यादवेन्द्र का आलेख 'फूल फल पौधे पेड़ पर्वत नदी'

 

अवधेश प्रीत 


इतिहास गवाह है कि आक्रांता जातियां सबसे पहले अतीत के उन साक्ष्यों पर प्रहार करती हैं जो पराजितों के अन्दर गर्व की भावना का संचार करती हैं। इस क्रम में आक्रांता पराजितों की संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास करता है। क्योंकि उसे यह बात अच्छी तरह मालूम है कि जिसकी अपनी कोई संस्कृति नहीं उसे स्वतन्त्रता से भी कोई सरोकार नहीं। यूरोपीय औपनिवेशिक देशों ने दक्षिण अमरीका, अफ्रीका और एशिया के जिन देशों को अपना गुलाम बनाया वहां यह काम उन्होंने बखूबी किया। इसी क्रम में कई देशों की अपनी मूल भाषाएं तक नष्ट हो गईं और वे अपने स्वामी राष्ट्र की भाषा ही लिखने बोलने लगे। जाहिर सी बात है कि उस भाषा में वे अपना विरोध और आक्रोश उस तरह व्यक्त नहीं कर सकते थे जैसा वे अपनी बोली भाषा में कर सकते थे। यादवेन्द्र अपने कॉलम के अंतर्गत इस बार अवधेश प्रीत की कहानियों की चर्चा करते हुए उचित ही लिखते हैं 'सत्ता चाहे कितनी भी निरंकुश और नृशंस हो और इंसान कितना भी दुर्बल हो, सदियों से चली आ रही उसकी प्रगति यात्रा संकल्पों, बलिदानों और अवरोधों पर विजय प्राप्त करते रहने का प्रमाण है।' आजकल पहली बार पर हम प्रत्येक महीने के पहले रविवार को यादवेन्द्र का कॉलम  'जिन्दगी एक कहानी है' प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत वे किसी महत्त्वपूर्ण रचना को आधार बना कर अपनी बेलाग बातें करते हैं। कॉलम के अंतर्गत यह तीसरी प्रस्तुति है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख 'फूल फल पौधे पेड़ पर्वत नदी'।



'फूल फल पौधे पेड़ पर्वत नदी' 


यादवेन्द्र 



हमें यह याद रखना चाहिए कि लिखा कैसे जाता है  
और यह भी कि स्मृति बचाने के लिए लिखना जरूरी है
ताकि सत्य का अस्तित्व बचा रहे।


हुआ यूँ कि एक जापानी उपन्यास मेमोरी पुलिस पढ़ते हुए मैं इतना उत्तेजित था कि साथियों के साथ इसको साझा करना जरूरी लगा। एक दिन बगैर किसी पूर्वयोजना के मैं अपने मन में इकट्ठा बैठी हुई और उथल-पुथल मचाती हुई बातें साझा करने की इच्छा लिए घर से निकला और गंगा किनारे चलते हुए कथाकार मित्र अवधेश प्रीत के यहाँ चला गया - जाहिर था मन में जितनी बातें बैठी थीं वह सब एक सांस में उन्हें बताता चला गया। अंत में अपना यह रोष भी प्रकट करने से नहीं चूका कि मैं हिंदी में किसी ऐसी विस्तृत कृति के बारे में नहीं जानता जो आने वाले समय को इस रूप में देखती हो, पकड़ती हो और उसके बारे में पाठकों को आगाह करती हो। दुनिया में विषयों की कमी नहीं है लेकिन हम बहुत सीमित दायरे में गोल गोल घूमते रहते हैं - हमें विधाओं के पारंपरिक दायरे और चिर परिचित विषयों की बहुत फ़िक्र रहती है। इसी लिए हम विमर्श खड़ा करने के बड़े लक्ष्य और दायित्व से दूर दूर बने रहते हैं। मैंने अवधेश प्रीत से कहा कि हिंदी की ऐसी रचनाओं के बारे में मुझे शिक्षित करें।


मेरी बातें उन्होंने बहुत गंभीरता से सुनीं और अपनी एक कहानी कौतुक कथा का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि मैंने लगभग इन्हीं चिताओं को इन्हीं संभावनाओं को इस कहानी में दशकों पहले व्यक्त किया था... ध्यान रखें यह मेरी एकदम शुरुआती कहानी है।


एकदिन सुबह स्कूल जाते बच्चों की बस बीच में रुकती है और एक अजनबी बच्चों से मुखातिब होता है - बेहद शालीन, चमकता चेहरा, तलस्पर्शी मुस्कुराहट, मीठी और नई बातें बताने वाला अजनबी इंसान।


'तुम्हारे होने से ही यह दुनिया खूबसूरत है और तुम जब तक हो यह दुनिया खूबसूरत रहेगी।', वह बच्चों से कहता है।


