सैयद सज्जाद ज़हीर का आलेख 'प्रगतिशील लेखक संघ पर एक नोट'
![]() |
सैयद सज्जाद ज़हीर |
1935 में पेरिस में 'संस्कृति की रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस' का आयोजन किया गया। सैयद सज्जाद ज़हीर उपन्यासकार मुज़फ़्फ़र आनंद के साथ इस कांग्रेस में शामिल हुए। इस कांग्रेस से प्रभावित हो कर उन्होंने लंदन में 'इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन' की स्थापना की और फिर भारत वापसी के बाद 9 अप्रैल 1936 को लखनऊ में 'प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन' का पहला सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और मुंशी प्रेमचंद भी शामिल थे। मुंशी प्रेमचंद को अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का अध्यक्ष जबकि सैयद सज्जाद ज़हीर को महासचिव चुना गया। इसका मुख्य मक़सद लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को एक मंच पर लाते हुए प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना करना था। ज़हीर न केवल मुस्लिम समुदाय के दकियानूसी तत्वों के विरोधी थे, बल्कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के दकियानूसी तत्व को बनाए रखने के कदमों के कड़े आलोचक भी थे। आजकल प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना को ले कर भ्रम फैलाने और तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने की कोशिश की जा रही है। सज्जादज़हीर ने सम्मेलन के बाद अंग्रेजी में 'प्रगतिशील लेखक संघ पर एक नोट' लिखा था जिसका हिन्दी अनुवाद किया है आशुतोष कुमार ने। उन्हीं की एक टीप के साथ हम इस अनुवाद को प्रस्तुत कर रहे हैं। वर्तमान संदर्भों में सज्जादज़हीर के इस नोट की प्रासंगिकता सहज ही महसूस की जा सकती है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सैयद सज्जाद ज़हीर का आलेख 'प्रगतिशील लेखक संघ पर एक नोट'।
"इस तथ्य ने कि महान मानवतावादी हिंदुस्तानी उपन्यासकार और शीर्षस्थ कथाकार प्रेमचंद ने हमारे पहले सम्मेलन की अध्यक्षता की, यह सुनिश्चित किया कि 'प्रगतिशील' की हमारी परिभाषा न तो संकीर्ण होगी और न ही सांप्रदायिक।"- सज्जाद ज़हीर
जैसे अभी हाल ही में पृथ्वीराज चौहान को उनके अंतिम युद्ध में भी जिता दिया गया, वैसे ही अभी-अभी प्रेमचंद को अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन (10 अप्रैल 1936) की अध्यक्षता से बर्खास्त कर दिया गया है। ऐसे में वह दिन दूर नहीं कि जब सज्जाद ज़हीर को भी अ भा प्र ले स के पहले महासचिव के पद से हाथ धोना पड़े! लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता तब तक आप सज्जाद ज़हीर का लिखा यह नोट पढ़ सकते हैं, जो सुधी प्रधान द्वारा संपादित ऐतिहासिक महत्व की किताब Marxist Cultural Movement in India: Chronicles and Documents (1936-47) में संकलित है। जब तक सज्जाद ज़हीर की बर्खास्तगी का परवाना नहीं आता, तब तक इस नोट को प्रामाणिक माना जा सकता है। यह नोट एक दस्तावेज मात्र नहीं है। इसे ध्यान से पढ़ना चाहिए। यह आज भी हमारे लेखकों को अपने परिश्रम के लिए जरूरी परिप्रेक्ष्य दे सकता है।
आशुतोष कुमार
'प्रगतिशील लेखक संघ पर एक नोट'
सैयद सज्जाद ज़हीर
हिन्दी अनुवाद : आशुतोष कुमार
पिछले दो या तीन वर्षों से हम में से कई लोगों को भारत में प्रगतिशील लेखकों के आंदोलन को संगठित करने की आवश्यकता महसूस हो रही थी।
देश के कई हिस्सों में मुख्य रूप से युवा लेखकों के समूह यह अनुभव कर रहे थे कि उस कर्म - विमुख पलायनवादी साहित्य से मुक्ति की जरूरत है, जिसमें देश डूबा जा रहा था। कुछ ऐसा रचने की जरूरत महसूस की जा रही जो कुछ अधिक वास्तविक हो, हमारी आज के अस्तित्व की सच्चाइयों के साथ अधिक सामंजस्यपूर्ण हो और जो हमारी कला को रक्ताभ और सशक्त बनाए।
