विजय बहादुर सिंह का संस्मरणनात्मक आलेख 'सीदी मौला याद आते हैं नीलकांत में'
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नीलकांत |
नीलकांत हमारे समय के ऐसे लेखक थे जो तमाम लोगों के लिए तमाम तरह की असुविधाएं पैदा करते थे। अपनी बेबाक बयानी के लिए प्रख्यात थे। इसीलिए तमाम लेखक उनसे बचने की कोशिश की। मार्कण्डेय जी अक्सर कहा करते थे जिस लेखक को हताहत करना हो उसकी किताब नीलकांत को थमा दो। लेखकीय तौर पर उन्हें सन्तुष्ट कर पाना कठिन था। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके लेखकीय सन्दर्भ और प्रतिमान व्यापक थे। कलम का इतिहास लेखन पर जो अंक उन्होंने लगभग तीन दशक पहले निकाले वे आज भी एक चुनौती की तरह हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि नीलकांत असुविधाजिवी लेखक थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभाग के टॉपर होने के बावजूद उन्होंने एक लेखक और एक्टिविस्ट के तौर पर जीने का असुविधाजनक निर्णय लिया। जीवन के अन्तिम वर्षों में उन्हें तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। विजय बहादुर सिंह उनकी स्मृति को याद करते हुए उचित ही लिखते हैं 'नीलकांत भी भविष्य के एक समाज के सपने को देखते रहे हैं। एक ऐसा समाज जिसमें श्रमपरायण मनुष्यता अपने स्वाभिमान के साथ जीने का लोकतांत्रिक अधिकार पा सके। लेखक और करता भी क्या सपनों के अलावा देने को और कुछ क्या है उसके पास। सपने ही उसके लेखन के हथियार हैं। कुछेक परवर्ती भी निश्चय ही इसी है। रास्ते चल रहे हैं। पर अपना यह मध्य वर्ग ज्यादातर चतुर सुजानों का है। वह बड़ी से बड़ी विचारधारा को फीका कर सकने में माहिर है। बड़े से बडे सपने को अपने स्वार्थों के चमकीले नारों में ढाल कर निस्तेज कर सकता है।' 14 जून 2025 को नीलकांत जी का निधन हो गया। उनकी स्मृति को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं विजय बहादुर सिंह का संस्मरणनात्मक लेख 'सीदी मौला याद आते हैं नीलकांत में'।
'सीदी मौला याद आते हैं नीलकांत में'
विजय बहादुर सिंह
स्कूली दिनों से ले कर कॉलेज और विश्वविद्यालय तक अखबार और पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने की जो आदत पड़ गई थी, उसी के चलते जब-तब नीलकांत नाम पर भी निगाह पड़ती थी। सन् बयासी (1982) में जनवादी लेखक संघ के बनने के बाद नीलकांत सिर्फ एक नाम नहीं, जिन्दगी का एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गया। पर यह भी सच है कि नीलकांत से इतनी निकटता सम्भव न होती अगर बीच में शलभ न होता। बीसवीं सदी के 1978-1979 वें वर्ष में वह कोलकाता को लगभग अलविदा कह मेरे साथ विदिशा आ कर रहने लगा था। बीच में एक बार कलकत्ता से लौटा तो नीलकांत-पुराण का वाचन करता हुआ। नीलकांत इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के टॉपर हैं। नीलकांत जौनपुर के हैं। नीलकांत जाति के ठाकुर हैं और प्रसिद्ध कथाकार मार्कण्डेय के सगे छोटे भाई हैं। इतना ही नहीं जहां फैशन या दिखाने के लिए मार्क्सवाद को प्रगतिशील होने का बैनर की तरह इस्तेमाल करते हैं, नीलकांत उसे अपनी जिन्दगी की परिभाषा और पहचान बनाए हुए हैं। इतने सारे बखानों को सुन चुकने पर कौन होगा जो नीलकांत के व्यक्तित्व के प्रति आकर्षण से न भर उठेगा। अपने साथ भी यही हुआ। होना ही था। शलभ कहे और मैं उसे बेभरोसे का मान लूं, यह तो उन दिनों सम्भव ही कहाँ था।
