अवधेश प्रीत की कहानी 'कौतुक-कथा'
![]() |
अवधेश प्रीत |
मानव सभ्यता ने वैज्ञानिक विकास के चलते आज ऊंचाइयों के जो प्रतिमान स्थापित किए हैं उनका कोई सानी नहीं है। लेकिन इसका एक दूसरा आयाम भी है जो भयावह है। विकास के क्रम में हमने जो रास्ते अख्तियार किए, वे हमें उस तरफ ले कर जा रहे हैं जहां तबाही के अलावा कुछ भी नहीं दिखता। इस पृथ्वी को हरियाली का जीवनदाई आवरण प्रदान करने वाले पेड़ पौधों को हमने जिस अंधाधुंध अंदाज में समाप्त किया है अब वह जलवायु परिवर्तन के रूप में दिखाई पड़ने लगा है। हमने ऐसे हथियार बना लिए हैं जिससे इस पृथ्वी को कई बार तबाह किया जा सकता है। विकास के क्रम में हम उन आदर्शों और नैतिकताओं को लगातार दरकिनार करते जा रहे हैं जो हमें सचमुच इंसान की शक्ल देते रहे हैं। रचनाएँ बहुत कुछ हमारे अपने बीते हुए को आधार बना कर लिखी जाती हैं। लेकिन कुछ रचनाएं ऐसी भी होती हैं जो हमें भविष्य की भयावहता की तरफ आईना दिखाती हैं। कुछ इसी अंदाज की कहानी है अवधेश प्रीत की 'कौतुक कथा।' अपनी कहानी में अवधेश लिखते हैं 'बच्चों, मेरे प्यारे बच्चो! मैं जो कह रहा हूं उस पर विश्वास करो, क्योंकि विश्वास दुनिया को बेहतर बनाने की पहली शर्त है! तुम्हारे अंदर विश्वास है तो तुम हर मुश्किल को आसान बना सकते हो। लेकिन तुम्हारी मुश्किल यह है कि तुम आसान रास्तों के अभ्यस्त हो गए हो। तुम अपने लक्ष्य को येन-केन-प्रकारेण पाने के लिए तत्पर हो। तुम्हारे लिए 'आदर्श' का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि तुम्हारे पास कोई 'आदर्श' नहीं है। तुम्हारा कोई 'आदर्श' नहीं है। तुम्हारे अंदर कोई 'नैतिक मूल्य' नहीं है, क्योंकि तुम्हारे लिए अपनी कामयाबी ही मूल्यवान है और उसके लिए तुम कोई भी मूल्य चुकाने को तैयार हो, चाहे वह नैतिक हो चाहे अनैतिक।' भले ही ये पंक्तियां कहानी का हिस्सा हैं लेकिन यह हमारे जीवन का एक कड़वा सच भी तो है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवधेश प्रीत की कहानी 'कौतुक कथा'।
'कौतुक-कथा'
अवधेश प्रीत
सुबह-सुबह बच्चे अपने घरों से स्कूल जाने के लिए निकले ही थे जब यह कौतुक हो गया !
