प्रभात रंजन की कहानी 'आप तहज़ीब हाफ़ी को सुनते हैं?'
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प्रभात रंजन |
अगर आपसे यह सवाल पूछा जाए कि प्रेम में होना क्या होता है? तो सहसा कोई जवाब नहीं सूझेगा। यही तो प्रेम है जो किसी भी परिभाषा की चौहद्दी में नहीं अंट पाता। यानी परिभाषाओं को भी जो अस्वीकार करने का साहस रखता है, वह प्रेम है। प्रेम अपने आप में उदात्त होता है। कहा जा सकता है प्रेम हमें संकीर्णताओं से मुक्त करता है। हमारे व्यक्तिगत जीवन में जब दूसरे की सहमति असहमति इस कदर मायने रखने लगती है कि हम उसे सहज ही स्वीकार कर लेते हैं, तब हम प्रेम में होते हैं। अपनी कहानी में प्रभात रंजन एक जगह लिखते हैं ‘अधिकार की भावना ही तो प्रेम की सबसे बड़ी शत्रु होती है। प्रेम अधिकार से नहीं विश्वास से चलता है। विश्वास जितना अधिक होता है प्रेम उतना मुक्त होता जाता है।' हमारे समय के कहानीकारों में प्रभात रंजन का नाम अग्रणी है। 'हंस' के हालिया अंक में उनकी एक कहानी प्रकाशित हुई है जो प्रेम के तंतुओं की करीने से तहकीकात करती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रभात रंजन की कहानी 'आप तहज़ीब हाफ़ी को सुनते हैं?'
‘आप तहज़ीब हाफ़ी को सुनते हैं?’
प्रभात रंजन
आवाज़ पीछे से आई थी या बग़ल से उस आदमी को यह बात समझ में नहीं आई। समझ में तो यह भी नहीं आई थी कि आवाज़ उसी के लिए आई थी। फिर भी वह इधर उधर देखने लगा। जब कुछ नहीं समझ आता है तो कोई भी देखने लगता है। शायद कोई भी देखने लगता है।
उसके बायें कंधे के पास पीछे की तरफ़ से एक लड़की उसको घूर रही थी। आदमी ठहर कर उसकी आँखों में ऐसे देखने लगा जैसे लालबती पर खड़े गाड़ी वाले बत्ती को रंग बदलने के इन्तज़ार में देखते रहते हैं! उसकी आँखों में सुनने का कौतूहल साफ़ दिखाई दे रहा था।
‘मैं आपसे ही पूछ रही थी कि आप तहज़ीब हाफ़ी को सुनते हैं’, लड़की ठहर ठहर कर बोल रही थी। ‘माफ़ कीजिएगा, असल में जब आप चेक इन की लाइन में लगे हुए थे तो मैं आपके पीछे थी। और कहना तो नहीं चाहिए लेकिन मैंने आपके फ़ोन का स्क्रीन देख लिया था। दिख जाता है, क्या करें’, उसने आँखें नचाते हुए कहा! आदमी ने ध्यान दिया कि उसकी आँखें बड़ी और गोल थी। जब उसने अपनी आँखों को नचाया तो ऐसे लगा जैसे मछली तैर रही हो।
‘उसमें तहज़ीब हाफ़ी के वीडियो का आइकन दिखाई दे रहा था। एक मन हुआ था कि आपसे पूछूँ लेकिन यू नो…’ लड़की फिर बोली।
‘आह-हाँ! क्या आप भी?’ मैंने अचकचाते हुए जवाब दिया। ‘असल में मैं गाने-वाने नहीं सुन पाता। संगीत का शोर, ऊपर से कुछ शब्दों का हेरफेर- हिन्दी फ़िल्मी गीतों में और होता क्या है। यूट्यूब पर ग़ज़ल-क़व्वाली बहुत है लेकिन ग़ज़ल-क़व्वाली सुन-सुन सुन कर बोर हो गया हूँ। नया कुछ अच्छा लगता नहीं और पुराना कितना सुने कोई- वही मेहदी हसन, जगजीत सिंह, नुसरत फ़तह अली खान! अब तो गौहर जान और मास्टर मदन की रिकॉर्डिंग भी यूट्यूब पर मिल जाते हैं लेकिन संगीत कोई इसलिए थोड़े सुनता है कि वह बहुत ऐतिहासिक है। शायरी सुनने में एक तरह का सुकून मिलता है। रूहानी राहत…’
लड़की ने ध्यान दिया कि बोलते बोलते आदमी की आँखें बंद हो जाती थीं।
‘हाँ एक्ज़ैक्टली! मेरे साथ भी यही है। शेरो-शायरी का अपना जादू होता है और तहज़ीब हाफ़ी में तो जैसे यह जादू सिर चढ़ कर बोलता है। बाई गॉड कैसे कैसे शेर कहता है। वो वाला ही लीजिए- 'समथिंग समथिंग… क्या ख़ुशी रह गई थी जनमदिन की, मैं केक क्या काटता।’ लड़की ने बात आगे बढ़ाई।
“हाँ- तेरे होते हुए मोमबत्ती बुझाई किसी और ने
क्या ख़ुशी रह गई थी जनमदिन की मैं केक क्या काटता”- उसने ने शेर पूरा किया।
‘वाओ आपकी मेमोरी बहुत कमाल की है। वैसे मेमोरी से मुझे याद आया। मैंने कहीं पढ़ा था-अच्छी मेमोरी लेखक के लिये बहुत अच्छी होती है लेकिन जिसकी मेमोरी बहुत अच्छी होती है उसको जीवन में बहुत दुख सहना पड़ता है।‘
कहते कहते लड़की ने अचानक घड़ी देखी। वह सुबह सात बजे से एयरपोर्ट पर थी। एक बजने जा रहे थे फ़्लाइट का कुछ पता नहीं था। उसका आज बैंगलोर पहुँचना बहुत ज़रूरी था।
दिल्ली के टर्मिनल 2 पर पिछले कई घंटे से एक दूसरे के बग़ल में बैठे-बैठे ऊब कर दोनों ने एक दूसरे से बातचीत शुरू कर दी थी। होता है। अक्सर हो जाता है। ज़रूरी नहीं है कि लोग एक जैसे हों उनमें तभी बातचीत होने लगे। आप फ़ोन देख कर, टैब में कुछ देखने-पढ़ने का नाटक करते हुए लगातार कितने घंटे बिता सकते हैं। कुछ समय बाद इंसान को इंसान की कमी महसूस होने ही लगती है। ऐसे में आप किसी से भी बात करने लग सकते हैं। बातचीत शुरू होने की कोई भी वजह हो सकती है। यहाँ दोनों के बीच वह वजह थी- तहज़ीब हाफ़ी।
आदमी ने अब उस लड़की को ध्यान से देखा। देख कर लग रहा था जैसे बैंगलोर में किसी एमएनसी में काम करती हो। एप्पल का फ़ोन, हाथ में एप्पल की घड़ी। बीच-बीच में लगातार ऐसे टाइम देख रही थी जैसे उसका कुछ बहुत ज़रूरी छूटा जा रहा हो। कहीं पहुँचना हो। किसी ऐसी जगह जो उसकी अपनी हो। या क्या पता उसको भी किसी प्रोग्राम में पहुँचना हो और मन ही मन डर रही हो कि पहुँच भी पाएगी या नहीं।
लड़का सिर्फ़ एक बैकपैक में था। चेक इन में उसने कोई लगेज नहीं दिया था। साफ लग रहा था वह बमुश्किल एक दिन की यात्रा पर जा रहा था- कोई मीटिंग, कहीं कॉन्फ़्रेंस या क्या पता कोई लिट्रेचर फेस्टिवल… आजकल यह सब बहुत होने लगा है।
‘बाई द वे, आप कहाँ जा रहे हैं?’ कहानी के इसी मोड़ पर लड़की ने पूछा।
‘हैदराबाद जा रहा हूँ। असल में कल सुबह एक लिट्रेचर फेस्टिवल है। कल ही लौटना भी है। लेकिन आज पहुँच पाऊँगा या नहीं, पता नहीं…’
‘मतलब आप राइटर हैं?’
