पर रानियों का रूप दूसरे प्रकार दिखाई पड़ने लगा। नौ महीना होने पर रानियों को प्रसव वेदना हुई और बालकों का जन्म हुआ। कौशल्या का बेटा राम और सुमित्रा के बेटा लखन कहलाये। कैकेंद्र के बेटा भरत और शत्रुहन हुए।


राम और लखन का रूप सूरज के समान झकमक-झकमक करता था। दिनों दिन राम, लखन बढ़ने लगे और सब लोग उन्हें देख कर आनंदित होते थे तथा लाखो लाख बलाइयां ले लेते थे।





झारखंड में बिरहोर भी मुंडा जाति से ही संबंधित हैं। इनके यहां भी राम कथा प्रचलित हैं। इसमें दशरथ की सात पत्नियों का उल्लेख है। सीता ने आंगन लीपने के लिए शिव का धनुष उठाया था। यहां हनुमान लंका में शुक यानी तोते के रूप में प्रवेश करते हैं। यहां लक्ष्मण द्वारा रावण का वध दिखाया गया है। रावण वध के बाद कुंभकर्ण के वध का उल्लेख है। लेकिन सबसे रोचक प्रसंग हनुमान का है। ये हनुमान का शिकार कर उसे खा जाते हैं। इसको ले कर कथा इस प्रकार है-


रावण राजा सीता को भगा कर लंका ले भागा था। राम, लक्ष्मण व हनुमान छुड़ाने के लिए गये। तव विरहोर इस भाग में निवास करते थे।। जब हनुमान सर्वप्रथम रावण के महल में दिखाई दिया तब प्रहरियों ने हनुमान को पकड़ना चाहा। परंतु वे सफल नहीं हो सके। तब रावण ने विरहोरों को बुलाने का आदेश दिया क्योंकि वे जंगलों में रहने के कारण बंदर फंसाना जानते थे। एक बुजुर्ग बिरहोर दंपति को बुलाया गया। परंतु उसका प्रयास सफल न हो सका। हनुमान को उस बूढ़े पर दया आई और उन्होंने बताया कि जाल कैसे बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि तुम अपना जाल बनाओ जो मानव शरीर से तीन गुना बड़ा हो। तब तुम लोग मुझे पकड़ने में सफल होगे। उन्होंने ऐसा ही किया और हनुमान जाल में पकड़ लिए गए। तब उन्होंने बिरहोर से कहा- तुम मुझे मारना क्यों चाहते हो? मैं अपने को खुद मार दूंगा। मैं जो कहता हूं उसे तुम करो। तुम लोग कपड़ा ला कर लपेट कर एक लम्बी पूंछ बवनाकर हमारे पीछे बांध दो। उसे तेल व घी से भिंगो दो और उसमें आग लगा दो। बिरहोर ने वैसा ही किया। तब, हनुमान ने लंका में आग लगा दी। हनुमान ने अपनी पूछ को हाथ से पकड़ा तो वे काले हो गए। तब यह अपने चेहरे पर रगड़ कर हाथ को साफ करना चाहा, लेकिन चेहरा भी काला हो गया। अंत में अपने शरीर को साफ करने के लिए समुद्र में कूद गए। तब उन्होंने राम से पूछा- मेरा मामा कौन है जो मेरे मरने पर दाह-किया करेगा?


राम ने कहा, वही करेंगे, जो तुम्हें जाल में फंसाए थे अथवा बिरहोर व उनकी संतति तुम्हें व तुम्हारे वंशजों को खाएगी। तब से बिरहोर बंदर या लंगूर को खाने लगे। वे जाल में फंसाने के लिए हनुमान वीर की पूजा करते हैं। ये बिरहोर आज भी बंदर का शिकार करते हैं और जाल व रस्सी बुनने का काम भी करते हैं।


झारखंड में ये कथाएं अब लुप्त हो चली हैं। पुराने मानवशास्त्रियों ने अपने अध्ययन में इसे समेटने का भी प्रयास न किया होता तो संभव था, ये सब खत्म चुकी होती। आज आदिवासी समाज भी काफी तेजी से बदल रहा है। जंगलों में भी आधुनिकता प्रवेश कर रही है-धीरे-धीरे। बचे हुए जंगल भी, शहर बन गए तो फिर हमारी विरासत को नष्ट होने से कोई बचा नहीं सकता।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 8210125572


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