सन् तिहत्तर (1973) में अर्जुन सिंह और अशोक वाजपेयी की जोड़ी ने मध्य प्रदेश में कला और साहित्य में युगांतर जैसा करते हुए उत्सवों की जो वार्षिक श्रृंखलाएँ शुरू कीं, इसने भोपाल को एक बड़े सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में स्थापित करने की पहल की। भाषा और संस्कृति विभाग ने मध्यप्रदेश के न केवल सुप्रतिष्ठित, भूले-बिसरे कलाकारों तक को नए सिरे से महत्व देना शुरू किया बल्कि उनके सुकर्म से प्रदेश के कला प्रेमी नागरिकों को जोड़ने की भी शुरुआत की। नवोदित प्रतिभाएँ पहचानी जाने लगीं और युवा कवियों, कथाकारों, गद्य कृतियों को बल्क में खरीदे जाने की शुरुआत हुई। शर्त यह रखी गई कि प्रकाशक आदेश पाने के बाद सबसे पहले लेखक की रायल्टी एक मुश्त चुकाएगा। तभी उसका भुगतान सम्भव होगा। जिले-जिले में, बड़े कस्बों में पाठक मंचों की शुरुआत हुई। इस माहौल में नीलकांत ने भी अपना खर्चा-पानी चलाने के लिए देशभूमि प्रकाशन, 633 कर्नलगंज, इलाहाबाद से शुरुआत करते हुए शलभ श्रीराम सिंह की किताब 'नागरिकनामा' छाप दी। एक ऐसा शख्स बकौल शलभ-शलभ उनके मित्र और उनकी अपनी दुनिया के शोषित-पीड़ित प्रताड़ित जन (ही) उनके विश्वविद्यालय, पुस्तकालय और अपने बने नीलकांत अचानक हिन्दी के मुनाफाखोर प्रकाशकों की पाँत में खड़े दिखने लगे तो मैंने उसी से पूछा- यह क्या। क्या नीलकांत कोई नौकरी नहीं करते? उसी ने बताया कि नीलकांत ने अपना समूचा कैरियर दरकिनार कर जीवन वामपंथ को समर्पित कर दिया है। अब थोड़ा बहुत खरचा-पानी निकालने के लिए तात्कालिक तौर पर यह जुगत खोज ली गई है। यह सब सुन मैं चुप्पी लगा गया। फिर भी नीलकांत मेरी जेहन से उतरे नहीं।
साल दो-साल भी नहीं गुजरे होंगे कि रामचन्द शुक्ल जन्मशती के अवसर पर नामवर जी ने नीलकांत को आलोचना में धारावाहिक छापना शुरू किया और हिन्दी के श्रद्धांध शुक्ल भक्तों के बीच खलबली-सी मच गई। नीलकांत की पुस्तक - 'रामचन्द्र शुक्ल' 1985 में इसके हवाले भी हैं। इस दृष्टि से किताब तो ऐतिहासिक है ही, भूमिका असाधारण रूप से ऐतिहासिक है।
इसी बीच प्रकाशक नीलकांत का भोपाल आना-जाना शुरू हुआ तो विदिशा उनके लिए विराम का एक ठीहा बनता गया। नीलकांत एक प्रकाशक के तौर पर आते और प्रवासी की भांति विलम जाया करते। विदिशा यों भी विलमा लेने के लिए पुराकाल से बदनाम रहा। मगध का राजकुमार अशोक उज्जैन का प्रांतपाल बन कर आया तो विदिशा ने उसे ऐसा विलमाया कि नगर श्रेष्ठ की सुन्दरी कला देवी को अपना जीवन ही दे बैठा। दक्षिण पूर्वी एशिया में बौद्ध धर्म के प्रचारक बन कर जाने वाली अशोक की सन्तानें महेन्द्र और संघमित्रा देवी के ही तो बेटे-बेटी थीं। कालिदास ने मेघदूत में यों ही नहीं कहा -
तेषां दिक्षु प्रथितविदिशा लक्षणां राजधानी