‘हाँ, लेकिन मैं हिन्दी में लिखता हूँ- विशाल ठाकुर!’ आदमी ने यह सोचते हुए हिन्दी लेखक पर ज़ोर दिया क्योंकि लड़की को देख कर उसको लग रहा था कि अव्वल तो यह पढ़ती नहीं होगी। अगर पढ़ती भी होगी क्या… जब यह तहज़ीब हाफ़ी को सुनती है तो इसके पढ़ने के बारे में क्या ही कह जा सकता है। लेकिन तभी उसे ध्यान आया कि वह ख़ुद भी तो तहज़ीब हाफ़ी को सुनता था। ध्यान आते ही वह मन ही मन झेंप गया।
‘आपकी शायद कोई कहानी मैंने किसी वेबसाइट पर पढ़ी है। आपके नाम से ऐसा लग रहा है, कहते हुए लड़की जैसे कुछ याद करने की कोशिश करने लगी। असल में मुझे हिन्दी पढ़ने का शौक़ है। आस्ट्रेलिया में पढ़ती थी तभी यह शौक़ लगा था। हिन्दी पढ़ती तो लगता जैसे अपनी मिट्टी से जुड़ी हुई हूँ। बैंगलोर में जिस अमेरिकन कंपनी में काम करती हूँ उसमें काम का प्रेशर बहुत रहता है लेकिन ब्रेक मिलता है तो फ़ेसबुक पर या कोई न कोई वेबसाइट स्क्रॉल करके कुछ न कुछ पढ़ती रहती हूँ। अब तो किंडल पर किताबें भी मिल जाती हैं। आपकी एक कहानी थी न जिसमें प्रेमिका शादी करने के लिए कहती है और प्रेमी उस पल कोई फ़ैसला नहीं ले पाता है और फिर जीवन भर उसी का अफ़सोस मनाता रह जाता है। अगर मैं सही हूँ तो…’
‘हाँ आप शायद मोनोक्रोम कहानी की बात कर रही हैं। यू आर राइट!’ विशाल ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया।
विशाल ने फिर थोड़ा रुकते हुए पूछा, बाई द वे आपका नाम…?’
‘ओह हाँ! लीना। लीना राठौड़।’
‘हाँ तो लीना जी, मैं बताना चाह रहा था कि असल में यह प्रसंग मेरी कहानी के पहले मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ में आ चुका है। जिसमें नायिका एक दिन नायक के सामने अपने सारे वस्त्र उतार देती है लेकिन नायक उसको चादर ओढ़ा कर चला जाता है। मैंने वहाँ से उस प्रसंग को उठाया और चादर ओढ़ाने की जगह शादी का करने का प्रसंग डाल दिया।’ विशाल ने बड़ी सहजता से लीना से बताया।
‘मतलब आप यह कह रहे हैं कि आपने मनोहर श्याम जोशी का आइडिया चुराया? वह भी एक पाठिका से जो शायद आपकी कहानी की प्रशंसक हो। उससे आप यह कह रहे हैं कि आपकी जो कहानी मुझे याद रह गई वह आपकी है ही नहीं।’
‘आप इसको कॉपी कह रही हैं लेकिन इसको हम लेखक लोग ट्रिब्यूट देना कहते हैं। वे मेरे उस्ताद थे और मैंने उनको ट्रिब्यूट देने के लिए मैंने अपनी कहानी में ऐसा प्रसंग उठाया। आप तो उर्दू शायरी सुनती हैं। आपने तो सुना होगा कि बड़े शायरों को ट्रिब्यूट देने के लिए उनकी ज़मीन पर शेर लिखे जाते हैं।’
‘देखिए, मैं उर्दू शायरी के बारे में कुछ नहीं जानती। मैं बस तहज़ीब हाफ़ी को जानती हूँ। उसी को सुनती हूँ।’ लीना ने बात काटते हुए कहा। ‘और हाँ, मुझे हमेशा लेखकों से बात करना अच्छा लगता रहा है! लेखकों के बारे में जानना अच्छा लगता है।’
‘हाँ जैसे मेरी पीढ़ी में लोग जौन एलिया को सुनते थे। वे शायरी नहीं सुनते थे बस जौन को सुनते थे।’ विशाल ने जवाब में कहा।
‘ऐसा नहीं है जौन को मैंने भी सुना है। लेकिन वे बर्बादी का जश्न मनाने वाले शायर लगे मुझे। लेकिन तहज़ीब अपने जैसा लगता है, जो जब है उसकी ख़ुशी मनाओ, जो जब नहीं है तो उसको भूल जाओ। जैसे हम कॉन्फ़्रेंस, मीटिंग, शेड्यूल, अप्रेजल में फँसे रहते हैं, ऐसे में बर्बादी वाली शायरी नहीं वह अच्छी लगती है जिसमें जो हो रहा है सब सही लगे। तहज़ीब की शायरी ऐसी ही तो है। वो शेर तो आपने सुना ही होगा-
‘मैं जिस कोशिश से उस को भूल जाने में लगा हूँ
ज़ियादा भी अगर लग जाए तो हफ़्ता लगेगा।‘
मतलब ख़ुशी हो या मातम उम्र भर का कुछ भी नहीं होता। उसकी शायरी से यही बात मुझे सबसे अधिक कनेक्ट करती है। असल में जानते हैं विशाल जी, अगर आप सो कॉल्ड स्कूल या कॉलेज से पढ़े हों तो होड़ आपके अंदर ऐसे बैठ जाती है कि आपको इसके सिवाय कुछ नहीं सूझता कि आगे और आगे जाना है। आजकल कैरियर को सबसे अधिक महत्व देने लगे हैं हम। फ़ालतू की इमोशनबाज़ी नहीं चल पाती अब…।’
‘आपसे बातें करते हुए, जिस तरह की शायरी आप सुनती हैं उससे ऐसा लगता ही नहीं है कि आप इमोशनबाज़ी जैसे शब्द इस्तेमाल कर सकती हैं’, जब से लीना ने उससे कहा था कि उसने उसको पढ़ रखा था वह बहुत आत्मविश्वास के साथ बोले जा रहा था। एक ऐसे लेखक की आवाज़ में सामने वाला जिसकी प्रशंसिका हो। ‘असल में देखिए, आप इमोशन से भागने की लाख कोशिश कर लें वक्त-बेवक्त इमोशन प्रकट हो ही जाता है।‘
‘देखिए, बात तहज़ीब हाफ़ी से शुरू हुई थी और तहज़ीब हाफ़ी को जितना मैं समझ पाई हूँ वह यह कि इसके यहाँ प्रेम है, प्रेम का टूटना है लेकिन प्रेम का मातम नहीं है। वह उस अनुभव को दर्ज करता है और आगे बढ़ जाता है’, लीना बोली।
