हरे प्रकाश उपाध्याय के कविता संग्रह पर उषा राय की समीक्षा 'साहेब हम मनई नहीं, मुसहर हैं'
जाति व्यवस्था ने हमारे समाज में कई विसंगतियां पैदा की हैं। इससे दूसरी जातियों में तथाकथित निम्न जातियों के प्रति हेय भावना जागृत हुई। साथ उस जाति का विकास अवरूद्ध हुआ। इससे अन्ततः समाज और राष्ट्र का विकास अवरूद्ध हुआ। भक्ति आन्दोलन ऐसा आन्दोलन था जिसके अधिकांश सन्त इन निम्न जातियों के थे। इन सभी ने वह अनुभवजनित काव्य रचा जो भारतीय साहित्यिक परम्परा में नज़ीर बन गया। हरे प्रकाश उपाध्याय ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं के केन्द्र में आम आदमी और उसकी समस्या रहती है। इसी क्रम में उन्होंने उपेक्षित मुसहर जाति के काली मुसहर का बयान अपनी लम्बी कविता में दर्ज़ किया है। उनके नए संग्रह का यह शीर्षक भी है। कविता संग्रह का यह शीर्षक ही हरे प्रकाश की प्रतिबद्धता को बयां कर देता है। इस संग्रह पर उषा राय ने समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हरे प्रकाश उपाध्याय के कविता संग्रह पर उषा राय की समीक्षा 'साहेब हम मनई नहीं, मुसहर हैं'।
'साहेब हम मनई नहीं, मुसहर हैं'
उषा राय
बेरोजगारी अक्सर एक छोटी समस्या के रुप में दिखाई देती है पर वह इतनी छोटी नही होती। वह मनुष्य के लिए घातक और विनाशकारी प्रभाव छोड़ती है। नैतिक पतन पहले होता है फिर परिवार टूटता है और भविष्य पर सवालिया निशान लग जाता है। सभी उम्मीदों के टूटने से मनुष्य व्यर्थ हो जाता है, तब समाज उसे तलछट में फेंक देता है। इधर हरे प्रकाश उपाध्याय के कई कविता संग्रह आए हैं। जिनमें से काली मुसहर का बयान इस दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कृति है। इसमें कुल बहत्तर कविताएं हैं। शीर्षक कविता ही प्रमुख और लम्बी कविता है, शेष अन्य छोटी-छोटी कविताएं हैं। मुख्य कविता जाति व्यवस्था के निचले पायदान पर रहने वाले निम्नतम कोटि के व्यक्ति की बात करती है। इसमें बेरोजगारी की समस्या एक व्यापक विमर्श की मांग करती है। यह कविता मुसहर समुदाय की पीड़ा, संघर्ष और समाज द्वारा किए जा रहे उनके शोषण का सजीव चित्रण करती है।
मुसहर जाति पर ज्यादा कुछ पढ़ने को नहीं मिलता है। हां कविताएं है, छोटे-मोटे लेख, किसी जमीनी नेता का बयान या बिरले पत्रकारों की स्टोरी वीडियो जरुर मिल जाते हैं, जिससे उनके बारे में थोड़ा बहुत पता चलता है। बहुत से दलित चिंतकों का भी ध्यान इधर कम ही गया है। लखनऊ के सुरेश पंजम ने दलित और 'चमार' पर कहानी, उपन्यास, समीक्षा लिखी है, लेकिन इस महादलित समुदाय के बारे में नहीं मिलता। यह वह समुदाय है जो आज भी पेट भरने की समस्या से जूझ रहा है। इनका जीवन अत्यंत निराशाजनक है। इनमें शायद ही कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा हो, जो अपने समुदाय की बात को ठीक से कह सके। यही कारण है कि इनकी व्यथा-कथा की बातें सामने नहीं आती। कुछ कविताएं इस रुप में दिख जाती है-
जैसे अच्युतानंद की कविता-
"गांव से लौटते हुए इस बार पिता ने सारा सामान लदवा दिया
ठकया मुसहर की पीठ पर
कितने बरस लग गए ये जानने में
मुसहर किसी जाति को नहीं, दुख को कहते हैं।"
इसी तरह अंशु मालवीय की कविता है वह मुसहर है
"उसे खेत में हल जोतते नहीं देखा जाता
बल्कि देखा जाता है भूख के साथ लड़ते हुए..।"
