प्रभाकर सिन्हा का आलेख 'विवाह के विरुद्ध'

 

प्रभाकर सिन्हा 



डॉ. प्रभाकर सिन्हा (जन्म 1938) देश के प्रमुख नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं में से एक हैं। वे पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (PUCL) के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं और वर्षों से लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा UAPA, AFSPA और भारतीय दंड संहिता की धारा 124A जैसे दमनकारी कानूनों के विरुद्ध संघर्षरत हैं। उन्होंने भाषा विज्ञान में सिक्किम की आदिवासी भाषा 'लेप्चा' पर शोध किया।


1964 में उन्होंने विवाह संस्था पर "Absolution of Marriage Institution" नामक विचारोत्तेजक लेख लिखा, जो 'क, ख, ग' पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसका हिंदी अनुवाद प्रोफेसर नित्यानंद तिवारी ने किया, जिस पर आगे 'मध्यमा' पत्रिका में चर्चा हुई। बाद में श्री अशोक सेकसरिया द्वारा यह लेख राजकिशोर जी तक पहुँचा, जिन्होंने इसे 1997 में 'दूसरा शनिवार' पत्रिका में पुनः प्रकाशित किया। 


प्रभाकर जी स्वतंत्र विचारक रहे हैं, किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े और उनका लेखन साहस, विवेक तथा सामाजिक पुनर्विचार का प्रतीक है।



सभ्यता के विकास के साथ साथ मनुष्य ने कुछ ऐसी संस्थाएं और व्यवस्थाएं ईजाद कीं जिससे एक सुनिश्चित सामाजिक व्यवस्था स्थापित हो सके। इसी क्रम में विवाह संस्था की शुरुआत हुई। लेकिन इस व्यवस्था की खामी यह थी कि स्त्रियों से विशेष तौर पर यह अपेक्षा की गई कि वे अपने पुरुष साथी के साथ ही पूरा जीवन व्यतीत करें। यह उम्मीद इसलिए भी त्रासद थी कि शीघ्र ही  पितृसत्तात्मक समाज होने के नाते पुरुषों द्वारा स्त्रियों का शोषण किया जाने लगा। कई मामले ऐसे सामने आए जिसमें पति ने पत्नी की मर्जी न होने पर भी सम्बन्ध स्थापित किए। जबकि लैंगिक सम्बन्धों में सहमति होने पर ही उसकी प्रासंगिकता है।  इसीलिए समय-समय पर विवाह संस्था के खिलाफ आवाज उठाई गई। प्रभाकर सिन्हा अपने आलेख में लिखते हैं 'मान्यता है कि इस संस्था का कभी कोई औचित्य नहीं था- आखिर वह चीज कलात्मक कैसे हो सकती है, जिसे बचाए रखने के लिए धर्मग्रंथ या कानून की मदद लेनी पड़े? किसी भी संबंध का आधार प्रेम या आदर होना चाहिए और जब ये खत्म हो जाएँ, तो एक-दूसरे के साथ जीवन बिताना अनैतिक ही नहीं, अस्वास्थ्यकर भी है। विवाह संस्था को खत्म कर दिया जाए या रखा जाए, यह इंतजाम तो फौरन होना चाहिए कि किसी को किसी के साथ मन मार कर न रहना पड़े आर्थिक कारणों से या किसी और कारण से।' अभी हाल ही में मणिपुर में ऐसा प्रकरण सामने आया जिसमें मध्य प्रदेश की एक युवती सोनम ने अपनी मर्जी के खिलाफ की गई शादी के खिलाफ जाते हुए अपने नव ब्याहता पति राजा वर्मा की हत्या करवा दी। ऐसे कई प्रकरण अब रोज ही सामने आ रहे हैं। ऐसे में इस आलेख की प्रासंगिकता आज भी दिखाई पड़ती है। इस आलेख को हमें उपलब्ध कराया है सुपरिचित कथाकार शर्मिला जालान ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रभाकर सिन्हा का आलेख 'विवाह के विरुद्ध'।



'विवाह के विरुद्ध'


प्रभाकर सिन्हा

प्रस्तुति : शर्मिला जालान



क्या विवाह नामक संस्था को समाप्त करने का समय आ गया है? इस विचारपूर्ण लेख के लेखक की, जो मानव अधिकार आंदोलन के साथ गहराई से जुड़े हुए हैं, मान्यता है कि इस संस्था का कभी कोई औचित्य नहीं था- आखिर वह चीज कलात्मक कैसे हो सकती है, जिसे बचाए रखने के लिए धर्मग्रंथ या कानून की मदद लेनी पड़े? किसी भी संबंध का आधार प्रेम या आदर होना चाहिए और जब ये खत्म हो जाएँ, तो एक-दूसरे के साथ जीवन बिताना अनैतिक ही नहीं, अस्वास्थ्यकर भी है। विवाह संस्था को खत्म कर दिया जाए या रखा जाए, यह इंतजाम तो फौरन होना चाहिए कि किसी को किसी के साथ मन मार कर न रहना पड़े आर्थिक कारणों से या किसी और कारण से।


बौ‌द्धिकों का यह दायित्व है कि वे समाज की संस्थाओं की जीवन्तता और योग्यता की जाँच सामयिक सन्दर्भों में समय-समय पर करते रहें। यह परीक्षण इसलिए आवश्यक है कि किसी भी संस्था का शाश्वत मूल्य नहीं होता; वह कुछ खास सामयिक परिस्थितियों की उपज होती है। अगर समाज अचल होता, तब तो इस संस्थाओं की सार्थकता आगे आने वाले हर काल में प्रमाणित हो सकती है। किन्तु मानवीय समाज की परिवर्तनशील प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए सिर्फ यही कहा जा सकता है के इनकी उपयोगिता सार्वकालिक नहीं हो सकती। जिस क्षण किसी प्रणाली को जन्म देने वाली परिस्थितियाँ बदल जाती हैं, उसी क्षण उस प्रणाली का पुनर्परीक्षण आवश्यक हो जाता है। बौ‌द्धिकों को यह चुनौती स्वीकार करनी चाहिए, क्योंकि औरों की अपेक्षा वे इस अवस्था में अधिक होते हैं कि परिवर्तनों को समझें, उनकी रोशनी में चीजों को देखें और सामान्य जन के विचारों को प्रभावित कर सकें। सामान्य जन सर्वदा ही परिवर्तनों के प्रति असहिष्णु होता है और पीढ़ियों द्वारा पीटी हुई लीक पर चलना अधिक पसन्द करता है। यह निश्चलता उसकी प्रवृत्ति होती है और वह अपनी पारम्परिक जीवन पद्धति में किसी भी परिवर्तन को बलपूर्वक रोकना चाहता है। नवीनता के प्रति समूह-मानस की यह सहाभूतिहीनता सामाजिक सुधारों में कठिनाई पैदा करती है और इसीलिए बौ‌द्धिकों पर दायित्व का भार आ जाता है। ऐसी स्थिति में उन्हें निर्णय करना होता है कि क्या वे पुराने विचारों से अपनी मुक्ति भर से सन्तुष्ट हो जाएँगे या अपना यह नैतिक दायित्व भी निभाएँगे कि लीक-पिटी मान्यताओं से चिपके हुए लोगों को सचेत बनाएँ।


एक ऐसी प्रणाली जो अपनी सार्थकता खो चुकी है, किन्तु READ-ONLY - This is an older file format....