‘मुझे तो यह लगता है कि वह प्रेम ही क्या जो आपको वह रहने दे जो आप हैं। बल्कि आप जो नहीं हैं उस दिशा में आपका प्रेम न ले जाये तो समझ लीजिए कि वह प्रेम नहीं महज आकर्षण है या चाहे कुछ और समझ लीजिए। कई बार हम प्रेम नहीं कर रहे होते बल्कि किसी के साथ रहने में ही अपनी सार्थकता को सिद्ध कर रहे होते हैं। प्रेम तो जैसे संतूर के मंद स्वर की तरह जीवन के पार्श्व में बजता रहता है। आप कुछ भी कर रहे होते हैं पीछे उसका मद्धिम संगीत बजता रहता है। लगने लगता है कि जीवन इसी तरह से चलता रहे, इस जीवन में कोई बाधा न आए। जब आपको संसार, घर-परिवार सब बाधा लगने लगे तो समझ लीजिए आपको प्यार हो गया है’, विशाल ने जवाब में कहा। ‘असल में मैं अपने दौर की बात कर रहा। हो सकता है आपको यह सब सुनना अजीब लग रहा हो, लेकिन हम लोग जिस दौर में थे प्यार को इतना ही महत्व दिया जाता था। एक बार प्रेम होता था और बार-बार उसका अभ्यास भर होता था। पहला प्यार इंसान को जीवन भर बेचैन बनाये रखता है। साथ होने न होने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। पहले प्यार की बेचैनी है जो याद रह जाती है’, विशाल ने कहा।
‘हा हा हा! सही में लग रहा है जैसे किसी बंगाली कवि की गहरी वेदना में डूबी पंक्तियाँ पढ़ रही हूँ। गहरी वेदना और नॉस्टेलजिया का घटाटोप। आपको सुनते हुए मुझे जीवनानंद दास याद आ गये’, लीना ने कहा।
‘मतलब आप बंगाली कवियों को भी पढ़ती हैं?’
‘नहीं, बस जीवनानंद दास को। किसी साइट पर उनकी कविताओं के ढेर सारे हिन्दी अनुवाद पढ़े थे। बहुत अलग-सा लगा था। जैसे कोई गहरी वेदना में हो और कराह रहा हो। पढ़ना तो अच्छा लगता है लेकिन आजकल करियर का दबाव इतना अधिक रहता है कि बहुत दिन तक एक अनुभव को जिया नहीं जा सकता। बहुत से प्रेम सिर्फ़ इसलिए बड़े अनुभव में नहीं ढल पाते हैं क्योंकि आपके पास समय ही नहीं होता। समय प्रेम का सबसे बड़ा मित्र है तो वही उसका सबसे बड़ा शत्रु भी है’, लीना ने कुछ ठहरते हुए कहा।
‘आप तो लगता है प्रेम पर पूरी किताब लिख सकती हैं। आपने तो तहज़ीब हाफ़ी के बहाने प्रेम पर पूरा व्याख्यान ही दे डाला। कई बार लगता है हम प्रेम को पूरी तरह समझ गये हैं लेकिन तभी हमारे जीवन में प्रेम ऐसे आता है जो हमें नासमझ साबित कर देता है। अच्छे अच्छे समझदार लोग भी नहीं समझ पाते। प्रेम मेरे लिये हमेशा अबूझ रहा।’
‘ओह लगता है फ़्लाइट आज नहीं जाएगी। जब फ़ॉग होता है तो दिल्ली से फ़्लाइट का यही हाल होता है। एयरलाइंस वाले कुछ बताते भी नहीं। पता नहीं कब जाएगी। कल सुबह मुझे ड्यूटी ज्वाइन करनी है’, लीना ने बात बदलते हुए कहा।
‘हाँ, आप सही कह रही हैं। यह तो अच्छा हुआ कि मेरा सेशन कल दोपहर में है। फ़्लाइट अगर आज कैंसल हो गई तो मैं कल सुबह भी जा सकता हूँ। कल ही शाम को लौटना है’, विशाल ने बोला। ‘आप अभी प्रेम पर प्रवचन दे रही थीं। क्या इस प्रवचन का अनुभव से कोई संबंध था? या यूँ ही आपने सोचा सामने लेखक बैठा है तो मैं भी कुछ सुना दूँ, अपनी कल्पना शक्ति दिखा दूँ? आख़िर, लेखक कल्पना शक्ति से ही तो लिखता है। आपने तो सुना-पढ़ा ही होगा अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध लेखक आर. के. नारायण ने अपनी कहानियों में मालगुड़ी नामक एक गाँव बसा दिया था। इस नाम का कोई गाँव था नहीं यह, लेकिन उनकी कहानियों का यह गाँव अमर हो गया।’
‘देखिए आप पर्सनल होते जा रहे हैं। हालाँकि मुझे इससे कोई परेशानी नहीं है। कई बार हम जाने-पहचाने लोगों से कुछ नहीं बता पाते लेकिन अनजान लोगों के सामने अपना सब कुछ खोल कर रख देते हैं। आपको सुनाने का एक लोभ यह है कि आप किसी दिन मेरी कहानी लिख देंगे’, लीना ने अपने एयरपॉड को पर्स में डालते हुए कहा।
‘कई बार हम कहानी सुनाते-सुनाते कहानी बनाने भी लगते हैं। क्या पता यह सब कल को एक कहानी बन जाये! देखिए लीना जी, जो भी प्रेम करता है उसको यही लगता है कि उसकी प्रेम कहानी सबसे अलग है, एकदम जुदा। लेकिन सुनने के बाद पता चलता है कि उसमें कुछ भी यूनिक नहीं होता। जो प्रेम हम जी रहे होते हैं उसे हम से पहले सैकड़ों-हज़ारों लोग जी चुके होते हैं, और पता नहीं हमारे बाद कितने लोग और जियेंगे’, विशाल बोले जा रहा था।
बोलते-बोलते उसकी नज़र अचानक घड़ी की तरफ़ गई। तीन बज चुके थे। अचानक वह चुप हो गया और बाहर देखने लगा। बहुत सी फ़्लाइट्स लेट थीं और इसी वजह से एयरपोर्ट पर भीड़ भी बहुत थी। समय बीतता जा रहा था, उसने मन ही मन सोचा।
‘मैं यहाँ आपकी राय से सहमत नहीं हूँ। आप लेखक हैं तो आपसे क्या छिपाना। इसलिए अपना लिखा कुछ भेजना चाहूँगी। आप अपना ईमेल आईडी दें या व्हाट्सऐप नंबर?’