काली मुसहर का बयान कविता के माध्यम से कवि हरे प्रकाश ने उस समुदाय के लोगों के जीवनचर्या को हमारे सामने रखा है। यह कविता सामाजिक समरसता और मनुष्यता पर सवाल खड़ा करती है। भारत में जाति व्यवस्था ने कुछ कम कहर नहीं ढाया है। इसी कारण सदियों से कुछ समुदायों को हाशिए पर रखा गया है। मुसहर जाति उन्हीं में से एक है। ये कभी जमीन खोदने, सुरंग बनाने, चूहा पकड़ने और मेहनत-मजदूरी का काम करते थे, लेकिन अब इनके काम और नाम दोनों का अर्थ बदल चुका है। मुसहर समुदाय के लोग गांवों से दूर, नदियों के किनारे, रेलवे स्टेशन, बस अड्डों और अन्य परित्यक्त स्थानों पर रहते हैं। इनके पास कोई स्थायी रोजगार नहीं है। इसीलिए ना इनका रहने का ठिकाना है और ना ही इनमें एकता है। समाज इन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं। इनका रहन-सहन बद से बदत्तर है। इन्हें श्रमिक के रुप में मान्यता नहीं मिलती है। बिडम्बना ये है कि कोई इन पर जल्दी भरोसा भी नहीं करता है। इसीलिए इस समुदाय के सामने पेट भरने की समस्या सुरसा की तरह हरदम मुंह बाए रहती है। यह हमारा ही देश है जहां श्रम से पहले जाति पूछी जाती है। आजादी के बाद से व्यवस्थाएं उद्घोषणा करती आई है। गरीबी हटाओ, अन्त्योदय' आदि अनेक नारे और वादे हैं लेकिन जमीनी स्तर पर बदलाव दिखाई नहीं देता।
"साहब खराब पढ़ा है पंद्रह दिनों से चांपाकल
सूअर आदिमी दूनो पीयत है पोखरे का जल।"
बहुत पहले प्रखर दलित संत कवि रविदास ने कहा था
'ऐसा चाहूं राज में, जहां मिले सबन को अन्न,
छोट-बड़ो सब सम बसै, रविदास रह प्रसन्न।'
रविदास कवि का मन्तव्य है कि सभी के साथ समानता का व्यवहार हो, सभी के लिए अन्न-जल उपलब्ध हो, मैं ऐसा राज्य चाहता हूं। वस्तुतः यह जिम्मेदारी राज्य की होनी चाहिए। लेकिन असमानताएं उनके जीवन में देखने को मिलती हैं। कई बार वे गंदे जोहड़ और तालाबों का पानी पीने को मजबूर होते हैं, जहां लोग अपने जानवर नहलाते हैं, मल मूत्र धोते हैं। उनके बच्चे बिना कपड़ों के घूमते हैं। दूध मिठाई उनके सपनों में भी नहीं आता है। भूख से लड़ते हुए वे आदिम युग की याद दिलाते हैं। औरतें और बच्चे केकड़ा घौधा पकड़ के खाते हैं। इन अमानवीय परिस्थितियों में वे बीमार हो जाते हैं
"ओझा गुनी सुनत नाहीं कौनों राह न बुझात है
नाहीं मिले दवा-बीरो, दरद में तड़पत प्रान छूटि जात है।"
पूंजीवादी व्यवस्था ने युवाओं के लिए कुछ रास्ते खोले हैं। लेकिन इन लोगों को मौका नहीं मिल पाता। इस समस्या की तह में देखें तो पता चलता है कि परिश्रम जीवन निर्वाह का साधन तो है, लेकिन इसका फायदा तभी हो सकता है जब मजदूर पूंजीपति या किसी मालिक को अपनी श्रमशक्ति बेचने में सफल रहे या फिर अपनी विश्वसनीयता बनाए रखे। दोनों ही हाल में यह समुदाय असफल रहता है। न उनकी कोई सुनता है और ना ही ये अपनी बात कह पाते हैं विरोध तो बहुत दूर की बात है। काली कहता है-
"देख के हमनी के जब ऊ भड़कत है
हमनी से सब भागत दूरे दूरे रहत है
अस्पताल स्कूल आफिस मंदिर जाई कइसे
आपन विपत सुनाई कइसे"
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हरे प्रकाश उपाध्याय |
अम्बेडकर इन विपत्तियों के बारे में जानते थे, उनका कहना था कि शिक्षित बनों और संगठित रहो। काली मुसहर कहता है-
'साहेब हम मनई नहीं, मुसहर हैं। '
मानो मुसहर इंसान ही नहीं होते। वह तिरस्कृत और अपमानित है। काली मुसहर का यह बयान निराधार नहीं है। उसकी तकलीफों के अँधेरे कोनों में किसी की दिलचस्पी नहीं है क्योंकि वे अशिक्षित हैं और शिक्षा के महत्व को नहीं समझते हैं। लगातार परेशानियों में रहने के कारण अपना ध्यान नहीं रख पाते, इसीलिए लोग उन्हें दूर भगाते हैं।
