बंग महिला की कहानी 'कुम्भ में छोटी बहू'

 





बंग महिला को हिन्दी की पहली महिला कथाकार माना जाता है। यह राजेन्द्र बाला घोष का छद्म नाम था। हिन्दी नवजागरण के दौर में कहानी लिखने वाली वे पहली महिला थीं। उनका परिवार वाराणसी का एक प्रतिष्ठित बंगाली परिवार था। आपके पूर्वज बंगाल से आकर वाराणसी में बस गए थे। 1904 से 1917 तक बंग महिला की रचनाएँ विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। इसी बीच अपने दो बच्चों के असमय निधन और 1916 में पति के देहान्त से वे बुरी तरह टूट गईं। इन आघातों के कारण उनका लेखन भी बन्द हो गया। नारियों को रूढ़ तथा जड़ परम्पराओं के शिकंजे में कसने वाली शास्त्रीय व्यवस्थाओ को नकारती हुई बंग महिला ने स्त्री-शिक्षा का नया माहौल बनाया। उन्होंने नारियों के लिए स्वेच्छया पति का चुनाव करने, तलाक देने और यहाँ तक कि ‘पत्यन्तर’ करने के अधिकार की माँगें पुरजोर कीं। उनके लेखन में नया युग नई करवटें लेने लगा। बंग महिला के जीवन और कृतित्व में समकालीन नारी-लेखन के तमाम-तमाम मुद्दे अन्तर्भूत हैं। बंग महिला ने उसी समय कुम्भ में छोटी बहू नाम की कहानी लिखी। 'महाकुम्भ विशेष' के अन्तर्गत हम पहली बार के पाठकों के लिए यह कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं। यह कहानी 'कुसुम संग्रह' नामक संकलन से साभार ली गई है। इस कहानी को हमें पंकज मोहन जी ने उपलब्ध कराया है।


महाकुम्भ विशेष : 7


'कुम्भ में छोटी बहू'


बंग महिला 



[1]


मिरज़ापुर के पास "पँडरा" में पण्डित रामनारायण मिश्र वास करते हैं। जाड़े का मौसिम है। सबेरे का वक्त है। घर की मालकिन आँगन में बैठी घाम ले रही हैं। भोलवा की माँ (मज़दूरनी) गाय की सानी में लग रही है। मालकिन के पास ही उनकी दो पोतियाँ और एक पोता खेल रहे हैं। मालकिन जी न्यायाधीश बन कर उन लोगों के झगड़े का निपटेरा भी बीच बीच में करती जाती हैं। उधर क्षण क्षण में बड़ी बहू को जल्द रसोई बनाने की ताकीद भी करती जाती हैं।


रसोईघर में बड़ी बहू रसोई बनाती है। छोटी बहू एक थाल में रख कर चावल बिन रही है। दोनों, देव-रानी जेठानी, में इधर उधर की बातें हो रही हैं। छोटो बहू बोली जेठानी जी, अब की तो कुम्भ का बड़ा भारी मेला है। चलो न हम लोग भी नहा आवे। फिर तो अब कहीं जाके बारह वर्ष में ऐसा कुम्भ पड़ेगा। तब तक तो न जाने 'कौन राजा, कौन योगी। कहीं बीच ही में मर गई तो चलो छुट्टी हुई। मन का हौसला मन ही में रह जायगा।"


बड़ी बहू ने एक ऊँची सी साँस ले कर कहा, "अरे कहाँ की बात? भला हम लोगों को कौन ले जायगा? सुनती हूँ वहाँ तो लाखों आद‌मियों की भीड़ होगी। तब भला हम लोगों का वहाँ ठिकाना कहाँ?"


"ए लो, जब तुम्ही ऐसी दिल तोड़ने वाली बातें कर रही हो तब तो उन लोगों का क्या कहा जाय? वहाँ तो तीरथ की जगह जाना है। जो ज़ोर दे कर कहोगी तो क्या जेठ जी न ले जायँगे ? मेरा मन तो कहता है, जरूर ले जायेंगे। क्योंकि कहीं नातेदारी में तो जाना ही नहीं है, कि बिना बुलाये कैसे जायँ? रही भी की बात, सो तुमने अच्छी कही। अरे भला तीरथ में भीड़ न होगी तो और कहाँ होगी? काशी में विश्वेश्वर और अन्नपूर्णा के मन्दिर में क्या कम भीड़ होती है? तो क्या हम लोग दर्शन करने को नहीं जातीं? और सब जाने दो, ग्रहण लगने पर भी तो करोड़ो आद‌मियों की भीड़ होती है। फिर हम लोग कैसे नहा आती हैं?”