विशाल ने दे दिया तो लीना ने तत्काल उसको व्हाट्सऐप पर भेज दिया।
‘आपको अपनी डायरी से यह कॉपी-पेस्ट भेज रही हूँ। आप पढ़ना फिर जवाब देना। आपको अभी तक मैंने यह बताया ही नहीं कि मैं भी लिखती रही हूँ लेकिन कभी यह नहीं सोचा कि इनको प्रकाशित भी करवाना चाहिये। आपको भेज रही- मैंने कभी उसको लिखा था जिससे मैंने सीखा था कि प्यार क्या होता है-
‘जोड़-घटाव कर के आगे बढ़ जाना, अपने लिए जगह बनाना तो मुझे खूब आता था, आता है, लेकिन गुणा-भाग करना नहीं सीख पाई। जीवन में यही एक कमी रह गई जिसके लिये मुझे तुम्हारी याद आते रहे। याद है मैं तुमसे कहती थी- “मुझे जोड़-घटाव आता है, तुमको गुणा-भाग। हम दोनों एक रहे तो जीवन का गणित कभी नहीं उलझेगा।“ लेकिन जानते हो, जीवन का गणित हमेशा हमारे गणित पर भारी पड़ जाता है। जब सब आसान लगने लगे तो समझ लेना चाहिए कि किसी मुश्किल की अगवानी करनी पड़ सकती है। मैंने तो जीवन से यही सीखा है।
‘तुमने मुझे कभी आवाज़ क्यों नहीं दी। सब कुछ तो था तुम्हारे पास- मेरा फ़ोन नंबर, ईमेल पता। फ़ेसबुक, इंस्टा पर भी हम कभी अमित्र नहीं हुए। तुमने कभी कहीं मैसेज तक नहीं किया? मैं जानती थी कि जो था वह बीत चुका है, फिर भी मैं इंतज़ार करती रही। प्रेम इंतज़ार का फल होता है और मैं इस बात को कभी नहीं भूली। मैं सड़क की उन लालबत्ती की तरह हो गई जो हरा होना भूल गई हो। लेकिन तुमने कभी मैसेज तक नहीं किया। हर साल मैं 26 मार्च को तुमको ज़रूर मैसेज करती रही। तुम्हारे जन्मदिन के दिन। लेकिन तुमने उनके जवाब भी नहीं दिये। लेकिन मैं भूली नहीं कुछ भी।
‘तुमने याद भी कहाँ किया? जन्मदिन पर मैसेज भेजना याद करना नहीं होता है। सोशल मीडिया ने सबको सबका जन्म दिन मनाना सिखा दिया है। रोज़ाना हम तमाम अनजान लोगों के जन्म दिन मनाते रहते हैं। बधाई संदेश भेजते रहते हैं। तुमको लगता है तुम मेरा जन्म दिन नहीं भूले। असल में फ़ेसबुक ने भूलने नहीं दिया होगा। मेरी मित्रता सूची में हज़ारों लोग हैं, जिनमें से कुछ सौ लोग हर साल मुझे बात-बात पर बधाई देते रहते हैं। शुरू-शुरू में सब अच्छा लगता था। फिर सब सामान्य हो गया। कुछ ऐसा होता ही नहीं है जो जीवन में उत्तेजना भर दे। मैं ऐसी ही हो गई। ऐसी ही होती गई। तुम्हारे बाद मैं कई बार प्रेम में पड़ी। लेकिन हर अनुभव जैसे उस अनुभव जैसा नहीं रहा जैसा तुम्हारे साथ रहा। जानते हो इंसान जीवन में बहुत कुछ अनुभव करता है लेकिन याद बहुत कम रह जाता है। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही होता है। तुम मेरे जीवन से निकले तो अनुभव बन गये। हर अनुभव की पृष्ठभूमि में तुम ही थे। तुम ही रहे। तुम्हारी जगह कोई नहीं ले पाया।‘
‘शायद पहला प्रेम था न। इसलिए। कहते हैं न- पहला प्रेम कोई नहीं भूलता। मेरे लिए तो तुम पहला प्यार थे और उसकी अपूर्णता को ही संपूर्णता समझ कर सीने से लगाए रही। पहला और सच्चा प्यार। मैंने जब जब किसी से प्यार किया तुमको ही याद किया। हर पुरुष में तुमको तलाश किया। जो तुम्हारी तरह की नहीं थी उसको तुम्हारी तरह की बनाने की कोशिश की। इन्हीं कश्मकश में प्रेम बार-बार बालू की तरह मेरी मुट्ठी से फिसलता रहा। और मैं रिक्त हाथ रह जाती। हर बार रह जाती। जब भी किसी से जुदा हुई, जब भी किसी से छूटी तो ऐसा लगा तुमसे ही जुदा हुई, तुमसे ही छूटी। जैसे तुम निकष रहे हो मेरी संवेदना का, वेदना का। न तुमसे अधिक कोई मुझे प्यार कर पाया, न कोई तुमसे अधिक दुख दे पाया।
‘मैंने जब भी किसी लंबी लड़की के साथ तुम्हारी कोई तस्वीर देखी तो मुझे लग गया कि हो न हो वह तुम्हारी प्रेमिका हो। तुम हमेशा कहते थे न कि तुमको सबसे अधिक मेरी लंबाई पसंद है। तुमको ऐसी लड़कियाँ ही पसंद रहीं न, जिनका क़द तुम्हारे क़द के बराबर हो। लेकिन एक बात समझ नहीं आई कि तुमने शादी नाटी लड़की से क्यों की? यह बात मुझे हमेशा उलझन में डालती रही। कई बार सोचा कि तुमको मैसेज करूँ, फ़ोन करूँ और अपने मन की इस उलझन को सुलझाऊँ। लेकिन फिर तुम्हारे वैवाहिक जीवन का ख़याल आ जाता और मैं लिखते-लिखते रुक जाती। विवाह बहुत बड़ी बाधा होती है न स्त्री-पुरुष मैत्री में।