गत्वा सद्यः फलमविफलं कामुकत्वस्य लब्धा।
पूर्व मेघ... 24
यहां की विलासिनियाँ, प्रेमिकाएँ बकौल व्याख्यानकारों के कामशास्त्र की आचार्या हैं। नागरिक भी कम मनचले रसिक नहीं हैं।
नीलकांत यों तो यहां ऐसे किसी फेरे में नहीं पड़े तब भी विदिशा कभी-कभी उन्हें इतना बाँधे रहता कि वे घर-परिवार की सुध भूल महीनों रम जाया करते। इलाहाबाद से आदरणीय मार्कण्डेय जी की डाँट भरी चिट्ठियाँ मुझे आती रहतीं तुम उन्हें क्यों ठहराए हुए हो, यहाँ पत्नी और बच्चे परेशान हैं, फिर भी नीलकांत मुश्किल से ही अपना बिस्तर बाँधते।
विदिशा में उनके रहने और विलम जाने के क्या कारण रहे होंगे यह तो वो ही बता सकेंगे पर एक दो कारण तो समझ में आते ही हैं कि इस ठीहे पर शलभ, नागार्जुन, अदम गोंडवी, भवानी प्रसाद मिश्र, वेणु गोपाल सबसे तो जब-तब भेंट-मुलाकात हो ही जाती। 48, स्वर्णकार कॉलोनी अब पूरी तरह ऐसों के लिए एक चर्चित अड्डा बन चुका था। फिर नीलकांत भी क्या कम थे और हैं। ऊपर से एकदम साधारण पर भीतर से असाधारण रूप से गहरे रसिक, संबंधों की ऊष्मा को न केवल महसूस करने वाले बल्कि उन्हें वजन दे कर चलने वाले। इतने विनम्र इतने विनम्र कि आपका खाना तक बना दें और इतने अक्खड़, इतने फक्कड़ कि आपके सारे वैभव और चमक-दमक वाले रौब दाब पर मूत कर चल दें। दोस्तों की खूब परवाह करने वाले और कदम-कदम पर उनका इम्तहान लेने वाले।
एक बार शलभ इलाहाबाद से लौटा तो खण्डपुराण लिए हुए। काफी बिफरा हुआ, नीलकांत ने मेरे साथ ऐसा किया, वैसा किया। मैं पूछता कि ऐसे में क्या किया तो बताए नहीं। वैसा किया में ढेरों प्रशंसाएँ और संघर्षों की कहानी। दूसरी ओर अपनी कुछ भी न बताए। मैंने पूछा तुम जिस घर में जाते हो, उसमें असली नागरिकता तो पत्नी और बच्चों की होती है पर क्या तुम जैसे लोग जरा भी इसका खयाल रखते हो? मेरे इस सवाल पर वह चुप्पी साध जाता। बाद में मुझे इलाहाबाद के लेखकों में 'गुरु' नामधारी आदरणीय (अब स्व.) मार्कण्डेय भाई ने बताया - विजय! तुम्हें तो दो पहलवानों की कुश्ती का पता होगा ही। पूरी गली अखाड़े की मिट्टी बन गई थी। और लड़ाई ऐसी कि दो बाँके भी शरमा जायें। मैं पूछता कि आपको किसने बताया तो मुस्करा कर चुप रह जाते। उनके होठों पर सनातन रूप से चढ़ी पान की लाली का सौन्दर्य और भी बढ़ जाता।
शलभ के साथ इस तरह की बातें सामान्य थीं। वो तो डाल काटने वाले किंवदन्ती पुरुष कालिदास का असली वंशज था। जिस थाली में खाता उसी में छेद किया करता। बाद में कहता- तो दूसरा कौन अपनी थाली में ऐसा करने देगा। यही उसने कइयों के साथ किया। अशोक जैन (कलकत्ता), मेरे साथ, अन्त में रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा के हरिवंश नारायण सिलाकारी के साथ। अन्ततः कलकत्ता के साथ विदिशा भी छूटा ही। कलकत्ता छूटा तो उसका दर्द कविता में फूट पड़ा -
डाल छूटी, डाल के दो फूल छूटे
अब अंधेरे का सफर है,
क्या पता, कब किरन फूटे।
यदि नहीं कुछ कहीं होगा तो अकेला मैं
मैं कि बस वह आदमी, वह, अब जिसे अहसास खाए
या कि फिर एहसान लूटे।
डाल छूटी, डाल के दो फूल छूटे...