हम दुनिया को लगातार बदलते देख रहे थे; मानव सभ्यता परस्पर विरोधी ताकतों की चपेट में थी; विचार और संस्थाएं डूब रही थीं और उभर रही थीं; राष्ट्रों और वर्गों के बीच, प्रगति और प्रतिक्रिया के बीच घातक संघर्ष हो रहे थे।
हमारी संस्कृति, जिसे हम पुनर्जीवन देना चाहते थे, जिसे हम इस देश के सभी लोगों के लिए सेवा, ज्ञानोदय और आनंद का साधन बनाना चाहते थे, वह हमारी आंखों के सामने मुरझा रही थी।
एक ओर निर्मम विदेशी शासन द्वारा भारतीय आबादी के एक अत्यंत छोटे हिस्से तक शिक्षा को महदूद किया जाना, भारतीय जनता की गरीबी और असहायता, बुद्धिजीवियों में बढ़ती बेरोजगारी का अभिशाप; दूसरी ओर घोर पुनरुत्थानवाद की नीति और अतीत के कलात्मक रूपों और अवधारणाओं की बासी नकल की कोशिश, इसके बावजूद कि वर्तमान सामाजिक परिवेश पूरी तरह अलग था।
परिणामस्वरूप भारतीय कला और संस्कृति अत्यंत सीमित, दृष्टिहीन और जीवन की वास्तविकताओं से खाली हो गई।
इन्हीं कुछ बातों की चेतना ने हमें प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के लिए प्रेरित किया। भले ही यह चेतना कई मामलों में अस्पष्ट और अपरिभाषित रही हो।
युवा लेखकों के सौभाग्य से कुछ सबसे प्रतिष्ठित विद्वानों और स्थापित लेखकों ने, जिन्होंने अपने कार्यों में पहले ही नई लेखन शैली की नींव रख दी थी, इस नए आंदोलन में शामिल होने और हर संभव समर्थन देने की तत्परता दिखाई।
प्रेमचंद, अब्दुल हक, दया नारायण नियाम, आबिद हुसैन, और कई अन्य लोगों ने फरवरी 1936 में हमारे घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए।
प्रगतिशील लेखक संघ की एक संगठन समिति बनी, और बहुत जल्द लाहौर, दिल्ली, इलाहाबाद और अलीगढ़ में संघ की शाखाएं खुल गईं।
लंदन में पहले से ही बने भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के साथ संपर्क स्थापित हुआ, जो एक साल पहले बन चुका था, और इस तरह हम न केवल इंग्लैंड में अपने हमवतन लोगों की गतिविधियों से, बल्कि पश्चिम में लेखकों के आंदोलन से भी जुड़े रहे।
साथ ही, हमने भारत के अन्य हिस्सों—बंबई, पूना, कलकत्ता, बनारस, कानपुर आदि में लेखकों से संपर्क किया।
हमारा उद्देश्य भारत के हर साहित्यिक केंद्र में प्रगतिशील लेखक संघ की शाखा स्थापित करना था।
हम चाहते थे कि हर जगह पखवाड़े पखवाड़े या मासिक बैठकें हों, जहां प्रगतिशील प्रकृति की रचनाएं, कहानियां, कविताएं पढ़ी और चर्चा की जाएं; जहां साहित्य में रुचि रखने वाले लेखक एक-दूसरे को जानें और जहां से इस राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन को समृद्ध करने का एक नया और जोरदार प्रयास हो।
हम जानते थे, निश्चित रूप से, कि अच्छा साहित्य 'आदेश पर' नहीं रचा जा सकता। लेकिन हमारा लक्ष्य लेखकों के लिए ऐसी परिस्थितियां बनाना था जो उनके काम में मदद करें।
आपसी आलोचना और उचित प्रशंसा के जरिए; हमारे लेखकों को अपने लोगों के जीवन का गहराई से अध्ययन करने के लिए प्रेरित कर के, भारत के नए साहित्य के बढ़ने और फलने-फूलने के लिए एक उपयुक्त माहौल तैयार करना था।
10 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में आयोजित पहली अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक सम्मेलन अगला कदम था, जिसने हमारे आंदोलन को बड़ी गति दी।
भारत में पहली बार देश के सभी हिस्सों—बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, मद्रास—से लेखक एकत्र हुए और एक ऐसे आंदोलन की नींव रखी, जो तब से देश के हर हिस्से में प्रगति कर रहा है।