‘मैं तो जिससे मिली उसमें उसी सलाहकार को ढूँढती रही जो तुम्हारी तरह बात-बात में मुझे सलाह दे, गाइड करे और साथ में प्रेम भी करे। लेकिन ऐसे प्रेमी कहाँ मिलते हैं जो प्रेम को वासना से आगे सोच भी सकें। सब मेरे शरीर में प्रेम ढूँढते रहे। मैं झूठ क्यों बोलूँ- मैं भी उसी को सुख समझती रही। प्रेम के नाम पर सुख बटोरती रही और फिर एक और दुख। सुख दुख की इसी लुकाछिपी में प्रेम आता रहा जाता रहा। लेकिन दिल ख़ाली का ख़ाली रह गया। बहुत बाद में एक लड़के से मुझे प्यार हुआ जो उम्र में मुझसे दस साल छोटा था। उसके प्यार में मुझे लगा कि मैं मुसलसल जिसकी तलाश में थी वह मुझे मिल गया है। बताया न वह मुझसे दस साल छोटा था…।’
विशाल पाँच मिनट तक पढ़ता रहा या पढ़ने का नाटक करता रहा पता नहीं, लेकिन पाँच मिनट के बाद उसने जवाब दिया- ‘मैं आपसे कुछ अलग सोचता हूँ। मुझे लगता है हम जब किसी से प्यार करते हैं तो हम उसकी हर उस चीज से प्यार करते हैं जिससे वह प्यार करता है। चाहे वह किसी अन्य से प्यार ही क्यों न हो!’
‘अन्य से प्यार? क्या प्रेम एकाधिकार से मुक्त हो सकता है?’ लीना ने जैसे चौंकते हुए पूछा।
‘अधिकार की भावना ही तो प्रेम की सबसे बड़ी शत्रु होती है। प्रेम अधिकार से नहीं विश्वास से चलता है। विश्वास जितना अधिक होता है प्रेम उतना मुक्त होता जाता है। आपको एक कहानी सुनाता हूँ, अगर आप सुनना चाहें तो?’
लीना ने हाँ में सिर हिला दिया।
‘यह कहानी है मृदुला और रामेश्वर की। 1990 के दशक की बात है। दोनों दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ते थे। यह कहना शब्दों का अपव्यय होगा कि दोनों एक दूसरे से प्यार करते थे। दोनों पहली बार एक जुलूस में मिले थे। हालाँकि यह कहना ग़लत होगा कि दोनों पहली बार मिले थे। असल में वे इसी तरह के जुलूसों में पहले भी दो तीन बार मिल रहे थे। उन दिनों एक आंदोलन चल रहा था और पूरा विश्वविद्यालय उसकी चपेट में था। रोज़ जुलूस, नारेबाज़ी - यही सब चल रहा था।
‘प्रेम होने के लिए ज़रूरी होता है कि कोई सामान्य बिंदु हो। तो दोनों में एक बात कॉमन थी। दोनों उस राजनीतिक जुलूस में पकड़ कर लाये गये थे। वे वहाँ होते हुए भी वहाँ नहीं होते थे और ऐसे में दोनों में थोड़ी बहुत बातचीत होने लगी थी। दोनों भीड़ में थे लेकिन दोनों अकेले। लेकिन उस दिन जुलूस में चलते चलते रामेश्वर बार बार भीड़ में अकेला टाइप हुआ जा रहा था। नारों के शोर के बीच वह गुनगुनाने लगता- ‘दिल आज शायर है, ग़म आज नगमा है…’ कोई ख़ास बात नहीं थी। यूँ ही एक बात थी। सुबह-सुबह गाना सुन लेने के बाद जैसे ज़ुबान पर चढ़ जाता है। उसकी ज़ुबान पर चढ़ गया था- ‘दिल आज शायर है, ग़म आज नगमा है…’
गुनगुनाए जा रहा था कि कि बगल में वह आ गई। कब आई कुछ पता ही नहीं चला। कोई आएगी भी उसने यह सोचा भी नहीं था। उसने तो यह भी नहीं सोचा था कि कभी इस तरह से रोज-रोज एक आंदोलन में नारा लगाती भीड़ में वह शामिल रहेगा। लेकिन राघव जो कल तक उसका दोस्त था अब उसका नेता बन गया था। वह नेता का दोस्त था। हर समय उसके साथ रहता। साथ न सही उसके आस-पास रहता। उसके आस-पास रहने वाले बढ़ते जा रहे थे और वह पीछे होता जा रहा था। भीड़ में पीछे-पीछे वह गुनगुनाए जा रहा था कि जाने कब वह बगल में आ गई।
जब बगल से आवाज़ आई तब उसका ध्यान टूटा- ‘गाना आप पहले से गा रहे थे या मुझे सुना रहे थे।‘
झेंप, घबराहट सब एक साथ उसके चेहरे पर आ गए। कुछ बोलते नहीं बन रहा था।
‘यूँ ही… यह गाना तो सुबह से ज़ुबान पर चढ़ गया था। बस यूँ ही… आपको तो मैंने देखा ही नहीं। कॉलेज में क्लास बंद है। मैं तो राघव के कारण आ जाता हूँ। बस यूँ ही…’
‘ग़ैरों के शेरों को ओ सुनने वाले हो इस तरफ भी करम’, लड़की गाने की आगे की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगी।
‘क्या कहूँ। अपना भी बस यूँ ही समझ लीजिए। कॉलेज में क्लास नहीं। हॉस्टल में कोई रोक-टोक नहीं। रूबी दीदी है न। वह मेरी सीनियर हैं… अब तो रोज का रूटीन बन गया है।’
‘मैं देख रही हूँ कई दिन से कि आप यहाँ हो कर भी यहाँ नहीं लगते। मैं शर्त लगा सकती हूँ कि आपने एक बार भी नारा नहीं लगाया।‘
‘जहाँ सब शोर मचा रहे हों वहाँ चुप्पी सबसे बड़ा प्रोटेस्ट होता है। जानती हैं न! जब बहुत शोरगुल बढ़ जाता था तो गांधी जी मौनव्रत धारण कर लेते थे।’
‘मतलब आप भी मेरी तरह… मुझे तो डर ही लगा रहता है कि कहीं कोई देख कर घर वालों को न कह दे। मम्मी तो बस कांड ही कर देंगी।‘