जीवन की गति में कोई अवरोध नहीं उपस्थित करती, कुछ सीमा तक उपेक्षा भी को जा सकती है, जैसे हमारे यहाँ यज्ञोपवीत धारण करना शायद ही बदलती परिस्थितियों में नवीनता के आग्रह को रोकता हो। किन्तु जब एक समय की मूल्यवत्ता दूसरे समय के लिए भार बन जाती है, जिसके कारण लोगों की एक बड़ी संख्या अभिशप्त हो कर जिंदगी जीने के लिए मजबूर होती है, तब हमारा यह नैतिक दायित्व होता है कि हम फिर से उस मूल्यवत्ता का परीक्षण कर सामयिक परिस्थिति में उसकी सार्थकता या निरर्थकता का निर्धारण करें। हम हजारों-लाखों लोगों की जिन्दगी को सिर्फ अपने आलस्य के कारण अभिशप्त होते नहीं देख सकते। इसी पीड़ित-बिन्दु से मैं विवाह संस्था पर, जो सिर्फ बहुत प्राचीन ही नहीं, वरन बहुत महत्वपूर्ण भी है, विचार करना चाहूँगा।


सबसे पहला सवाल तो यही हो सकता है कि विवाह संस्था को निरर्थक और हानिकर मानने का क्या कोई कारण भी है। इसका सबसे उचित उत्तर यह हो सकता है कि जब किसी भी संस्था में, जो लोगों के लाभ और भलाई के लिए है, विश्वास घटने लगता है और परिणामस्वरूप जीवन की गति अवरुद्ध होने लगती है, तो उसे निर्दयतापूर्वक तर्क के कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। पहले-पहल इस संस्था में अविश्वास के तथ्य को तभी स्वीकार कर लिया गया, जब तलाक की आवश्यकता को कानून के स्तर पर महसूस किया गया। फिर यह सभी जानते हैं कि विवाह के अतिरिक्त भी यौन संबंधों का होना कोई असामान्य बात नहीं है। जो देश इस समस्या के प्रति सचेत हैं. उन्होंने बड़े पैमाने पर खोज की, तो स्तब्ध कर देनेवाली बातें प्रकट हुई। आज भी किंग्से रिपोर्ट की (जो अमेरिकियों के यौन जीवन व व्यवहार के बारे में किए गए एक सर्वेक्षण पर आधारित थी) चर्चा होती है। इस रिपोर्ट से पता चलता है कि विवाह के पहले और विवाह के बाद अन्य व्यक्तियों से यौन सम्बन्ध इतनी सामान्य बात है कि अमेरिकी कभी इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। अवैध बच्चों की बढ़ती संख्या विवाह-पूर्व यौन सम्बन्धों के प्रचलन की घोषणा करते हैं। किंग्से रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में प्रति 26 आदमियों में एक आदमी विवाह-पूर्व सम्बन्ध से पैदा हुआ था। अब तो यह अनुपात और भी बढ़ गया होगा, क्योंकि यूरोप के कुछ देशों में तो हर चौथा, पाँचवाँ या छठा व्यक्ति विवाह-पूर्व सम्बन्ध से पैदा हुआ बताया जाता है।


यद्यपि हमारे देश में इस सम्बन्ध में कोई आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु मेरा विश्वास है कि अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं को पूर्ति के लिए क्रूर संघर्ष में जूझते हमारे निचले वर्ग के लिए यौन नैतिकता एक खूबसूरत, किन्तु अर्थहीन मूल्य मात्र है, जिसका उनके जीवन में कोई -स्थान नहीं और उच्च वर्ग अपने वैभव और शक्ति के मद में इस मूल्य की कोई परवाह नहीं करता। अगर यह मान भी लिया जाए कि मध्य वर्ग यौन नैतिकता के सिद्धान्तों में अधिक विश्वास रखता है (यह धारणा भी काफी संदिग्ध है), तो भी केवल उसके यौन व्यवहारों को विचार का एकमात्र आधार कैसे बनाया जा सकता है?


समाज संस्थाओं का निर्माण ही नहीं करता, बरन अपने सदस्यों को उनके प्रति आदर प्रदर्शित करने और उनका अनुसरण करने को बाध्य भी करता है तथा विद्रोही सदस्यो को दंड दे कर व्यापक भय द्वारा अन्य सदस्यों को अनुशासित करता है। यह अनुदार, असहिष्णु दृष्टिकोण नई विकसित दृष्टियों को रोक कर समाज में जड़ता लाता है और हर तरह की गत्यामकता का मार्ग अवरुद्ध करता है। यह जड़ता तथाकथित अनैतिक कहे जानेवाले व्यवहारों की आलोचना करती है और वैयक्तिक स्वतंत्रता की औचित्य सीमा को भी खंडित करती है। यद्यपि वैयक्तिक मनोवेगों को समाज के समक्ष प्रश्नय नहीं दिया जा सकता, किन्तु अगर किसी संस्था की उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लग जाए, तो उसका आलोचनात्मक मूल्यांकन होना ही चाहिए। किसी भी नई प्रणाली का समाज पर व्यापक और गहरा असर पड़ता है, क्योंकि वह नए मूल्यों को जन्म देती है और अनेक मूल्यों को खारिज करती है। नई प्रणाली के धनात्मक एवं ऋणात्मक प्रभावों का तथा समाज की खुशी के लिए उसकी योग्यता का अनुमान तभी लगाया जा सकता है, जब उसकी संगति प्रमाणित हो जाए। विवाह को, जिसका हमारे जीवन से इतने निकट का संबंध है और जिसके व्यवहार का बहुत अधिक असर पड़ता है, परीक्षा करना तो ऐसी परिस्थिति में और भी आवश्यक है।


