शिवदयाल का आलेख 'शक्ति की मौलिक कल्पना'

 

निराला



मानव जीवन के साथ युद्ध भी शुरू से ही आबद्ध दिखाई पड़ता है। इसीलिए प्राचीन धर्म ग्रंथों और मिथकों तक में इसकी अनुगुंज सुनाई पड़ती है। रामायण महाकाव्य राम रावण के युद्ध की ही कहानी है। सत्ता के नशे में मदमत्त रावण राम की पत्नी सीता का ही हरण कर लेता है। राम इस अन्याय का प्रतिकार करते हुए पहले शान्ति से इस मामले को सुलझाना चाहते हैं लेकिन रावण को अपनी शक्ति पर अभिमान है। ऐसे में वह राम की भला कैसे सुने। अन्ततः राम रावण के बीच भीषण युद्ध होता है। राम लड़ाई लड़ते हुए रावण के विजय के प्रति आशंकित हैं। इसी क्रम में नैराश्य के शिकार भी होते हैं। तब जामवन्त उन्हें शक्ति की मौलिक कल्पना के लिए आह्वान करते हैं। युद्ध में शक्ति की इस मौलिक कल्पना का बड़ा महत्त्व होता है। इसी कथ्य पर निराला ने अपनी विख्यात कविता 'राम की शक्ति पूजा' लिखी जिसकी आलोचकों ने अपनी अपनी तरह से व्याख्याएं की हैं। इसका सन्दर्भ भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से भी जुड़ता है जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन के पश्चात अंग्रेजी शक्ति से लड़ाई शिथिल पड़ती दिखाई पड़ती है। कवि आलोचक शिवदयाल ने निराला की इस कविता की तहों को खोलने का प्रयास किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिवदयाल का आलेख 'शक्ति की मौलिक कल्पना'।



'शक्ति की मौलिक कल्पना'

                                                       

शिवदयाल

 

'राम की शक्ति पूजा' महाप्राण निराला की महान कविता है, और सच कहा जाए तो राम कथा को आधार बना कर लिखे गए रामचरितमानस के बाद सबसे महत्वपूर्ण रचना है, जबकि दोनों रचनाओं के बीच चार सौ वर्षों का अंतर है। दोनों ही महान रचनाएं अपनी काल-सापेक्षता के कारण भी महत्वपूर्ण, ऐतिहासिक और कालजयी हैं। मानस तो अपनी गेय कथात्मकता, मूल्यनिष्ठा, भाषाई वैभव और लास्य के कारण लोककंठ पर विराजता है। यह श्रीराम का जीवन वृत्त रचता है। 'राम की शक्ति पूजा' राम-रावण युद्ध के प्रसंग पर आधारित है जिसमें राम जैसा विराट व्यक्तित्व क्षण विशेष में साधारण मनुष्य की निरुपायता और भयग्रस्तता के साथ सामने आता है, और तदनंतर इससे पार भी उतरता है। कविता किन्ही क्षणों में अशक्त और निस्तेज पड़े राम को सामान्य व्यक्ति के रूप में सामने लाती तो है लेकिन कविता की भाषा सामान्य व्यक्ति को अपने से जोड़ने वाली नहीं है। इसका मूल कारण है विचारों, आवेगों और भावों का अत्यंत संश्लिष्ट प्रस्फुटन, वह भी अपूर्व औदात्य के साथ जो साधारण जन की भाषा में संभव नहीं है।