‘हाल वही मेरा भी है। कल जब हम केमिस्ट्री लैब बंद करवाने के लिए गए और वहाँ रामजस के लड़कों ने काँच तोड़ दिए, बाहर गमले तोड़ दिए। प्रोफ़ेसर के साथ बहस की फोटो सांध्य समाचार में छप गई। जानती हैं, उसमें मेरी शर्ट आ गई है। शुक्र है चेहरा नहीं आया। जब बिहार में थे तो मेरा फोटो अख़बार में छप गया था। वही फोटो देख कर पापा ने दिल्ली पढ़ने भेज दिया। अब डर लगता है कि…’
‘चिंता मत कीजिए। सांध्य समाचार दिल्ली में ही लोग नहीं पढ़ते। बिहार में कौन भेजेगा? और वैसे भी जुलूस में आप जिस तरह से चलते हैं उससे तो आपकी फोटो छपने से रही।‘
‘लगता है आप भी इसीलिए पीछे चलती हैं’, रामेश्वर ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘बाप रे, मेरी फोटो छप गई तो मम्मी मेरी जान ले लेंगी’, लड़की के चेहरे पर घबराहट साफ़ दिखाई दे रही थी।
‘व्हाट्स द टाइम लाइक’, लड़की ने अचानक पूछा।
अंग्रेज़ी में आए इस सवाल से वह बैकफ़ुट पर आ गया। तत्काल कोई जवाब नहीं सूझा तो उसने अपनी घड़ी उसके सामने कर दी।
‘मुझे लगता है आप अपना समय मुझे दे रहे हैं!’ मृदुला ने पूछा।
‘सारा समय आपका ही है अब।’ जब रामेश्वर ने यह जवाब दिया तब दोनों को यह समझ में नहीं आया था कि यह उनके प्यार की शुरुआत थी। एक ऐसे प्रेम की जो बाद में कहानी की तरह मेरे पास बची रह गई है।
‘प्रेम का कोई बना बनाया शास्त्र तो होता नहीं है। प्रेम के दौरान जो बन जाता है वही शास्त्र हो जाता है। रामेश्वर से मृदुला कितना प्यार करती थी इसको मापा तो नहीं जा सकता। कोई किससे कितना प्यार करता है इस बात को कैसे मापा जा सकता है? एक बार मृदुला ने रामेश्वर से यह सवाल किया था कि जिसको प्यार कहते हैं वह किस चीज के हो जाने से होता है? एक दूसरे के साथ क्या हो जाने को प्यार कहते हैं? आख़िर वह क्या चीज होती है जिसके होने को प्यार कहा जाता है? रामेश्वर ने जवाब दिया था एक दूसरे के साथ होने से। मृदुला ने फिर सवाल किया कि एक साथ तो रूम मेट के साथ भी रहा जाता है? रामेश्वर ने कहा था उस तरह से नहीं?
फिर किस तरह से?
जैसे कोई एक दूसरे के सिवा कुछ सोचे ही नहीं।
लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि इंसान एक दूसरे के सिवा कुछ सोचे ही नहीं। सोचने को बहुत सारी बातें होती हैं। मिलने को बहुत सारे लोग होते हैं। जब सब के बाद भी किसी की याद आती हो उसी को प्रेम कहते हैं।
यह सब सवाल जवाब अपनी जगह थे लेकिन फिर भी दोनों अधिक से अधिक एक दूसरे के साथ रहते। कई बार क्या बल्कि अक्सर दोनों एक दूसरे के साथ खाना भी खाते थे। रामेश्वर अपने होस्टल का खाना छोड़ कर मृदुला के टिफ़िन का खाना खाता। उसका बनाया नहीं होता था लेकिन उसको अपने हॉस्टल के खाने से बहुत अधिक स्वादिष्ट लगता था।
खाने पीने के अलावा भी तो प्यार होता है न। मृदुला अच्छा लिखती थी और यूँ ही बातों-बातों में उसको लिखने का काम मिल गया। पायनियर अख़बार में कॉलेज की ही एक सीनियर संपादक थीं। एक दिन मृदुला उनसे मिली और बातों-बातों में उन्होंने उससे कहा- अच्छा बोलती हो तुम। ऐसे ही लिखना शुरू करो हमारे लिए। महीने में दो सेलिब्रिटीज़ के इंटरव्यू करो। दिल्ली सेलिब्रिटीज़ से भरी हुई। ऐसे लोगों को खोजो जो साहित्य-कला के क्षेत्र के हों या जिनकी इनमें दिलचस्पी हो।
वह गूगल का जमाना तो था नहीं इसलिए रिसर्च करना आसान काम नहीं होता था। रामेश्वर ऐसे लोगों के नाम चुनता जिनके साथ बातचीत करनी चाहिए, मृदुला अख़बार में जाकर अप्रूवल ले लेती और फिर रामेश्वर रिसर्च करता, उनके फ़ोन नंबर लेता और फिर मृदुला इंटरव्यू ले लेती। फिर वह प्रकाशित हो जाता। इसमें कोई शक नहीं कि वह बातचीत अच्छे से करती, सब अच्छे से छपता। उसका नाम होने लगा। उसको बड़े-बड़े लोग इंटरव्यू देने लगे। कुछ उसको लंच-डिनर पर भी बुलाने लगे।
उस उम्र में इतना होना भी बहुत बड़ी बात होती है। मृदुला बड़े-बड़े ख़्वाब देखने लगी थी। और यक़ीन मानिए रामेश्वर खुश होता था। वह सोचता कि एक दिन इसी तरह मृदुला स्टैबलिश हो जाएगी, कमाने लगेगी, फिर वह भी अपने काम करेगा, राजनीति करेगा, अपने समाज के लोगों के लिए कुछ करेगा। उन दिनों मृदुला के ख़्वाबों में एक ख़्वाब यह भी था कि वह घर की पूरी ज़िम्मेदारी उठाएगी, कमायेगी। जिससे रामेश्वर को अपने समाज के लिए काम करने का मौक़ा मिल जाये। रामेश्वर उससे हमेशा कहता रहता था- मुझे अपने क़स्बे, अपने समाज के ऊपर से पिछड़ेपन का दाग़ मिटाने के लिए कुछ करना है। तुम मेरा साथ दोगी न?
