पंकज मोहन की प्रस्तुति '1954 के कुम्भ मेले का लोमहर्षक काण्ड'
कुम्भ मेले का मुख्य स्नान पर्व मौनी अमावस्या को होता है। आजादी के बाद पहले महाकुम्भ का आयोजन प्रयागराज में 1954 में किया गया। एक अनुमान के अनुसार महाकुम्भ के इस आयोजन में 4-5 मिलियन तीर्थयात्रियों ने भाग लिया। दुर्भाग्यवश 3 फरवरी 1954 को मेले में भगदड़ मच गई। इसी दिन मेले का मुआयना करने के लिए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी आए थे। हालांकि उन्होंने स्नान नहीं किया। मेले में तैनात किसी भी पुलिसकर्मी को उनकी सुरक्षा में नहीं लगाया गया। दूसरी तरफ तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इसी दिन संगम स्नान किया। विभिन्न स्रोतों के अनुसार इस त्रासदी के आंकड़े अलग-अलग थे। द गार्जियन के अनुसार इस भगदड़ में 800 से ज़्यादा लोग मारे गए और 100 से ज़्यादा घायल हुए। टाइम ने बताया कि "कम से कम 350 लोग कुचले गए और डूब गए, 200 लापता बताए गए और 2,000 से ज़्यादा घायल हुए"। 'लॉ एंड ऑर्डर इन इंडिया' नामक पुस्तक के अनुसार इस भगदड़ में 500 से ज़्यादा लोग मारे गए। पंकज मोहन ने इस त्रासदी के बारे में वाराणसी से छपने वाले दैनिक आज के साक्ष्यों का विश्लेषण किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं महाकुम्भ विशेष के अन्तर्गत पंकज मोहन की विशेष प्रस्तुति '1954 के कुम्भ मेले का लोमहर्षक काण्ड'।
महाकुम्भ विशेष : 5
'1954 के कुम्भ मेले का लोमहर्षक कांड'
(दैनिक"आज" का साक्ष्य)
भूमिका और संकलन : पंकज मोहन
3 फरवरी 1954 स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे मनहूश दिन था। इस दिन त्रिवेणी के संगम पर आयोजित महाकुम्भ मेले में ऐसी भीषण भगदड मची और मौत का ऐसा तांडव हुआ कि सारे देशवासियों का दिल दहल उठा। 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कौशांबी की जनसभा में कहा कि 1954 में पंडित नेहरू के पदार्पण के कारण कुम्भ मेले में भगदड़ मच गई थी जिसने हजारों तीर्थयात्रियों की जान ली। आगे उन्होंने कहा, "सरकार की इज़्ज़त बचाने के लिए, पंडित नेहरू पर कोई दोष न लग जाए इसलिए, उस समय की मीडिया ने ये दिखाने की बहादुरी नहीं दिखाई। कहीं ख़बर छपी भी तो वह एक-दो कॉलम की किसी कोने में खबर छपी थी।" आज जो मीडियाकर्मी नेहरू को जितना कलंकित करता है, उनका जितना दानवीकरण करता है, वह उतना ही बडा देशभक्त माना जाता है। इसलिए 2025 के महाकुम्भ के अवसर पर बहुत सारे न्युज-चैनल और अखबारों ने 1954 के कुम्भ मेले से सम्बद्ध रिपोर्ट प्रसारित-प्रकाशित किये। उन रिपोर्ट में अधोलिखित विन्दु पर जोर दिया गया।
a). 3 फरवरी 1954 को जब प्रधानमंत्री नेहरू कुंभ के मेले में पहुंचे, पूरे पुलिस और सैन्य बल को उनकी सुरक्षा में लगा दिया गया जिसके कारण प्रशासन के पास भीड़ प्रबन्धन का काम ढीला पड़ गया और इतनी भारी भगदड़ मची कि हजारों लोग कुचल कर मर गये।
