तारसप्तक के कवि प्रभाकर माचवे से विनोद दास की बातचीत
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प्रभाकर माचवे |
तार सप्तक का प्रकाशन हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इसमें ऐसे कवियों को शामिल किया गया जिनकी कविताओं में उस समय का स्वर था। तार सप्तक के प्रकाशन का श्रेय अज्ञेय को है हालांकि इसके योजनाकारों में प्रभाकर माचवे प्रमुख थे। अलग बात है कि आज हम प्रभाकर जी को तार सप्तक के कवि के रूप में जानते हैं। प्रभाकर माचवे का लेखन विपुल है हालांकि उसका प्रकाशन न हो पाने से वे खुद क्षुब्ध रहे। लगभग दो सौ कहानियां लिखने के बावजूद उनका कोई संग्रह नहीं छप सका। प्रभाकर जी स्पष्टवादी थे। विनोद दास से एक बातचीत में प्रभाकर जी कहते हैं मुक्तिबोध के जीवन काल में उनकी घोर उपेक्षा करने वाले आज जिस तरह उनके नाम पर कमा रहे हैं या उनका झण्डा उठाए हैं और उसे आउटसाइज़ या महामानव सिद्ध कर रहे हैं, यह सब झूठ है। जो लोग उनके जीवन काल में उन्हें जरा सा भी नहीं जानते थे, वे आज सहसा मुक्तिबोध संप्रदाय के पुरोधा कैसे बन गए हैं?' विनोद दास ने प्रभाकर जी से 1982 में एक बातचीत किया था। आज भी यह बातचीत प्रासंगिक है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं तारसप्तक के कवि प्रभाकर माचवे से विनोद दास की बातचीत।
तारसप्तक के कवि प्रभाकर माचवे से विनोद दास की बातचीत
पहले तारसप्तक के कवि प्रभाकर माचवे हिन्दी के उन लेखकों में रहे हैं जिन्होंने साहित्य की विविध विधाओं में प्रभूत लेखन किया हैं। उनकी मातृभाषा मुक्तिबोध की तरह मराठी थी। हिंदीत्तर भाषाभाषी होने के बावजूद कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, संस्मरण और अनुवाद के माध्यम से उन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। उन्हें कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। उनकी सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। रांगेय राघव के अलावा इतना विपुल लेखन हिन्दी में शायद ही किसी लेखक ने किया हो। साहित्य अकादमी की स्थापना और विकास में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। संघ लोक सेवा आयोग में विशेष भाषाधिकारी के रूप में भी उन्होंने कार्य किया। चित्रकला में भी उनकी रुचि थी। जब मेरा उनसे परिचय हुआ तब माचवे जी भारतीय परिषद कोलकता के निदेशक थे। परिषद में उन दिनों लेखक अतिथि कक्ष थे जहां प्रतिदिन मात्र दस रुपये में लेखक रह सकते थे। पटना से कोलकाता आने पर जगह होने पर मैं वहीं रुकता था। माचवे जी निदेशक आवास में रहते थे। माचवे जी सुदर्शन और निश्छल तो थे ही, बतरसी भी खूब थे। उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कराहट तैरती रहती थी। माचवे जी से किसी विषय पर बात की जा सकती थी। उनके पास किस्सों का अकूत भंडार था। मुझे सबसे अधिक मुक्तिबोध और अज्ञेय की बारे में उनके संस्मरणों को सुनने में आनंद आता था। वह बताते थे कि तारसप्तक के मूल योजनाकारों में वह भी एक थे। बाद में किस तरह अज्ञेय उस योजना के सूत्रधार बन गए, वह अक्सर इसे हँसते हुए बताते थे। माचवे जी खद्दर का अक्सर कुर्ता-पैजामा पहनते थे। उनमें गजब का हास्य बोध था। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया था कि उनका विवाह गांधी जी ने कराया था। उनकी पत्नी दलित थीं। उनसे जुड़े अनेक प्रसंग याद आते हैं।
मैं उन दिनों पटना स्थित बैंक ऑफ बड़ौदा में काम करता था। एक बार एक कार्यशाला में मुख्य अतिथि के रूप में कलकत्ता विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष डॉक्टर कल्याणमल लोढ़ा आमंत्रित थे। मैं इस कार्यक्रम के लिए पटना से आ कर परिषद के अतिथि कक्ष में ठहरा हुआ था। जब उस कार्यक्रम में पहुँचा तो घबरायी हुई अधिकारी आशा त्रिकी ने बताया कि लोढ़ा जी नहीं आ रहे है। उन्हें अपने परिजन की अन्त्येष्टि में जाना है। बैंक के अञ्चल प्रबंधक उनकी अनुपस्थिति को अन्यथा न लें। त्रिकी जी ने कहा कि क्या आप किसी को विशिष्ट अतिथि के रूप में ला सकते है। मुझे सहसा माचवे जी की याद आई। जब मैं कार लेकर परिषद उन्हें लेने पहुंचा, वह अपने घर में बैठे थे। मैंने उन्हीं कपड़ों में माचवे जी को तत्काल चलने के लिए आग्रह किया। खुशी की बात यह थी कि वह बिना किसी आडंबर के मेरे साथ सहजता से चल दिए। उनकी यह सदाशयता को मैं कभी नहीं भूलता।
परिषद के अतिथि कक्ष में भोजन की व्यवस्था नहीं थी। एक बार मैं अपनी पत्नी विनीता और छोटी बेटी अंतरा के साथ परिषद में ठहरा था। भोजन और नाश्ता तो हम बाहर कर लेते थे लेकिन बेटी के लिए दूध गरम करने की समस्या थी। माचवे जी अकेले रहते थे। उन्होंने कहा कि आप मेरी रसोई का उपयोग कर सकते हैं। हमने किया भी। उसी दौर की एक छोटी सी बातचीत जयपुर से प्रकाशित होने वाली इतवारी पत्रिका में छपी थी जो पिछले दिनों मुझे अपने कागजात के बीच मिली। उन दिनों माचवे जी तत्कालीन लेखन परिदृश्य में अपनी उपेक्षा से विरत और निराश थे। दरअसल माचवे जी का लेखन पाठकों के लिए संप्रेषणशील कम था। यह प्रवृति उनमें शुरु से ही दिखायी देती है। तार सप्तक के प्रकाशन के समय अज्ञेय के पत्र में लिखी यह टिप्पणी प्रभाकर माचवे के लेखन के स्वभाव को दर्शाता है। अपने पत्र में अज्ञेय लिखते हैं” प्रभाकर माचवे ने कविताओं का कोटा पूरा कर दिया है। जो कविताएं आई हैं, उनमें कुछ प्रयाग बड़े भीषण हैं। और कुछ कविताओं के अर्थ शीर्षासन करके भी नहीं समझे जा सकते। एकाध जगह उड्डीयान बंध और नौलीकर्म भी निष्परिणाम होंगे। इनके बारे में क्या विचार हैं? कुछ मुहावरों के प्रयोग अशुद्धि हैं- और अशुद्धि प्रयोगात्मकता की नहीं, विशुद्ध नेग्लिजन्स की है। यही बात कहीं प्रवाह में भी है। सोचता हूँ कि प्रभाकर ध्यान दें तो यह उनकी कविता के लिए और संग्रह के लिए बहुत अच्छा होगा पर इसके लिए कविताएं लौटाना भागते भूत की लँगोटी को भी छोड़ देना होगा। तब क्या किया जाए? वे स्वयं बताएं।“