मृदुला उसकी छाती में सिर रख कर उसको ज़ोर से भींच लेती।
सब कुछ ठीक चल रहा था, योजना के मुताबिक़ चल रहा था। लेकिन प्रेम में दिखता कुछ और है और होता कुछ और है। जिसको प्रेम में सफलता कहते हैं जब वह सामने दिखने लगती है कि कुछ ऐसा हो जाता है सब गड़बड़ होने लगता है।
सब ठीक चल रहा था कि मृदुला ने आयुष मिश्रा का इंटरव्यू ले लिया। उस समय दिल्ली थियेटर का सबसे बड़ा सितारा आयुष मिश्रा, जो उस दौर में दिल्ली में किसी फ़िल्म स्टार से कम दर्जा नहीं रखता था। रामेश्वर थियेटर से जुड़ा हुआ था इसलिए वह आयुष मिश्रा का बहुत बड़ा फ़ैन था। वह मृदुला से अक्सर आयुष मिश्रा की कहानियाँ सुनाता रहता था। कभी कभी उसके अन्दाज़ में गीत गा कर सुनाता-
उजला ही उजला शहर होगा जिसमें हम तुम बनायेंगे घर
रहेंगे दोनों कबूतर से जिसमें बाजों का होगा न डर
चाँदी के तारों से रातें बुनेंगे तो चमकीली होगी सहर…’
पायनियर में आयुष का इंटरव्यू आया। जैसा कि उम्मीद थी बहुत चर्चा हुई। उसके संघर्ष की, फ़िल्मों में न जाने की उसकी वजहों की। लेकिन एक अजीब बात रामेश्वर ने महसूस की कि मृदुला उससे कतराने सी लगी थी। उस तरह से कतराना नहीं लेकिन वह अक्सर पढ़ाई का बहाना बनाती, कभी कहती कि क्लास टेस्ट है। इस सबसे उसको दूरी जैसी दूरी महसूस होने लगी थी। रामेश्वर के लिए यह असहनीय था। प्रेम शायद एक आदत का नाम होता है। कोई एक आदत छुड़वाने की कोशिश करने लगता है और दूसरे को समझने में आने लगता है कि प्रेम की दुनिया ख़त्म होने वाली है।
रामेश्वर रोज़ पूछता- वह क्यों बदल रही है? कुछ तो हुआ है? लेकिन क्या हुआ है रामेश्वर समझ नहीं पा रहा था। दूर-दूर तक कहीं कोई लड़का दिखाई नहीं दे रहा था जिसके ऊपर शक किया जा सके। बीच-बीच में वह यह भी सोचने लगता कि यह कोई ज़रूरी नहीं है कि कोई लड़की आपसे दूरी बना रही हो तो कारण कोई लड़का ही हो। कारण कुछ और भी हो सकता है। हो सकता है शोहरत वह कारण हो जो इन दिनों मृदला को मिल रही थी।
लेकिन रामेश्वर के बिना मृदुला रह सकती थी क्या? उसके जितने काम रामेश्वर कर देता था, जितने तरह के काम कर देता था उतने तरह के काम करने वाला कोई मिल गया था क्या? कोई मिल सकता था क्या? वह बार बार मृदुला से पूछता। वह उखड़ी-उखड़ी सी रहने लगी थी। बातों के सीधे-सीधे जवाब नहीं देती थी। एक दिन उसने रामेश्वर से पूछा- तुम मुझे बहुत प्यार करते हो?
हाँ
दुनिया में सबसे ज्यादा?
हाँ। क्या तुमको ऐसा नहीं लगता?
लगता है। तभी तो एक बात कहना चाहती हूँ। फिर वह रुक कर बोली- ‘मुझे कुछ दिन आयुष मिश्रा के साथ प्यार करने दोगे। फिर मैं वापस आ जाऊँगी। वादा करती हूँ। असल में वह आदमी मुझे मकान मालकिन के नंबर पर रोज़ फ़ोन भी करता है। मुझे अच्छा लगने लगा है। क्या करूँ?
कहते हुए वह रामेश्वर के गले से लग गई।
रामेश्वर को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहे? कैसे रियेक्ट करे? क्या वह एक झटके में हाँ कहे, और कहे कि तुम उसके साथ गो अराउंड कर लो। फिर वापस मेरे पास आने की क्या ज़रूरत है? बड़े लोग, बड़ी दुनिया में जाओ। आगे बढ़ो। मेरे जैसे लोग किस काम आयेंगे। मेरी भूमिका पूरी हो गई है।
लेकिन उसने पूछा नहीं। उसने धीरे से बस यह पूछा कि क्या हुआ? मैंने ऐसा क्या कर दिया?
'तुम ही तो उसके इतने बड़े फ़ैन हो। तभी तो मैं उससे इंटरव्यू लेने गई। अब तुम्हारी नज़रों से जाना उसको, तो अच्छा लगने लगा। तुम ही बताओ कि हमें हर उस चीज से प्यार नहीं करनी चाहिये जिससे हमारा प्रिय प्रेम करता हो?’
