शम्भु यादव की कविताएं
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शंभु यादव |
जीवन विचारों से भरा होता है इसलिए वह परिवर्तनशील होता है। इन विचारों ने ही तो इंसान को वास्तविक तौर पर इंसान बनाया। स्वाभाविक रूप से ये विचार दुनिया को भी बदलते रहते हैं। यानी जहां कोई विचार नहीं वहां कोई बदलाव हो ही नहीं सकता। इस बिना पर कहा जा सकता है कि दुनिया रोज बनती है। लेकिन और सच की तरह यह भी अधूरे सच का तिलिस्म मात्र है। जिनका जीवन अभाव से भरा हुआ है, जो आधारभूत सुविधाओं के लिए रोज ही संघर्ष करते रहते हैं, उनके लिए यह जीवन एक रस सा लगने लगता है। जैसे कोई उत्कंठा ही नहीं बचती। जीवन रसहीन सा लगने लगता है। शम्भु यादव जीवन की कड़वी सच्चाईयों के कवि हैं। कविता में वे कल्पना की उड़ान जरूर भरते हैं लेकिन यह कल्पना यथार्थ से आबद्ध होती है। वे जानते हैं कि 'कई चेहरे खिलते हुए से' आते हैं और 'अपने रूप को रख देते हैं'। लेकिन यह 'चेहरा दुख से भरा और/ कोई वो एक अपनी कही जानी को किसी कोशिश में कहे कितने समय तक!' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शम्भु यादव की कविताएं।
शम्भु यादव की कविताएं
कई उम्र बीती शब्दों शब्दों
बहुत सारी वजहों की बानगी
-किसी एक वजह को चुनने में
सिद्धस्त होना अपने हो जाने के पृष्ठ पर रखता हूं।
नई बनी सड़क पर अपनी ज़मीन छोड़े उन रुखे पैरों की आहत प्रक्रिया बढ़ती रही।
वहां उस अंधेरे की उभरी परछाई में पिघला हुआ ख़्वाब था वह चमक कर उठा रात के कूप में
मैंने यहां कहा सुबह की लाली को पुरानी कविताओं की दृश्य निर्मिति से
वह हल्के पैर रखकर चली। अपनी ज़मीन की ख़्वाहिश।
कुछ लिखा-सा सफेद झिलमिला।
लय की पकड़ में कई उम्र बीत शब्दों शब्दों।
पिछली याद में देखा न देख पाने की धुंध तले सर्द की जाल रातें
और नींद का न होना सबसे बेपरवाह।
यह उस समय की बात कि वो कहा जाना था कि उसको कहा न जाने में लिखा गया
किसी संजीव दर कई बंद दरवाज़े हैं इस रात के इन जालों में
मैं लिखता रहा हूं।
मैं लिखता रहा हूं मानव में शैतान होने की गतिविधियां
गति की विधियां हैं बलखाती, घाती घनघोर
वहां क्या कुछ मेरा 'इति श्री' जो लिखना हो !
मैं यह कहना चाहूंगा
कठिन है कह देना,
चेहरे की झाइयों में किसी दुर्गम गहरे फैलती वह बड़ जड़े.....
कोई सोच कर रख जाता है
शैतानियत में पैरों के निशान वह जो पगडंडी पगडंडी
लहूलुहान होना उतर रहा
सूरज के ताप का किस्सा अब इस ठंडी गुप रात में कौन कहेगा!