प्रयोग के नाम पर अटपटापन, तुरंता और लापरवाही भरे लेखन ने शायद पाठकों को उनकी ओर उतना नहीं खींचा। फिर भी दौ सौ कहानी लिखने वाले चर्चित लेखक का एक भी कहानी संग्रह न छपना, चौदह उपन्यास की आलोचकों द्वारा चर्चा न करना, हिन्दी साहित्य के परिदृश्य की हालत को बयान करता है। यहाँ यह बताना अनुपयुक्त न होगा कि माचवे जी साहित्य, संस्कृति और भाषा के महत्त्वपूर्ण संस्थानों में काम कर चुके थे। आकाशवाणी के प्रयाग, दिल्ली और नागपुर केन्द्रों में वह कार्यरत रहे। केन्द्रीय साहित्य अकादमी में पहले उपसचिव और तदुपरांत सचिव के रूप में साहित्य की सत्ता संरचना का हिस्सा रहे। फुलब्राइट और रॉकफ़ेलर अनुदान पर विस्कॉन्सिन और कैलिफोर्निया विश्व विद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे। दो वर्षों तक संघ लोक सेवा आयोग में विशेष कार्य अधिकारी भाषा के रूप में उन्होंने अपना योगदान दिया। इसके बावजूद उनकी रचनाओं का न छपना हिन्दी के एक लेखक की हालत का प्रमाण है।
बहरहाल प्रभाकर माचवे से बातचीत प्रस्तुत है :
विनोद दास : आपके साहित्यिक जीवन की शुरुआत किस तरह और कब हुई?
प्रभाकर माचवे : जहां तक मुझे याद है कि मेरे पहली कविता मराठी में काव्य रत्नमाला पत्रिका में छपी थी। हिन्दी में माखन लाल चतुर्वेदी जी ने “कर्मवीर” में पहली कविता प्रकाशित की। गद्य में मेरा पहला समीक्षात्मक लेख निराला जी ने “सुधा” में छापा। प्रेमचंद ने 1935 में “हंस” में मेरी पहली कहानी प्रकाशित की। उसके बाद तो लिखने का सिलसिला शुरु हो गया। “विशाल भारत” में अज्ञेय ने 1938 में दो इम्प्रेशनिस्ट कविताएं उपशीर्षक से मेरी दो कविताएं “अर्थशास्त्र” और “देहाती मेले” में छापी।
विनोद दास : आप पुराने गांधीवादी रहे हैं। अपने ही देश में गांधी के प्रति उपेक्षा का भाव देख कर आप कैसा महसूस करते हैं?
प्रभाकर माचवे : मैं अपने को गांधीवादी बिल्कुल नहीं मानता हूँ और न ही कहता हूँ । हाँ! जीवन में जितने भी महापुरुष मिले, उनमें सर्वाधिक प्रभावित मैं गांधी से हुआ। मैं तो सिर्फ़ खादी पहनने, सच बोलने और सब धर्मों को समान मानने के गांधी आदर्शों को जीवन में ढाल पाया हूँ। गुस्सा मुझे आता है। अतः मैं कैसे अपने को अहिंसक कहूं? मैंने दिल्ली में मकान बनाया, ढेर सारी पुस्तकें जमा कीं, मैं कैसा अपरिग्रही हूँ। मेरा बैंक बैलन्स है, मैं कैसा आस्तेयव्रती हूँ। खान-पान और अन्य कई मामलों में मैं गांधी जी का अंधभक्त नहीं। डॉक्टर लोहिया के शब्दों में न तो मैं मठी गांधीवादी हूँ और न सरकारी। अगर हूँ तो कुजात। मैंने अपने आपको वही बना लिया है। हाँ, गांधी जी के चिंतन की उपेक्षा को देख कर दुःख होता है।
विनोद दास : कविता में विषयवस्तु और स्वरूप के संबंध को आप किस तरह देखते हैं?