मृदु… कह कर वह उस दिन फूट-फूट कर रोने लगा। मृदुला ने किसी बच्चे की तरह से उसको अपने से चिपका लिया।
कहने लगी, ‘ऐसा मत सोचो कि मैंने कुछ ग़लत किया है। मैंने कुछ भी ग़लत नहीं किया है। उसको मैंने हाँ भी नहीं कहा है। वह तो रोज़ फ़ोन पर पूछता है। मैंने सोचा तुमको बता दूँ, तुमसे पूछ लूँ। ग़लत किया क्या? मैं तो इसलिए उसको बहुत प्यार करना चाहती हूँ क्योंकि तुम उससे बहुत प्यार करते हो। मैं तुमसे कुछ छिपाना नहीं चाहती थी इसलिए बता दिया।’
‘व्हाट रबिश!’ ये क्या कहानी हुई? आपने सुनाई तो बहुत अच्छे से है लेकिन इस तरह की कहानी पर यक़ीन कौन करेगा?’ लीना बोली।
‘देखिए, मेरी दिलचस्पी दस साल छोटे उस लड़के के साथ कहानी वाली उस लड़की की कहानी में भी है। क्या हुआ?’ बात यक़ीन करने न करने की नहीं है। बात यह है कि प्यार में कुछ भी हो सकता है। जब सब कुछ वही वही हो जो जो हम ने प्यार में सोचा हो तो वह प्यार कहाँ रहता वह तो किसी और की कहानी को जैसे दोहराना हो जाता है। देखिए, असल में बात यह है कि जिस तरह से प्रेम कहानियों कि शुरू होने के कोई नियम नहीं होते, उसी तरह उनके अंत का भी कोई बना-बनाया नियम नहीं होता।’
‘अच्छा चलिए, आपकी बात मान लेती हूँ लेकिन आपने इस कहानी का अंत तो बताया ही नहीं। क्या हुआ? क्या दोनों जिस तरह एक ग़लतफ़हमी की वजह से एक दूसरे के प्यार में पड़ गये थे उसी तरह एक ग़लतफ़हमी की वजह से एक दूसरे से अलग हो गये? या कहानी का नायक रामेश्वर सच में उतनी उदारता दिखा पाया उससे जितनी उदारता की अपेक्षा मृदुला ने की थी? या रामेश्वर के प्रेम के कारण मृदुला ने अपनी इच्छा का त्याग कर दिया। आख़िर उसने वह कामना भी तो रामेश्वर के प्रेम में पड़ कर की थी? इनमें से क्या हुआ इस कहानी में? इस तरह आधे अधूरे ढंग से कहानी मत सुनाइए, पूरी तरह से सुनाइए।‘
‘क्या अंत वही होता है जिसको हम अंत मानते आए हैं? क्या एक दिन अंत कहने से सब कुछ ख़त्म हो जाता है? क्या कहानी का अंत वहीं हो जाना चाहिए था? या आगे की कहानी भी होनी चाहिए? कोई खूबसूरत मोड़ या कुछ और दर्दनाक? एक लेखक के रूप में मेरे सामने इतने सारे सवाल उठ खड़े हुए और मैं किसी एक अंत तक नहीं पहुँच पाया।’
‘हा हा हा! आप कमाल के लेखक हैं। कहानी आपकी है आप जो चाहे अंत कर सकते हैं। सच बताऊँ, मैंने आपको पहले भी कहा था कि मुझे लेखकों से बात करना बहुत अच्छा लगता है। …और आप तो बहुत कमाल हैं। कहानियाँ तो अच्छी लिखते ही हैं अपनी बातों से सम्मोहित करना भी जानते हैं। लेकिन एक बात मुझे समझ नहीं आई कि क्या मेल ईगो हर्ट नहीं हुआ होगा! मेरा अनुभव तो यही कहता है कि पुरुष अपने ईगो को सबसे अधिक महत्व देते हैं। स्त्री के साथ रिश्ते में बराबरी जताते ही नहीं।’
‘हा हा हा, प्रेम में ईगो की बात आते ही प्रेम-प्रेम कहाँ रह जाता है। इतना आसान नहीं होता। प्रेम को अंधा कहने का और मतलब क्या होता है? मतलब जब प्रेम हो जाये तो न कुछ सोचना, न समझना। बस प्रेम को सर्वोपरि मानना! दोनों ने प्रेम किया था और प्रेम को ही महत्व दिया। प्रेम जिधर ले गया उधर चले गये…
‘अच्छा चलिए, यह बताइए कि क्या यह कहानी आपकी है?’
‘जिस दिन इस पर मैं लेखक के रूप में अपना नाम लिख दूँगा तब मेरी हो जाएगी। फ़िलहाल तो आपकी भी हो सकती है क्योंकि मैंने आपको सुना दी है। इंसान की ज़िंदगी में इतना कुछ होता रहता है। यह तो उसके ऊपर निर्भर करता है कि वह किसको कहानी मानता है किसको नहीं।’
लीना अचानक अपने फ़ोन का स्क्रीन देखने लगी। शायद एयरलाइंस का मैसेज था, क्योंकि फ़ोन से निगाह हटा कर वह एयरपोर्ट पर लगी स्क्रीन के डिस्प्ले पर आती सूचनाओं को देखने लगी।
‘फ़ाइनली, 5:30 टाइम बता रहे फ़्लाइट का’, कह कर उसने घड़ी देखी। ‘चार बज गये’, लीना ने विशाल से कहा। ‘एक बात है, आपके पाठक आपको बहुत पसंद करते होंगे। आपकी कहानी सुनते-सुनते टाइम ऐसे बीत गया कि लगा ही नहीं फ़्लाइट उड़ने में इतनी देरी हुई’, कुछ रुक कर लीना बोली।
‘मेरे जैसे लेखकों के साथ यही मुश्किल है कि हम जो भी कहते हैं लोग कहानी समझ लेते हैं। भावनाओं को कोई कुछ समझता ही नहीं!’, कह कर विशाल हँसने लगा। ‘आपने भी नहीं समझा!’ विशाल ने कुछ रुकते हुए कहा।
‘अच्छा विशाल जी, आपके साथ एक सेल्फ़ी ले सकती हूँ? मैंने लेखकों से बात तो बहुत की है लेकिन आज तक किसी लेखक के साथ सेल्फ़ी नहीं ली है। पता नहीं क्यों आपके साथ आज सेल्फ़ी लेने का मन हो आया। बाद में मैं इंस्टा पर पोस्ट लगाऊँगी- सेल्फ़ी विद ए नोटेड राइटर!’
‘सिर्फ़ राइटर!’ हँसते हुए विशाल ने कहा और सेल्फ़ी के लीना के साथ सेल्फ़ी के पॉज में खड़ा हो गया।
‘प्लीज़ पिक मुझे भी शेयर कर दीजियेगा’, विशाल ने सेल्फ़ी के तत्काल बाद बोला।
‘और हाँ, आप भी अपनी कहानी भी शेयर कीजिएगा मुझसे। आपको अपना ईमेल नम्बर आपसे शेयर कर दूँगी’, कह कर लीना गेट नंबर 35 की तरफ़ बढ़ने लगी।
जाते हुए अचानक मुड़ी और विशाल से बोली- ‘आपने तहज़ीब हाफ़ी का यह शेर सुना है?’
‘कौन सा?’
‘हम मोहब्बत में हारे हुए लोग हैं
और मोहब्बत में जीता हुआ कौन है’
कह कर वह हाथ हिलाते हुए चली गई।
‘सुनिए, व्हाट्सऐप पर सेल्फ़ी भेजना मत भूलिएगा’, विशाल ने जैसे याद दिलाते हुए कहा। वह कहना चाहता था मुझे भूलिएगा नहीं। लेकिन मन की बात मन में ही रह गई।
विशाल के फ़्लाइट की अभी तक कोई अनाउंसमेंट नहीं हुई थी। लेकिन उसकी उम्मीद भी बढ़ गई थी। जब अच्छे लोग मिलते हैं तो उम्मीद बढ़ जाती है। सब कुछ सकारात्मक लगने लगता है।
वह सोचता जा रहा था- आज फिर मैंने जीवन जीने की सोची और फिर एक कहानी हो गई!
क्या पता ज़िंदगी की एक नई कहानी बन जाये! प्रेम उसको आख़िर हर बार कहानी की तरह तो मिलता रहा…!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
साधारण सी कहानी है ! सिचुएशन यर्थात की जगह कई देखी हुई फिल्मों की तरह है ! इन्जीनियरिंग के २०-२२ साल के लडके अक्सर इस तरह की कहानियां लिखते हैं . -
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