पवित्रता, कौमार्य, बच्चों की वैधता और संघर्षों के बावजूद वैवाहिक जीवन को ढोना- ये सभी मूल्य विवाह से उत्पन्न होते हैं। इन मूल्यों की स्वीकृति संसार के असंख्य लोगों के दुखी जीवन के लिए उत्तरदायी है। सेक्स एक सामान्य मानवीय मूल प्रवृत्ति है, फिर भी लाखों युवक और युवतियाँ अपने कौमार्य को बचाने के लिए अपनी मूल यौन वृत्ति से जूझ रहे हैं, यद्यपि अपने आप में इसका नैतिकता से कोई संबंध नहीं है। संघर्ष की यह अवस्था इसलिए है कि वे सेक्स के प्रति स्वस्थ और सही दृष्टि अपनाने में असमर्थ हैं। व्यक्तित्व के स्वस्थ विकास के लिए हमारी बु‌द्धि और मूल प्रवृत्तियों में संतुलन अनिवार्य है। किन्तु सेक्स के प्रति गलत दृष्टि इन दोनों मानवीय शक्तियों में संघर्ष की एक ऐसी स्थिति पैदा करती है जो व्यक्तित्व को खंडित करती है। ये लोग एक हारी हुई लड़ाई लड़ते हैं और अपनी हार पर कुंठा और ग्लानि से दुखी होते हुए उसके भार को मूक और विवश हो ढोते रहते हैं और बाद में विवाह की सीमा के भीतर भी सेक्स के प्रति सही दृष्टिकोण नहीं अपना पाते। क्या हम ऐसी स्थितियों के प्रति उदासीन हो सकते हैं? यह तभी सम्भव है, जब हम जड़ता और दायित्वहीनता को स्वीकार कर लें। क्या युवक और युवतियों को एक गलत धारणा के नीचे बराबर पिसने देते रहना चाहिए? अगर इस अनाकांक्षित संघर्ष में उन्हें अपनी शक्ति न व्यय करनी पड़े तो वे दूसरे अच्छे उद्देश्य में उसे व्यय कर सकते हैं।


यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि युवकों को एक लम्बे समय तक अनावश्यक रूप से जलना पड़ता है और यह जीवन के बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करने और अपने भीतर दायित्व-बोध विकसित करने की दिशा में बहुत बड़ा व्यवधान है। आश्चर्य है कि जन-जन की इस समस्या को इस विकसित सभ्यता में भी बहुत कम महत्व दिया जाता है, जबकि सेंट पॉल ने शताब्दियों पहले इस समस्या की प्रखरता को पहचान लिया था। वस्तुतः उन्होंने मानवीय मनोविज्ञान की दृष्टि से अधिक समझदारी और बु‌द्धिमत्ता की बात की थी, जब उन्होंने यह कहा था, "विवाह जलन से अच्छा है।" बेशक एक ईसाई संत से इससे अधिक की आशा कोई भी समझदार आदमी नहीं कर सकता। उनके लिए सेक्स पाप है-यद्यपि वह दुर्निवार है, इसलिए उन्होंने सेक्स जीवन का एक अति संयमित स्वरूप निर्धारित किया।



अशोक सेकसरिया जी और श्री सच्चिदानंद सिन्हा के साथ प्रभाकर जी


युवकों में सेक्स के प्रति अवैज्ञानिक दृष्टिकोण कई सूक्ष्म हैं? यह तभी सम्भव है, जब हम जड़ता और दायित्वहीनता को स्वीकार कर लें। क्या युवक और युवतियों को एक गलत धारणा के नीचे बराबर पिसने देते रहना चाहिए? अगर इस अनाकांक्षित संघर्ष में उन्हें अपनी शक्ति न व्यय करनी पड़े तो वे दूसरे अच्छे उद्देश्य में उसे व्यय कर सकते हैं।


यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि युवकों को एक लम्बे समय तक अनावश्यक रूप से जलना पड़ता है और यह जीवन के बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करने और अपने भीतर दायित्व-बोध विकसित करने की दिशा में बहुत बड़ा व्यवधान है। आश्चर्य है कि जन-जन की इस समस्या को इस विकसित सभ्यता में भी बहुत कम महत्व दिया जाता है, जबकि सेंट पॉल ने शताब्दियों पहले इस समस्या की प्रखरता को पहचान लिया था। वस्तुतः उन्होंने मानवीय मनोविज्ञान की दृष्टि से अधिक समझदारी और बु‌द्धिमत्ता की बात की थी, जब उन्होंने यह कहा था, "विवाह जलन से अच्छा है।" बेशक एक ईसाई संत से इससे अधिक की आशा कोई भी समझदार आदमी नहीं कर सकता। उनके लिए सेक्स पाप है-यद्यपि वह दुर्निवार है, इसलिए उन्होंने सेक्स जीवन का एक अति संयमित स्वरूप निर्धारित किया।


युवकों में सेक्स के प्रति अवैज्ञानिक दृष्टिकोण कई सूक्ष्म तरीकों से हानि पहुँचाता है। केवल इतना ही नहीं कि वे जलते हैं और जीवन के अपने मुख्य क्षेत्र से हटते हैं, वरन् उनकी बोधशक्ति ही कुण्ठित हो जाती है। सेक्स के साथ रहस्य और पाप की भावना उसमें आकर्षण की एक अजीब ताकत उत्पन्न कर देती है। यदि सेक्स और उससे सम्बन्धित समस्याएँ खुले आम विचार-विमर्श का विषय बन सकतीं, तो उसके भीतर से वह फुसलानेवाला आकर्षक तत्व अपने आप समाप्त हो जाता और साथ ही भौंड़े उत्तेजक साहित्य की वृद्धि में कमी आती और स्ट्रिपटीज़ और उस जैसी हरकतों में लोगों की ह्रासोन्मुखी रुचि न रमती। सेक्स के साथ पाप और रहस्य की एक अजीब भावना संयुक्त होने के कारण लोगों में कामोद्दीपक साहित्य और कामो‌द्दीपक नृत्य पढ़ने-देखने की लालसा जगती है, जो अन्ततः सुरुचिहीनता को बढ़ावा देती है। इस सुरुचिहीनता में संतुलित व्यक्तित्त्व के विकास को गुंजाइश ही कहाँ रहती है? सेक्स के प्रति पूर्वाग्रहों से मुक्ति सुरुचिसम्पन्नता में सर्वाधिक सहायक हो सकती है। लेकिन यह तब तक सम्भव नहीं है, जब तक विवाह संस्था अपने ढाँचे में सेक्स नैतिकता की अजीबोगरीब धारणाओं को प्रश्रय देती रहेगी और मिथ्या आधारों पर किसी को नैतिक और किसी को अनैतिक ठहराती रहेगी।