प्रभाकर माचवे : कविता की विषयवस्तु और स्वरूप वागर्थों व संपृक्तों अर्थात पार्वती और परमेश्वर की तरह एकाकार होती है। रूसी समीक्षक विषयवस्तु पर जोर देते हैं। अमेरिकी स्वरूप अर्थात संरचना, शैली स्ट्रक्चर पर जोर देते हैं। हमारे यहाँ दोनों स्कूल थे। सारा संत और भक्ति साहित्य कथ्य पर जोर देता था। रीतिकाल में शैली प्रधान हो गयी। अति आधुनिक कवि अभागे हैं। वे परंपरा से भी च्युत हैं, विदेशी प्रभाव भी ठीक से पचा नहीं सके। वे केवल अनुगूँज लिखते हैं। अनमेल, अनपची, अधकचरी कविताएं तमाम छोटी पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं। कोई इम्पैक्ट इनका नहीं बन पाता।
विनोद दास : इधर अरसे से आपने कहानियाँ नहीं लिखीं। क्या आपको कहानियाँ लिखने का यह समय आपको अनुकूल नहीं दिखायी देता?
प्रभाकर माचवे : मैंने हिन्दी में अब तक दौ सौ कहानियाँ लिखी हैं। 1934 से ले कर “सारिका” में तीन-चार साल पहले छपी “शांति के लिए” तक। पर संग्रह एक भी न छपा। मैं निराश हो गया और मैंने कविता की तरह कहानी लिखना भी बंद-सा कर दिया। मेरे लिए अनुकूल -प्रतिकूल कुछ नहीं होता। जब हम लिखें और छपे ही नहीं तो मरने के बाद छापने के लिए पांडुलिपियों के गट्ठर छोड़ जाने का मेरा मुक्तिबोधी विचार नहीं है। मेरी कोई ग्रंथावली छपेगी, ऐसा मुझे विश्वास नहीं।
विनोद दास : शायद हिन्दी समीक्षा भी इसकी दोषी है। आपकी क्या राय है?
प्रभाकर माचवे : मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ। हमारे यहाँ हिन्दी का अर्थ है पुस्तकों की थोक खरीद और मुनाफा। समीक्षक कुछ प्रकाशन संस्थानों या सरकारी, गैर- सरकारी प्रतिष्ठानों के पे रोल पर हैं यानि कि उनकी जेहन बिकी हुई है। जो शास्त्रीय समालोचक विश्वविद्यालय में हैं, वे प्राचीन परंपरापोषक और पुनरुत्थानवादी हैं। नया कुछ करने के नाम पर विदेशी लेखकों के नाम गिनाने वाले, उनके उद्धरणों से अपने लेख भरनेवाले हैं। मौलिक चिंतक नहीं हैं। जो थोड़े प्रतिभाशाली लिखते हैं, वह पूर्वाग्रह दूषित होती है। जिनके हाथों में बड़े सर्कुलेशन के अखबार हैं, वे विज्ञापन से इतने आक्रांत हैं कि उनकी समीक्षा भी विज्ञापन बन जाती है। हिन्दी में निष्पक्ष साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं कम हैं। अधिकांश पत्रिकाएं पुस्तक समीक्षा छपती तक नहीं हैं। कुछ समीक्षक राजनीतिक मतवाद से बिके हुए हैं। उन्होंने रंगीन चश्में पहन रखे हैं।
विनोद दास : समकालीन कथा साहित्य में आपको कौन से उपन्यास अच्छे लगे?
प्रभाकर माचवे : समकालीन शब्द बड़ा व्यापक है। मैंने हिन्दी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों की सूची बनायी थी। उनमें अंतिम 'राग दरबारी' उपन्यास था। फिर तो कई अच्छे उपन्यास आए और मैंने चाव से पढ़े। जगदीश चंद्र, गोविंद मिश्र, मेहरुन्निसा परवेज़, मन्नू भण्डारी, ख्वाजा बद्दीउज़्जमा, जगदीश चंद्र पाण्डेय, शिव चरण लाल श्रीवास्तव आदि। मैं अपने आपको साधारण उपन्यासकार मानता हूँ जिसके 14 उपन्यास छपे हैं और जिन पर एक भी समीक्षक ने एक भी ढंग की पंक्ति नहीं लिखी है। चूँकि वे उछाले नहीं गए हैं तो आपने भी नहीं पढे होंगे।
विनोद दास : अनुवाद के बारे में आपका कहना है कि हमारे यहाँ अनुवादक अच्छे नहीं हैं। अत: हमारा साहित्य दूसरे भाषा-भाषी देश-प्रदेशों में नहीं पहुँच पाता। अच्छा अनुवाद न हो पाने के पीछे क्या कारण हैं?
प्रभाकर माचवे : इसके पीछे मुझे पाँच कारण लगते हैं। पहला प्रकाशक सस्ते से सस्ते में अनुवाद करा लेता है और मुनाफा कमाता है। बांग्ला से हिन्दी अनुवाद में शरत चंद जी साहित्य इसका उदाहरण है। दूसरे, हमारे हिन्दी भाषी लोग अन्य भारतीय भाषाएं नहीं पढ़ते -सीखते। तमिलनाडु में बीस हजार विद्यार्थी प्रतिवर्ष हिन्दी की परीक्षाएं देते हैं। आंध्र-केरल में एक दर्जन पी-एच. डी. बिना नौकरी के घूम रहे हैं, सारे अनुवाद अन्य हिन्दी भाषाभाषी अधिक करते हैं। दक्षिण भारतीय भाषाओं में मराठी से पंजाबी से। उन्हें हिन्दी की सतत प्रवहमान शैली से परिचय नहीं होता। वे टेक्स्ट बुक में मैथिली शरण गुप्त और प्रसाद पढ़ते हैं। उनकी हिन्दी होती है किताबी और बेजान। तीसरा वही हाल है हिन्दी से अंग्रेजी अनुवादों का है। शायद ही ऐसा कोई विदेश में छपे या मकबूल हुए हैं जो भारतीयों ने किए हैं। चौथा, सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इस कमी का कोई एहसास नहीं है। पाँचवा है -निष्ठा की कमी जो सर्वत्र है।
विनोद दास : आप मुक्तिबोध के साथ भी रहे हैं। उनके बारे में कुछ बताएं।
प्रभाकर माचवे : मैं मुक्तिबोध पर बहुत कुछ लिख चुका हूँ। उनके जीवन काल में उनकी घोर उपेक्षा करने वाले आज जिस तरह उनके नाम पर कमा रहे हैं या उनका झण्डा उठाए हैं और उसे आउटसाइज़ या महामानव सिद्ध कर रहे हैं, यह सब झूठ है। जो लोग उनके जीवन काल में उन्हें जरा सा भी नहीं जानते थे, वे आज सहसा मुक्तिबोध संप्रदाय के पुरोधा कैसे बन गए हैं? मुक्तिबोध ऐसे लोगों से तहेदिल से नफरत करते थे। मुक्तिबोध ग्रंथावली के छठे भाग में नेमिचन्द्र जैन के साथ उनके पूरे पत्र व्यवहार को पढ़ जाइए। उनसे उभरने वाली तस्वीर ही सही मुक्तिबोध थे। उनका लेखन केवल साइक्लॉजीकल कोम्पेनसेशन था। चाहे आप मुझे गलत मान लें लेकिन मेरा निवेदन यही है कि हिन्दी साहित्य में उस कवि और लेखक के साथ मरने के बाद भी अन्याय किया गया है।
विनोद दास : भारतीय भाषा परिषद के आप निदेशक हैं। इसके बारे में कुछ कहें।
प्रभाकर माचवे : भारतीय भाषा परिषद कलकत्ते में आठ वर्षों से चलने वाली संस्था है जिसमें इसकी इमारत बनने पर फरवरी 1979 से मुझे निदेशक के रूप में सीता राम सेकसरिया जी आग्रहपूर्वक ले आए। इसका नीति निर्धारण कार्यकारिणी समिति करती है। प्रतिभा अग्रवाल, प्रो. विष्णु कान्त शास्त्री, शिव कुमार जोशी जैसे लोग कार्यकारणी के सदस्य हैं।
सम्पर्क
मोबाइल : 9867448697
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