कविता में एक कथा है, वृतांत है जो एक दृश्य से शुरू होता है। अनिर्णित युद्ध का एक और दिन! राम युद्ध भूमि से अपने शिविर की ओर लौट रहे हैं। वे थके हैं, क्लांत और निराश दिखते हैं। उनके केश जो मुकुट की तरह माथे के ऊपर बंधे रहते हैं, वे बिखरे हुए हैं कंधों पर और माथे पर। धनुष की प्रत्यंचा खुली हुई है और कटिबंध का बंधन भी शिथिल है। उधर राक्षस दल के पदतल से से मानो पृथ्वी डोल रही है। उनके महोल्लास से आकाश विकल हुआ जा रहा है। राम मुख झुकाए सदल-बल शिविर की ओर लौट रहे हैं। उनका मुख सांध्य कमल की भांति कुम्हलाया हुआ है। साथ चिंतातुर लक्ष्मण और वानर वीर हैं। राम शिविर में अपने नियत स्थान श्वेत शिला पर बैठ जाते हैं। उनके पीछे लक्ष्मण खड़े हैं, सामने जाम्बवान, सुग्रीव, अंगद आदि यूथपति। सेवक हनुमान राम के चरण पखार रहे हैं। सब की दृष्टि राम पर लगी है जिनका मुखमंडल म्लान है, जो नैराश्य और पराजय भाव से घिरे हैं - रावण-जय-भय से। यानी राम रावण की जय से भयभीत हैं, अपनी पराजय से नहीं। रावण की जय का अर्थ है अधर्म की जय, धर्म का नाश, संपूर्ण सृष्टि से शुभ तत्व का संपूर्ण विलोप। राम की दुविधा और निराशा का यही कारण है। उन्हें जय अपने लिए नहीं, सत्य, धर्म, सदाचार और शुचिता के लिए चाहिए। लेकिन लाख जतन करने पर भी युद्ध मनोनुकूल दिशा में नहीं जा रहा। राम के क्षिप्र बाण लक्ष्य नहीं भेद पा रहे। भाई लक्ष्मण और अन्य निष्ठावान वीर सुग्रीव आदि सेनानायक भी अपना पराक्रम नहीं दिखा पा रहे मायावी राक्षसों के आगे। रावण और उसकी सेना के प्रहार से लक्ष्मण, सुग्रीव, अंगद, नल, नील आदि वीर मूर्छित हो जाते हैं। अब राम क्या करें, कैसे होगी जय! ऐसे ही विषाद के क्षणों में जैसे विद्युत स्फुलिंग-सी सीता की छवि कौंध गई राम के मन में। याद आया उन्हें मिथिला में राजा जनक का वह उपवन - राम-सीता के नयनों का गोपन-संभाषण और उपवन का वह समूचा मादक परिदृश्य जहां किसलय कांप रहे हैं, पराग झर रहे हैं, खग वृंद गा रहे हैं, लता-गुल्म पवन झकोरों पर उमग रहे हैं। वह चेतना की महावस्था थी जिसकी स्मृति राम के अधरों पर स्मित ले आती है। राम को अपने अतुलित शौर्य का ध्यान आता है, अपने पराक्रम का जिसकी ज्वाला में निशाचर शलभ की तरह जल मरे। राम के हृदय में विश्वविजय भावना आती है सीता का ध्यान करके। तभी आज के रण का स्मरण भी हो आता है -  समग्र नभ को आच्छादित किए हुए 'भीमा मूर्ति' अर्थात शक्ति, अपने ज्योतिर्मय अस्त्रों का बुझ-बुझ कर क्षीण हो जाना, और रावण का अट्टहास। शोकाकुल राम की आंखों से दो बूंद आंसू टपक पड़ते हैं जिन्हें देख कर हनुमान व्याकुल हो जाते हैं। वे अतुलित बलधामा हो कर सब कुछ तहस-नहस करने पर उद्यत हो जाते हैं, महाकाश पहुंच जाते हैं मानो स्वयं शक्ति से टकराने। महादेव देवी दुर्गा को इस महावीर से युद्ध करने पर 'विषम हार' की चेतावनी देते हैं। वे उन्हें विद्या का आश्रय लेने की सलाह देते हैं। देवी हनुमान जी की माता अंजना के रूप में उन्हें कहती है कि इस महाकाश में शिव का वास है। वे अनर्थ न करें और लौट जाएं क्योंकि राम का सेवक हो कर भी उन्होंने उनकी आज्ञा नहीं ली यह उद्यम करने की। कपि विनम्र हो लौटते हैं श्रीराम के पास। विभीषण सहित सभी सेनापति राम को सांत्वना देते हुए प्रेरक वचन कहते हैं और युद्ध में जय का निश्चय दोहराते हैं। वे उन्हें सीता के वर्तमान और भावी कष्टों का भी ध्यान दिलाते हैं। तब राम कहते हैं - मित्रवर, अब समर में विजय न होगी। यह अब नर-वानर और राक्षसों के बीच युद्ध नहीं रहा। रावण का आमंत्रण पाकर स्वयं महाशक्ति अब रण में हैं - 


'..अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति!' 