प्रेम के अभाव में भी सतीत्व और वैवाहिक जीवन का निर्वाह संसार के सभी सभ्य देशों में गुण के रूप में स्वीकार किया जाता है और प्रशंसित होता है। अमेरिका और स्वीडन जैसे देश, जहाँ लोग दुखी विवाहित जीवन व्यतीत करनेवाले लोगों के तलाक ले लेने के प्रति अपेक्षा अधिक सहनशील हैं, उपर्युक्त मान्यताएँ कम नुकसानदेह कही जा सकती हैं। किन्तु हमारे देश और इस तरह के अन्य देशों में, जहाँ न तो कानून इतना उदार है और न उस तरह का व्यवहार ही प्रचलित है जो इन विद्रोही कार्यों को सहन कर सके, हमारे लोगों को अनेक प्रकार की यातनाओं का सामना करना पड़ता है। ये मूल्य केवल तकलीफों को ही नहीं बढ़ाते, वरन् दुर्गुणों एवं हासोन्मुखता के प्रसार का भी कारण होते हैं। इन मूल्यों के प्रति अधिक आग्रहशील होने के कारण ही अनेक औरतों को वेश्या जीवन स्वीकार करना पड़ता है। उस औरत को, जो विवाहित है, किन्तु अन्य व्यक्तियों के साथ जिसका सघन भावनात्मक लगाव है, बराबर एक उलझन का सामना करना पड़ता है-या तो सामाजिक नियमों और आचार्य को तोड़ने के कारण कठिन दण्ड भोगे या फिर अपने पति के साथ सेक्स का व्यापार करती हुई अपनी सुरक्षा और प्रतिष्ठा की रक्षा करे। इस तरह अनेक शरीफ औरतें अपने पति को सिर्फ अपना शरीर दे कर क्योंकि भावनात्मक स्तर पर तो वे उनमें शरीक हो नहीं सकतीं वेश्यावृत्ति नहीं तो और क्या करती हैं?


वेश्यावृत्ति इस बात पर निर्भर नहीं है कि किसी औरत के साथ कितने पुरुषों का संबंध होता है, इसका संबंध शारीरिक और भावनात्मक सुख के अलावा सेक्स के द्वारा कुछ और के प्राप्त करने से है। इस प्रकार वेश्यावृत्ति एक खास मानसिक वृत्ति पर निर्भर करती है। निम्नतम वेश्याएँ भी अगर पति की तरह आजीवन ग्राहक पाने का अवसर पाएँ, तो वे उसे तुरन्त स्वीकार कर लेंगी। और तो और, बड़ी संख्या में औरतें अपने पति को शरीर इसलिए देती हैं कि वे अपना भरण-पोषण कर सकें। समाज के एक वर्ग में, जहाँ औरतें आर्थिक दृष्टि में बिल्कुल ही स्वतंत्र नहीं हैं, अपने पति के तमाम जुल्मों को सहन करते हुए उपर्युक्त स्थिति को स्वीकार करनी पड़ती है। स्पष्टतः ऐसे विवाह में आनंद तो नहीं संतुलन अवश्य नजर आता है और यह संतुलन इसलिए कि विवाह की मूलभूत भावात्मक समस्याओं के प्रति उनमें सचेतनता रही ही नहीं। ऐसी स्त्रियाँ अपने ऊबे और धके पति के मनोरंजन और वासना प्राक साधन हैं-पत्नियाँ नहीं। मानवीय प्रतिष्ठा के इतने निचले स्तर पर किसी तरह का गौरव महसूस करना अपने को रसातल में ले जाना है।


विवाहित महिलाओं का एक दूसरा भी वर्ग है, जो इसी प्रकार की व्यंगात्मक स्थिति के बीच है, किन्तु वह मानसिक रूप से अपेक्षाकृत स्वस्थ है। इस वर्ग की औरतें अपने पति की ओर भौतिक सुख-सुविधा के लिए नहीं झुकतीं-वे प्रसन्नतापूर्वक अपनी भावनाओं की रक्षा के लिए हर तरह की तकलीफें, मुसीबतें उठा सकती हैं, लेकिन समाज द्वारा दिए गए भयंकर दण्ड का मुकाबला करने में अपने को असमर्थ पाती हैं। उनका संकट अधिक बड़ा है, क्योंकि परिस्थितियों से वे समझौता कर नहीं पातीं और लगातार एक तनाव और मानसिक संघर्ष की स्थिति में अपने को मजबूर पाती हैं। इनका नारकीय जीवन मानसिक संघर्षजनित आंतरिक यातना और पति के क्रूर 'वैधानिक बलात्कार' के बीच व्यतीत होता है। ये बेचारी औरतें लगातार बेईमानी, संघर्ष और तकलीफों की ज़िन्दगी बिताने के लिए बाध्य की जाती हैं और इस तरह ये हमारे 'सामूहिक बलात्कार' की शिकार बनती हैं।


अवैध सन्तानों की बढ़ती संख्या अब कहीं भी अनजान तथ्य नहीं है। और यह उतना ही सामान्य है जितना रोज़मर्रा की अन्य घटनाएँ। इन अबोध और अभागी सन्तानों का क्या भविष्य है? वे जन्म से लेकर मृत्यु तक शर्मनाक ज़िन्दगी शुरू करती हैं। समाज के पाखंडी और कड़े रुख के कारण ऐसी सन्तानों के व्यक्तित्व का विकास कुंठित कर दिया जाता है।


अपने बचपन के प्रारंभ से ही पापपूर्ण जन्म ग्रहण करने के बारे में उन्हें सचेत होने के लिए बाध्य होना पड़ता है और वे अपनी तमाम ज़िन्दगी एक भय के बीच जीते हैं। वे हमेशा अपने समाज में बहिष्कृत और देश में द्वितीय श्रेणी के नागरिक होते हैं। सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक दृष्टियों से हीन और असमर्थ, हमारे बनावटीपन से दण्डित, ये सन्तानें क़ानून की नज़रों में भी हीन हैं। अधिकतर सभ्य देश, जो हर नागरिक को समान अवसर और समानता देने का दावा करते हैं, इन अवैध सन्तानों को उनकी पैतृक सम्पत्ति से वंचित रखने में कोई हिचक नहीं महसूस करते और इस तरह उनकी सारी ज़िन्दगी को अनाथालयों के घेरे तक सीमित कर देते हैं। यह अजीब व्यंग्य है कि इतने अमानवीय और पाशविक जुल्मों के बावजूद हम सभ्य होने का दम्भ भरते हैं।


