राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी गई पुस्तक "रामराज्य और मार्क्सवाद" की भूमिका
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राहुल सांकृत्यायन |
इतिहास गवाह है कि प्रगतिशील तत्त्वों के साथ साथ प्रतिगामी तत्त्व भी एक ही समय में सक्रिय रहते हैं। इस प्रतिगामिता का आधार होता है धर्म और पुरातन मूल्य। प्रगतिशीलता और प्रतिगामिता एक दूसरे के विरोधाभाषी होते हैं। राहुल सांकृत्यायन समय की नब्ज को पहचानने वाले लेखक थे। उनका लेखन इस बात की खुलेआम मुनादी करता है। राहुल जी की एक किताब है "रामराज्य और मार्क्सवाद"। इसमें उन्होंने मिथक को यथार्थ की कसौटी पर कसते हुए मूल्यों को परखने की कोशिश की है। आइए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी गई पुस्तक "रामराज्य और मार्क्सवाद" की भूमिका।
"रामराज्य और मार्क्सवाद : दो शब्द"
राहुल सांकृत्यायन
करपात्री जी ने "मार्क्सवाद और रामराज्य" के नाम से संवत् 2014 (1957 ई) में 816 पृष्ठों की एक बड़ी पुस्तक प्रकाशित करायी है, जिसके बारे में उसके आरम्भ में लिखा है कि महाराज ने ग्रंथ संस्कृत में लिखा था, जिसका अनुवाद बम्बई के श्री वासुदेव व्यास ने हिन्दी में किया। करपात्री जी बीसवीं सदी के नहीं हैं, वह सहस्त्रों या अपने लिखे अनुसार करोड़ों-अरबों वर्ष पुराने जगत के मानव हैं, उस समय के मानव जबकि पृथ्वी शायद सूर्य-पिण्ड से अलग भी नहीं हुई थी। जो निराकार निष्कर्म ब्रह्म के अतिरिक्त सभी वस्तुओं को भ्रम मानता है, उसके लिए यह मान्यता स्वाभाविक ही है।
करपात्री जी ने विश्वनाथ मन्दिर में हरिजनों को प्रवेश न करने देने के लिए जो महान यज्ञ ठाना था। उसमें कानून की अवहेलना करने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। इसी समय लेखनी ने उनके हाथ में आ कर यह चमत्कार दिखलाया। बेचारे जेल में भी भक्तों के कारण निश्चिन्त नहीं रह सके: “जेल अधिकारियों ने बहुत सी सुविधाएं दे रखी थीं। दिन भर दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता था।" जेल में भी अधिक अवकाश न मिल पाता था। जेल के अधिकारी क्या, देव-महादेव भी ऐसे धर्मप्राण नेता को सुविधाएं देने के लिए लालायित रहते हैं। असुविधाएं तो केवल कम्युनिस्टों के लिए हैं, जिनको दिल्ली के महादेव से ले कर छोटे-बड़े सभी देव बुरा-भला कहने और हर समय जेल में बंद करने के मौके की तलाश में रहते हैं।
पुस्तक से जिन ग्रंथों और साहित्य के अध्ययन का पता लगता है, वह सतयुगी महात्मा की शक्ति के बाहर है। ऐसा मालूम होता है कि इसमें चेलों ने भी पूरी सहायता की है। सभी पन्नों का गुरु के नाम से प्रकाशित होना अनुचित नहीं है। अद्वैतवाद में गुरु-चेला का भेद नहीं है। ऋषिकेश के एक पहुंचे हुए महात्मा इसके लिए पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं। उनके चेले हिन्दी-अंग्रेजी में जो कुछ लिखते हैं, सब गुरु जी के नाम से प्रकाशित होता है।
"कोई योजना बना कर क्रम से उन्होंने पुस्तक नहीं लिखी।... सामग्री क्रमबद्ध करने की कठिन समस्या खड़ी हो गयी।" (पृष्ठ 4) ग्रन्थ में अधिक पुनरुक्ति भी इसी बात को सिद्ध करती है। “पुस्तक समाप्त करने की दृष्टि से ही 1956 का चातुर्मास्य काशी में किया गया।" काशी ने यदि विश्वनाथ मन्दिर से महाराज को वंचित किया, तो कम से कम 'आँख के अंधे गांठ के पूरे' सेठों के लिए यह पुस्तक तैयार करवा डाली। 'कल्याण' सम्पादन विभाग के श्री जानकी नाथ शर्मा तथा श्री धर्म संघ शिक्षा मंडल' के श्री हरिनाथ त्रिपाठी ने "बड़े परिश्रम से सामग्री क्रमबद्ध करने का प्रयत्न किया।”