राम कहते हैं, शक्ति रावण को अंक में ऐसे लिए हुए हैं जैसे नभ में चंद्रमा अपने अंक में दाग लिए विचरता है।


तब निराश राम को धीरमति, अति बुद्धिमान जाम्बवान कहते हैं कि निराश होने का कोई कारण नहीं, आप भी यह शक्ति धारण करें - 


'शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन,

छोड़ दो समर, जब तक न सिद्धि हो, रघुनंदन!' 


वे राम को रावण के शक्ति-आराधन का उत्तर और दृढ़ आराधन से देने को कहते हैं। राम ने जाम्बवान के वचन सुन कर माथा नवाया। उन्होंने शक्ति आराधना के लिए हनुमान को एक सौ आठ कमल पुष्प लाने को कहा। राम देवी के आश्रित हो उनकी आराधना करते हैं। अंतिम पुष्प देवी दुर्गा उठा ले जाती हैं हंस कर, नवें दिन। जब ध्यानस्थ राम फूल लेने को हाथ बढ़ाते हैं और वह नहीं मिलता तब उनका ध्यान टूटता है। रिक्त स्थान देख कर उनके नयन भर आते हैं - यह जप के पूर्ण होने के समय असिद्धि का अभिशाप? राम अपने जीवन को धिक्कारते हैं जो आरंभ से आज तक विरोध और प्रतिकूलता ही सहता आया। वे उन साधनों को भी धिक्कारते हैं जिनका वे शोध करते रहे। वे शोक से भर उठते हैं कि अब प्रिया का उद्धार न हो सकेगा। तभी उनमें चेत होता है और वह अपनी दाहिनी आंख देवी पर अर्पित करने के लिए ब्रह्मशर उठा लेते हैं, माता कहती थीं उन्हें राजीव नयन। तभी देवी प्रकट होती हैं, उनका हाथ थाम लेती हैं। राम के सामने दस भुजाओं वाली साक्षात दुर्गा - लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती और कार्तिकेय सहित। अपने बांए पांव को असुर के कंधे और दाहिने पांव को सिंह वाहन पर धरे। राम प्रणत हो देवी की वंदना करते हैं और देवी उन्हें आशीष देती हैं - 


'होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!'


इस कविता की अन्य विशेषताओं में प्रमुख है यह वाक्य जो राम कातर भाव से कहते हैं -  'अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति!' यानी शक्ति सत्य और न्याय के लिए लड़ने-जूझने वालों के साथ नहीं अन्यायियों और आतताइयों के साथ हैं, ऐसे में तो मानवता का कोई भविष्य नहीं। जो जीवन में सत्य, न्याय और सदाचार की प्रतिष्ठा चाहते हैं वह सदा पराजित ही होते रहेंगे। आज की स्थिति में एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति इसी कातरता और वितृष्णा से जगत-व्यापार को देखता है। देखता है कि उसके शुचितापूर्ण जीवन जीने के संकल्प और प्रयास का कोई मूल्य नहीं। मूल्य उनका है, ताकत उनके पास है जो अनीति पर चलते हैं। ऐसे में तो यही बचता है कि वह अपना तप भूल जाए, संघर्ष छोड़ समर्पण कर दे। लेकिन यहां जाम्बवान की युक्ति राम-रावण युद्ध का परिणाम बदल देती है - 


'शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन/ 

छोड़ दो समर, जब तक न सिद्धि हो, रघुनंदन!' 