छोटी बहू की ऐसी दलीलों से भरी हुई बातें सुन, बेचारी बड़ी बहू लाचार हो कर बोली, "अच्छा भाई! तुम हमारे लाला जी (देवर) को कह सुन कर राजी करो। बस सब ठीक हो जायगा। जाने लगना तो मुझे भी साथ ले लेना। अब तो मैं दाल छौंकती हूँ। ए लो, तुमसे बातें करती रही, दाल में नमक डाला कि नहीं, सो भूल ही गई।"


इतने ही में भोलवा की महतारी एक टोकरी गोबर ले कर आई और खड़ी हो कर कहने लगी, "का हो बहू, का सल्लाह होत बाय? पयाग जी नहाए चलत जाबः का? हे भाई, हम हूं के लियावत चलः"। छोटी बहू उस पर नाराज़ हो कर कहने लगीं; "मर निगोड़ी, इतना चिल्लाती है क्यों? क्या गले में बाँस अँटका है?"


भोलवा की महतारी कुछ धीरे से घियिया कर कहने लगी- "ए मोर बहू, अब मैं न चिलैइयों। तोहरे पच के गोड़ ले पड़त हई। जाये लाग्यः तौ हमहूं के लेत जायः”।


बड़ी बहू, बोली, "अरे कहाँ की पागल है रे 'सूत न कपास, जुलहन से मटकौअल'। जा कौन रहा है? जब जायेंगे तब देखा जायगा। अभी तक तू गोबर पाथने नहीं गई? जा"।


भोलवा की माई तो किसी सूरत टली। पर छोटी बहू के मन में ऐसी खलबली उठी कि, जैसे समुद्र में लहरें। कल छोटी बहू अपनी बुआ के घर गई थी। वहाँ सुन आई कि बुआ के घर के सब लोग और उनके अड़ोस पड़ोस के सब लोग कुम्भ के मेले में जायेंगे। बस, अब छोटी बहू को चैन कहाँ? अब तो पेट में चुहियाँ कूदने लगीं। मन में छटपटी सी मच गई और रह रह के जाने का उपाय सोचने लगी। "हाय, मेरा जाना कैसे होगा?" आप किसी तरह घर के आदमियों को फुसला कर राज़ी भी करती हैं। और मन ही मन डर भी रही हैं, कि कहीं कोई रोक न दे। फिर बड़ी मुशकिल होगी। तब तो कोटि उपाय करने पर भी बारह वर्ष तक कुम्भ नहीं मिलने का। सबसे अधिक चिन्ता, जो छोटी बहू की जान मारे डालती है, यह है कि जब रामदेई और भाभी (फुफेरी बहिन और भौजाई) कुम्भ-मेले से लौट कर जब अनोखी-अनोखी बाते कहेंगी तब हमको उनका मुँह ताकना पड़ेगा।





[2]


अब अमावस्या के दो ही चार रोज बाकी हैं। छोटी बहू को सिवा कुम्भ नहाने के और किसी बात का फ़िकर ही नहीं है। गोद में एक साल का बच्चा है। वह बेचारा अब समय पर दूध तक नहीं पाता। तब भला उसके तेल उपटन की कौन चलावे। उस दिन बच्चे को तेल उबटन किया ही नहीं; पर, हाँ, झट तेल उबटन की कटोरी ले कर सास के पास जा कर आप बोली, "भाभी जी, इस साल तो तुम्हारे बहुत ही पैर फट गये हैं। लाओ ज़रा तेल उबटन कर दे"। सासराम मन ही मन अकचका कर कहने लगीं, अरे, आज बहू को कहाँ से इतनी भक्ति उमड़ पड़ी! आज पूरब से पश्चिम में तो सुरज नहीं उदय हुआ? और दिन तो बुलाने पर भी नहीं आती थी; उलटा बहाना कर के चली जाती थी। आज क्या है? चलो, अच्छी बात है। ऐसे मौके को हांथ से न जाने देना चाहिए। वे बोली, "हां बेटा, आओ तुम लोगों को तो फुर्सत ही नहीं मिलती"। यह कह कर वे पाँव पसार कर बैठ गईं। छोटी बहू हलके हाथों से उबटन लगाने लगी। उधर उनका बच्चा रोने लगा। सास ने बहुतेरा कहा, "रहने दो जाओ, पहले लल्लू को चुप करो, तब लगाना" पर छोटी बहू ने एक न सुनी, पैर मलती ही रही। इधर उधर की बातें करते-करते आप कहने लगीं, - "क्यों भाभी जी! तुम कभी कुम्भ नहाने गई थीं कि नहीं?"


"नहीं बेटा, कहाँ का नहाना, कहाँ का धोना! तुम्हारे चाचा जी को तो यह कुछ भाता ही नहीं। वे तो कहते हैं "मन चङ्गा तो कठौती में गङ्गा"। घर में बैठी राम-राम किया करो। एक बेर बड़ी मुश्किल से भाभी जी के संग प्रयाग जी गई थी। सो भी मेले में नहीं।"


"चलो इस बार नहा आओ और हम लोगों को भी नहला लाओ।"


"अरे बेटा! हम लोगों को कौन ले जायगा? तुम्हारे लाल का तो दम फूलता है। वे इस ठण्ढ में जाने से रहे। हरनारायण (बड़ा लड़का) तो घर ही पर नहीं। और होता भी तो उसे छुट्टी कहाँ? रहा शिवनारायण (छोटा लड़का) सो वह तो अँगरेजी पढ़ कर पूरा कृस्तान ही बन गया है। दिन रात देवता, पित्तर को चूल्हे या भाड़ में फेंका करता है?"


इतने में मिश्र जी पोती का हाथ थाम्हे आ पहुँचे और हँस कर बोले- "लो, तुम्हारी कितनी सेवा होती है और तुम इतने पर भी झंखा करती हो कि मेरे हाथ पैर का करने वाला कोई नहीं।"


मिश्रानी जी बोली, "अरे नहीं सुना, छोटी बहू प्रयाग जाने को कहती हैं।"


"प्रयाग! कुम्भ के मेले में!! राम राम!!! वहाँ जाना बहू-बेटियों का काम नहीं।"


ससुर के मुँह से ऐसी बात सुन कर छोटी बहू मन ही मन कुढ़ गई और झटपट काम ख़तम कर अपने कमरे में जा घुसी। वहाँ पति देवता से क्या क्या बातें हुईं सो तो मैं जानती नहीं। पर, हाँ, छोटी बहू को हमजोली सखी-सहेलियों से यह अवश्य मालूम हुआ कि अन्त में शिवनारायण खिजला कर कहने लगे - "कुम्भ कुम्भ कर के तो तुमने हमारे नाकों दम कर दिया। न जाने कहाँ से तुम्हारे सिर पर कुम्भकर्ण की प्रेतात्मा सवार हो गई है। जाना है। तो अपने भाई के साथ चली न जाओ। मेरा सिर मत खावो। जाओ, वहाँ बच्चे को ले कर जाड़े में मारना हो तो मार डालो।"


"वह लड़का तो तुम्हारे ही घर पर मरा था न, तब मैं उसको कहाँ ले गई थी। सच तो यह है कि जिस की मौत आ जायगी, उसे कभी कोई रोक नहीं सकता।"


अन्त में छोटी बहू की बुआ और उनके बेटे के बहुत चिरौरी बिनती करने पर, बड़ी मुश्किल से, लोग छोटी बहू को प्रयाग भेजने पर राज़ी हुए। अब छोटो बहू मारे खुशी के फूले अङ्ग नहीं समांतीं । झटपट थोड़ा सा पकवान बना, सब सामान ठीक कर, गठरी मोटरी बाँध जाने के लिए तैयार हो गई। उनके फुफेरे भाई शंकर दयाल उन्हें बिदा कराने आये।


छोटी बहू घर में सब से विदा होने गईं। बड़ी बहू बोलीं- "लो भाई, तुम तो पुण्य करने चलीं और हम सब जहाँ की तहाँ पड़ी रह गईं। जाव, राज़ी खुशी लौट आओ”। मिश्रानी जी लल्लू (छोटी बहू के लड़के को गोद में ले कर दुलारने लगीं। शिबू की खोज कराई पर वे न मिले। तब वे शंकर दयाल से कहने लगीं- " देखो, मैं तुम्हारे भरोसे बहू को जाने देती हूँ। इस बच्चे की रक्षा का भार तुम्हारे ऊपर है। मेरे लल्लू को कोई तकलीफ न होने पावे।"


"नहीं माँजी; आप बेफिक्र रहिए। किसी बात की चिन्ता न कीजिए। मैं सबको बहुत आराम से ले जाऊँगा। और मेरे घर के लोग भी तो सब जा रहे हैं। ईश्वर की कृपा से, और आपके आशीर्वाद से, हम सब लोग राज़ी खुशी लौट आयेंगे।"


छोटी बहू जा कर इक्के पर बैठ गई। मिश्रानी जी ने पोते का मुँह चूम कर उसे बहू की गोद में दे दिया। उनकी आँखें भर आई।


करुणार्द्र स्वर से वे कहने लगीं, "जिस दिन से लल्लू जनमा उस दिन से बराबर मेरे ही पास रहा है। आज पहिला दिन है कि मैं उसे अपनी आँखों से अलग करती हूँ। देखो शंकर, खबरदार रहना"।


छोटी बहू तो गई; पर बेचारी भोलवा की माँ मुँह ताकते ही रह गई। उस रात को छोटी बहू अपनी बुआ के घर रहीं। दूसरे दिन उन्होंने वहाँ से प्रस्थान किया।




[3]


मिरज़ापुर के रेलवे स्टेशन के मुसाफ़िरख़ाने और प्लेटफार्म पर बड़ी भीड़ है। जिस ओर दृष्टि डालिए उस ओर नर-मुण्ड ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं। जहाँ देखिए वहीं माल, असबाब और गठरियों का ढेर लगा है। यथासमय गाड़ी अपना विशाल वपु ले कर आ खड़ी हुई। शंकर द‌याल ने बड़ी हिफ़ाज़त से सबको ले जा कर रेल में बिठा दिया। उनके साथ एक आहार-प्रिय ब्राह्मण देवता भी थे। उन्होंने गठरी, मोटरी, पिटारा आदि सब ढो कर गाड़ी में रख दिया। और आप भी एक कोने में जा कर बैठ गये। अभी गाड़ी छूटने में कुछ देर है। शंकर दयाल लल्लु को गोद में ले कर प्लेटफार्म पर खड़े हैं। इतने ही में शिवनारायण दौड़ते हुए आ पहुँचे । शंकर दयाल अकचका कर पूछने लगे. "तुम कहाँ?" शिव-नारायण ने कहा, - "लल्लू जब तुम्हारे साथ आया तब मैं घर पर न था। आने पर सुना कि सब लोग चले गये। लल्लु को देखने के लिए चित्त घबराया, सो आज सबेरे उठते ही सीधे स्टेशन पर उसे देखने चला आया"।


लल्लू तो पिता को पा कर बड़ा ही आनन्दित हुआ। मारे खुशी के पिता के गले से वह जा लिपटा। इतने में पहली घंटी हुई। शिवनारायण शंकर दयाल से (छोटी बहूकी तरफ़ देखते हुए) बोले, "तुम लोग अच्छी तरह बैठ गये न,? अच्छा, मेरा नमस्कार लो। लल्लू! अब तुम अपने मामा के पास जाव"।


लल्लू भला पिता को क्यों छोड़ने लगा। उसने बड़े जोर से रोना शुरू किया। शंकर दयाल हँस कर बोले, तुम्हे तो इस समय घबराया हुआ आते देख ऐसा मालूम हुआ कि मानो किसी खूनी असामी को गिरफ्तार करने को तुम आ रहे हो। आख़िर को तुमने आ के एक बखेड़ा खड़ा ही कर दिया। आओ बच्चा लल्लू, मेरे पास आओ, इन्हें जाने दो। मैं तुम्हें मिठाई दूँगा ।


पिता-पुत्र परस्पर एक दूसरे की ओर प्रेम-भाव से देख ही रहे थे कि रेल-राँड़ ने सीटी दे दी। इतने ही में ब्राह्मण-देवता ने घबराहट के स्वर में शिव नारायण से कहा- "भैया, मैं जल्दी में शंकर दयाल के यहाँ पुजहाई और एक कटोरे में पेड़ा और थोड़ा सा दही भूल आया हूँ। जा कर उसे मेरी माता जी के पास गाँव में अवश्य भिजवा देना; नहीं तो खराब हो जायँगे।"


आग खाती, पानी पीती, धुंआ फेंकती, रेल हड़हड़ाती हुई चली। मानों वह संसार की अनित्यता का सजीव दृष्टान्त दिखला गई। जहाँ कुछ देर पहले इतना कोलाहल मचा था, जहाँ इतना चहल पहल था, अब वहाँ बिलकुल सन्नाटा छा गया । अब छोटी बहू भली भाँति सुचित्त हो कर बैठीं और अपनी बहिन रामदेई से कहने लगीं- "सब लोग तो कहते थे, रेल में बड़ी भीड़ होगी, तुम लोगों को बैठने तक की जगह मुश्किल से मिलेगी। सो वह सब तो झूठी बात थी। सिर्फ लोगों का एक बहाना भर था जिससे मैं न जाऊँ। अरे हमारी सासराम, वे देखने को तो हैं सीधी, पर हैं बड़ी खोटी। खुटाई उनकी नस नस में भरी है। उनकी ज़िन्दगी तो ताली कुंजी सँभालते और जेठानी जी को चूल्हा-चौका करते बीत जायगी। वे लोग कभी तीरथ, बरत, दान, पुन्न न करेंगी और न दूसरों को करने देंगी। उन लोगों का तो यह सब सोहाता ही नहीं।" राम-देई ने भी छोटी बहू की हाँ में हाँ मिला दी।


आज अमावस्या का दिन हैं। आज प्रयागराज में त्रिवेणी के तट पर एक अपूर्व दृश्य दिखाई दे रहा है। यदि सत्य ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र जी वन-यात्रा करते समय सबसे प्रथम यहीं पर टिके थे, तो क्या इसी से तो नहीं इसकी महिमा इतनी ऊँची हो गई है? क्या इसी से तो नहीं यह प्रयाग हिन्दू-सन्तान के पवित्र मुख से "तीर्थ-राज" के नाम से पुकारा जाने लगा है ? धन्य हिन्दू-सन्तान, धन्य! तुम्हारे इस दृढ़ धर्म-विश्वास को धन्य! जिस समय अन्य धर्मावलम्बियों को लिहाफ़ से मुँह निकालना कठिन जान पड़ता है उस समय से ले कर सूर्यास्त तक बर्फ से भी अधिक ठंडे पानी में आबाल वृद्धवनिताये सहर्ष, आनन्दपूर्वक, गोता लगाती हैं। धन्य हिन्दू-जाति! धन्य हिन्दूकुल! तुम्हारे पवित्र चरणों में इस क्षुद्र लेखिका का एक बार नहीं, शत बार, - नहीं सहस्र बार- नहीं, कोटि बार सादर प्रणाम है। भाई, हिन्दू! तुम्हारे पास अब कोई बल नहीं है। है केवल धर्मबल! ईश्वर तुम्हारे इस महान धर्मबल को अटूट रक्खे। केवल यही मुझ दासी की हार्दिक कामना है।


आज त्रिवेणी-तट की बालुका ने मानो सजीवता को प्राप्त कर लिया है। बेचारे दरिद्र भारतवासी कैसे आनन्द से त्रिवेणी में स्नान कर के अक्षय्य पुण्य का सञ्चय कर रहे हैं। किसी के पास अङ्गाच्छादनोपयोगी वत्र हैं, तो किसी के पास वह भी नहीं। किसी के पास भर पेट जाने को है; किसी के पास वह भी नहीं। किन्तु इस समय, इस पवित्र भूमि में, सभी समभाव से आनन्द उपभोग कर रहे हैं।


इसी अगण्य मानव-समूह के बीच हमारी पूर्व-परिचिता छोटी बहू भी दिखलाई पड़ीं। बाँध के नीचे जहाँ कुछ भीड़ कम थी, वहीं पर भाई, भौजाई, ननद और बुआ जी के सहित लल्लू को गोद में लिए आप खड़ी हैं। छोटी बहू ने शंकर दयाल से कहा " भैया! आज लल्लू ने अभी तक कुछ खाया नहीं। इसके लिये कुछ ला दो। शंकर दयाल ने कहा-अच्छा, ठहरो, ला देता हूँ।"


इतने में एक विशालाकार हाथी बिगड़ गया। उसके बिगड़ने के साथ ही सारे मेले में हलचल मच गया। शंकर दयाल ने लल्लू को अपनी गोद में ले लिया और आप भरसक सबकी हिफ़ाज़त करने लगे। इसी धक्के में पड़ कर शंकर-दयाल की माँ मुंह के बल जा पड़ीं, जिससे उनके घुटने में भारी चोट लगी। शंकर दयाल ने लल्लू को छोटी बहू के हवाले किया और आप माता की सेवा में लगे। इतने में पुलिस वालों ने, साधुओं का अखाड़ा निकल जाने पर, नहाने वालों के लिये रास्ता (जो अब तक रोक रक्खा गया था) खोल दिया। बस फिर क्या पूछना था; मानों मनुष्यरूपी महासागर में तुफान आ गया। सभी के जी में यह तरंग उठी कि मैं ही सबसे पहले गोता लगा कर पुण्य का ढेर उठा लूँ । आँधी की भाँति आदमी पर आद‌मी गिरने लगे। इस भीड़ में पड़ कर बेचारी छोटी बहू अपने साथियों से अलग जा पड़ी। वह भीड़ में पड़ कर कभी दस हाथ पीछे को जाती थी; कभी दस हाथ आगे। इस समय उस बेचारी की अवस्था बड़ी ही शोचनीय हो रही थी। इतने में एक ऐसा भारी धक्का आया कि लल्लू माँ को गोद से अलग जा पड़ा। छोटी बहू चिल्ला चिल्ला कर रोने लगीं, सबसे बच्चे को उठाने के लिये बिनती करने लगीं; और रह रह कर द्रौपदी सुता की भाँति "भैया, भैया!" कह के पुकारने लगीं; पर "नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कौन सुनता है"? जब किसी ने भी उस निस्सहाय, दीन, अबला की गुहार न सुनी तब लाचार हो कर वह आप ही लड़के को उठाने के लिए झुकी थीं कि वह भी औंधे मुँह जा पड़ीं। ऐसी अवस्था में ज़रा सिर का उठाना भी बड़े बड़े पराक्रमी पुरुषों की सामर्थ्य से बाहर था। तब उस बेचारी अबला की कौन गिनती? इस शोचनीय करुणोत्पादक दृश्य का वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है। सहृदय पाठक पाठिकायें आप ही उसका अनुभव कर लेंगी।


उधर शंकर दयाल की बुरी दशा थी। नहाना, धोना तो अलग रहा, दिन भर के भूखे प्यासे सबको खोज रहे हैं। दोपहर के बाद रामदेई और उनकी स्त्री रोती, कलपती किले के नीचे मिलीं। रामदेई के गले से चम्पाकली न जाने कहाँ गिर गई थी। उनकी स्त्री की नाक में नथ नदारद। साथ ही नाक का एक हिस्सा भी गायब। मानों वे, शूर्पणखा की "ट्रू कापी" (सच्ची नकल) बन गई हो। बदन का तमाम कपड़ा खून से सराबोर हो रहा था। उधर झोपड़े में पड़ी माताराम कह रही हैं, "भाई। किसी न किसी सूरत लँगड़े लूले सबका ही पता लगा; पर छोटी बहू का भी कहीं कुछ पता ठिकाना है? जो ब्राह्मण देवता सँग आये थे, गठरी, और सन्दूक़चा गाड़ी पर उतारते, चढ़ाते तो उन्होंने बड़ी मुस्तैदी दिखाई थी; पर इस समय शायद पेट की ज्वाला बुझाने के लिए चुपके से कहीं मुँह छिपा बैठे हैं। आख़िर ठहरे तो पेड़े-दही वाले ही न? "


अब छोटी बहू के लिए शंकर द‌याल को बड़ी घबराहट पैदा हुई। वे सोचने लगे, "शिव नारायण और उनके घर के लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे? हाय! अब मैं उन लोगों के सामने कौन सा मुँह ले कर जाऊँगा? और मुझे जाने का साहस ही कैसे होगा? वे लोग क्या न कहेंगे कि आप तो चले आये, पर मेरी बहू को कहाँ छोड़ आए? ऐसे वक्त में मैं क्या जवाब दूँगा? वे लोग यही समझेंगे कि हम लोगों ने पराया जान कर, संग छूट जाने पर, ज़ियादा खोजने की चेष्टा न की होगी।"


हे भगवान! मैंने कौन सा ऐसा घोर पाप किया था जिसके बदले मेरे सिर पर यह कलंक का भारी बोझ रक्खा जा रहा है? हाय स्त्रियों की बात में पड़ कर मुझे कैसी दुर्गति भोगनी पड़ी है! मुझे मौत आ के गोद में रख लेती तो अच्छा था। अब मैं कहाँ जाऊँ? कहाँ ढूँढूं? कहीं भी तो उनका पता नहीं लगता।"


इस तरह तन क्षीण मन मलीन हो कर पागल की तरह एक एक जगह को वे दस दस बार ढूंढने लगे। कभी त्रिवेणी के तीर, कभी झोपड़ों के भीतर, कभी मुर्दों के ढेर में और कभी पुलिस वालों के यहाँ। अन्त में एक बुढ़िया की ज़बानी यह पता मिला कि पुलिस ने ज़ियादा घायल होने के कारण छोटी बहू को अस्पताल भेज दिया। यह सुनने के साथ ही शंकर दयाल वहाँ जा पहुँचे तो देखा कि छोटी बहू एक खाट में पड़ी हैं। उनके कलेजे में ऐसी गहरी चोट लगी है मानो किसी ने एक भारी पत्थर से कुचल डाला हो। शंकर दयाल को देखते ही ज़ख्मी छाती को दोनों हाथों से पीट पीट कर लल्लू लल्लू कह के वे रोने लगी ।


"भैया, भैया! तुम मेरे लल्लू को ला दो। हाय! अभी तक मेरे लल्लू ने कुछ खाया न होगा। लाओ, जल्दी जा कर उसे ले आओ। मैं उसे खिलाऊँगी, अब अँधेरा हो रहा है। लल्लू किसके पास सोवेगा? मैं कौन सा मुँह ले कर घर जाऊँगी? जब भाभी जी लल्लू को गोद से लेने आएँगी, तब मैं क्या कहूंगी? भैया! एक बार जा कर तुम फिर खोजो। कहीं इधर उधर पड़ा होगा। उठा लाओ।"


अरी अभागिन छोटी बहू! अब तेरे बच्चे का इस धरा धाम में एक चिह्न भी नहीं। उसका वह मक्खन सा कोमल शरीर लाखों आदमियों के पैर तले पड़ कर सत्तू हो गया! इस समय इस शोकातुरा माता की व्याकुलता और मर्म-भेदी कातरोक्ति लिखने में यह जड़ लेखनी समर्थ नहीं। आख्यायिका-पाठक और पाठिकाओं में जिस किसी ने इस करुणोत्पादक दृश्य को अपनी आँखों देखा होगा, वही इस पुत्र-वियोगिनी जननी के हार्दिक भाव का कुछ कुछ अनुभव कर सकेंगे। छोटी बहू को रोते रोते रक्तवमन होने लगा और कुछ ही देर बाद वे बेहोश हो गई।


दूसरे दिन तार पाने पर शिव नारायण प्रयाग पहुँचे। वहाँ यह शोकदायक घटना सुन कर पहले तो वे खूब रोये। छोटी बहू भी उन्हें देखते ही मुँह ढाँप कर रोने लगीं। थोड़ी देर बाद शिव नारायण, शंकर द‌याल से कहने लगे - "पुण्य का फल तो हाथों ही हाथ मिल गया। अब किसो सूरत से इन्हें घर ले चलने का बन्दोबस्त होना चाहिए।" छोटी बहू रोती हुई कहने लगीं- "अब मैं घर न जाऊँगी। मैं अपने लल्लू के ही पास जाऊँगी।" छोटी बहू की दशा देखने से ज्ञात भी यही होता था कि उन्हें ईश्वर शीघ्र ही उनके लल्लू के पास भेज देगा।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त फोटोग्राफ विकास चौहान द्वारा उपलब्ध कराए गए हैं। हम उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं।)

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