ये अभागे अपने जन्म के लिए कहाँ तक ज़िम्मेदार हैं? उनके प्रति यह क्रूरता किस आधार पर न्यायसंगत है? कौन क़ानून इस मानवीय दण्ड को न्याय मानकर अपनी निष्पक्षता का दावा कर सकता है? इन सन्तानों के प्रति हमारे दृष्टिकोण की कोई न्यायसंगति प्रमाणित नहीं की जा सकती। अगर हम तथाकथित विवाह संस्था के ढाँचे को सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो हमें क्रूरता, अत्याचार और अन्याय के रूप में इसका मूल्य चुकाना ही पड़ेगा। स्वीडन ने सेक्स और अवैधता संबंधी उदार क़ानून बनाकर यह प्रमाणित कर दिया है कि बिना बाह्य भय के भी हम इन मामलों में उत्तरदायित्वपूर्ण हो सकते हैं। अवैध सन्तानों के प्रति करता केवल इसी कारण है कि विवाह संस्था का घिसा-पिटा अस्तित्व हम स्वीकार किए हुए हैं और क्रूरता तब तक वर्तमान रहेगी। इस संस्था की ज़िन्दगी वेदी पर बलि देकर ही क़ायम रखी जा सकती है।


विवाह संस्था की दूसरी देन वेश्यावृत्ति है। जो समाज द्वारा स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, उसके प्रति समाज एकदम असहिष्णु है और उल्लंघन करनेवाले व्यक्तियों को वह कठोर दण्ड देता है। विवाह-पूर्व सेक्स संबंध स्थापित करनेवाली औरतों को हमारे समाज में वेश्यालय के अलावा और कहीं स्थान नहीं। विवाह-पूर्व और विवाहेतर सेक्स संबंधों के प्रति हमारी शत्रु-भाव तुल्य कठोरता विवाह संस्था को कायम रखने की अधिकाधिक व्यग्रता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सेक्स के प्रति घृणा की भावना वेश्यावृत्ति के अस्तित्व का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है। अगर सेक्स को जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग मानकर आदर किया जाता और उसे भावनात्मक आत्मीयता की अभिव्यक्ति माना जाता, तो उसके व्यापारिक स्वरूप से अपने आप घृणा होती और उसके प्रति स्वस्थ मानसिक दृष्टिकोण का विकास होता। एक बार अगर सेक्स और भावना में प्रत्यक्ष और जीवंत संबंध खोज लिए जाएँ तथा लोग उसकी सराहना भी करने में समर्थ हों, तब वे भावात्मक लगाव के बिना यौन कार्यों में अपने आप प्रवृत्त ही न होंगे यह बात तथ्यों द्वारा प्रमाणित है कि जहाँ यौन नैतिकता के बड़े कठिन बंधन हैं, वहाँ वेश्यावृत्ति का अधिक प्रचार है, अपेक्षाकृत उन देशों के, जहाँ यह कठोरता नहीं है। बहुत सीमा तक कुछ समाजों वेश्यावृत्ति को इसलिए प्रोत्साहित किया जाता है कि घरों की पवित्रता अक्षुण्ण रह सके। रसेल ने लिखा है, "जब तक सम्मानित औरतों के गुण को बहुत महत्वपूर्ण स्वीकार किया जाता रहेगा, तब तक विवाह संस्था के एक और अंग के पूरक रूप में दूसरी संस्था को स्वीकार करना ही पड़ेगा, जिसका अर्थ होगा वेश्यावृत्ति।" ऐसी स्थिति में वेश्याओं की यातनाएँ, लोगों का अस्वास्थ्य (वेश्याओं के सम्पर्क से यौन बीमारियों का होना) और स्वस्थ यौन जीवन के विकास में बाधक मनोविज्ञान इन तीनों चीज़ों को विवाह संस्था को सुरक्षित रखने के मूल्य पर भोगने और सहन करने की दयनीय स्थिति हमें स्वीकार करनी ही पड़ेगी।





विवाह संस्था में निहित दुर्बलता इस बात से ही प्रकट होती है कि यह अपनी रक्षा के लिए शताब्दियों से कानून या 'ईश्वरीय भय' की शरण लेती रही है। इसके लिए दण्ड व्यवस्था के तथ्य का आवश्यक होना यह बात प्रमाणित करता है कि वह मानवीय प्रकृति के अनुकूल नहीं है। इस प्रकार लोगों में पाशविक शक्ति और जुल्म का भय पैदा कर इस संस्था ने अपनी रक्षा की व्यवस्था की। अगर यह मानवीय प्रवृत्ति के विरुद्ध नहीं होती, तो अब तक यह मानवीय स्वभाव का अंग अवश्य बन गई होती। किन्तु जैसे ही इस संस्था के प्रधान रक्षक ईश्वर - का आधार किन्हीं कारणों में लुप्त हुआ, इससे पीड़ित लोगों ने इसके उल्लंघन और अस्वीकार की आवाज़ ऊँची की। जिस क्षण दम्पति के सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन के निर्वाह के लिए ईश्वर या कानून का विधान स्वीकार किया जाता है, उसी क्षण इस प्रतिज्ञा की भयंकर कठिनाई को हम स्वीकार कर लेते हैं। किन्तु आश्चर्य है कि इस निर्वाह की कठिनता को लक्ष्य कर भी हमारा दृष्टिकोण उसके प्रति सहानुभूति और करुणापूर्ण होने की अपेक्षा अधिक कठोर और निर्मम हो जाता है। परम्परा और पुरावशेषों के प्रति 'भावुक' दृष्टिकोण का यह सबसे बड़ा उदाहरण है। इस प्रकार का तथ्य उस समाज की समझ में कठिनता से आ सकता है, जहाँ सेक्स अपने आप में किसी पाप से संयुक्त नहीं है।


इस आग्रहयुक्त हठधर्मिता का परिणाम है कि हम दम्पति को इस बात के लिए बाध्य करते हैं कि परस्पर एक-दूसरे के प्रति घृणा-भाव रखते हुए भी वे विवाह की पवित्रता और प्रतिज्ञाबद्धता के नाम पर कृत्रिम आत्मीयता में जीवन बिताएँ। इस प्रकार का जीवन हासोन्मुखी होता है और उसके भीतर ऐसा कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं होता जिससे वह किसी भी पक्ष को सार्थक बना सके। पति और पत्नी में उनकी इच्छाओं के विरुद्ध भी यौन कार्यों की स्थिति उत्पन्न करना मानव जीवन के पतन की अन्तिम सीमा है। यह स्थिति अत्याचारपूर्ण दासता की पराकाष्ठा है। वस्तुतः इस तरह के घृणोत्पादक और नीच कर्म के लिए रोमन दासों को भी बाध्य नहीं किया जाता था।


