आपातकाल के प्रतिवाद में लिखी गई कविताएं

 




25 जून 1975 को लगाया गया आपातकाल भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक बड़े धब्बे के समान था। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 21 मार्च 1977 तक देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन सरकार की सिफारिश पर संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल लगाने की अनुशंसा कर दी थी। केवल नेताओं ने ही नहीं बल्कि रचनाकारों ने अपनी रचनाएं लिख कर इस आपात काल का कड़ा प्रतिवाद किया। खासकर कवियों ने कविताएं लिख कर आपात काल का कड़ा विरोध किया। ऐसे कवियों में बाबा नागार्जुन, भवानी प्रसाद मिश्र, धर्मवीर भारती, दुष्यन्त कुमार के नाम अग्रणी हैं। कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने यह तय किया कि वे आपातकाल के विरोध में हर रोज़ सुबह-दोपहर-शाम कविताएं लिखेंगे। अपने इस प्रण को उन्होंने यथासंभव निभाया भी। बाद में ये कविताएं 'त्रिकाल संध्या' के नाम से एक संग्रह का हिस्सा बनीं। संग्रह की पहली ही कविता इमरजेंसी के कर्ता-धर्ताओं पर एक तीखा व्यंग्य है जिसमें वे लिखते हैं 'बहुत नहीं सिर्फ चार कौवे थे काले'। प्रियदर्शन के अनुसार 1978 में छपे अपने उपन्यास 'मिडनाइट्स चिल्ड्रेन' में सलमान रुश्दी ने आपात काल को 19 महीने लंबी रात बताया। लेखकों के अलावा चित्रकार भी इमरजेंसी के खिलाफ कैनवास रंगते दिखाई पड़ते हैं। इमरजेंसी पर विवान सुंदरम की पेंटिंग ख़ासी चर्चित है। लेकिन हमेशा की तरह कुछ ऐसे लेखक पत्रकार भी थे जिन्होंने आपात काल का समर्थन किया। ऐसे लेखकों-पत्रकारों पर आडवाणी का यह ताना मशहूर है कि 'उन्हें झुकने को कहा गया, वे रेंगने लगे।' बकौल प्रियदर्यशन 'यह भी सच्चाई है। लेकिन, ज़्यादा बड़ा सच यह है कि लेखन और बौद्धिकता के स्तर पर इमरजेंसी का प्रतिरोध जारी रहा। अगर वह न रहा होता तो 19 महीने के भीतर एक लोकतांत्रिक संघर्ष में इंदिरा गांधी इस तरह उखाड़ न फेंकी गई होतीं।' 1977 में आपातकाल समाप्त कर जब चुनाव कराए गए तो देश की आक्रोशित जनता ने भी आम चुनावों में कांग्रेस को भारी शिकस्त दे कर अपना यह फैसला सुना दिया कि देश से ऊपर कोई नेता नहीं हो सकता। कल आपात काल लगाए जाने की बरसी थी। इसे याद करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं आपात काल के प्रतिवाद में लिखी गई कविताएं। इस पोस्ट के लिए कविताओं के चयन में हमने जगदीश्वर चतुर्वेदी के फेसबुक टाईम लाइन और बी बी सी पर प्रियदर्शन के आलेख का उपयोग किया है। हम इन दोनों लेखकों के प्रति  आभार व्यक्त करते हैं।




मोर होगा ...उल्लू होंगे! 


नागार्जुन


खूब तनी हो, खूब अड़ी हो, खूब लड़ी हो

प्रजातंत्र को कौन पूछता, तुम्हीं बड़ी हो

डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है

वो बेचारी अगली गति-विधि भाँप गई है

देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा

तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा

तुम से छोटा राष्ट्र हिन्द का, तुम्हीं बड़ी हो

खूब तनी हो, खूब अड़ी हो, खूब लड़ी हो


गांधी-नेहरू तुम से दोनों हुए उजागर 

तुम्हें चाहते सारी दुनिया के नटनागर

रूस तुम्हें ताकत देगा, अमरीका पैसा

तुम्हें पता है, किससे सौदा होगा कैसा

ब्रेजनेव के सिवा तुम्हारा नहीं सहारा

कौन सहेगा धौंस तुम्हारी, मान तुम्हारा

हल्दी, धनिया, मिर्च, प्याज सब तो लेती हो

याद करो औरों को तुम क्या-क्या देती हो


मौज, मजा, तिकड़म, खुदगर्जी, डाह, शरारत

बेईमानी, दगा, झूठ की चली तिजारत

मलका हो तुम ठगों-उचक्कों के गिरोह में

जिद्दी हो, बस, डूबी हो आकंठ मोह में

यह कमजोरी ही तुमको अब ले डूबेगी

आज नहीं तो कल सारी जनता ऊबेगी

लाभ-लोभ की पुतली हो, छलिया माई हो

मस्तानों की माँ हो, गुंडों की धाई हो


सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है प्रबल पिटाई

सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है 'इन्द्रा' माई

बन्दूकें ही हुईं आज माध्यम शासन का

गोली ही पर्याय बन गई है राशन का

शिक्षा केन्द्र बनेंगे अब तो फौजी अड्डे

हुकुम चलाएँगे ताशों के तीन तिगड्डे

बेगम होगी, इर्द गिर्द बस गूल्लू होंगे

मोर होगा, हंस, न होगा, उल्लू होंगे



भला और क्या चाहिए


नागार्जुन


सम्पूर्ण क्रांति-

मुर्गा-संपर्क-शून्य मुर्गी...

क्या, उसी का अंडा तो नहीं है

यह 20 सूत्रों वाला प्रोग्राम!

पौष्टिक है... सुलभ... सुपाच्य है

आकार में भी अपेक्षाकृत-

कुछ बड़ा ही तो है!

बेचारी जनता को भला-

और क्या चाहिए था?

हमको और आपको

उनको और इनको

भला और क्या चाहिए था?



नागार्जुन



इतनी जल्दी भूल गया? 


नागार्जुन

 

कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया?

ज़ालिम, क्यों मुझसे पहले तू ही झूल गया?

आ, देख तो जा, तेरा यह अग्रज रोता है!

यम के फंदों में इतना क्या सचमुच आकर्षण होता है

कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया?

ज़ालिम, क्यों मुझसे पहले तू ही झूल गया?


ये खेत और खलिहान और वो अमराई 

सारी कुदरत ही मानो गीली हो आई

तू छोड़ गया है इन्हें, उदासी में डूबे

धरती के कण-कण घुटे-घुटे डूबे-डूबे

आ, देख तो जा, ये सिर्फ उसासें भरते हैं

अड़हुल के पौधे हिलने तक से डरते हैं।

ये खेत और खलिहान और वो अमराई

सारी कुदरत ही मानो निष्प्रभ हो आई

ज़ालिम, क्यों मुझसे पहले तू ही झूल गया?

कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया?



इन्दु जी, क्या हुआ आपको?


नागार्जुन


क्या हुआ आपको?

क्या हुआ आपको?

सत्ता की मस्ती में

भूल गई बाप को?

इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?

बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को !

क्या हुआ आपको?

क्या हुआ आपको?


आपकी चाल-ढाल देख-देख लोग हैं दंग 

हकूमती नशे का वाह-वाह कैसा चढ़ा रंग

सच-सच बताओ भी

क्या हुआ आपको

यों भला भूल गईं बाप को!


छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको 

काले चिकने माल का मस्का लगा आपको 

किसी ने टोका तो ठस्का लगा आपको

अन्ट-शन्ट बक रही जनून में

शासन का नशा घुला खून में

फूल से भी हल्का

समझ लिया आपने हत्या के पाप को 

इन्दु जी, क्या हुआ आपको

बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को !


बचपन में गांधी के पास रहीं 

तरुणाई में टैगोर के पास रहीं 

अब क्यों उलट दिया 'संगत' की छाप को? 

क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको 

बेटे को याद रखा, भूल गई बाप को 

इन्दु जी, इन्दु जी, इन्दु जी, इन्दु जी...


रानी महारानी आप 

नवाबों की नानी आप 

नफ़ाख़ोर सेठों की अपनी सगी माई आप 

काले बाज़ार की कीचड़ आप, काई आप


सुन रहीं गिन रहीं 

गिन रहीं सुन रहीं 

सुन रहीं सुन रहीं 

गिन रहीं गिन रहीं 

हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप को 

एक-एक टाप को, एक-एक टाप को


सुन रहीं गिन रहीं एक-एक टाप को

हिटलर के घोड़े की, हिटलर के घोड़े की

एक-एक टाप को...

छात्रों के खून का नशा चढ़ा आपको

यही हुआ आपको

यही हुआ आपको


(१९७४ में रचित, खिचड़ी विप्लव देखा हमने' नामक संग्रह से)


धर्मवीर भारती 




मुनादी 


धर्मवीर भारती

 

ख़ल्क ख़ुदा का, मुलुक बाश्शा का

हुकुम शहर कोतवाल का...

हर खासो-आम को आगह किया जाता है

कि खबरदार रहें

और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से

कुंडी चढ़ा कर बन्द कर लें

गिरा लें खिड़कियों के परदे

और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें

क्योंकि

एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में

सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!


शहर का हर बशर वाक़िफ़ है

कि पच्चीस साल से मुजिर है यह

कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए

कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए

कि मार खाते भले आदमी को

और असमत लुटती औरत को

और भूख से पेट दबाये ढाँचे को

और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को

बचाने की बेअदबी की जाय!


जीप अगर बाश्शा की है तो

उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं?

आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है!

बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले

अहसान फरामोशों! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने

एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ

भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं

और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर

तुम पर छाँह किये रहते हैं

और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी

मोटर वालों की ओर लपकती हैं

कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;

तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़ कर

भला और क्या हासिल होने वाला है?


आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से

जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप

बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए

रात-रात जागते हैं;

और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए

मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक

छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं...

तोड़ दिये जाएँगे पैर

और फोड़ दी जाएँगी आँखें

अगर तुमने अपने पाँव चल कर

महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर

अन्दर झाँकने की कोशिश की!


क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी

जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे

काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया?

वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ

गहराइयों में गाड़ दी है

कि आने वाली नस्लें उसे देखें और

हमारी जवाँमर्दी की दाद दें


अब पूछो कहाँ है वह सच जो

इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था?

हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं

और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें

ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में

इस बुड्ढे की बकवास दब जाए!


नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते

फेंक दी है खड़िया और स्लेट

इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह

फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं

और जिसका बच्चा परसों मारा गया

वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई

सड़क पर निकल आयी है।


ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है

पर जहाँ हो वहीं रहो

यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि

तुम फासले तय करो और

मंजिल तक पहुँचो


इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे

नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी

बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी

ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा

सब अपनी-अपनी जगह ठप!

क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है

और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है

वहीं ठप कर दिया जाए!


बेताब मत हो

तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है

बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से

तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए

बाश्शा के खास हुक्म से

उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा

दर्शन करो!

वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी

बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी

ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा

नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा

और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा

लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में

और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो

ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से

बहा, वह पुँछ जाए!


बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं!


[तानाशाही का असली रूप सामने आते देर नहीं लगी। नवम्बर की शुरूआत में ही हुआ वह भयानक हादसा। जे. पी. ने पटना में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली बुलायी। हर उपाय पर भी लाखों लोग सरकारी शिकंजा तोड़ कर आये। उन निहत्थों पर निर्मम लाठी-चार्ज का आदेश दिया गया। अखबारों में धक्का खा कर नीचे गिरे हुए बूढ़े जे.पी.उन पर तनी पुलिस की लाठी, बेहोश जे.पी.और फिर घायल सिर पर तौलिया डाले लड़खड़ा कर चलते हुए जे.पी.। दो-तीन दिन भयंकर बेचैनी रही, बेहद गुस्सा और दुख...9 नवम्बर रात 10 बजे यह कविता अनायास फूट पड़ी]



भवानी प्रसाद मिश्र 



बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले


भवानी प्रसाद मिश्र 


बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले,

उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले

उनके ढंग से उड़े,, रुकें, खायें और गायें

वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं


कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में

दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में

ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये

इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये.


हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में

हाथ बांध कर खड़े हो गये सब विनती में

हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें

पिऊ-पिऊ को छोड़े कौए-कौए गायें


बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को

खाना-पीना मौज उड़ाना छुट्भैयों को

कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में

बड़े-बड़े मनसूबे आए उनके जी में


उड़ने तक तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले

उड़ने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले

आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है

यह दिन कवि का नहीं, चार कौओं का दिन है


उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना

लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना?



दुष्यन्त कुमार 



एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है


दुष्यंत कुमार

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देख कर हैरान है

ख़ास सड़कें बंद हैं तबसे मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो
इस अंधेरी कोठरी में एक रौशनदान है

मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है


हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए 

दुष्यंत कुमार

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए


तानाशाह जब भी आता है 


अक्षय उपाध्याय  


तानाशाह जब भी आता है

उसके साथ दुनिया की ख़ूबसूरत असंख्य चीज़ें होती हैं

वह उन्हें दिखाता है

जिनके पास सजाने के लिए कमरे हैं


वे दौड़ते हैं


तानाशाह जब भी आता है

उसके साथ धर्म और जाति और ईश्वर होता है

धर्मप्राण जनता और धर्म के कर्णधार


लपकते हैं


तानाशाह जब भी आता है

एक नई दुनिया के ब्लू-प्रिंट के साथ आता है

तर्कहीन काल्पनिक एक जगमगाती दुनिया

के बारे में वह

उन्हें सुनाता है

जो संकरी गली से तत्काल राजपथ पर

चलना चाहते हैं


वे कुलबुलाते हैं


तानाशाह जब भी आता है

उसके साथ समूचे बग़ीचे के फूल होते हैं

वह हाथ में बाग़ को उठाए रखता है

बुद्धि देने वालों को पुचकारता

कला हाँकने वालों को गुहारता है

कोमल-करुण-भद्रजन

रोमांचित होते भहराते हैं


तानाशाह जब भी आता है

उसके साथ केवल एक चपाती होती है

वह भूख का भ्रम पैदा करता है

और उसके विलास में

केवल भरे पेट उछलते हैं

 

तानाशाह चाहे जब और जैसे आए

तानाशाह जाता एक तरह ही है

और

तानाशाह जाता ज़रूर है


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