b). सरकार ने बेशर्मी से दावा किया था कि भगदड में केवल कुछ भिखारियों की ही मौत हुई है, लेकिन 4 फरवरी को फोटो पत्रकार एस. एन. मुखर्जी ने जब गहनों से लदी महिलाओं के लाशों की फोटो छापी, सच्चाई का पर्दाफाश हुआ।
c). मृतकों की संख्या कम दिखाने के लिए प्रशासन ने दर्जनों लाशों को पुलिस की कड़ी घेराबंदी में इकट्ठे जला दिया।
1954 कुम्भ मेले की दुर्घटना आजाद भारत के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी थी जिसकी खबर सुन कर सभी भारतीयों ने आंसू बहाये और दुनिया के सभी देशों में इस दुर्घटना से सम्बद्ध समाचार पहुंचे। आस्ट्रेलिया के अखबार Advocate, Brisbane Telegraph और The Advertiser में 4 फरवरी 1954 को अधोलिखित शीर्षक के साथ खबर छपे: Hundreds Dead in Huge Crush; Hundreds Die in Stampede; और Many Killed In Hindu Ceremony. संसद और उत्तर प्रदेश की विधान सभा में इस विषय पर चर्चा हुई और देश के सभी अखबारों ने अपने सम्पादकीय अग्रलेख में सरकार की आलोचना की। आज की तरह उस समय प्रेस पर न तो कोई पहरा था, न नियंत्रण।
यह दुर्घटना अनेक कारणों से घटित हुई। आरम्भ में तीर्थयात्रियों के लिये हैजा के टीके की अनिवार्यता कर दी गई थी जिसके कारण अपार भीड़ इकट्ठा नहीं हुई, लेकिन 27 जनवरी को जब सरकार ने घोषित किया कि श्रद्धालु जन बिना टीका लगवाए कुम्भ मेला में संगम स्नान कर सकते हैं, तो त्रिवेणी तट पर नर नारियों का पारावार उमड पडा। मौनी अमावस्या के दिन पुलिस इस बात पर ज्यादा ध्यान दे रही थी कि साधुओं के जुलूस का मार्ग कैसे प्रशस्त हो जिसके कारण भीड़ प्रबन्धन का दायित्व बोध ओझल हो गया। "Power and Pilgrimage: The Kumbh Mela in Allahabad, 1765-1954" नामक पी-एच. डी. शोध प्रबन्ध (ला ट्रोब विश्वविद्यालय, आस्ट्रेलिया, 2003) मे डाक्टर कामा मैकलीन ने सभी उपलब्ध साक्ष्यों का विश्लेषण करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि कुछ तीर्थयात्रियों से ठसाठस भरे संगम के किनारे साधु-संन्यासियों का जुलूस निकल रहा था, पीछे से जनता का हुजूम चला आ रहा था, भीड़ बढ़ती जा रही थी, आवागमन का मार्ग अवरुद्ध हो गया था। इस स्थिति में जब कुछ लोग नागा साधुओं की जमात में घुसने के लिए विवश हुए, कुछ साधुओं ने इसे अपनी प्रतिष्ठा पर आघात मान कर चिमटों और त्रिशूलों से प्रहार किया। फिर भगदड़ मच गयी और जनता जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगी। 3 फरवरी 1954 के प्रातःकाल प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू कुंभ मेले के बन्दोबस्त का मुआयना करने मेले में पहुंचे थे, लेकिन भगदड़ के समय वे दुर्घटना-स्थल पर नहीं थे। इस तथ्य पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि मेले में तैनात किसी सैन्यदल को उनकी सुरक्षा में नहीं लगाया गया था। इसलिए भगदड़ के लिये नेहरू को दोष देना गलत है। मौनी अमावस के दिन राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने संगम स्नान किया था और संभव है, उत्तर प्रदेश के कुछ मंत्रियों ने भी किया हो, लेकिन नेहरू जी ने न तो संगम-स्नान किया और न ही उनके कारण भीड प्रबन्धन की अवहेलना हुई।
राज्यसभा में पंडित नेहरू ने स्पष्टतः कहा कि वे दुर्घटनास्थल पर नहीं थे, लेकिन वहां से काफी दूर भी नहीं थे। उन्होंने यह भी कहा कि यद्यपि दुर्घटना सुबह साढे नौ बजे घटी, उन्हें इस हादसे की खबर दोपहर तीन बज कर पचपन मिनट पर मिली। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने कहा कि उस दिन साढ़े चार बजे जब वे राष्ट्रपति के सम्मान में आयोजित समारोह में भाग लेने राजभवन (गवर्मेंट हाउस) पहुँचे, वब वहाँ उन्हें दुर्घटना का समाचार मिला।
गृह मंत्री श्री सपूर्णानंद ने भी यही कहा कि कुंभ दुर्घटना की सूचना उन्हें राजभवन में आयोजित स्वागत समारोह में पहुंचने के बाद ही मिली। कहा जाता है कि दुर्घटना की सूचना मिलने के बाद भी राजभवन की दावत को पूरी तरह कैन्सिल नहीं किया गया।
दैनिक "आज" में प्रकाशित रिपोर्ट और सम्पादकीय अग्रलेख इस हृदयविदारक दुर्घटना पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। इन रिपोर्ट को पढ कर हम समझ सकते हैं कि इन दिनों modified (सत्ता-अनुकूलित) मीडिया में 1954 की दुर्घटना के बारे में जिस तरह की रिपोर्ट छपती या सरकार द्वारा छपवाई जाती हैं, उनमें कितनी सच्चाई हैं।
(1)
काशी के दैनिक 'आज' में श्री चन्द्रेश्वर की रिपोर्ट
इस दुर्घटना की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई, किंतु किसी को पता तक नहीं चला। राष्ट्र के सर्वोच्च कर्णधारों को भी, जो उस समय मेले में थे, काफी देर बाद उसका पता चल पाया। दुर्घटना के समय और उसके बाद भी स॔गम में स्नान कर यहाँ से वापस चले जाने तक भी लोगों को पता नहीं था कि कोई दुर्घटना हो गई। जो लोग दुर्घटना के शिकार हो रहे थे उन्हें भी अपनी दुर्गति के अतिरिक्त और कुछ पता नहीं था। प्रयाग से लौटी एक महिला ने बताया कि वहाँ कई हजार आदमी मर गए और प्रमाण में उसने कहा कि वहाँ मैने देखा कि पुलिस ने जो जूते एकत्र किए थे, उनकी संख्या कई हजार थी। एक दूसरे व्यक्ति ने महिला से भी आगे बढ़ कर कहा कि मैंने एक हजार तिरपन तक लाशें गिनी थीं। यद्यपि उक्त महाशय को संयोग से सवारी मिल गई थी और वे कुंभ के ही दिन काशी वापस आ गए थे ।
देश की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण उपर्युक्त दुर्घटना मौनी अमावस्या के दिन प्रातःकाल लगभग साढे नौ बजे हुई। संगम क्षेत्र में जन-समुद्र उमड़ पड़ा था। उस समय तक लगभग तीस लाख से अधिक व्यक्ति संगम क्षेत्र में पहुँच चुके थे। सपूर्ण संगम क्षेत्र नर-नारियों से पहले से ही भरा था। इसके बावजूद लाखों की भीड़ संगम क्षेत्र की ओर बढी जा रही थी। शहर की ओर से आने वालों को बांध से हो कर जाना पड़ता है। संपूर्ण बाँध भी आदमियों से ठसाठस भरा हुआ था। बाँध काफी ढालुआ है और पहले दिन की बूंदाबाँदी से उस पर काफी फिसलन हो गई थी। फिर भी लोग उस में कसे खड़े थे।
तीर्थयात्रियों को जहाँ कुम्भ में डुबकी लगाने की चिन्ता थी, वहीं अधिकारियों को साधुओं के जुलूस और देश के कर्णधारों की चिन्ता थी। दोनों के ही दल इसी समय मेला क्षेत्र में आए। मेले में लगी अधिकांश पुलिस उधर लगा दी गई थी जिधर से देश के कर्णधार जाने वाले थे। क्षेत्रीय पुलिस साधुओं की सुविधा में लगी हुई थी। उस समय सम्पूर्ण मेला क्षेत्र अरक्षित हो गया था। सेना-संस्थाओं के स्वयंसेवक अवश्य मुस्तैद थे, किंतु वे कितना करते? लगभग साढ़े नौ बजे नागा साधुओं का दल स्नान के लिए चला। कुछ पुलिस वाले तथा कुछ घुड़सवार उनके लिए मार्ग बना रहे थे। इस भीड़ में महिलाएँ अधिक थीं। बहुत से नागा साधु भाला, तलवार तथा अन्य शस्त्रास्त्र लिए हुए थे। कुछ नागा इन शस्त्रों को घुमा-घुमा कर अपने लिए रास्ता साफ कर रहे थे। नागा इसे अपनी शान के खिलाफ समझते थे कि कोई उनके मार्ग में आये। वे साधारण-साधारण बातों पर पुलिस वालों पर भी क्रुद्ध हो उन्हें खरी-खोटी सुनाते थे। उस समय यहाँ उपस्थित पुलिस का सारा ध्यान नागाओं की सुविधा की ओर था। वे यात्रियों की सुविधा को बिल्कुल भूल गए थे। पुलिस वालों के पास तो भीड़ को नियंत्रित करने के लिए डंडा ही एकमात्र उपाय है, चाहे उससे भीड़ और भी अनियंत्रित क्यों न हो जाय। एक ओर तो यह हो रहा था और दूसरी ओर नागाओं की शान बचाने के लिए स्नान कर लौटती हुई भीड़ को भी जहाँ का तहाँ रोक दिया गया। परिणाम वही हुआ जो होना था। स्नान कर लौटती भीड़ को बाहर जाने से रोक दिया गया तथा बाहर से आने वालों का प्रवाह बढ़ता गया और उसके बीच में भीड़ पर नागाओं और पुलिस वालों द्वारा प्रहार! मेला क्षेत्र में एक लहर आ गई। लहर आते ही कितनों के ही पैर उखड़ गए। जिनके पैर उखड़े वे सँभले नहीं, जो संभले नहीं वे गिरे और जो गिरे उनके ऊपर से हजारों की भीड़ कुचलती हुई निकल गई। उस समय भीड़ के नीचे कितने लोग कुचले जा रहे हैं और उनकी क्या दशा हो रही है, यह सोचने का अवकाश किसी के पास नहीं था, सभी को अपनी चिन्ता थी। हाँ, यह अवश्य रहा कि मेला क्षेत्र के मुख्य दुर्घटना स्थल पर काफी देर तक भीड़ लाशों और घायलों के ऊपर रही। मरने वाले इस प्रकार मरे जैसे उन्हें चक्की में पीसा गया हो। लाशों को जब परेड कोतवाली में एकत्र किया गया, तब वहाँ उन्हें पहचानने वालों की भीड़ हो गई। उनके क्रंदन को सुनना बड़े-बड़े कलेजे वालों के लिए भी कठिन था। पुलिस ने जिन लाशों को कोतवाली में एकत्र किया उनकी संख्या 213 थी। इनमें 16 बच्चे, 46 पुरुष और 213 स्त्रियाँ थीं। इनमें केवल 140 मृतकों को पहचाना जा सका और शेष की लाशें सामूहिक रूप से जला दी गईं। इनके अतिरिक्त कितनी ही लाशें उनके सम्बधी ले गए। घटना के तीसरे दिन शुक्रवार को मैंने स्वयं गंगा जी में पुल नंबर दो और तीन के बीच में कुछ लाशों को उतराते और गृद्धों की खुराक बनते देखा।'
(2)
'आज' के विशेष प्रतिनिधि थी लक्ष्मी शंकर व्यास ने दुर्घटना के एक अत्यंत करुण दृश्य का मार्मिक शब्द-चित्र प्रस्तुत किया।
लाशों के इस समूह में बहुत से ऐसे व्यक्ति फँसे पड़े थे जो अभी जीवित थे और कराह रहे थे। लाशों के बीच से इन्हें हटाने वाला कोई नहीं था। कुछ दूर पर स्वयंसेवक थे, पर इस दृश्य से ऐसे दहल गए थे कि वे भी इन लाशों के पास न फटके। जब श्री सियाराम जी अपने पुत्र तथा पुत्री को इस समूह में खोज रहे थे तब उनके सम्मुख विचित्र दृश्य उपस्थित हुए।
'बाबू जी मुझे उठाइए'- अस्फुट शब्दों में एक युवक ने कहा। लाशों के मध्य डूबे एक अन्य व्यक्ति ने मंद स्वर में कहा- 'मुझे भी उठाइए। मैं वकील हूं। मेरा विवाह इसी वर्ष हुआ है। मेरा घर नष्ट हो जायेगा।'
इसी समूह के बीच पड़े दस-पाँच व्यक्तियों ने एक बार पानी माँगा और दूसरे ही क्षण दम तोड़ दिया।
सैंकडों लाशों का ढेर पड़ा था। घरों तक यहाँ सहायता के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया जा सका। यदि समुचित सहायता मिल पाती तो स॔भव था कि कुछ अमूल्य जानें बचाई जा सकतीं थीं। संगम क्षेत्र में प्राथमिक उपचार के कई केंद्र अवश्य थे, पर वहां न कोई डाक्टर था और न (उपचार का) कोई सामान ही। सब-कुछ अस्त-व्यस्त था।
(3)
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के सर्वाधिक लब्धप्रतिष्ठ सम्पादक श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर का अग्रलेख
मौनी अमावस्या 3 फरवरी 1954 के दिन प्रयाग के कुम्भ मेले में जो लोम-हर्षक घटना हुई उसके सम्बन्ध में वहाँ से अब लौट कर आने वाले अपने सहयोगियों तथा अन्य स्थानीय लोगों से जो बातें मालूम हुई हैं और हो रही हैं उन्हें देखते हुए हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि इस दुर्घटना का जो वर्णन समाचार पत्रों में सरकारी और गैर-सरकारी सूत्रों से प्रकाशित हुआ है उससे वस्तुस्थिति का ठीक परिचय नहीं मिलता। जो हुआ है वह अति भयंकर और अति खेदकारी है। इसके लिए यदि कोई दोषी है तो कुम्भ मेले के सरकारी प्रबन्धक कहे जा सकते हैं। सरकार की ओर से बड़े-बड़े लेख सारे देश में छपवा कर अधिक से अधिक लोगों को इस अवसर पर प्रयाग बुलाने का यत्न किया गया। उन्हें लाने के लिए खास ट्रेन चलायी गयी, परन्तु वहाँ पहुँचने पर उनकी रक्षा का कोई प्रबन्ध अधिकारी न कर सके। यही नहीं, उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि क्या करना होगा। उनके पक्ष में हम अधिक से अधिक इतना ही कह सकते हैं कि इतनी बड़ी भीड़ का सुप्रबन्ध करना सम्भव भी नहीं था। परन्तु जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, अधिकारियों का दोष यही था कि इसकी पहले उन्होंने कल्पना ही नहीं की और अधिक लोगों को वहाँ लाने का यत्न किया। वर्तमान समय में रेलों की सुविधा के कारण साधारण स्थिति के देहाती नर-नारी बच्चों सहित ऐसे बड़े-बड़े मेलों में पुण्य प्राप्त करने के लिए जमा होते हैं, परन्तु उस पुण्य का मूल्य उन्हें चुकाना पड़ेगा, इसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते। इसका फल उनको हाथो-हाथ भोगना पड़ा। हजारों आदमियों को वहीं पुण्य उपार्जन करने के लिए एकत्र लाखों की भीड़ के पैर तले पड़ कर तुरत स्वर्ग प्राप्त करना पड़ा। पैसा कमाने के लिए गये हुए सैकड़ों भिखारी वहीं संगम के तट पर सदा के लिए पैसा कमाने की फिक्र से मुक्त हो गये। जो मर गये वे तो गये, पर हम लोगों के लिए एक सबक छोड़ गये हैं। यदि हम इससे लाभ उठायें तो सम्भव है कि आगामी कुम्भों या ऐसे ही मेलों के अवसर पर ऐसी पैशाचिक दुर्घटना होने न पायेगी ।'
दुर्घटना के कारणों के सम्बन्ध में दो बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। एक तो उच्चपदस्थ अनेक अधिकारियों का स्वयं संगम स्थान से पुण्य उपार्जन करने का मोह। उत्तर प्रदेश तथा अन्यान्य स्थानों के भी मन्त्री वहाँ पुण्यार्जन के लिए एकत्र हो गये, परन्तु जनता के साथ मिल कर जनता के समान पुण्य उपार्जन करने की इनमें न प्रवृत्ति थी, न चेष्टा। ये स्नान के लिए जाते रहे तो सिविल पुलिस इनकी रक्षा में नियत हो जाती थी। इनके कैम्पों की रक्षा में पुलिस नियत थी। इनके स्नान के समय जनता संगम तक पहुँच भी नहीं सकती थी। जब वे लोग इस प्रकार पुण्यार्जन कर के वहाँ से हट जाते थे तब जनता के लिए राह खुलती थी। हम पूछते हैं कि जिन अधिकारियों की श्रद्धा सनातन धर्म की इस व्यवस्था पर थी, क्या वे जनता के हो कर जनता के साथ पुण्योपार्जन नहीं कर सकते थे? उनके लिए जो विशेष व्यवस्था की गयी उससे साधारण जनता को कितना कष्ट भोगना पड़ा इसकी क्या कोई भी कल्पना इन महाजनों और अधिकारियों को है? हम भारत की श्रद्धाशील जनता की ओर से अत्यन्त विनय के साथ यह प्रश्न करते हैं। क्या हम आशा करें कि अमृत कुम्भ को विषकुम्भ बनाने वाली इस दुर्घटना की जांच करने के लिए जो त्रिमूर्ति-कमेटी बनायी गयी है वह इस बात पर भी विचार करके निर्भयता के साथ अपना मत व्यक्त करेगी? अस्तु। दुर्घटना का एक कारण तो अधिकारियों की बहती गंगा में पुण्यार्जन लिप्सा रही। दूसरा कारण वहाँ एकत्र बड़े-बड़े साधुओं और अखाड़ों के महन्तों की झाँकियाँ थीं। ये लोग सोने-चाँदी को अंबारियों पर बैठ कर संगम-स्नान करने को पधारे थे। जब वे स्नान करने जा रहे थे तो इनके सिर पर जरदोजी काम के छत्र लगे थे। बहुत से अवधूत अपनी अवधूतिनियों को भी साथ ले कर जुलूस निकालते और उनके मार्ग में जो आते थे उन पर क्रोध, अपशब्द और कदाचित प्रहार भी करना इनका बायें हाथ का खेल था । इनकी चरणरज लेने के लिए उत्सुक नर-नारियों की भीड़ पर इनकी क्रोध-वर्षा बराबर होती रहती थी। साधारणतः हम समझते हैं कि बहुत से लोग इनकी पवित्र चरण धूलि लेने के लिए इनके निकट नहीं जाते थे बल्कि इनका नग्नावतार देखने की उत्सुकता उन्हें इन तक ले जाती थी और उसके कारण उन्हें फिर प्रहार और अभिशाप दोनों ही झेलने पड़ते थे।