ऐसी अवस्था केवल जुगुप्सापूर्ण ही नहीं, वरन् व्यक्तित्व को क्षत-विक्षत भी करती है। प्रेम के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं पर आधारित विवाह बहुधा मानसिक संघर्ष एवं स्नायविकता उत्पन्न करता है। कर्तव्य के रूप में शारीरिक संबंध के स्वीकरण से अनेक औरतें स्नायविक और सेक्स के प्रति विरक्त हो जाती हैं और इस तरह स्वस्थ और समृद्ध अनुभव से वंचित हो जाती हैं, जिसे प्राप्त करना उनका अधिकार है। भावात्मक आवेग और संतृप्ति के अभाव में वैवाहिक जीवन को ढोने के लिए मजबूर किया जाना दम्पति के प्रति बहुत बड़ा अपराध होगा। लोगों को ऐसी परिस्थितियों में जीने के लिए मजबूर करने में, जिनमें वे केवल स्नायु-दौर्बल्य के शिकार होते हैं, कोई न्यायसंगति नहीं है।


प्रेम और सेक्स के आंतरिक और जीवंत संबंधों तथा उन्हें परस्पर पृथक करने से उत्पन्न भयंकर दुष्परिणामों को दृष्टि में रखते हुए, हमें सेक्स संबंधों में सघन भावात्मक पक्ष को सर्वाधिक मूल्य देना चाहिए। जिन देशों में तलाक वैधानिक और सरल है, वहाँ भावात्मक और सेक्स संबंधी अव्यवस्था वैवाहिक संबंधों के टूटने में उत्तरदायी पाई गई है। इस प्रकार यह अत्यन्त स्पष्ट है कि दंपतियों के पारस्परिक सह-जीवन के लिए गहरा भावात्मक लगाव और पारस्परिक बोध-शक्ति ही एक सच्चा और प्रामाणिक आधार हो सकते हैं। केवल यही एक अवस्था है, जिससे यौन कार्य समृद्ध और सार्थक अनुभूति होता है, क्योंकि दंपति सघनतम आनंद और अनुरूपता इसी अवस्था में प्राप्त करते हैं। इस तरह एक बार जीवन में सेक्स का वास्तविक मूल्य जब प्रत्यक्ष होगा और लोग उसके प्रेम-जनित आनंद की अद्वितीयता की अनुभूति करेंगे, तब हासोन्मुख और क्षणकालिक यौन आनंदों के गर्त में डूबने के विचार से भी सहम उठेंगे। इस प्रकार केवल प्रेम ही स्त्री-पुरुषों के सह-जीवन का प्रधान आधार हो सकता है, जिसकी अनुरूपता, आनंद और पारस्परिक संबंध स्थापन ही वास्तविक नींव हैं। विवाह दो व्यक्तियों की एक में संयुक्ति और भावनाओं की पूर्ण अन्विति है। व्यक्तियों की संयुक्ति और उनका आंतरिक तादात्म्य सह-जीवन के सच्चे आदर्श होने चाहिए और केवल इसी संबंध के भीतर दो व्यक्ति साथ-साथ अपने सारे जीवन को बिता सकने में समर्थ हो सकते हैं।


वैवाहिक जीवन में आनंद के प्रयत्नादर्शों का संभवतः कोई भी व्यक्ति विरोध नहीं करेगा। किन्तु एक बार जब यह सत्य स्वीकार कर लिया जाएगा कि प्रेम ही आनंदपूर्ण सह-जीवन का सच्चा आधार है, तब सिर्फ विवाह के कारण साथ रहने का विभावन लुप्त हो जाएगा और वैसी स्थिति में अनाकांक्षित रूप से साथ जीवन बिताने के लिए कानून की ज़बरदस्ती का भी प्रश्न नहीं उठेगा। इस क्षेत्र में धर्म या कानून का कार्य धनात्मक न होकर ऋणात्मक रहा है



और लोगों में आनंद की अपेक्षा संकटों को उपस्थित करता है। पारस्परिक प्रेम से संबंधित मनुष्य एक-दूसरे के लिए आनंद की चेष्टा ईश्वर या कानून के डर से नहीं करता। वह प्रेम द्वारा स्वतः उ‌द्घावित आंतरिक प्रेरणा से ऐसा करता है, जो दुखदायी न होकर आनंदपूर्ण अनुभूति है। इस प्रकार इसमें काफी सन्देह है कि धर्म या कानून की बाध्यता मानवीय संबंधों को दृढ़ कर सकेगी। इसमें कोई शक नहीं कि बाह्य दबाव पारस्परिक सहानुभूति की भावना और शुभेच्छा को समाप्त करता है। इसके बावजूद कि दंपति का सम्मिलित जीवन नारकीय हो, कानून शारीरिक पृथकता को रोक तो सकता ही है, किन्तु उन भावनाओं को पुनर्जाग्रत नहीं कर सकता। कानून ऋणात्मक कार्य के कारण विघटन को ध्यान में रखते हुए बाध्यता और विवशता के आधार पर स्थापित प्रणाली को तोडने की ओर हमें प्रवृत्त होना चाहिए।


इस सिलसिले में एक भय की ओर संकेत किया जा सकता है कि बाध्यता के पूर्ण लोप से एक बड़े पैमाने पर सहजीवन में बिखराव की स्थिति पैदा हो जाएगी। इसकी संभावना को अस्वीकार न करते हुए भी मैं यह बलपूर्वक कहना चाहूँगा कि यह तथ्य सेक्स और विवाह संबंधी प्राचीन धारणाओं में विश्वास करनेवाले लोगों के ही मस्तिष्कों में एक भयंकर तूफ़ान पैदा करेगा। विवाह-उन्मूलन के इस परिणाम के मूल्यांकन का केवल एक ही उचित आधार हो सकता है लोगों के आनन्द पर इसका प्रभाव। यह अत्यन्त स्पष्ट है कि अनुचित बंधनों से मुक्त रहने पर दम्पति आजीवन अपने आनन्द के अधिकाधिक अंश का स्वतंत्रतापूर्वक उपभोग कर सकेंगे। इस प्रकार विवाह संस्था के पुराने ढाँचे के लोप का उन प्रसन्न दम्पतियों पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जो परस्पर के सुख-दुख में हिस्सा बँटाने के लिए आन्तरिक रूप से आजीवन उत्प्रेरित होते रहेंगे।


यह बात लाखों लोगों में आनन्द का कारण बनेगी, जिनके लिए घिसी-पिटी विवाह प्रणाली से मुक्ति के लिए मृत्यु के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। जैसे ही दम्पतियों को यह प्रतीत होगा कि उनका सहजीवन अब आनन्दपूर्ण नहीं रह गया है, वैसी स्थिति में अगर वे चाहें तो अलग होने के लिए स्वतंत्र रहेंगे। उनमें से एक का भी सहजीवन में आनन्द प्राप्त करने के विश्वास का अभाव संबंधों के टूटने का पर्याप्त आधार है। इस प्रणाली में दुखी दम्पतियों को इस बात का भी अवसर है कि वे अगर फिर भविष्य में अपनी खुशियों और संबंधों को स्थापित करना चाहें, तो इच्छा और स्वतंत्रतापूर्वक कर सकते हैं। किन्तु उन्हें बलात सेक्स और अपमान का जीवन बिताने के लिए बाध्य करना, पिछले वर्षों में प्राप्त आनन्दपूर्ण अनुभूतियों की स्मृतियों को भी कटु बनाना है।