इतने पर भी मन नहीं पूरा हुआ तो नीचे नोट भी लगाया - यह गीत पत्नी कल्याणी और दोनों पुत्रियों प्रतिभा और प्रज्ञा के लिए...। मुझसे अलग हो कर गुस्से में लिखा- 'मैं अकेला ही भला था।' ऐसों की नियति शायद यही होती हो। वे एक बड़े संसार के लिए रिश्तों वाले बेहद सीमित परिवार की परवाह शायद कम ही करते हैं। तो क्या प्रतिभा के नवीनीकरण और पुनर्नवता के लिए यह खतरनाक खेल जरूरी है? नीलकांत भी तो कुछ ऐसा ही जीवन जी रहे हैं। खुद मैं भी। पर नीलकांत ने शलभ की तरह शायद ही कभी दूसरों के या यारों के घरों में कोई अराजकता की हो। उनका जीवन-दर्शन कुछ अलग प्रकार का है। विदिशा में उनके महीनों के प्रवास के बाद शायद ही कभी मेरे या नीलेश या फिर सविता के साथ कुछ ऐसा घटा हो कि हम तीनों चिन्तित हो उठे हों।
स्त्रियाँ, खासतौर से सुन्दर स्त्रियों से तो इलाहाबाद खूब भरा है। विदिशा तो भण्डार है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, पर है। तब भी नीलकांत रसभग्न हो कर भी उसके परे शायद ही कभी गए। वे जो कुछ महसूस करते हैं वो सब मानसिक है। एक सहृदय-शिरोमणि प्रेक्षक की तरह। उनका भोग अगर कहीं से शुरू है तो वह विन्दुतन्मय मानसिकता वाला है। हाँ, शराब और मांसाहार, खासतौर से मीन-तंत्र-मंगुर, रोहू, कतला का भोग। या फिर झटका। याद नहीं पड़ता किसने कहा था पर आदमी वो जलेस का ही था कि शलभ और नीलकांत को बोतल दिखा दो, बस वे दोनों अपना सब, नहीं, नहीं दूसरों की भी परवाह नहीं करेंगे। अपना तो सब कुछ खो ही बैठेंगे। मैंने देखा है। साथ-साथ यात्राएँ भी की हैं। आधा किलो वाले सफेद बोतलनुमा अमूल दूध पावडर वाले प्लास्टिक डिब्बे में ये आधी शराब और चौथाई पानी भरे साधारण द्वितीय श्रेणी वाले रेल डिब्बे की किसी सीट पर बैठे-बैठे यात्रा पूरी किया करते। यह उनका अपना आविष्कार था। और कलाकार तो वो हैं ही। उनकी यह कलाकारी मंगूर या रोहू तलने में ही नहीं, बढ़ईगीरी में भी देखी जा सकती है। अज्ञेय बहुत विज्ञापित किए जाते रहे कि वे तो जूते भी गाँठ लेते हैं और फटे कुरतों को भी खूबसूरती से सिल लेते हैं। मृत्यु से पहले उन्होंने पड़ोस के पेड़ पर कुटीर बना ही लिया था। अज्ञेय को इसकी ख्याति भी प्राप्त थी। पर नीलकांत तो आत्ममगन किस्म के आर्टिस्ट हैं। वे चाहे दीवान बनाएँ या मेज उसे देख कोई भी चकित और मुग्ध हो सकता है। सनमाइका के जिन-जिन रंगों का मेल वे बिठाते हैं, वह तो बड़ी-बड़ी मुनाफाखोर पेशेवर कंपनियों भी नहीं कर सकीं। वे तो सबसे पहले मुनाफे पर निगाह रखती हैं और नौकरीपेशा कारीगर आर्डर के मुताबिक उत्पादन करते हैं। लगभग मशीन की तरह। अब तो शायद वो भी न होता हो। पर एक कलाकार शिल्पी या कारीगर तो सिर्फ और सिर्फ आत्मादेश पर सारा सामंजस्य बिठाता है। उसे किसी बाहरी निर्देश या आदेश की जरूरत कभी नहीं पड़ती। उसका आत्म-सुख ही मूलभूत है-स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा...। सब कुछ उसके मन पर निर्भर है। ठीक मीर मुंशी, ख्यात रससिद्ध कवि घनानन्द की तरह। नीलकांत का कारीगर भी घनानन्द से कोई कम नहीं है।