हम पूछते हैं कि कुम्भ के जो कुछ वर्णन इतिहास में प्राप्त होते हैं उनमें कहीं ऐसे साधुओं, अखाड़ों, नग्न अवधूतों और अर्धनग्न अवधूतिनियों के वर्णन मिलते हैं? इन दलों की प्रवृत्तियों को उत्तेजन देते हुए मेला अधिकारियों ने इनकी रक्षा की ओर अधिक ध्यान दे कर उन लोगों की रक्षा का ख्याल नहीं किया जो वस्तुतः पुण्य-सलिला गंगा-यमुना-सरस्वती की धारा में अवगाहन में श्रद्धा रखते हुए वहाँ अनेक कष्ट उठा कर भी एकत्र हुए थे। पर विधि-विडम्बना यह है कि जो वास्तविक श्रद्धा से वहाँ गये थे उनको ही सबसे अधिक कष्ट भोगना पड़ा। अधिकारी भी उनके ही मार्ग में व्याघातक सिद्ध हुए और तथाकथित साधु-सन्तों के जुलूस भी उन्हीं के लिए घातक हुए। इस पर्व की यह कितनी बड़ी विडम्बना है। प्राचीन इतिहास और ग्रन्थों के अध्ययन से जाना जाता है कि ये पर्व पहले भारतीय संस्कृति की उन्नति, शास्त्र और काव्य के प्रचार केन्द्र हुआ करते थे। देश के कोने-कोने से विचारशील दार्शनिक और कल्पना पुत्र कवि अपनी-अपनी रचनाएँ ले कर इन मेलों में पहुँचते थे। वहाँ प्रत्येक की रचना पर देश भर के अन्य विचारशील दार्शनिक तथा कवि विचार करते थे, इन पर चर्चा होती थी और बहुत से ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ बना कर देश भर में उनका प्रचार किया जाता रहा। उस समय छापेखाने नहीं थे, पर एक की रचना सारे देश में प्रचलित हो जाती थी। इसका साधन ये ही मेले हुआ करते थे। भारतीय संस्कृति यहीं पनपती थी। किसी एक स्थान के बहुत बड़े दार्शनिक अथवा बहुत बड़े कवि की कीर्ति सारे देश में यहीं से फैल जाती थी। इन मेलों का उस समय यही महत्त्व था। परन्तु अब उनका स्थान तथाकथित साधुओं, महन्तों और गुरुजनों के प्रदर्शन ने ग्रहण कर लिया है। इससे भी बड़ी खेद की बात यह है कि जो लोग आज देश, प्रान्त और जिलों के अधिकारी हैं तथा बड़ी-बड़ी संस्थाएँ जिनके प्रबन्ध में पनप सकती हैं वे भी गंगा-यमुना के संगम में स्नान करके जनता में अपनी कीर्ति फैलाने के उत्सुक दिखाई देते हैं। इन स्नानार्थी अधिकारियोंमें राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जैसा वस्तुतः सनातन धर्मविश्वासी और सरल चित्त अधिकारी शायद दूसरा ढूँढ़े न मिलेगा। अन्य अधिकारियों में अधिकतर ऐसे थे जो उपर्युक्त साधु-सन्तों के समान संगम में स्नान करके अपनी कीर्ति और प्रभाव बढ़ाना चाहते थे। हम कह सकते हैं और दुःख के साथ कहना पड़ता है कि ऊपर लिखे दो कारण गत मौनी अमावस्या के भयावने पैशाचिक काण्ड के प्रवर्त्तक हुए। इन दोनों ने मिल कर अमृत कुम्भ को विषकुम्भ बना दिया और देश भर के हजारों घरों में हाहाकार मचा दिया।
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