सड़क किनारे खड़ा वह अजीब-सा आदमी बच्चों के लिए पहले तो अजनबीयत फिर वैचित्रय और अंततः औत्सुक्य का कारण बना। बच्चों के पांव अनायास ठिठक गए। वे सभी हालांकि सभी सख्त अनुशासन से बंधे थे और उनका अपने स्कूलों में 'राइट टाइम' पहुंचना अनिवार्य था, लेकिन उनके पांव ठिठक गए। बच्चों के माता-पिताओं की कड़ी हिदायत थी, कि वे घर से सीधे स्कूल जाएं। लेकिन वे रुक गए, गो कि वे रुकना नहीें चाहते थे। लेकिन उनके पांव थम गए।
बच्चे उस अजनबी के इर्द-गिर्द इकट्ठा होते जा रहे थे। उनकी कम्प्यूटर संचालित आटोमेटिक स्कूल बसें उनके स्टाप पर आईं, अपने निर्धारित अवधि तक रुकीं, फिर बढ़ गईं। बसें खाली थीं। उनमें बच्चे नहीं थे।
बच्चे उस आदमी के चारों ओर उत्सुकता का घेरा डाले उसे गौर से देख रहे थे। उस अजनबी को बच्चों ने पहले कभी नहीं देखा था। उसके चेहरे पर न तो तनाव था, न ही थकान थी। इसके ठीक विपरीत उसका चेहरा दप-दप दमक रहा था मानो उसके चेहरे से कोई आभा फूट रही हो। उसकी आंखों में न तो गहरी लाली थी, न ही पसरा पड़ा अंधेरा था। इतनी साफ-सुंदर आंखें बच्चों ने पहली बार देखी थीं। उसके शरीर पर वैसे सुंदर-साफ, चमकीले कपड़े नहीं थे जैसे उनके पिता या कि नगर के दूसरे लोग पहनते थे। लेकिन उस अज़नबी ने जो वस्त्र पहन रखा था, वह विचित्र होते हुए भी आकर्षक था। हालांकि बच्चे आकर्षण के इस कारण को ठीक-ठीक समझ पाने या समझा पाने की स्थिति में नहीं थे।
वह अजनबी सिर झुकाए कुछ बुदबुदा रहा था। उसकी आवाज इतनी मद्धिम थी कि बच्चे कुछ भी साफ-साफ न सुन पा रहे थे न समझ पा रहे थे। उनकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। वे उसकी आवाज सुनने के लिए उसके और करीब चले आए। उस अजनबी ने अपने इर्द-गिर्द एकत्र हो आए बच्चों को सिर उठा कर देखा। उसके होंठों पर एक गहरी और निहायत कोमल-सी मुस्कुराहट खिल आई। बच्चे चकित! उनके भीतर गुदगुदी-सी महसूस हुई। ऐसी तलस्पर्शी मुस्कुराहट बच्चों ने पहली बार देखी थी। वे अपने अगल-बगल खड़े दूसरे बच्चों को देखने लगे। सभी मंत्रमुग्ध-से दिखे मानो जागी आंखों से सपना देख रहे हों। कुछ बच्चों ने अपनी कलाइयों से बंधी इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों के नॉब दबाए। घड़ी से फीडेड आवाज आई। इस वक्त सुबह के सात बज रहे हैं। उन्हे यकीन हुआ कि यह सुबह है और वे कोई सपना नहीं देख रहे हैं।
अजनबी ने अपने करीब एक गदबदे बच्चे के सिर पर हाथ फेरा। सबने देखा कि उसका चेहरा रौशन हो रहा है। उसकी आंखों में चमक आ गई है। और गजब तो यह कि उसके होठों पर निहायत मीठी, नरम मुस्कुराहट उभर आई है। वह बच्चा जो अभी-अभी घबराया-सा दिख रहा था... अब बेहद इत्मीनान से भरा लग रहा था। दूसरे बच्चे भी इस घटना से आश्वस्त हो गए थे, कि वह विचित्र-सा दिखता अजनबी चाहे कुछ भी हो, उनके लिए नुकसानदेह नहीं है।
वह अजनबी, जो थोड़ी देर पहले बहुत मद्धिम स्वर में बुदबुदा रहा था, अब कुछ ज्यादा जोर से बोलने लगा था। उसकी आवाज अब कहीं ज्यादा साफ और समझ में आने लायक थी। हालांकि उसकी आवाज इतनी शांत थी मानो कोई प्रार्थना में लीन हो... इतनी गहरी जैसे शब्द अतल गहराइयों से फूट रहे हों... स्वर इतना मुलायम गोया आवाज नहीं शबनम की बूंदें हों। बच्चों के लिए यह आवाज हैरतअंगेज थी। न खीझ... न ऊब... न चिड़चिड़ाहट... न हड़बड़ाहट। उनके कानों को राहत के फाहे से सहलाती हुई आवाज़ थी यह।