इस तथ्य के कारण कि सम्मेलन बिना ज्यादा तैयारी के बुलाया गया—केवल तीन सप्ताह में आयोजित कर लिया गया—सम्मेलन में पढ़े गए लेख कुछ जल्दबाजी में लिखे गए थे।
साहित्यिक समस्याओं पर चर्चा के लिए ज्यादा समय नहीं दिया जा सका। फिर भी यह सम्मेलन हमारी साहित्यिक इतिहास में एक मील का पत्थर है।
इसके निम्नलिखित कारण हैं:
पहला, यह विभिन्न भारतीय भाषाओं में लेखन करने वाले लेखकों का पहला अखिल भारतीय सम्मेलन था, जो राष्ट्रीय सांस्कृतिक समस्याओं को हल करने के लिए एकजुट होना चाहते थे।
दूसरा, इस सम्मेलन ने साहित्य को एक शास्त्री पंडित की दृष्टि से नहीं, बल्कि एक सामाजिक उत्पाद के रूप में देखा, जो सामाजिक परिवेश से प्रेरित और निर्मित होता है।
साहित्य सामाजिक उथल पुथल से अछूता नहीं रह सकता, इसलिए हमारे लेखकों का कर्तव्य है कि वे इसका ध्यान रखें, अपनी रचनाओं के जरिए ज्ञानोदय और प्रगति की ताकतों की मदद करें, और प्रतिक्रिया और अज्ञान के खिलाफ संघर्ष करें, चाहे वे समाज में किसी भी रूप में प्रकट हों।
तीसरा, सम्मेलन ने महसूस किया कि हालांकि हम एक नए प्रकार का साहित्य रचने जा रहे थे, फिर भी हम अपनी साहित्यिक विरासत को अस्वीकार नहीं कर रहे; वास्तव में, हमने जोर दिया कि केवल प्रगतिशील लेखक ही, न कि मृत रूपों की पूजा करने वाले शास्त्रवादी प्रतिक्रियावादी, हमारी शास्त्रीय साहित्य की सर्वश्रेष्ठ चीजों के सच्चे वारिस हो सकते हैं।
चौथा, हमने इस सम्मेलन में अपनी साहित्यिक विचारधारा को घोषणा-पत्र में शामिल किया।
यह उन सभी लेखकों को न्यूनतम एकता का आधार देता था, जो भले ही कई मायनों में एक दूसरे से अलग हों, लेकिन प्रगतिशील लेखक आंदोलन के लिए एकजुट होना चाहते हों।
माना गया कि प्रगति की अवधारणा अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग थी। यह स्थान और समय के अनुसार बदल सकती थी। अपने घोषणा-पत्र में हमने आज के भारतीय साहित्य के संदर्भ में प्रगति की अपनी अवधारणा को स्पष्ट किया ।
जो लोग हमारे घोषणा-पत्र को स्वीकार करने से इनकार करते थे, उन्हें हम अपने में से एक नहीं मान सकते थे। हम निश्चित हैं कि जो लोग आज हमसे असहमत हैं, उनमें से कुछ बाद में हमारे साथ जुड़ जाएंगे, क्योंकि वे सच्चे कलाकार हैं।
कट्टर प्रतिक्रियावादियों के भारतीय मन पर हानिकारक प्रभाव को खत्म करने के लिए हमें उनके खिलाफ लड़ना होगा।
इस तथ्य ने कि महान मानवतावादी हिंदुस्तानी उपन्यासकार और शीर्षस्थ कथाकार प्रेमचंद ने हमारे पहले सम्मेलन की अध्यक्षता की, यह सुनिश्चित किया कि 'प्रगतिशील' की हमारी परिभाषा न तो संकीर्ण होगी और न ही सांप्रदायिक।
सम्मेलन के बाद प्रगतिशील लेखक संघ का आंदोलन पूरे भारत में तेजी से फैल गया। कलकत्ता, बंबई, पूना, अहमदाबाद, बनारस, पटना, अलीगढ़ में शाखाएं खुलीं, उन शाखाओं के अलावा जो सम्मेलन से पहले मौजूद थीं।
हम यह दावा नहीं करते कि हमने इस कम समय में भारतीय साहित्यिक जीवन के रास्ते में कोई बदलाव ला दिया है; लेकिन हम यह जरूर कहते हैं कि हमने वह संगठन और जरूरी माहौल बनाने में सफलता हासिल की है, जो इस बदलाव को लाने में मदद करेगा।
संगठन को व्यवस्थित करने में हमें कई बाधाओं से लड़ना पड़ा; धन की कमी के बावजूद हमने एक बहुत मजबूत अखिल भारतीय साहित्यिक आंदोलन खड़ा किया।
हमारे सदस्यों ने देश के सभी हिस्सों में निःस्वार्थ भाव से काम किया; हमने पहले ही सबसे होनहार युवा लेखकों को अपने संघ में शामिल कर लिया है। यह उनके समर्थन और पूरे भारतीय जनता के समर्थन पर है कि हमारा आंदोलन बढ़ा है और बढ़ता रहेगा।
![]() |
आशुतोष कुमार |
सम्पर्क
आशुतोष कुमार
मोबाइल : 9953056075
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें