दीप्ति कुशवाह की कविताएं

 

दीप्ति कुशवाह


स्मृतियां हमें हमेशा अपने देश काल की तरफ खींचती रहती हैं। हम चाहे अनचाहे उसकी तरफ आकर्षित भी होते रहते हैं। विकास की दौड़ में वे चीजें उपेक्षित होती जाती हैं जो कभी हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हुआ करती थीं। लेकिन उन चीजों के अपने निहितार्थ भी हुआ करते थे। आज की पीढ़ी शायद ही टायर की चप्पलों से वाकिफ हो। लेकिन हमारे बचपन की ये सच्चाई हुआ करती थीं। जिनका बचपन गांवों में गुजारा है वे इससे जरूर परिचित होंगे। लेकिन जो सिर्फ दुकान के सामानों के सहारे जीवन जीने के अभ्यस्त हैं वे इसके बारे में नहीं जानते होंगे। कहा जा सकता है कि दुकानों का आकर्षण भी टायर की चप्पलों को लुभा नहीं पाया। दीप्ति कुशवाह लिखती हैं 'दुकान से नहीं आती थीं वे/ किसी पंचर बनाने वाले के पास से/ पैसा बचा-बचा कर बनवाई जाती थीं। ये चप्पलें उनके लिए आश्वस्ति की तरह होती थीं जिनका जीवन मुफलिसी में बीतता था। जड़ों से जुड़ने को अक्सर अतितगामी मान लिया जाता है लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं होता। दीप्ति इसे अच्छी तरह जानती हैं तभी तो लिखती हैं 'हमारी दुनिया में/ इनका होना एक भरोसा था/  कि जड़ों से जुड़ना जड़ता नहीं है।' कुछ इसी तरह की और उम्दा कविताएं भी दीप्ति के पास हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं दीप्ति कुशवाह की कविताएं।



दीप्ति कुशवाह की कविताएं



लोहे की बाल्टी


हम लोहे की बाल्टी वाले लोग थे 

जो कुएँ से खींचते थे दिन 

और छपाछप पानी के साथ 

सुबह की सच्चाई भरते थे हौदी में


वह हर बरस पुरानी हो कर 

थोड़ी और अपनी हो जाती थी 

और ज्यादा भरोसेमंद


वह बाल्टी 

बाज़ार से नहीं 

सागर वारी, नैनपुर वारी या सिउनी वारी 

के साथ आई थी


गर्मी में वही बाल्टी 

हमारी नींद को ठंडा करती थी 

बरसात में कवेलुओं की दरारें 

उसी में गिरती थीं रात भर


हम उसमें अपना 

आलस, उलझनें और दिन की धीमी चाल 

धोते थे 

अंदर के ऊबते मौसम 

उसी के सहारे ताजा हुए


बाल्टी को धूप में रख दिया जाता 

और सूरज 

बिना बोले कुनकुनेपन में मदद करता


यही कलिंदे का तरणताल थी 

जिसकी मिठास में 

पसीने की इज्जत उठती थी


जब बाल्टी में छेद हुआ 

हमने उस पर सिक्का ठोंक दिया 

मिट्टी सानी 

या गोल-गोल कर चिंदी घुसेड़ दी 

बाल्टी रिस कर हमारे अंदर 

पानी के लिए आदर भरती थी


हमारी आदत की तरह वह 

पुरानी होती गई 

पर कभी बेकार नहीं हुई 

नई चीज का रास्ता 

लंबा हुआ करता था उन दिनों


अब भरी हुई बाल्टियाँ ओझल हैं 

और यह समझ भी 

कि बचाया गया पानी, 

पाया गया दिन है


लोहे की कोई बाल्टी शायद 

कहीं पुराने घरों में पड़ी होगी 

अब नल भी उससे कतराते हैं 

उनकी आँखों को रंगदार चीजों की 

आदत हो गई है।



टायर की चप्पलें


टायर की चप्पलें पहनते थे 

हरभजन मम्मा 

धूल भरे रास्ते पर चलती हुई 

वे उनके पाँव के नीचे 

दिन, महीने, साल बिता लेती थीं

वे जल्दी फटती नहीं थीं 

मुड़ कर नाव जैसी हो जाती थीं 

थोड़ी टेढ़ी हो जाती थीं 

जैसे रास्तों के साथ समझौता कर रही हों


दुकान से नहीं आती थीं वे 

किसी पंचर बनाने वाले के पास से 

पैसा बचा-बचा कर बनवाई जाती थीं


टायर की चप्पलें 

चलने में आवाज नहीं करती थीं 

पर हर आवाज़ सुनती थीं 

हल की, फसल की, बरहे की 

और उन पैरों की 

जिन्हें हर जगह समय पर पहुँचना होता था


चप्पलों की चाल में 

थोड़ी सी विनय थी 

थोड़ी सी जिद 

और वे आगे-आगे चलती थीं


मम्मा की चप्पल 

मिट्टी पकड़ती थी 

और कीचड़ में भी 

पाँव नहीं छोड़ती थी


एक बार जब वह टूटी 

उन्होंने कील ठोंक दी उसमें 

कहा, 

"अभी तो चलती है"


हमारी दुनिया में 

इनका होना एक भरोसा था 

कि जड़ों से जुड़ना जड़ता नहीं है


अब कोई टायर की चप्पल पहने नहीं दिखता 

जबकि जमीन को अब भी

चलने वालों की ज़रूरत है।






हँसिया


आम के टिकोरों, लाल शकरकंद और 

कच्ची हल्दी की गठानों के साथ 

दादी के थैले में 

चला आया था हँसिया 

जैसे कोई बूढ़ी आदत 

गलती से शहर आ गई हो


कोने की अलमारी के ऊपर पड़ा रहा 

दादी के लौट जाने के बाद 

जहाँ आराम ज्यादा था और बातें कम


वह अब धार नहीं माँगता 

उसका इंतज़ार 

उससे ही कटता नहीं


यहाँ सूरज 

काँच की खिड़कियों पर उगता 

स्टील की सीढ़ियों से फिसल कर 

ऑफिसों में चला जाता है


हँसिया बस पड़ा रहता 

जैसे छाया का छोटा टुकड़ा 

रोशनी में शामिल नहीं हो पाता 

उसकी नोक पर टिक नहीं सके 

बेमन के मौसम


हँसिए से काम लेना हुनर था 

दुनिया में हाथ के लोग 

जैसे-जैसे कम होते गए 

हमारे भीतर बाजार का रास्ता 

साफ और चौड़ा होता गया


जगह नहीं, 

यादें अधिक लेने वाला हँसिया 

आखिरकार घर से विदा हुआ


उस रात 

अर्धचंद्र में दिखी हँसिए की सूरत 

हमारे आसमान में दादी की याद 

और गाढ़ी हो गई।



लालटेन


हम दीवार की कॉपलों में कील ठोंक, 

लालटेन टाँग कर 

उजियार ले आते थे 

रात के भीतर


वह सिर्फ रोशनी नहीं देती थी 

साथ भी रखती थी 

उस नन्हीं तारिका के चारों ओर हम ऐसे बैठते 

जैसे कोई बात 

खुद को कई हिस्सों में बाँट रही हो


बिजली तब किस्सों में थी 

जबकि लालटेन हर शाम की सच्चाई 

एक कमजोर लौ 

भरोसेमंद आश्वासन थी


हर शाम उसे जलाने से 

पहले खुद को थोड़ा साफ करना 

होता था बत्ती सीधी कर 

धीरे-से जलाई जाती 

जैसे किसी को बिना चौंकाए 

जगाया जाता है


लालटेन जलाने का एक अनुशासन था

तेल माप कर डालते थे 

ज्यादा डालना 

फिजूलखर्च माना जाता था 

एक संतुलन साधा जाता था 

प्रकाश और धुएँ के बीच


उसकी लौ में 

ध्यान की भाषा थी 

सुनने की आदत थी 

लालटेन से पढ़ी जाती थीं किताबें 

लिखी जाती थीं चि‌ट्ठियाँ 

वह सिखाती थी पहचानना 

चेहरों की सच्चाई


लालटेन अपने आसपास 

घर का केंद्र सुनिश्चित करती थी 

रात के समय वह निर्भयता का प्रतीक थी 

अँधेरे से दोस्ती गाँठी जाती थी 

उसी के सहारे


एक दिन लालटेनें 

दुछती पर रख दी गई 

बिजली के भरोसे सब रोशनी तो पा गए 

पर उजाले की विनम्रता खो बैठे


उसका बुझना किसी चुप विदाई जैसा था 

उसका जाना ऐसा 

जैसे घर से कुछ कम हो गया हो


अब जब कहीं घर के पिछवाड़े 

पेड़ की धुनैया पर 

धूल सनी लालटेन दिखती है 

तो लगता है, कह रही है, 

"बैठो न, बात अधूरी रह गई थी।"



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


ई मेल : deepti.dbimpressions@gmail.com


टिप्पणियाँ

  1. वास्तविकतासे जुड़ी मनको लुभानेवाली कविताएं! अभिनंदन!

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