वह अजनबी अपनी उसी नरम मुस्कुराहट और गहरे शांत स्वर में बोले जा रहा था, 'बच्चों, मेरे प्यारे बच्चों! तुम्हें अपने पास पा कर मुझे बेहद खुशी हो रही है। मुझे मालूम है कि तुम देश और समय की सीमाओं से परे हो। तुम सही और गलत की हर चालाकी से दूर हो। तुम जहां भी हो... अपनी सम्पूर्णता में एक जिज्ञासु... निर्मल और ऊर्वर मन-मस्तिष्क के साथ मौजूद हो! तुम्हारे होने से ही यह दुनिया खूबसूरत है और तुम जब तक हो यह दुनिया खूबसूरत रहेगी।'
वह अजनबी उन बच्चों को स्नेह से निहारते हुए पल भर को ठिठका, कि बच्चों के दिमाग कम्प्यूटर की तेजी से सक्रिय हो गए। उनकी शिराओं में 'तुम्हारे होने से ही यह दुनिया खूबसूरत है' वाक्य अंटक कर रह गया। वे न तो इस वाक्य का अर्थ समझ पाए, न ही उन्होंने ऐसा वाक्य पहले कभी सुना था। वे विचित्र उलझन में पड़ गए थे। एक-दूसरे को देखते हुए उनकी आंखों में अनसुलझा-सा प्रश्न तैर रहा था।
वह अजनबी शायद बच्चों की मनःस्थिति भांप गया था। उसने अर्थपूर्ण मुस्कुराहट के साथ अपनी बात जारी रखी, 'बच्चों, मेरे प्यारे बच्चो! मैं जो कह रहा हूं उस पर विश्वास करो, क्योंकि विश्वास दुनिया को बेहतर बनाने की पहली शर्त है! तुम्हारे अंदर विश्वास है तो तुम हर मुश्किल को आसान बना सकते हो। लेकिन तुम्हारी मुश्किल यह है कि तुम आसान रास्तों के अभ्यस्त हो गए हो। तुम अपने लक्ष्य को येन-केन-प्रकारेण पाने के लिए तत्पर हो। तुम्हारे लिए 'आदर्श' का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि तुम्हारे पास कोई 'आदर्श' नहीं है। तुम्हारा कोई 'आदर्श' नहीं है। तुम्हारे अंदर कोई 'नैतिक मूल्य' नहीं है, क्योंकि तुम्हारे लिए अपनी कामयाबी ही मूल्यवान है और उसके लिए तुम कोई भी मूल्य चुकाने को तैयार हो, चाहे वह नैतिक हो चाहे अनैतिक।'
बच्चे उस अजनबी को फटी-फटी आंखों से देख रहे थे। उस अजनबी की शब्दावली इतनी कठिन और अपरिचित थी, कि वे एकदम से परेशानी महसूस करने लगे। न समझ में आने के बावजूद उस अजनबी की आवाज में अजीब-सा सम्मोहन था और वे उसे लगातार सुनते जाने के मोह में बंध-से गए थे। उनके भीतर अजीब-सी हलचल पैदा होने लगी थी मानो बेहद सख्त-सी कोई परत टूट रही हो और वे चाहकर भी उसे रोक पाने में सक्षम न हों।
वह अजनबी, जिसकी आवाज किसी अजनबी प्रदेश-सी आती मालूम पड़ रही थी पूर्ववत बोले जा रहा था, 'बच्चों! मेरे प्यारे बच्चो!! लेकिन यह ठीक नहीं है, क्योंकि तुम एक भयावह भविष्य की ओर धकेले जा रहे हो... एक बदसूरत दुनिया के नागरिक बनाये जाने के लिए तैयार किए जा रहे हो। तुम नहीं जानते कि तुम क्या कर रहे हो... कहां जा रहे हो, क्योंकि तुम मासूम हो... तुम सही और गलत का चालाकी भरा फर्क नहीं जानते, इसलिए तुम जो कर रहे हो, उसके लिए तुम दोषी नहीं हो... परन्तु जो दोषी हैं, उन्हें पहचानने की जरूरत है।'
बच्चे अपनी सांसें रोक कर उस अजनबी की बातें सुन रहे थे। उस अजनबी ने अपने उलझे बालों में उंगलियां फिराईं और माथे पर चमकती पसीने की बूंदों को दाहिने हाथ की हथेली से पोंछा। बच्चों ने उसकी इस क्रिया को कौतुहल से देखा। उस अजनबी के माथे पर चमकी बूंदें उन्हें अच्छी लगीं और उन्हें आश्चर्य हुआ कि उन्होंने ऐसी बूंदें कभी अपने माता-पिता के माथे पर क्यों नहीं देखीं?
इस बार वह अजनबी बच्चों की मनःस्थिति भांप नहीं पाया था शायद, क्योंकि वह अपनी ही धुन में अपनी बात जारी रखे हुए था, 'बच्चों! मेरे प्यारे बच्चो!! जो बच्चों को एक बदसूरत और अमानवीय दुनिया में धकेल रहे हैं, वे हत्यारे हैं। हां, उनकी पहचान आसान नहीं है, क्योंकि उनके चेहरे पर तुम्हारा हितैषी होने का मुखौटा चढ़ा है। दरअसल, इस मुखौटे के पीछे एक हिंस्र चेहरा है, इससे पहले कि वह हिंस्र चेहरा तुम्हें विरासत में मिले, तुम उनसे पूछो कि यह धरती इतनी बेरौनक क्यों है? नदियां इतनी जहरीली क्यों हैं? पर्वत वीरान क्यों हैं? फूलों वाले पौधे कहां गए? फलों वाले पेड़ क्यों नहीं होते?'
बच्चों की उलझन बढ़ती जा रही थी। लाख कोशिशों के बावजूद उनके मस्तिष्क में कोई ऐसी आकृति नहीं उभर रही थी, जिसे वे फल... फूल... पेड़... पर्वत... नदी के रूप में पहचान पाते। चूंकि वे जिज्ञासु थे, इसलिए उस अजनबी के प्रति उनका आकर्षण स्वाभाविक था और उन्हें उम्मीद थी कि यह दिलचस्प आदमी उनकी जिज्ञासा का शमन अवश्य करेगा। लेकिन यह क्या? वह अजनबी तो अपनी ही धुन में खोया... अपनी ही बात कहने पर आमादा था, 'बच्चों! मेरे प्यारे बच्चों!! तुम्हारे बड़ों की दुनिया में भाग-दौड़... आपाधापी... मार-काट... भय... असुरक्षा क्यों है? तुम्हारे पिताओं की दुनिया में बम-बारूद... गोली-बंदूक... राकेट...मिसाइल का खौफ क्यों है? सुनो! वे तुम्हें यही सब कुछ विरासत में देना चाहते हैं। लेकिन नहीं... तुम उनसे कहो, पिता, अगर आप हमें कुछ देना ही चाहते हैं, तो प्यार के जजबात दीजिए... सत्य का सम्बल दीजिए... ईमानदारी की ताकत दीजिए... नैतिकता के तकाजे दीजिए, ताकि...।'
इससे पहले कि अजनबी की बात पूरी होती, सड़क पर सायरन बजाती गाड़ियों का शोर उभरा और बच्चे सकते में आ गए। ये सुरक्षा प्रहरियों की गाड़ियां थीं। उन गाड़ियों में से चुस्त-दुरुस्त रोबोट उतरे और पलक झपकते ही बच्चों को अपने घेरे में ले लिया। एक सीनियर रोबोट जिसकी आवाज में जबर्दस्त रौब था, बच्चों का मुआयना करने के बाद एक यंत्र को ऑन करके किसी को संदेश देने लगा, 'हैलो...हैलो, मैं डीसीपी एक्स बोल रहा हूं... सीपी साब से बात कराओ!'
कुछ पल की प्रतीक्षा के बाद डीसपी रोबोट ने फिर संदेश यंत्र पर बोलना शुरू किया, 'सर, बच्चे मिल गए हैं.... ये यहां सड़क किनारे एक अजनबी के इर्द-गिर्द खड़े हैं।... यस सर! इन बच्चों को उनके स्कूल में भेज दें? ओ के, सर! और यह अजनबी? ओ के सर! इसे ले कर में स्वयं आपके पास आता हूं। दैट्स ऑल, सर।'
डीसीपी रोबोट की बातें सुन कर बच्चों के चेहरे पीले पड़ गए थे । वे जो अभी-अभी अजनबी की बातें सुनते हुए तमाम चिंताओं से मुक्त थे, एकबारगी अपनी दुनिया के यथार्थ में लौट आए थे... ऐसा पहली बार हुआ था कि वे स्कूल के लिए घर से निकले थे, पर रास्ते में ही रुक गये थे। यह बेहद रोमांचक अनुभव था। उन्हें पहली बार महसूस हुआ था कि कोई आदमी इतनी दिलचस्प बातें कर सकता है... कि वे उसकी बातों में खोए हुए अपना वर्तमान भुला सकते हैं... लेकिन वर्तमान सामने था। डीसीपी एक्स के इशारे पर बच्चों को घेरे रोबोटों ने उन्हें अपनी गाड़ियों में बैठाया और उनके स्कूलों की ओर उड़ चले।
वह अजनबी जाते बच्चों को निश्च्छल मुस्कुराहट के साथ देखता हुआ अपनी जगह पर निश्चल खड़ा था। डीसीपी एक्स ने उसे निर्विकार भाव से देखा और अपना हाथ बढ़ा कर उसे अपनी गाड़ी की ओर खींचने लगा। वह अजनबी पूर्ववत मुस्कुराता हुआ स्वयं आगे बढ़ा। गाड़ी की सीट पर ड्राइवर नहीं था, फिर भी उस अजनबी और सभी रोबोटों के बैठने के साथ ही गाड़ी चल पड़ी।
बच्चे जो स्कूलों में पहुंचा दिए गए थे, अभी भी सामान्य नहीं हो पाए थे। एक तरफ अनुशासन तोड़ने का भय उन पर तारी था, तो दूसरी तरफ उस अजनबी की बातों का असर बरकरार था। वे न तो सजा भुगतने को राजी थे... न ही उस अजनबी की बातों को हवा में उड़ा देने को तैयार। ऐसे में, जब उनके टीचर्स ने उन्हें सजा सुनाई... वे विद्रोह की मुद्रा में आ गए। उनके ये तेवर देख कर टीचर्स आवाक रह गये। ऐसा पहली बार हुआ था कि बच्चों ने उनका आदेश मानने से इनकार किया था। बच्चों का रोष खतरनाक था... ऐसे में टीचर्स ने अपनी तरफ से कोई कार्रवाई करने के बजाय इस घटना की सूचना प्रिंसिपल को देना उचित समझा।
प्रिंसिपल को स्थिति की गंभीरता समझते देर नहीं लगी। इससे पहले कि हालात बिगड़ें, उसने स्वयं बच्चों से वस्तुस्थिति जानने की कोशिश की। बच्चों ने प्रिंसिपल के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। फूल... फल... पौधे... पेड़..... पर्वत... नदी... ईमानदारी... नैतिकता जैसी ऐसी अज्ञात-अपरिचित शब्दावलियां बच्चों के मुंह से सुन कर प्रिंसिपल का सिर चकरा गया। वह हक्का-बक्का-सा अन्य टीचर्स का मुंह ताकने लगा। काफी देर तक ऊहापोह की स्थिति रही। अंततः प्रिंसिपल ने सभी टीचर्स को आदेश दिया, 'आप सभी मिल कर इन शब्दों के अर्थ खोजें और बच्चों की जिज्ञासा का समाधान करें।'
सारे टीचर्स अपने कंप्यूटर पर टूट पड़े। स्क्रीन पर तरह-तरह की सूचनाएं उभरने लगीं ...ऑर्काइव्ज खंगाले जाने लगे... फ्लॉपीज... पेन ड्राइव्ज में सेव की गई जानकारियों को खोला गया... डाटा बैंक खंगाला गया... तमाम कोशिशें की गईं, लेकिन वे शब्दावलियां नहीं मिलीं... न कोई संकेत, न कोई आसार। टीसर्च परेशान। प्रिंसिपल परेशान। इंटरनेट फेल... कंप्यूटर ब्लैंक... सर्च इंजन 'सॉरी... नॉट अवेलेबल' बता-बता कर थक चुका था।
जबर्दस्त चुनौती थी यह। विद्वत समाज के सामने विकट समस्या आन खड़ी हुई थी। जंगल की आग की तरह फैली इस ख़बर से पूरे नगर में खलबली मच गई थी। आख़िरकार, आला दिमागों ने सिर जोड़ कर बैठकें कीं और अपने ज्ञान-विज्ञान के तमाम संचित संग्राहालयों-अकादमियों से संपर्क साधे। लेकिन हर जगह से उत्तर नदारद मिला। सारे सूचना केन्द्रों ने एक ही जवाब दिया, 'सॉरी, नॉट अवेलेबल।'
समस्या गंभीर से गंभीरतम होती गई तो सूचना नगराधीश तक जा पहुंची। नगराधीश स्वयं प्रकाण्ड विद्वान थे। विद्वानों के बीच उनका बड़ा आदर-सम्मान था। लेकिन आश्चर्य कि वह भी उन अनोखे... अनजाने शब्दों को सुन कर हत्प्रभ रह गए। उन्होंने अपनी निजी व भव्य डिजिटल लाइब्रेरी में बड़ी देर तक मगज़मारी की, लेकिन हाथ कुछ न लगा। वे शब्द वाक़ई दिलचस्प थे, इसलिए उनकी इच्छा हुई कि वह विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों की एक कमेटी बना दें, ताकि इस पर उनकी कोई विस्तृत रिपोर्ट आये और फिर उस रिपोर्ट के आधार पर कोई फैसला लें। इस बीच सुरक्षा महाप्रहरी ने सूचना दी कि अनोखे, अनजान शब्दावलियां बोलने वाला वह अज़नबी उनकी गिरफ़्त में है। यह ख़बर महत्वपूर्ण थी। प्रधान नागराधीश ने तुरंत सुरक्षा महाप्रहरी को आदेश दिया,' उस आदमी को फ़ौरन मेरे ऑफिस में पेश किया जाये।'
सुरक्षा महाप्रहरी जिस वक़्त उस अज़नबी को लेकर हाज़िर हुआ, प्रधान नगराधीश विशाल व भव्य वतानुकूलित कांफ्रेंस हॉल में मौज़ूद थे। उनके सामने पत्रकारों की भीड़ थी। उनके अगल-बगल विद्वानों का हुज़ूम था। पत्रकारों ने अपने कैमरे संभाल लिए थे। माइक्रोफोन चेक कर लिए थे। कुछ कैमरे ऐसे थे, जो इस घटना को लाइव टेलीकास्ट कर रहे थे। चारों ओर गहमा-गहमी थी। पूरे हॉल में सनसनी व्याप्त थी।
उस अजनबी को देखते ही कांफ्रेंस हॉल में चुप्पी छा गई। वहां मौजूद लोगों की आंखों में कौतुहल उभर आया।
वह अजनबी अपनी जगह पर खड़ा मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। उसकी मुस्कुराहट की कशिश से पूरे कांफ्रेंस हॉल में रोमांच की लहर दौड़ गई। कोई मुस्कुराहट इतनी असरदार हो सकती है, यह लोगों ने पहली बार महसूस किया। इस गर्मजोशी के माहौल में नगराधीश ने उस अजनबी का स्वागत करते हुए कहा, 'तुम चाहे जो भी हो, हमारे लिए महत्वपूर्ण हो, क्योंकि तुमने ज्ञान-विज्ञान के चरमोत्कर्ष पर खड़े हम लोगों के सामने चुनौती पेश की है। हम हर चुनौती स्वीकार करते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि हमने आज जो कुछ हासिल किया है, वह चुनौतियों का ही परिणाम है।'
वह अजनबी बगैर किसी प्रतिक्रिया के स्वभावतः मुस्कुराता रहा। कैमरे उसकी भाव-भंगिमाओं को कैद करने में मशगूल थे। पत्रकारों ने माइक्रोफोन ऑन कर दिए थे। पूरे नगर में इस घटना का सीधा प्रसारण शुरू हो गया था।