अब जरा सोचिए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दर्शन-विभाग का फर्स्ट क्लास फर्स्ट, क्या किसी विश्वविद्यालय के योग्य नहीं था? पर वो तो मार्क्सवाद का यह रास्ता छोड़ उस रास्ते पर चल पड़ा जिसका बयान करते हुए 'यादों से रची यात्रा विकल्प की तलाश' में पूरन चन्द्र जोशी लिखते हैं 'अनुभव बताता है कि पार्टीबद्ध, अनुशासनबद्ध बुद्धिजीवी अन्त में एक स्वतन्त्र बुद्धिजीवी नहीं पार्टी का प्रवचनकार और व्याख्याता बन कर बुद्धिजीवी के रूप में समाप्त हो जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका अनुशासन तो और भी कठोर है, जो बुद्धिजीवी को स्वतन्त्र चिन्तन की दिशा में नहीं, कम्पलायेंस और कन्फौरिमिटी और अंत में 'सबमिशन' के रास्ते धकेलता है।' जोशी आगे लिखते हैं - 'मुझे यह लगता है कि जितने बड़े पैमाने पर कम्युनिस्ट आंदोलन ने विश्व भर में (और भारत में भी) प्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों को अपनी ओर आकर्षित किया उतना अन्य किसी आंदोलन ने नहीं। लेकिन जितने बड़े पैमाने पर उनके बुद्धिजीवी चरित्र पर कम्युनिस्ट पार्टी संगठन और अनुशासन ने आघात कर उन्हें स्वायत्त चिन्तन में असमर्थ बनाया, उसकी भी कोई मिसाल नहीं।
दुर्भाग्य से प्रतिभाशाली नीलकांत भी उसी रास्ते गए। पर उनका लौटना या वापसी भी इसी तरह हुई। किस्सा थोड़ा लम्बा है, पर है जरूरी।
1984 में जनवादी लेखक संघ की ओर से निश्चय हुआ कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जन्मशती का आयोजन मध्य प्रदेश की इकाई भोपाल में आयोजित करे। स्वभावतः स्थानीय इकाई के अध्यक्ष होने के नाते मैं स्थानीय संयोजक बना। राष्ट्रीय संयोजक मेरे शिक्षक रहे डॉ. शिव कुमार मिश्र बने। जिन लोगों को अपने विचार-पत्र पढ़ने को कहा गया उनमें एक नाम नीलकांत का भी था। नीलकांत उन दिनों आलोचना संपादक नामवर जी के कहने पर शुक्ल जी पर धारावाहिक लिख रहे थे। जलेस के सदस्य उसे देख ही रहे थे। नीलकांत ने जो लेख संयोजक की मांग पर लिखा, वह जब दिल्ली हो कर डॉ. मिश्र के पास गुजरात पहुँचा तो तूफान सा मच गया। खबर मुझे भी की गई। तब तक नीलकांत भी भोपाल के आयोजन में शामिल होने के लिए पहले से विदिशा पहुँच गए। विदिशा इस बीच उनका प्रिय प्रवास बन चुका था। इस प्रसंग में जो जलेस के संयोजक और कार्यकारिणी द्वारा किया गया उसका कुछ हवाला खुद नीलकांत ने अपनी किताब 'रामचन्द्र शुक्ल' की 'दो शब्द' शीर्षक भूमिका में दिया है। उसमें उनकी जो शैली है, उससे उनके गुस्से और जलेस के मार्क्सवादियों को ले कर व्यंजित अन्य भाव सुस्पष्ट हैं। इस सन्दर्भ में उन्हें भी देखा जाना