लिखने की कला में इतना चाह लेने का जादू नहीं है,
मेरा यह लिख देना चाहे आप कितना ही गड़बड़ माने।
आपद फिर मारी-मारी आदम सांसों को कंक्रीट गारे के चलन के बोझ नीचे दबना था, वहां मैं सभ्य होने की अभिव्यक्ति में नाखुश रहा
उस बसंत के बाद की कथा में,
'एक जानवर के रूप में मेरा पिछला जीवन
और अन्य प्राणी मेरे सामने खड़े हो जाते हैं'
बहुत से कबूतर आए बैठे हैं। मैंने दाना बिखेर दिया है।
बहुत सी बया आईं यहां बैठी हैं। मैंने कुंडों में भर रख रखा है पानी।
कबूतरों की गुटरगूं हैं, चिड़ियों की चहचहाहट हैं,
- मशीनी खटारापन का मैं दम सोख लूंगा -
वह तोतों का झुंड वहां रुका रहा दिन-प्रतिदिन,
मैं यह बार बार कहना चाहूंगा बक़ौल
वहां उस पेड़ पर घोंसले बनने से बरखा बहार आई।
फेसबुक पर वीडियो दिखाते कवि-मित्र गणेश गनी ने लिखा है
'सुखना झील पर यह पीपल का पेड़ हैरिटेज ट्री है'
वनस्पतियों पर हरा रंग छाया,
वहां से वह मनुष्य अपनी भैंस की डोर को साधे गुज़रा है
किसी न कहे गए समय में वह भैंस किसी बिछुड़न में डरी रही,
कथा को कहते हुए कहा गया बच्चे इस पाठ को याद करते दुहराएं।
आर और पार और फिर
रात के तीन बजे किसी नींद के वास्ते बिस्तर पर लेटा हूं
कितनी सांस के लिए अपने में सांस
आर और पार
पास ही मेज़ अपने में सांसहीन रूखे फ़र्श टिकी है,
यह दिन की उज्ज्वलता में उसके देखे का मेरी आंख में खींचा चित्र है
और उस पर रखे वायु-शोधक यंत्र का शोर है इस दौरान
मेरे कान के अनुभव में।
यह बात मैं कह रहा हूं इसलिए कि मुझे नींद को पाना है
-मेरे पास सोचने की प्रबलता बनती है इस वर्तमान बहुत
कहीं वह दिखता किसी रूप पर चिपका रंगीन परदा अपने हिस्से में चमकता रहा
मैं अपने मानुष होने की दिलचस्पी में किसी फ़हम
किसी फ़हम फिर उसके समांतर किसी और भाषाहीन संगति में मेरे अमानुष होने की पस्ती
मैं सोचने की क्रिया में और भी अधिक सोचता क्रियाशील रहा।
मैं चिन्हित करता आया जिस तरह से चीज़ों को उस तरह से नहीं,
अब किसी और तरह से चीज़ों को चिन्हित करना चाहिए
वह दर्पण किसी रोशनी का कोण बनाता इस तरह से चमकता है
कालस मेरे आसपास बहुत ही मुझमें कटखना बसा है बढ़कर
और फिर
उसने वहां कहा मेरी दशा की कोई दिशा नहीं है
जहां पहुंची दशा निर्धारित हो गई वहां से दिशा- भूतापेक्ष।
कोई भविष्य अपने हो जाने की तलाश लिए,
किस गहन अंध कहां से कहां को विस्तरित, फिर किसी विस्थापन में!
आने वाला विराम है
खोलता है यह कौन खुले दरवाज़े के पार से
बलती बत्ती की चमक किसी होने में क्या बहु!
वह सांस चलती कि कोई आने वाला विराम है
आवाज का न सुनने में होना बदा है
वह खंडित चेहरा जो शीशे में जमा जोड़ना था
आने वाला विराम है
चौखटे में सिमटी उस देह की कोई नुमाई
कई भंगिमाएं,
आईं कहां कहां से अपनी रुकावट में चल कर
कितना दूर निकल आया
भूड़ भरी रूह लिए किसी मरण के वास्ते।
बीत जाने के बाद
हर सवेरे पानी उबलती चाय पत्ती में दूध डालता बीतता रहा मैं हर दिन
बीत जाने के बाद हर रात के अहाते
दरवाजे को खोल जाती आहट के थमने में न जाने वह कौन-
मेरी अनभिज्ञता का स्वरूप
रुका रहता है,
मैं क्यों किसी नींद चुनता हूं कई कई खल पात्र!
किसी के रह जाने में कोई बात राह की कहने को रह गई अधूरी कि वहां कोई कहे
यह कौन सी सभ्यता के विकास की मानव योनि है
बच्चों के संहार में उत्कृष्टता की छवि लिए!
सत्ता आततायी ताकत की परिभाषा में ही रहती आई है-
यह साधारण सा वाक्य सदियों से अपने कथ्य में मुझसे क्यों संभल नहीं रहा!
कितने ही रूप,
दृश्य की दोहराहट में दोहरा दूं
धरती की पीठ लदा मनुष्य अपनी हांक-भाषा में उसे हांकता।
क्या मेरे पास कोई भाषा रह पाएगी जिसमें मैं जी लेने का विश्वास करूंगा!