प्रकाशन की कोई समस्या उठ ही नहीं सकती थी जबकि सेठों की यह बाइबिल उनके सामने थी। “गीता प्रेस, गोरखपुर, ने पुस्तक छापने की इच्छा प्रकट की।” (पृष्ठ 4) अच्छे कागज पर सुन्दर टाइप में 816 पृष्ठ की डिमाई साइज की कपड़े की जिल्द वाली पुस्तक का दाम कोई भी प्रकाशक दस-बारह रुपये से कम न रखता। पर इस पुस्तक का मूल्य केवल चार रुपये है। अतः इसका प्रकाशन विशेष प्रयोजन से हुआ है। वस्तुतः इसका मूल्य एक ही रुपया होना चाहिए था। सेठों के "धर्मादा" में रुपये की कमी नहीं है। तीन हजार की जगह तीस हजार का संस्करण होना चाहिए था। प्रस्तावना लिखने वाले श्री गंगा शंकर मिश्र का मत है: “अभी तक कोई ऐसी पुस्तक उपलब्ध नहीं है, जिसमें प्राच्य और पाश्चात्य आधारभूत सिद्धांतों का इतना सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन किया गया हो... यह बहुत आवश्यक है कि इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद निकाला जाय, जिससे विदेशी विद्वान और ऐसे भारतीय विद्वान भी जो हिन्दी नहीं जानते लाभ उठा सकें।" आशा है, मिश्र जी की इस इच्छा को भी सेठ अधूरी नहीं रखेंगे। मिश्र जी ने लिखा है कि "सत्य के अन्वेषक इस पुस्तक के लिए श्री स्वामी जी महाराज के सदा ऋणी रहेंगे।" (पृष्ठ 6) इससे उलटे सत्य के अन्वेषकों को इसे पढ़ कर घोर निराशा होगी, क्योंकि यहां सेठों के हित के समर्थन में सत्य-असत्य का कोई भेद नहीं किया गया है। पुस्तक का मूल लक्ष्य मार्क्सवाद का विरोध करना है, और इसका कारण "आमुख" के शब्दों में "साम्यवाद" है "जिसकी आज सर्वाधिक चर्चा है....।” पूरी पुस्तक में रामराज्य की चर्चा तो सारे हल्ले-गुल्ले के बाद भी बहुत कम सुनने में आती है। करोड़ों वर्ष का पुराना हो गया यह वाद देश में कभी गंभीर चर्चा का विषय बनेगा, इसकी आशा भी नहीं की जा सकती। तो भी ग्रन्थ दिलचस्पी से खाली नहीं मालूम होगा - यदि किसी के पास इतना धैर्य और समय हो। इस हिन्दी पुस्तक में भी संस्कृत के कठिन शब्दों की भरमार हैं। इसलिए असंस्कृतज्ञ हिन्दी पाठक कभी चार पृष्ठ भी धैर्य से पढ़ने में समर्थ नहीं होंगे। इससे तो अच्छा होता कि पुस्तक संस्कृत में ही होती। इससे एक ओर संस्कृत के विद्वानों को आसानी होती और हजारों दूसरे पाठक व्यर्थ के परिश्रम से बच जाते।
पुस्तक में विधवा स्त्रियों को जिन्दा जलाने वाली सती प्रथा का समर्थन किया गया है। हजार वर्ष पहले नहीं, बल्कि हाल में गुजरे अंधयुग की तरह लड़कियों को बचपन में ही ब्याहने पर जोर दिया गया है। यह मनवाने की कोशिश की गयी है कि वे पर्दे और घर के भीतर बनी रहें। शूद्रों और दासों पर भी महाराज बहुत द्रवित हुए। दास प्रथा का अनुमोदन करते हुए कहते हैं कि वह तो परिवार का एक आदमी होता था, जिसके खाने-कपड़े की जिम्मेदारी भी तो मालिक अपने सिर पर लेता था। आखिर गाय-बैलों की जिम्मेदारी भी तो मालिक अपने सिर पर लेता है, और साथ ही उनके बछड़ों को मनमानी तौर से बेच देने की जिम्मेदारी भी उसी की है। 1924 में नेपाल में दास-दासियों (कमारा कमारियों) की मुक्ति हुई। करपात्री जी उस समय वहाँ नहीं हुए, नहीं तो वह अपने सनातन धर्म की रक्षा के लिए वहां भी उसी तरह धरना देते जैसे विश्वनाथ मन्दिर में हरिजनों के प्रवेश पर उन्होंने किया था। वहाँ के 59,873 दास-दासियाँ महाराज के "सनातन धर्म" पर लात मार कर मुक्त हो गये और ऐसा कोई माई का लाल नहीं हुआ जो चन्द्र शमशेर के खिलाफ आवाज उठाता।
महाराज को भगवान की ओर से उच्च बनाये गये व्यक्तियों का ही शासन पसन्द है। इसके बारे में आगे यथास्थान लिखा जायेगा। "मुंड गिनना", अर्थात वयस्क मताधिकार, उनके लिए घृणा की चीज है। वह सतयुग को लौटाना चाहते हैं, लेकिन कलियुग उसमें भारी बाधक है। दलितों के एक बड़े नेता तथा पार्लियामेंट के सदस्य श्री एन शिवराज ने 27 अप्रैल, 1958 को कानपुर की एक सार्वजनिक सभा में भाषण करते हुए कहा था : "हमें देश में एक महान परिवर्तन लाना है। वह परिवर्तन होगा भारत की 80 फीसदी जनता के हाथों में.... सच्चे स्वराज्य को सौंप कर आजादी की नींव को मजबूत करना। भारत में बसने वाले 10 करोड़ इंसान- जिन्होंने सदियों से नाना प्रकार के उत्पीड़न सहे हैं आज भी अनुसूचित (हरिजन) जातियों के नाम से बद से बदतर हालत में होते जा रहे हैं। लगभग छः करोड़ जनता शिड्यूल्ड ट्राइब (अनुसूचित जनजाति) के नाम से मुसीबतों के दिन गुजार रही है। लगभग 12 करोड़ पिछड़े वर्ग के कहे जाने वाले लोगों की हालत आज भी अच्छी नहीं है। आखिर इतनी बड़ी संख्या के ये लोग, जिनको बालिग मताधिकार भी प्राप्त है, क्यों नहीं आबादी के अनुपात से सरकारी पदों पर गये या रखे जाते? इनका सही प्रतिनिधित्व क्यों नहीं हो पाता ?... बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक बना डाला गया और अल्पसंख्यक लोग बनिये की दुकान से ले कर व्यापार, नौकरी और अफसरों की जगहों पर, गांवों से ले कर राजधानी दिल्ली तक, छाये हुए हैं। अधिकांश लोगों को रात-दिन कड़ी मेहनत करने पर भी भरपेट भोजन नहीं मिलता और थोड़े लोग बिना काम किये मौज उड़ा रहे हैं। बहुजन समाज को इन्हीं थोड़े लोगों ने अनपढ़-अपंग बना कर गुलाम और गुलाम बदतर बना रखा है।" (मध्यम मार्ग, 11 मई, 1958) से।
करपात्री जी अभी बहुमत के रोष को नहीं जानते। उसे देखना हो तो उन्हें मद्रास प्रदेश की सैर करनी चाहिए। वहाँ भी सनातन धर्म के नाम पर हजारों वर्षों से तीन प्रतिशत ब्राह्मणों ने सब कुछ हड़प रखा था और 97 प्रतिशत को शूद्र और अतिशूद्र की संज्ञा दे कर उन्हें नरक की जिन्दगी बिताने के लिए विवश किया था। बहुजन को इस धोखेधड़ी का पता लगते देर नहीं लगी, और अब वे ब्राह्मण के नाम से ही घृणा करने लगे हैं। करपात्री जी तथा उनके चेलों की हठधर्मी हमारे यहां भी इस प्रकार की कटुता का बीजारोपण कर सकती है। महाराज को यह मालूम होना चाहिए कि जिनके अधिकारों पर प्रहार करने के लिए वह खडगहस्त हुए हैं, उनकी संख्या सौ में 80 है। महाराज की वाणी बहरे कानों में न पड़े, इसी में उनकी भलाई है।
पुस्तक का उत्तर भी उसी तरह के बड़े पोथे में लिखने की आवश्यकता नहीं है। इसके सिद्धांतों का उत्तर मेरी पुस्तकों -- "विश्व की रूपरेखा", "मानव समाज", "वैज्ञानिक भौतिकवाद", "भागो नहीं दुनिया को बदलो', "आज की राजनीति" आदि में आ गया है।
राहुल सांकृत्यायन
मसूरी
24-5-1958
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