जरूरी है। कार्यसमिति एकतरफ और अपराधी नीलकांत अकेले। हिन्दी मार्क्सवाद में भी इतनी साजिश और इतना कठमुल्लापन हो सकता है, यह मेरे लिए नई चीज थी। नीलकांत को कहा गया कि पहले तो वे 'मृत सौन्दर्यशास्त्र का मसीहा' शीर्षक बदलें और अपना टोन डाउन करें, दूसरे अपनी गलती भी मानें। मैं तो इस वक्त पल-पल नीलकांत के साथ ही था। मुझे याद आया खुद आचार्य शुक्ल के शिष्य नन्द दुलारे वाजपेयी, जो मेरे गुरु थे- ने अपने आचार्य को नहीं बख्शा, तब नीलकांत को आचार्य वायपेयी के ही शिष्य डॉ. मिश्र क्यों यह अभियान चलाए हुए हैं कि नीलकांत बौद्धिक अपराधी हैं। मुझे यह बात उचित नहीं लगी तो दो रातों के बीच मैंने उक्त लेख को समूचा जस का तस मुद्रित करा कर आयोजन में बँटवा दिया। हो सकता है कि यह मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात रही और इस प्रकार में अनुशासन भंग कर रहा होऊँ पर मुझे विचारों की यह नाकेबंदी रास नहीं आई। अपनी आदत के चलते मैंने यह खतरा उठाना अपना नैतिक दायित्व मान लिया था। बाद में हम दोनों के कानों में यह बात पड़ी और इधर-उधर से पहुँचाई भी गई कि बनारस में जो राष्ट्रीय सम्मेलन होने वाला है, उसमें वे दोनों निकाल दिए जायेंगे। पार्टी के द्वारा पाले-पोसे गए कार्यकर्ताओं की त्यौरियां चढ़ी हुई थीं। नियत समय पर हम दोनों बनारस पहुँचे। नीलकांत इलाहाबाद से चल कर आए थे। हम दोनों ने अपना बिस्तर पास-पास लगाया। पार्टी के प्रदेश सचिव कोई तिवारी जी या शुक्ल जी थे। उनका थोड़ा साफ्ट कॉर्नर नीलकांत को ले कर था तो, पर वे भी लाचार दिखे। हम दोनों लगभग तैयार थे जिबह होने को। नीलकांत बेहद व्यथित-मथित थे। पर फ्रैक्शन में जब पार्टी महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने कह दिया कि लेखक जब आपस में संवाद नहीं कर सकते, असहमति नहीं रख सकते तब वे क्या विचारों का विकास कर सकेंगे। षड्यंत्रकारियों की योजना टॉय टॉय फिस्स हो गई। मैं तो खैर पार्टी मेम्बर था ही नहीं। नीलकान्त फुल टाइमर जैसे थे।
जलेस में जुटे इन महानुभावों के चलते विचारों की स्वतंत्रता और दृष्टि के लिए खतरा पैदा हो चुका था। नीलकांत ने 'दो शब्द' में ठीक ही लिखा है 'जनवाद और प्रगतिवाद के भीतर छिपे ये रहे यथास्थितिवाद के कट्टर पक्ष पोषक हैं। राज्याश्रित क्रान्तिकारी शब्दावली उनका पहनावा है। अन्ततः 'उदारवादी पक्ष के प्रबल होने के कारण शुक्लशती-आयोजन प्रतिमा पूजन में बदल कर रह गया।'