नगराधीश के चेहरे का क्लोजअप टी वी के पर्दे पर उभरते ही, अपने ड्राइंग रूमों में बैठे बच्चे घबरा गए। उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं। कानों में उंगलियां डाल लीें। थोड़ी देर को उनके भीतर गहरा अंधकार छा गया। इस अंधेरे से आतंकित बच्चों ने झट से अपनी आंखें खोल दीं। आश्चर्य! घोर आश्चर्य!! टी वी के पर्दे पर अब नगराधीश नहीं थे, बल्कि उनकी जगह उस अजनबी का चेहरा नज़र आ रहा था, जो उन्हें सुबह-सुबह स्कूल जाते हुए बस स्टॉप पर मिल गया था। अचानक ही बच्चों की आंखों में चमक आ गई। उनके चेहरे दमक उठे। वह अज़नबी टी वी के परदे पर भी ठीक वैसे ही मुस्कुरा रहा था, जैसे सुबह उनसे बातें करते वक्त मुस्कुरा रहा था.स्नेहिल... मोहक... मधुर... निष्कलुष।
पत्रकार उससे प्रश्न पूछ रहे थे। विद्वान उससे मुखातिब थे। विशेषज्ञ उसे घेर रहे थे। वह सबकी बातें सुन रहा था। फिर भी वह चुप था। बिल्कुल चुप। बच्चे हैरान थे कि जो आदमी सुबह उनसे इतनी लंबी-लंबी बातें कर रहा था, वह इस कदर चुप क्यों है? उसकी गहरी होती चुप्पी से उसकी शख्सियत रहस्यमय हो आई थी।
टी वी स्क्रीन पर पूछताछ... सवाल-ज़वाब... जिज्ञासाओं का समवेत स्वर अब शोरोगुल में बदलने लगा था। इससे पहले कि इस शोर को कम करने के लिए बच्चे अपने टी वी सेटों के रिमोट कंट्रोल के बटन दबाएं, उस अजनबी के होंठ हिले। फिर धीरे-धीरे उसका धीर-गंभीर स्वर उभरने लगा, 'आप मेरे शब्दों को अनोखा... अनजान और अपरिचित समझ रहे हैं, क्योेंकि आपके पास अपनी स्मृतियां नहीं हैं... परंपरा नहीं है... आपके पास सामूहिक चेतना नहीं है... आपके पास अपना कुछ भी मौलिक नहीं है। जिन कौमों के पास स्मृतियां नहीं होतीं, उनके पास अपना इतिहास नहीं होता, जिनके पास मौलिकता नहीं होती, उनके पास अपनी पहचान नहीं होती। आपके पास मेरे बोले शब्दों के अर्थ नहीं हैं। वे इसलिए नहीं हैं, क्योंकि मेरे शब्द आचरण की मांग करते हैं और आचरण के बगैर ये बेमानी हैं... अर्थहीन हैं।'
अपनी बात पूरी कर के उस अजनबी ने एकदम से चुप्पी साध ली। एकबारगी टी वी स्क्रीन पर सन्नाटा छा गया। फिर माइक्रोफोन पर बोलता हुआ एंकरपर्सन धीरे-धीरे सामने आया और घोषणा की, 'आइए, अब हम जानते हैं, अपने माननीय विद्वान और प्रधान नगराधीश महोदय की राय।'
इस घोषणा के साथ ही बच्चों ने अपने टी वी सेटों को ऑफ कर दिया। सामने एक तेज चमक लपकी और स्क्रीन काला पड़ गया।
प्रधान नगराधीश ने कोई कमेंट करने से इनकार करते हुए सिर्फ इतना कहा, 'हम पूरी स्थिति पर गौर कर रहे हैं। फ़िलहाल जल्दबाजी में किसी निर्णय पर पहुंचना ठीक नहीं होगा। शासन ने विद्वानों की एक कमेटी बना दी है, जो इस अज़नबी के बाबत पूरी जानकारी हासिल करेगी। इस टीम में रिटायर्ड चीफ जज के अलावा एक सांसद, एक यूनिवर्सिटी वाइस चांसलर, एक सीनियर ब्यूरोक्रेट, एक टेक्नोक्रेट और एक ट्रेड यूनियन के प्रतिनिधि शामिल हैं। इन्हें चौबीस घंटे के भीतर रिपोर्ट देने को कहा गया है।'