वहां कीकर के पेड़ के नीचे बालू के ढेर में पड़ा रहा कई शूल चुभवाए।
वहां वह मोबाइल बजता रहा किसी बातचीत के न होने के क्षण निश्चित होने में।
अपने प्रयोग में विशेषज्ञ ने कह दिया मनुष्य अधिक सभ्य होगा
किसी सिंगुरलिटी में
भाषा की बाधा बगैर भलमनसाहत में अधिक सधा सुंदर जीवन!
किसी भाषा में खरा कोई खरी कहे- क्या अजब बला है!
मैं हिंदी के उच्च-जात प्रगतिशीलों में कई परतों वाला चेहरा सुंदर होता देखता रहा!
आज 8 नवम्बर 2023 पढ़ने को एक नया शब्द मिला है 'डीपफेक'।
खेत में पराली जला कर गाड़ियों से ठूसम-ठूसा कंक्रीटिया दिल्ली मुझसे मिलने आया मेरा
लंगोटिया चढ़ी प्रदूषण धुंध को कुछ सर्द के कोहरे-सा समझ रहा है!
गति-अगति
खंडित भीत के सहारे उगी उस घास की जड़ों के उस फैलाव
जैविकता का वह चित्र जीवन-चित में-
पूर्व-पक्ष में वहां कपड़ा मिल की बसावट रही,
मशीन और मज़दूर संज्ञा-रूप क्रिया-शील बानगी में, वहीं-कहीं
बहुत से रुख मुझमें आकृष्ट होने की गति।
अगति में यात्रा बरसों से-ना-समझ सी कोई थकान,
बार बार समय में लौटना दरारों के पास
'जैविकता' अपने कहने में कहा तो 'जीवटता' को इसकी लय में बैठा सकता हूं।
खारिज कर दिए गए को पुनः संचित करूंगा
आशा की किसी सुगति
कोई है प्रबलता लिए
कश्मीर में देवदार के पेड़ों पर बर्फ़ की रौनक़ अपनी।
... कल्पित राष्ट्र की भक्ति का रौरव...
ज्ञान की ऐंठ नरकगति-
कहीं किसी उदय का प्रकाश
21 वीं सदी के पास भी निर्दयता की जारी पैरवी है, आह मणिपुर!
हे दुष्ट बंदे! तुमने फिलिस्तीनियों का खून पीने की प्रथा चालू रखी।
शब्द-कहना आत्मगत
रुका है मुझमें अपनी स्याह शक्ल लिए
यह रात का रूप और शब्द कहना आत्मगत।
दीवार में जड़े जंगले से इधर जहां मैं हूं पूरब दिशा
और उधर पश्चिम दिशा में पसरा अंधेरा हमशक्ल।
कोई साया होने से परे, शब्द कहना आत्मगत
अलमीरा के बंद पल्लों को साधे ताले की ताली उससे बंधी लटकी है।
जल-शोधक मशीन की आवाज में मैं चौंका रहता हूं इस रात के रूप में अपने घर को ओढ़े।
अपने में विहीन डाइनिंग टेबल किसी बोझ से लदी,
खाने की तश्तरी उस पर न लग सकी,
न जाने कब से
चाहत का होना रहा बद्ध वहां।
कोने में जमा सुंदूकचा किसी रोज़ किसी बिसरे सामान को फिर से टोहने के राग में खुलेगा।
लिटर-बॉक्स में पूपी (बिल्ली) के पंजों का ध्वनि-क्रम
मेरे सोये जहान की नींद में रूपगत,
मैं मनुष्य मनुष्य से बिछड़ रहा हूं।
आज दिन के खत्म में सांझ के मुहाने
यू-ट्यूब पर मुझ द्वारा सुना गया आखिरी लेक्चर मनोविश्लेषण वैचारिकी पर था।
मैं मुझमें सांस चलने के दौर के अनभिज्ञ समय
अनभिज्ञ रहा!
किसी आती सुबह के बहुरूपों की पूर्व-आशा का कहीं कोई इंतज़ार!
बैठ
मैंने वहां उस तालाब के जल में पत्थर न फेंक कर उसे शांत रहने दिया,
उस तक पहुंची पैड़ियों की काई मेरी बैठ में चिपकी रही, उस याद!