ऐसी स्थिति में जान-बूझ कर लोग वैवाहिक संबंधों को स्थापित करेंगे और तोड़ेंगे इस बात का स्वीकार मानवीय मनोविज्ञान का अज्ञान ही प्रकट करता है। यह प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि प्रेम में बड़े से बड़े बलिदान किए जा सकते हैं, जबकि सामान्य परिस्थितियों में उनकी सम्भावना नहीं रहती। पारस्परिक बोध-तृप्ति पर आधारित संबंध, बोध के जीवित रहने तक बराबर बना रहेगा। ऐसी स्थिति में परस्पर प्रेम-भाव के खंडित हो जाने पर ही सहजीवन के बिखरने की संभावना रहेगी। उस समय उन दोनों के अलग हो जाने में ही अधिक प्रतिष्ठा और औचित्य है। किन्तु वे फिर भी अगर इसे अपने और बच्चों के हित में समझते हैं कि कठिनाइयों के बीच कुछ व्यवस्था और संतुलन कायम रख कर साथ जीवन बिता सकते हैं, तो उन्हें इसकी स्वतंत्रता रहेगी। यह बड़ी मार्मिक समस्या है, जिसके संबंध में पारस्परिक बोध के आधार पर निर्णय लेने का अधिकार उनका व्यक्तिगत सन्दर्भ है।


ऐसी स्वतंत्र परिस्थितियों में लोग औरतों को गुमराह किए जाने की बात अधिकतर करते हैं। किन्तु हमारी वर्तमान प्रणाली औरतों को गुमराह होनेवाले तत्वों से बचा तो नहीं ही पाती, वरन् उन्हें और अधिक यातना देने की व्यवस्था अवश्य करती है। आजकल गुमराह की गई औरतों की रक्षा का सम्मानित तरीका यह रह गया है कि दंड के रूप में उन्हें गुमराह करनेवाले के मत्थे मढ़ दिया जाए। किसी भी आत्माभिमानिनी औरत के लिए इससे अधिक शर्मनाक और अपमानजनक बात क्या होगी कि जिस व्यक्ति का कोई चरित्र नहीं, जो वंचक और शत्रु तुल्य है, उसके साथ अपनी सारी जिन्दगी बिताने का सौदा तय करना पड़े। उसके लिए इससे भी अधिक अपमानजनक बात यह है कि उस आदमी को 'जेल या फाँसी' देने की बजाय दंड के विकल्प स्वरूप उस औरत के उपभोग की आज्ञा दी जाए। क्या सचमुच स्त्रियाँ आत्मगौरव से इतनी शून्य हैं कि दंड के रूप में अपना उपभोग किए जाने पर भी प्रसन्नता का अनुभव करें? क्या वह पत्नी और ममतालु माँ की अपेक्षा समाज द्वारा दिए गए अभिशाप के परिणामस्वरूप पति गृह में प्रवेश करना चाहेंगी?


प्रकृति ने पुरुष और स्त्री को बिना किसी कानूनी सन्दर्भप्रजनन की प्रवृत्ति और शक्ति दी है। किसी कानून को अधिकार नहीं है कि यह व्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकार के रास्ते आए और उसके आनन्द को बाधित करे। अगर कोई स्त्री और पुरुष अपने प्रति इस कर्तव्य को निभाने में समाज द्वारा स्वीकृत किसी कानून-नियम का उल्लंघन करता है, तो वह कोई पाप नहीं करता।


इस प्रकार का अनुमान कि यह स्थिति यौन उच्छृंखलता का प्रतीक कामुक समाज होगी, अपने प्रति अवास्तविक और अपमानजनक दृष्टिकोण है। नैतिकों की इस धारणा में मैं विश्वास नहीं करता कि केवल भय और शक्ति प्रयोग द्वारा ही मनुष्य को पतित जीवन से बचाया या रोका जा सकता है। इस सम्बन्ध में यह मानने के लिए मैं बाध्य हूँ कि उनकी इस धारणा का आधार उनका निजी चरित्र होगा। यह बात उनकी अपनी प्रकृति का प्रक्षेपण अवश्य व्यक्त करती है, मानवीय प्रकृति की वास्तविकता नहीं। स्वीडन ने सेक्स और अवैधता संबंधी उदार कानून बना कर यह प्रमाणित कर दिया है कि बिना बाह्य भय के भी हम इन मामलों में उत्तरदायित्वपूर्ण हो सकते हैं। स्वीडन में अवैध सन्तानों की जन्म संख्या उतनी ही है जो सन् 1900 ई. में थी, जबकि दूसरे देशों में यह प्रति वर्ष बढ़ती जा रही है। यौन नैतिकता के संबंध में जहाँ के नियम कठोर हैं, वहाँ दूसरे देशों के मुकाबले बहुत अधिक असंयम है। मानव जीवन में सेक्स के महत्व की सराहना एक बहुत बड़ी बात होगी, जो कामुकता को घटा कर संतुलित यौन जीवन को प्रोत्साहित करेगी। सेक्स के प्रति रहस्य और निषेध की भावना की अनुपस्थिति कामुकता को समाप्त करेगी। वैसी स्थिति में लोग कम से कम जीवन में सेक्स को उसके यथार्थ और उचित संदर्भों में पहचान सकेंगे, साथ ही अपने आनन्द के प्रति विश्वस्त रहते हुए 'अभी या कभी नहीं' की यौन पतनशीलता से मुक्त हो सकेंगे।


पुरुष और स्त्री की इस सर्वाधिक अनुकूल व्यवस्था के साथ ही उनके अलग होने के कारण बच्चों पर पड़ने वाले दुष्परिणामों को भी ध्यान में रखा होगा। इसमें सन्देह नहीं कि पति-पत्नी की पृथकता उनके बच्चों पर गहरा असर डालेगी और यह बात कई तरह से उनके व्यक्तित्व के विकास में बाधक साबित हो सकती है। और चूँकि इन दोनों दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों के निवारण का कोई रास्ता नहीं, हम केवल वही दृष्टिकोण अपना सकते हैं जिसमें कम हानि और खतरे की संभावना हो। ये बच्चे या तो माँ-बाप में से किसी एक के साथ रहें (अलगाव के बाद) या तनाव और कई तरह की अस्वस्थ मनोदशाओं में भी सहजीवन की विवशतावाले माँ-बाप के साथ रहने को मजबूर हों। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि किसी एक के साथ रहने पर बच्चे अपने आधे प्राप्य स्नेह से वंचित होंगे, लेकिन दूसरी स्थिति में तो उन्हें अधिक दुर्भाग्य का शिकार होना पड़ेगा। निरन्तर झगड़ते और लड़ते रहने वाले माँ-बाप के बीच रहने से तो बच्चों के लिए ज्यादा अच्छी हालत यह होगी कि वे माँ-बाप के बिना ही रहें। माँ-बाप के बीच खुले आम मतभेद, झगड़े और खाई हमेशा ही बच्चों के व्यक्तित्व के स्वस्थ विकास में बाधक हैं, लेकिन ऐसी बात दूसरी परिस्थिति के लिए भी नहीं कही जा सकती। भगवान ही उस बच्चे की सहायता करे, जो माँ-बाप के बीच उपजे भयंकर दृश्यों में ही अपनी जिन्दगी शुरू करता है। उससे फिर यह आशा नहीं करनी चाहिए कि वह बाद में किसी संयम और सन्तुलन को आदर दे सकेगा और अपने चरित्र का स्वस्थ विकास कर सकेगा।