प्रधान नागराधीश की इस घोषणा के बाद पूरे नगर की निगाहें उस रिपोर्ट पर टिकी थीं, जो किसी समय भी आ सकती थी। समय तेजी से गुजर रहा था। प्रधान नगराधीश नगर की उत्सुकता और बेचैनी को ले कर चितिंत थे, इसलिए वह स्वयं कमेटी से लगातार सम्पर्क साधे हुए थे। लेकिन कमेटी किसी ठोस नतीजे पर पहुंचती नहीं दिख रही थी। प्रधान नगराधीश भीतर ही भीतर उद्विगन हो आए थे।
देर रात गए जबकि वह तमाम कोशिशें करके हार गए थे, नींद उनकी आंखों तक आने का नाम नहीं ले रही थी। उन्हें अचानक कुछ ख्याल आया। इस ख़याल के साथ ही उन्हें बिजली का झटका-सा लगा। वह बेड से उठ कर लगभग दौड़ते हुए अपने गोपनीय कंप्यूटर रूम की ओर भागे। उन्होंने डिस्क, फ्लॉपियों, पेन ड्राइव के ढेर में जल्दी-जल्दी कुछ ढूंढना शुरू कर दिया। ढेरों फ्लॉपियों के बीच अंततः एक ऐसी फ्लॉपी उनके हाथ लगी, जो उनके काम की थी। उन्होंने उस फ्लॉपी को सीपीयू में डाला... बटन दबाया...कंप्यूटर स्क्रीन पर कुछ संकेत उभरे, फिर संदेश उभरे, 'कंप्यूटर की एक सीमा है, यह सिर्फ उतना ही बताता है, जितना इसमें फीड किया जाता है। लेकिन ज्ञान की सीमा नहीं है, क्योंकि मानव मस्तिष्क जिज्ञासु है। यह जिज्ञासा सिर्फ तब तक ठीक है, जब तक कि वह राज-काज, सत्ता और सिंहासन के प्रति जिज्ञासु न हो, इसलिए इस ज्ञान को बांधो... क़ैद कर लो... ज्ञान के समूचे स्रोतों-संसाधनों में सिर्फ़ वह फीड करो, जिसके बाहर मनुष्य कुछ न सोचे... बल्कि सिर्फ वह सोचे जो कंप्यूटर सोचता है... ज्ञान का कंट्रोल सदा हमेशा अपने हाथ में रखो।'
संदेश की अंतिम पंक्तियां पढ़ते हुए प्रधान नगराधीश के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। उन्होंने हड़बड़ा कर फ्लॉपी को कंप्यूटर से बाहर निकाला और उसे गुप्त तहखाने में डाल कर ताला जड़ दिया। प्रधान नगराधीश अपने निजी कार्यालय में आए और विद्वानों की कमेटी से संपर्क साधने लगे।
अगली सुबह जब बच्चे अपने स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे, टी वी पर सुबह का समाचार प्रसारित हो रहा था। बच्चों को समाचारों में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन ब्रेकफास्ट खाते उनके मुंह अचानक खुले के खुले रह गए, जब उन्होंने समाचार में उस अजनबी के बारे में सुना। न्यूजरीडर निहायत निर्विकार भाव से खबर पढ़ रहा था, 'वह अजनबी आदमी, जो कल नगर में बच्चों को बरगलाता हुआ पकड़ा गया था.... बेहद खतरनाक प्राणी है। उसके बारे में विद्वानों की कमेटी ने जो रिपोर्ट दी है, वह चौंकाने वाली है। सरकार ने उस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया है, क्योंकि उससे नगर की सुरक्षा खतरे में पड़ जाने की आशंका है। ताजा सूचना के मुताबिक सरकार ने उस अजनबी की उच्चस्तरीय जांच कर मुकदमा चलाने का फैसला किया है।'
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 09431094596
अपनी तरह की खास और शानदार कहानी है - जिस भावनाहीन और सत्ता नियंत्रित समाज की ओर हम कदम बढ़ा रहे हैं उसकी पूर्व सूचना देने की दृष्टि इस कहानी में है। अवधेश जी अपने समय और समाज के प्रतिनिधि स्वर हैं।
जवाब देंहटाएंयादवेन्द्र