मैं काठ पर रखी एक बैठ को
कंप्यूटर स्क्रीन पर गतिशील दृश्य में भरने लगा!
वहां उस निरीह जन-समूह पर बरसते बर्मी का बड़े से टीवी में आतिशबाजी-सा आनंद
'मुल्लों के हराम जने गाजर-मूली की तरह कट रहे हैं'
अपनी किसी रहन के दिव्य-दृष्टा विस्तार में मैं।
पुश्त दर बैठ गया मेरा ही रूप,
दांत दिखाता हुआ आया मेरे दिल में पेच लगाने का आयोजन कर दांत फाड़ता हुआ गया
सभ्य बन जाने के किसी अगले पायदान पर चढ़ने !
मुझ में मेरे मुझ के लिए मुरदा होना कह देने के,
कई कई बैठा-बैठी सुबूत है।
मेरे मुरदे को हिस्सा दर हिस्सा काट कर जंगल में चील-कौवों को बांट देना
एक दिन में इतना बेबस हो जाऊंगा मेरे पास कहने को इसके सिवाय क्या कुछ नहीं रहेगा!
मोबाइल के स्याह पटल पर लिखे जाते श्वेत अक्षर
लिखा उसमें श्वेत की-बोर्ड पर काले हर्फों को दबा-दबा मौन की पदचापों को,
मैं न कोई सड़क पार करना चाहता न कोई नदी न कोई पहाड़ और न उस कहने को अपने
सुनने में पार करना मुझे
अंतरिक्ष को पार करने की कथा में बैठ कर जो कहा।
कौन सी दुनिया रोज़ बनती है
क्या है वह वहां मैंने भाषा को पढ़ा
वहां मैंने लिखे के अपने में शब्द बनाए
शब्द से रचित वाक्य में प्रतीकात्मकता रही,
क्या रहा वहां वह श्लेष को समझना
वह चेहरा खिलता हुआ आया
और अपने रूप को रख गया
अदायगी उसको इस स्वरूप की
वह चेहरा दुख से भरा और
कोई वो एक अपनी कही जानी को किसी कोशिश में कहे कितने समय तक!
कौन रहा वह जिसके विराम के लिए मैं रुका!
वह कौन होगा जो यूं ही रुक जाएगा
कह सके कोई।
यह किसी दिन की कोई सांस है उखड़ी हुई
मेरी आंख में खर्खीचे किसी पैताने में उलझी
यूं कि किसी तरह की कोई बात वह जो इस दौरां
रोशनी भरे शीशे में आदम पैरों की आहट
आलम में,
चिकना फ़र्श चमकता था
कुछ होना किसी टिमटिमाहट में कोई।
जीवन किसी भी तरह साध लेने को
कौन सी दुनिया रोज़ बनती है!
रहने के दोहराव में
वहां न जाने क्या कुछ साधने को-
उस संदूक की कुंडी पर महीन सी लौह सींक लगी है उसे बंद रखे
मैं उसे नहीं हटाता-
मैं रुका रहता हूं वहां वह पल है
घूमता रहता हूं चारों और उसके मीठे मीठेपन में भय का घना गिरता रहता है
आतप- उसे कोई आहट नहीं चाहिए
सुबह गई दोपहर गई सांझ गई
और अब तो रात है
रखा रह गया कोई स्मृति-लोक है शायद वहां
ध्वनियों की दरारों में रिसता रहा वह जो
झिझक की खोद में दुबका रहा मैं कि भाषा के छापे में शब्द अपनी संगतियां कहें
मिट्टी की भीनी सुगंध वाली संगतियां वहां जो हैं मृत्युभरे पन के पास
उस संदूक की कुंडी पर महीन सी लौह सींक लगी है कि अब निकली उस स्थिति से
कि अब कि वह न निकले उस स्थिति में-
मैं रुका रहा हूं वहां वह पल है।
क्या कोई ऐसी सांस चलती है वहां जिसको जी लेने के लिए मैं डरा रहता हूं किसी बारंबारता में
भागी हुई लड़कियों की कथा को पढ़ते हुए लड़कियां उस बंद घर
रह गई हैं रहने के दोहराव में।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9643040982
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