वह उन्हें विश्वास और नैतिक मूल्य की जरूरत बताता है... आसान रास्तों का अभ्यस्त नहीं होने और अपनी कामयाबी को ही अंतिम लक्ष्य न मान लेने को कहता है। पर उसकी शब्दावली इतनी कठिन और अपरिचित थी कि बच्चों को कुछ समझ नहीं आया।


वह आगे कहता है: ' तुम भयावह भविष्य की ओर धकेले जा रहे हो और तुम्हें बदसूरत और अमानवीय दुनिया का नागरिक बनाया जा रहा है.... पर यह दोष तुम्हारा नहीं है। जो दोषी हैं उन्हें पहचानने की जरूरत है। 


वे हत्यारे हैं पर चेहरे पर हितैषी के मुखौटे लगाए हुए हैं।' 


इसी रौ में वह धरती के बेरौनक, नदियों के जहरीली, पर्वतों के वीरान, पौधों से फूलो फलों के लुप्त होते जाने की क्रूर सच्चाई  बच्चों को बताता है। लाख कोशिशों के बावजूद बच्चों के उर्वर मस्तिष्क में कोई ऐसी आकृति नहीं उभर रही थी जिसे वह फल, फूल, पेड़, पर्वत, नदी के रूप में पहचान पाते। 


(यहाँ योको ओगावा के जापानी उपन्यास में उठाई गई चिंता
शब्दांतर के साथ समान सरोकार के साथ दिखाई देती है।)


'अपने पिताओं से कहो: पिता, अगर आप हमें कुछ देना चाहते हैं तो प्यार के जज़्बात, सत्य का संबल, ईमानदारी की ताकत, नैतिकता के तकाज़े दीजिए।', अजनबी बच्चों को समझाता है।उसने बच्चों को जिस फूल, फल, पौधे, पेड़, पर्वत, नदी, ईमानदारी और नैतिकता के बारे में बताया वह सबके लिए अज्ञात अपरिचित शब्दावली थी... इसलिए खतरनाक भी।


और यही अजनबी का द्रोह और अपराध बन जाता है। बात यह है कि बच्चे तो बच्चे उनके टीचर, प्रिंसिपल, विद्वत समाज, नगराधीश, न्यायाधीश और सुरक्षा महाप्रहरी तक कोई भी इस शब्दावली से परिचित नहीं था - उन्हें इन बातों का कोई अर्थ और मर्म समझ ही नहीं आ रहा था।


'ये आपको अनोखे, अनजान और अपरिचित शब्द इसलिए लग रहे हैं क्योंकि आपके पास अपनी स्मृतियाँ नहीं है, परंपरा नहीं है। आपके पास सामूहिक चेतना नहीं है। आपके पास अपना कुछ भी मौलिक नहीं है। जिन कौमों के पास स्मृतियाँ नहीं होतीं उनके पास अपना इतिहास नहीं होता। जिनके पास मौलिकता नहीं होती उनके पास अपनी पहचान नहीं होती। आपके पास मेरे बोले शब्दों के अर्थ नहीं हैं, वे इसलिए नहीं है क्योंकि मेरे शब्द आचरण की मांग करते हैं और आचरण के बगैर ये बेमानी हैं, अर्थहीन हैं।' यह अजनबी द्वारा कहा गया कहानी का सूत्र वक्तव्य है।






इस असमंजस और उहापोह के बीच सत्ता का सर्वकालिक बेहद क्रूर और षड्यंत्रकारी चेहरा सामने आता है और हर तरह के सवाल को रौंदने और अपना जाहिलपन छुपाने के उद्देश्य से अजनबी को बेहद खतरनाक प्राणी ठहराता है। कथा लेखक अवधेश प्रीत बहुत लंबे समय तक पत्रकारिता करते हुए समकालीन राजनीति और सत्ता के चरित्र से खूब परिचय रहे हैं और उनकी अधिकांश कहानियों में इस के चरित्र के रेशे-रेशे से परिचित हैं।


एक-एक आत्मघाती कदम बढ़ाते हुए हम जिस तरह की तकनीकी रूप से नियंत्रित और संचालित (वशीकरण भी कह सकते हैं) दुनिया में जी रहे हैं उसमें सबसे बड़ा हथियार समाज की सामूहिक स्मृति ही है और दुनिया भर की तमाम हुकूमतें इसी को नष्ट और तोड़-फोड़ करके अपनी तरह से अनुकूलित करना चाहती हैं। सामूहिक स्मृतियों को नष्ट करते ही मनुष्य की सामाजिकता और बदलाव के लिए जरूरी सामूहिक शक्ति का एहसास नष्ट किया जा सकता है और उसे यह समझाया जा सकता है कि तुम अकेले की क्या औकात - तुम पहले भी गुलाम थे, अब भी गुलाम हो और भविष्य में भी गुलाम बने रहोगे। ऐसी कहानी हम जब जब भी पढ़ेंगे हमारे मन में आत्मविश्वास की एक परत तो जमेगी ही कि सत्ता चाहे कितनी भी निरंकुश और नृशंस हो और इंसान कितना भी दुर्बल हो, सदियों से चली आ रही उसकी प्रगति यात्रा संकल्पों, बलिदानों और अवरोधों पर विजय प्राप्त करते रहने का प्रमाण है।


अवधेश प्रीत के पास ऐसे जन पक्षधर सरोकारों की अनेक कहानियाँ हैं। यह कहानी उनकी किताब 'चुनी हुई कहानियाँ' (नई किताब प्रकाशन) में पढ़ी जा सकती है।
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बॉक्स 

योको ओगावा का बहुचर्चित जापानी उपन्यास मेमोरी पुलिस पहली बार जापानी में 1994 में छपा पर 2019 में अंग्रेजी में अनुवाद छपने के बाद पूरी दुनिया में इस किताब पर बहुत चर्चा हुई और अनेक पुरस्कारों की सूची में इसे शामिल किया गया।


यह एक छोटे से अनाम द्वीप की कहानी है- स्थान और जितने भी पात्र इस उपन्यास में हैं, किसी का भी नाम नहीं है, सब अनाम हैं। इस द्वीप की विशेषता यह है कि यहां रहने वाले लोग हैं जिन्हें याद कुछ भी नहीं, एक तरीके से यह कहा जाए कि उनका जो स्मृतिलोक है वह नष्ट हो गया है (वस्तुतः कर दिया गया है)। सत्ता का सबसे बड़ा हथियार मेमोरी पुलिस है जो लुप्त चीजों को या उसकी स्मृति को संजोने की कोशिश करने वालों पर कयामत बन कर टूट पड़ती है और ऐसे द्रोही लोग पहले कालकोठरी में सड़ते हैं और बाद में अपने वजूद से ही हाथ धो बैठते हैं।


इसके कारण और प्रक्रिया का खुलासा उपन्यास कहीं नहीं करता। और सबसे डरावनी बात यह है कि जिनके स्मृतिलोक पूरी तरह से नष्ट हो गए हैं उन्हें इस बात की कतई कोई परेशानी भी नहीं - दरअसल उन्हें इसका एहसास ही नहीं है कि वे द्वीप से अलग रहने वाले अन्य मनुष्यों से बुनियादी तौर पर अलग हैं। यहाँ जन्मदिन मनाना इसलिए जुर्म बन जाता है क्योंकि जब कैलेंडर का अस्तित्व नहीं तो किसी को पता कैसे कि एक साल बीत गया। इतना ही नहीं उन्हें अपने अंगों के धीरे-धीरे विलुप्त होते जाने का भी एहसास नहीं होता।


वह सब इन परिस्थितियों में वे सहज रूप से जी रहे होते हैं जैसे उनके साथ कुछ अनहोनी घटी ही नहीं लेकिन इसी द्वीप में कुछ गिने चुने लोग ऐसे हैं, जो जो चीज दिखाई न दे उसका अस्तित्व ही नहीं है या कभी था, यह विचार मानने को तैयार नहीं। वे इसका अपने तरीके से विरोध करते हैं प्रतिकार करते हैं। लेकिन ऐसे लोगों को वहां का शासन बेहद खतरनाक और गैर कानूनी मानता है और मेमोरी पुलिस एक-एक कर ऐसे लोगों की पहचान करती है, उन्हें प्रताड़ित करती है और उन्हें नष्ट कर देती है।


यह उपन्यास दरअसल ऐसे ही इक्के दुक्के लोगों के कनविक्शन, साहस और ज़िद का अनूठा आख्यान है।



उपन्यास के उद्धरण 

स्मृति कितनी भी प्यारी क्यों न हो यदि आप उसे अकेला छोड़ देते हैं यदि कोई  उस पर ध्यान नहीं देता तो एक दिन वह चुपके से गायब हो जाती है...। न तो वह अपना कोई निशान छोड़ती है न कोई सबूत जैसे उसका कभी कोई अस्तित्व था ही नहीं।


तुम्हें लगता है कि किसी चीज के विलुप्त हो जाने के बाद उसकी स्मृति भी गायब हो जाती है। पर यह वास्तविकता नहीं है।


गायब हो जाने वाली सभी चीज़ें एक ऐसे तालाब की सतह के ऊपर तैरती रहती हैं जहाँ सूरज की रोशनी कभी पहुंचती ही नहीं। यदि तुम उन्हें नष्ट होने से बचाना चाहते हो तो तालाब के पास जाओ। उसके पानी में हाथ डालो - यह तय है कि गायब हुई चीजों में से कई चीज़ें तुम्हारे हाथ में आ जाएंगी। उन्हें एक-एक कर पकड़ो और सूरज की रोशनी में ले आओ, इस तरह तुम उन्हें बचा सकते हो।


जो शब्द तुम लिखोगे वही बचेगा स्मृति के तौर पर।

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यादवेन्द्र 






सम्पर्क 

मोबाइल : 09411100294

टिप्पणियाँ

  1. बहुत शानदार लिखा है यादवेन्द्र सर ने। अवधेश प्रीत अद्भुत कथाकार हैं।

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