यहां कवि रामकथा के इस प्रसंग का आश्रय ले यह प्रतिपादित करता है कि जो निर्बल हैं, साधनहीन हैं, निस्तेज हैं लेकिन सत्य और धर्म की राह पर हैं, उन्हें अपने में स्वयं शक्ति अर्जित करनी चाहिए, उसकी और ‘दृढ़ आराधन’ कर उसे धारण करना चाहिए। शक्ति असत्य, अधर्म और अन्याय के हाथों बंधक नहीं। वह सबके लिए सुलभ है, बस उसे धारण करने की पात्रता विकसित करने की जरूरत है। यहां 'मौलिक' शब्द अलग से ध्यान खींचता है। शक्ति की मौलिक कल्पना करनी है, अर्थात जमी-जमाई और आजमाई नहीं, नयी युक्तियों, साधनों का संधान करना है, नयी परिस्थितियों में। यहां कवि का आशय बहुत बड़ा हो जाता है, यही कारण है कि यह वाक्य आधुनिक युग में एक मुहावरे के रूप में प्रयुक्त होता है - शक्ति की करो मौलिक कल्पना! इसी मौलिक शक्ति आराधन के पश्चात पुरुषोत्तम हो जाते हैं पुरुषोत्तम 'नवीन'। यहां 'नवीन' प्रत्यय 'मौलिक' उपसर्ग के साथ जुड़ता है और एक नयी अर्थ-सृष्टि होती है। देखा जाए तो राम की शक्ति पूजा स्वयं कवि के लिए काव्य-शक्ति की मौलिक कल्पना है, संधान है जिसमें उसने तीन सौ बारह पंक्तियों में मौलिक 'शक्ति पूजा' छंद का ही आविष्कार कर लिया।


वास्तव में इस कविता में स्त्री केंद्रीय तत्व है - सीता और दुर्गा के रूप में। जब विह्वल हो राम सीता का स्मरण करते हैं तब यह उत्कट प्रेम की कविता प्रतीत होने लगती है। दुर्गा यहां मातृशक्ति के रूप में उपस्थित हैं जो राम को विजय का वरदान देती हैं। इस कविता की एक और विलक्षणता है। यह राम, जो कि भगवान हैं, के प्रति पाठक के मन में ममता उपजाती है। जब राम के दृगों से अश्रु टपक पड़ते हैं, न केवल हनुमान व्याकुल हो जाते हैं बल्कि पाठक का मन भी विकल हो उठता है। इसी प्रकार आराधना के अंतिम चरणों में असिद्धि सामने देख कर जिस प्रकार राम अपने जीवन को धिक्कारते हैं, पाठक के अंतर में हाहाकार मचता है। राम के प्रति ऐसा सघन ममत्व भाव उत्पन्न करने वाली पंक्तियां शायद ही कहीं और होंगी।


यह कविता 26 अक्टूबर 1936 को इलाहाबाद के 'भारत' पत्र में प्रकाशित हुई थी। यह वह कालखंड है जबकि सविनय अवज्ञा का दूसरा चरण पूरा हो चुका है लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन की कोई गति नहीं बन पा रही थी। भगत सिंह, आजाद जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान के बाद उग्र धारा भी निरुद्ध हो गई थी। अभी नेता जी सुभाष चंद्र बोस का पराक्रम भी सामने नहीं आया था, न ही 'भारत छोड़ो' आंदोलन की कोई आहट। स्वतंत्रता सेनानी मानो संशय में पड़े हैं, श्लथ-लथ - स्वतंत्रता आखिर मिलेगी कैसे? उपनिवेशवादियों के पास अपरिमित शक्ति है, दुर्दम्य बल है। वे स्वतंत्रता प्राप्ति के हर प्रयत्न को विफल कर देते हैं। और इन्हीं परिस्थितियों में निराला के मन में शक्ति की यह मौलिक कल्पना उतरती है क्योंकि सीता कहीं स्वाधीनता का भी तो प्रतीक है जिसका हरण हो गया है। फिर हम निराला की 'राम की शक्ति पूजा' को 'राम की लोक-शक्ति पूजा' के रूप में क्यों न देखें, जिसके संधान के पश्चात राम की वानरों-रीछों की सेनाओं ने दुर्जेय रावण-सत्ता पर विजय पाई।



शिवदयाल




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