"लोग गैया के पूजत हैं
कुकुरा ले के गोदी में घूमत हैं
सुगवा के पिंजरा में बार-बार कटोरी देवत हैं
हमनी के मारे दुत्कारे जरा सा जो छूवत है
काहे को इन्सान बनाया विधना यह हाल जो होअत है।"
मुसहर समुदाय न केवल आर्थिक रूप से पिछड़ा है, बल्कि समाज में उनके प्रति घृणा भी गहरी है। इसका कारण केवल उच्च जातियां ही नहीं हैं। निम्न जातियां भी अपने से निम्न जातियों से घृणा करती हैं और उनके ऊपर आने के रास्ते बन्द रखने की कोशिश करती है। अरुंधती रॉय ने अपनी किताब- 'एक था डॉक्टर एक था संत' में जाति के रेडियो एक्टिव परमाणु का घातीय क्षय को समझाने की कोशिश की है कि हर किसी के भीतर ब्राह्मणवाद मौजूद है चाहे वह किसी भी जाति का हो। हर जाति अपने से नीची जाति पर प्रदूषण और शुद्धता को हथियार बना कर हिंसा और पापकर्म करती है। इस जाति के बेदखल होने का यह बड़ा कारण है।
काली मुसहर का बयान' कविता में केवल मुसहरों की व्यथा-कथा ही नहीं है, इसमें भारतीय राजनीति, कानून व्यवस्था एवं समाज भी बेनकाब होता है। सफेदपोश लोग किस तरह अपने अपराध छिपाने के लिए इन भोले-भाले लोगों को फंसाते रहते हैं। इनके साथ होने वाले अत्याचार अनंत हैं। बेबसी का एक करुण चित्र देखिए-
"जब कहीं कोई घटना घट जात है
हमनी के पकड़ि के पुलिस लई जात है
मारत मन भर मुक्कालात है
सादा कागज पर अंगूठा लग जात है।"
बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या वाले हमारे देश में मशीनीकरण' किसी दैत्य से कम नहीं है जो श्रमिकों के हिस्से का भोजन खा जाती है। काली मुसहर अपने समुदाय के लोगों की बेदना को व्यक्त करते हुए कहता है कि पहले वे खेतों में काम करते थे। उनका पूरा कुनबा लगा रहता था तो पेट भर अन्न मिलता था। लेकिन अब मशीनों ने उनके हाथों से काम छीन लिया है। मजबूरन वे दर-दर भटकते हैं। कोई उन्हें काम नहीं देता। समाज का ताकतवर वर्ग उन्हें हर जगह दबाता, मारता और भगाता है। खेत भी कम होते जा रहे है और मशीनों ने उन्हें रौंद दिया है-
"पता नाहीं कौन-कौन मसीन है आया
हमनि के जिनगी मसीनवा रौंदत है भाया।"
गांधी जी ने मशीनीकरण का विरोध करते हुए कहा था- "मशीनों ने कुछ लोगों को अमीर बनाया है, लेकिन करोड़ों लोगों को बेरोजगार कर दिया है। (हिन्द स्वराज) आज मुसहर समुदाय की बात करते हुए हम उनकी उन सभी आशंकाओं को सच होता हुआ देख रहे हैं जिनके बारे में गांधी ने आगाह किया था।
कविता का महत्व तब बढ़ जाता है, जब कविता उनकी बात करती है जो अपनी बात नहीं कह पाते। यह कविता उन मुसहर स्त्रियों की कहानी कहती है, जो न सिर्फ वर्ग, जाति के कारण तिरस्कृत होती है बल्कि लिंग के आधार पर भयानक शोषण का शिकार होती हैं। काली कहता है-
'साहब हमनी के नार सब
घूमे दिने राति खेलवा-बधार सब
खात रहे मलिकवा के नजरि के मार सब
मलिकवा के जीभी के सवाद सब। '
यही वे स्त्रियां है जिन पर उच्च वर्ग के पुरुषों की निगाहें गड़ी रहती है। ये स्त्रियां हमेशा खतरे में रहती है। कभी अपने लिए विरोध करती है तो कभी अपनी बहन बेटियों के लिए। ये स्त्रियां उठा ली जाती है, विरोध करने पर उनके पुरुषों को मारना, पीटना धमकी देना आम बात है। छोटी-छोटी बातों पर वे जान से हाथ धो बैठते हैं।