बच्चों के दूसरे वर्ग को ध्यान में रखते हुए अब पिता का महत्व काफी असार्थक साबित हो गया है। अधिक औ‌द्योगिक विकास के साथ बच्चों के बोर्डिंग स्कूलों में प्रवेश का व्यवहार बढ़ता जा रहा है और स्वभावतः बच्चों के जीवन में माँ-बाप का महत्व कम होता जा रहा है। पश्चिमी देशों में तो बहुत पहले से यह स्थिति उत्पन्न हो गई थी। इस स्थिति की वास्तविकता से इन्कार नहीं किया जा सकता और हमें इसका मुकाबला करना ही पड़ेगा। यद्यपि अधिक आरक्षण और प्रेम से अन्तर अवश्य होगा, किन्तु हमें इस बात से साहस की प्रेरणा लेना होगी कि विधवा या विधुर के बच्चे आवश्यक रूप से किसी एक की अनुपस्थिति में गुमराह ही नहीं हो जाते। माँ-बाप के बीच हरदम मचे महाभारत के बीच रहने वाले बच्चों की तरह कम से कम ये बच्चे मूल्यों और मान्यताओं के प्रति जड़ नहीं हो सकते। अधिक से अधिक वे कुछ शर्मीले और थोड़े असाहसी भले हों।


इस प्रणाली में सुधार, चाहे यह जितना भी तीक्ष्ण हो, परम्परा से बहुत अधिक जकड़े होने के कारण व्यर्थ साबित होगा। इस संस्था को तोड़ देने जैसा आमूल और बहुत क्रांतिकारी कदम ही कामयाब हो सकता है और तभी उसके भय के पंजे से छूटकर हम इच्छित परिणाम तक पहुँच सकते हैं। जब तक इस संस्था का पूर्ण विच्छेद नहीं कर दिया जाए, एक प्यासे पिशाच की तरह यह हमारा शिकार करती रहेगी, क्योंकि तब तक यह संभव नहीं है कि सस्ते क्लबों में जलते युवक, सताए हुए दम्पति, बेश्यालयों की शरण लेती दुखी स्त्रियों और संतप्त निरीह बच्चों की रक्षा की जा सके। इस तथाकथित पवित्र संस्था को जीवित रखने के लिए हमें ये बलिदान करने ही होंगे। वे सभी आशाएं, जो इस पिशाच और उसके शिकार के साथ-साथ शांतिपूर्ण ढंग से रहने में विश्वास करती हैं, व्यर्थ साबित होंगी, क्योंकि शैतान बिना खून चूसे जीवित नहीं रह सकता और हमारी खुशी तब तक सुरक्षित नहीं रह सकती, जब तक हमारा बलिदान बंद नहीं हो जाता।


इस परिवर्तन को लाने में सबसे बड़ी कठिनाई आर्थिक हो सकती है। ऐसी परिस्थिति में बच्चों की शिक्षा के लिए कुछ व्यवस्था करनी होगी। अधिकांश परिस्थितियों में माँ-बाप अपने बच्चों के प्रति स्वाभाविक स्नेह के कारण उनके कल्याण के लिए अच्छे सम्बन्धों के न रहने पर भी अपने आप सहायता करना चाहेंगे और उस समय जबकि दम्पति का परस्पर अलग हो जाना एक नैतिक वस्तु होगी, वे अपने बच्चों को स्वीकार करने में शर्म भी नहीं महसूस करेंगे। फिर भी उनके पालन और शिक्षा के लिए कोई सार्वजनिक व्यवस्था आवश्यक है। ऐसी हालत में दो रास्ते हैं: एक ऐसे समृद्ध समाज का निर्माण, जिसमें माँ-बाप में से कोई एक अपने बच्चों का पालन करने में समर्थ हो, या इसका दायित्व स्वयं राज्य ले। थोड़े में समय में समृद्ध समाज का निर्माण कठिन है, लेकिन राज्य यह दायित्व ले सकता है, क्योंकि अपने नागरिकों के कल्याण का भार उसी पर होता है। साम्यवादी सरकार वाले देश इस दायित्व का निर्वाह करते ही हैं, फिर कोई कारण नहीं कि अन्य देश भी इस उदाहरण का अनुसरण न करें। इस समस्या की कठिनाइयों को भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि अपने सभी आदर्शों को हम प्राप्त ही कहाँ कर सके हैं। एक बार जब आदर्शों को सिद्धांततः स्वीकार कर लिया जाए, तो उनके पूर्ण व्यवहार में केवल समय की अपेक्षा होगी। यह कठिन हो सकता है, किन्तु राज्य द्वारा इस दायित्व को निभाया जाना सार्थक होगा और लाखों लोगों की प्रसन्नता का कारण बन सकेगा।


इस वैचारिक गुलामी से छुटकारा पाने पर कम से कम तात्कालिक लाभ तो यही होगा कि यातना भुगतती हुई मानवता के प्रति हमारे दृष्टिकोण में निश्चित परिवर्तन आएगा और अन्य साथियों के क्रूर भाग्य के मुकाबले अपनी तथाकथित साधु वृत्ति और सदाचरण का दंभ कर प्रसन्न भी नहीं होंगे। वेश्या, जो हमारा ही निर्माण है, को देख कर हमारा हृदय दया और पश्चात्ताप से भर उठेगा, न कि नैतिक क्रोध के उत्ताप से। प्यार के फल हमारे सम्मानित अतिथि होंगे। परिवार प्रेम और प्रसन्नता के प्रतीक होंगे और तब हम प्रसन्न हो सकते हैं कि हमारी पत्नियाँ वेश्याएं नहीं हैं।



(पोस्ट में प्रयुक्त चित्र हमें शर्मिला जी ने उपलब्ध कराए हैं।)

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