अपने इन्हीं कारनामों के चलते संगठन खुद अब मृतप्राय जैसा है। मठों की नियति होती भी यही है। नीलकांत जैसे समर्पित कार्यकर्ता और प्रखर दृष्टि संपन्न प्रगतिशील लेखक की निष्ठाओं पर अनुशासनात्मक कार्यवाही का विचार कर जनवादी लेखक संघ ने उस भारतीय जनता के साथ विश्वासघात किया जो कैरियरजीवी अवसर-प्राप्त बुद्धिजीवियों और पुरोहिती चरित्र वाले हिन्दी आचार्यों की करनी से त्रस्त है। नीलकांत ने 'दो शब्द' में वाली भूमिका में ऐसों के चरित्र का बखान करते हुए लिखा है कि इस निबंध को ऐसे 'विभागाध्यक्षों और वृहत्तर वेतनमान पाने वाले प्रोफेसरों के सामने पढ़ना था, जो स्वयं तो एक सवाल एक पृष्ठ में पूछते ही हैं, दूसरे उनके लग्गू-भग्गू शोधकामी लोगों की टोली उस एक सवाल को सौ मर्तबा पूछती है और ताल ठोंक-ठोंक कर उत्तर माँगती है।.... स्थापित शिक्षाविदों की सुविधाओं और अनिश्चित जीवन दशा से घिरे छात्रों की मानसिक यातनाओं के परस्पर मेल का कौतुकी स्वरूप किसे समझ में नहीं आएगा। यही वह वर्ग है जो आजकल भी उच्च शिक्षा का रथ संचालन कर रहा है। यही वर्ग है जो अपने स्वाथों के चलते परस्पर नाभिनाल-बद्ध है। यही क्रान्तिकारी विचारों से ले कर संगठनों पर अपना कब्जा जमाता है और खोटे सिक्कों की तरह असली सिक्कों को षड्यंत्रपूर्वक चलन से बाहर कर देता है। हिन्दी साहित्य को सत्यनारायण की कथा की तरह बाँचने और जोर-जोर से शंख बजाने वाला यह पोंगा समूह अब भारत की उच्च शिक्षा का कंठहार बन चुका है। परिणामस्वरूप न तो प्रामाणिक शोध हो पाता है न कोई नया विचार आ पाता है। मौलिकता के नाम पर इसमें केवल विचारों की चोरी और नकल है। नीलकांत जैसे लोग इसी में फैंस कर रह जाते हैं।
किन्तु नीलकांत फिर भी नीलकान्त हैं। वे चक्रव्यूह में फँसे अभिमन्यु तो नहीं रहे कभी। वे निकले, उस बिरादरी का त्याग किया और पुराने योगियों और सिद्धों की तरह एक ऐसे जीवन को अंगीकार कर लिया जहाँ इनका पहुँचना न तो फायदेमंद था, न प्रतिष्ठापूर्ण। कुछ-कुछ वैसा 'जो घर फूँके आपना चलै हमारे संग।'
एक लेखक के रूप में वे आज तक जो कथा-कहानी लिखते रहे या फिर वैचारिक अभियान से प्रेरित हो, 'हिन्दी कलम' जैसी पत्रिका सम्पादित कर रास्ता दिखाया, गालिब जैसे महान शायरों ने कलाम की मार्मिक व्याख्याएं कीं, वे सब एक दस्तावेज के बतौर पर हमारे पास हैं। कोई चाहे तो इससे उनके बौद्धिक और रचनात्मक व्यक्तित्व की जाँच-पड़ताल, उनके चरित्र का सौन्दर्याकन और लेखन का मूल्यांकन कर सकता है। पर कोई चाहेगा क्यों? नीलकांत किसी पीठ या मठ के आचार्य या महंत तो हैं नहीं। तब उसे मिलना क्या है। फिर वे सच को जितनी तीक्ष्णता और ताकत से कहने का सौन्दर्य प्रदर्शित करते हैं, वह आज के दोगले भद्र समाज के लिये लाभकारी कहाँ हैं? प्रेमचन्द की माला जपने वाला छद्म प्रगतिशील समाज पुरस्कार और अवसरवाद की घटिया प्रतिस्पर्धा में लीन प्रेमचन्द के लेखन के आदर्शों और प्रतिज्ञाओं को भूल ही चुका है। अकारण ही नहीं यही लोकवादी क्रान्तिकारी समाज आधुनिक भारतीय समाज के लिये रोज-रोज अप्रासंगिक होता जा रहा है। प्रेमचन्द एक लोकसमर्पित लोकनिष्ठ लेखक थे। इसलिए केवल विषय ही नहीं, अपना शिल्प भी उसी के अनुसार चुनते और रचते थे। जहाँ जरूरी हुआ तीखी आलोचनाएँ प्रस्तुत करते