हिंदी साहित्य में बहुत सी महत्वपूर्ण लम्बी कविताएं लिखी गई हैं। इस कविता को भी उसी परम्परा में देखा जाना चाहिए। इसकी भाषा देशज है, जो कथ्य की विश्वसनीयता को बढ़ाती है। नगण्य बोध के साथ सपाटबयानी इसका मुख्य गुण है। वह सपाटबयानी जो बिना लाग-लपेट के सच्चाई बयान करती है और यहीं से शुरु होती है कवि की प्रतिबद्धता।
इस संग्रह में सच बहुत कम है, महान लोग, कसौटी, कविता के अलावा क्या करता हूँ, आदि अनेक छोटी-छोटी और अच्छी कविताएं हैं। रह जायेंगे आप हैरान', कविता पढ़ कर भवानी प्रसाद मिश्र की सुप्रसिद्ध कविता याद आती है 'मैं गीत बेचता हूँ'। एक चिड़िया आई, कविता पढ़ कर लगा कि यह नए अन्दाज की कविता है जिसमें गेयता है और शिल्प में ताजगी है। ये कविताएं अंधेरे कोनों में उलझे हुए लोगों की मरती हुई संवेदनाओं को जीवित रखने के लिए प्रतिबद्ध है। इन कविताओं में हाशिए के लोगों के प्रति कवि की अपार सहानुभूति है। कवि अपने को भी नहीं बख्शता है। कविताएं व्यंग्य, वक्रोक्ति के रूप में प्रस्फुटित होती है। कविता कवि जी में ये पंक्तियां देखिए-
"हमारे बारे में यही क्या कम है
उस कविता पर पा जाते हैं
आप उसी राजा से पुरस्कार
जिससे थर्राता है यह जंगल
हां कवि जी हम आपकी ताकत समझते हैं
हां कवि जी, हम आपकी सहृदयता समझते हैं"
यह साहसिक कविता आज के बहुत से सम्मानित कवियों को आइना भी दिखाती है। न जाने पगले को कौन सा नशा चढ़ा है इस कविता में कुछ सार्थक न कर पाने का दुख और अपने उद्देश्य के खोखलेपन पर करूण व्यंग्य है। पंक्तियां देखिए-
"न जाने पगले को कौन नशा चढ़ा है
लग रहा उसने इन दिनों
अपने ही जीवन का वीभत्स काव्य पढ़ा है।"
हरे प्रकाश की कविताओं में कहीं-कहीं उनका मनमौजीपना दिखता है, जो अनगढ़ विद्रूपता को दिखाना चाहता है। कहीं-कहीं महज तुकबन्दियां भी हैं, जिसपर उन्हें ध्यान देना चाहिए। माखौल उड़ाने से पहले वाजिब वजह स्पष्ट होना चाहिए। बहुत सी कोफ्त उतारने वाली कविताओं से भी उन्हें बचना चाहिए था। ऐसी कविताओं में ए आई ने लिख दी कविता', कभी तो आना, नई घड़ी आदि कई कविताएं हैं, जो मुझे लगी। अन्त में में यही कहूंगी कि जातिगत भेदभाव, सामाजिक असमानताओं तथा साहित्यिक उठापटक को भी सामने लाना इस किताब का प्रमुख उद्देश्य है। भारतीय समाज के हाशिए के लोगों की मदद के लिए स्वयंसेवी संस्थानों को सामने आना चाहिए और ऐसी गुहार लगाने वाली कविताओं का स्वागत किया जाना चाहिए।
'काली मुसहर का बयान' (कविता संग्रह)
कवि- हरे प्रकाश उपाध्याय
संभावना प्रकाशन
प्रथम संस्करण, 2025
मूल्य : रु. 200
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उषा राय |
सम्पर्क
उषा राय
मोबाइल - 7897484896
बहुत बारीकी से की गई अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंप्रिय हरे के पास नया शिल्प और नई विषय-वस्तु है। उषा जी की आलोचना दृष्टि कविता के माध्यम से अमानवीय भेद-भाव पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को दृश्यमान करती है।
जवाब देंहटाएंबहुत बारीकी से किताब की अच्छाइयों और त्रुटियों पर ध्यान केंद्रित करती सटीक,सुंदर समीक्षा है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा। हरेप्रकाश जी इस समय सबसे अधिक ज़मीनी कवि हैं। उनके विषय, विचार, शैली से यह परिलक्षित होता है।
जवाब देंहटाएंवाह अब तक की पढ़ी बेहतरीन समीक्षा में से एक 👏👏👏👌
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