थे। फिर भी वे एक स्वप्नवादी लेखक थे। नीलकांत भी भविष्य के एक समाज के सपने को देखते रहे हैं। एक ऐसा समाज जिसमें श्रमपरायण मनुष्यता अपने स्वाभिमान के साथ जीने का लोकतांत्रिक अधिकार पा सके। लेखक और करता भी क्या सपनों के अलावा देने को और कुछ क्या है उसके पास। सपने ही उसके लेखन के हथियार हैं। कुछेक परवर्ती भी निश्चय ही इसी है। रास्ते चल रहे हैं। पर अपना यह मध्य वर्ग ज्यादातर चतुर सुजानों का है। वह बड़ी से बड़ी विचारधारा को फीका कर सकने में माहिर है। बड़े से बडे सपने को अपने स्वार्थों के चमकीले नारों में ढाल कर निस्तेज कर सकता है। अब तो कथित लेखक संघ जैसे इसकी ठेकेदारी सी कर रहे हैं। नीलकांत जैसे समर्पित लेखक इनके लिये बेमानी हैं।
ऐसा क्यों है? जवाब होगा, इसलिए कि इसमें चिकना-चुपड़ापन छोड़ना पड़ेगा, चरित्र भ्रष्ट मध्य वर्ग की ग्लैमरस जिंदगी को अलविदा कहना होगा। कवितावली के कवि तुलसी के शब्दों में 'लेने को एक न देबे को दोऊ' को अपनी जिन्दगी की परिभाषा बनाना पड़ेगा।
नीलकांत को गंगा पार भैंसी पार के खेतों वाले इलाके में जा कर बसने को देखता हूँ तो ढेर सारी बातें मन में आती हैं। लेकिन जो सबसे बड़ा बिम्ब मन में उभरता है वह 'चारुचन्द्र लेख' (हजारी प्रसाद द्विवेदी) के सीदी मौला का है। सीदी मौला अपने दुख और गुस्से से बेतरह धधकते हुए महाराज से कहते हैं- 'सब भंड हैं। यहाँ राजा भंड हैं, फकीर भंड हैं, रईस भंड हैं। सब स्वार्थ के चेरे हैं... सोना मिलने की आशा हो तो उनसे चिलम भरवा लो, पैर दबवा लो, जूठा बर्तन मँजवा लो। स्वार्थ के गुलाम हैं। दिल्ली में गुलामों का राज्य है। सब-के-सब चुगलखोर, चरित्रहीन, क्रूर, गँवार।'... अन्ततः सीदी मौला अभिशाप की वाणी बोलते हुए कहते हैं 'जिस सल्तनत में सबको अपनी-अपनी पड़ी हो, जिसमें बड़े-से-बड़े को अपना सिर बचाने की हो ही चिन्ता पड़ी हो, जिसमें प्रजा के सुख-दुख से कोई मतलब ही न हो, वह नाश के कगार पर खड़ी है।' (चारुचन्द्र लेख, पृष्ठ 420, प्रकाशन 1963)।
इस सन्दर्भ में आचार्य के विद्या-वंशजों को देखता हूँ तो वे कीर्तनिया अधिक दिखते हैं, उत्तराधिकारी बेहद कम। नीलकांत का तो अपना कोई वंश नहीं है। हो भी तो क्या? शर्त बस एक ही है - जो घर फूँके आपना, चले हमारे साथ।
(लहक के फरवरी मार्च 2017 अंक से साभार।)
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विजय बहादुर सिंह |
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मोबाइल : 09425030392
मित्र-रूप में यहां हुए स्मरण में नीलकांत जी की बहुआयामी व्यक्तित्वाकृति ही नहीं, उनकी संपूर्ण निर्मिति और जीवंत प्रतिकृति भी प्रायः दृश्यमान है!
जवाब देंहटाएंविजय बहादुर बाबू का गद्य कितना सजल हो उठा है! आलोचक नहीं, कवि की कथा-मुद्रा है यहां। सम्भाल कर रखने वाला भावभीना संस्मरण! नीलकांत जी की स्मृतियों को नमन!