प्रबोध कुमार की कहानी 'आखेट'
प्रबोध कुमार |
हिन्दी साहित्य में आमतौर पर एक रूढ़ि बन जाती है और वही सच जैसा दिखने लगता है। साठोत्तरी कहानीकारों की जब भी बात आती है, कुछ प्रमुख नामों के अलावा हम अन्य नामों से प्रायः अपरिचित रहते हैं। ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, रवींद्र कालिया, विजय मोहन सिंह के अलावा भी साठोत्तरी कहानीकारों की सूची लम्बी है। इन कहानीकारों में परेश, योगेश गुप्त, इब्राहिम शरीफ, गुणेन्द्र सिंह कम्पानी, राम नारायण शुक्ल, प्रकाश बाथम, विजय चौहान, प्रबोध कुमार आदि महत्त्वपूर्ण हैं। प्रबोध कुमार प्रख्यात कथाकार प्रेमचंद के दौहित्र थे। उनका पहला कहानी संग्रह 'सी-सा' 2013 में संकलित और प्रकाशित हुआ। कल प्रबोध जी का जन्मदिन था। इस अवसर पर हमने शर्मिला जालान का संस्मरण प्रकाशित किया था। इसी क्रम में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रबोध कुमार की चर्चित कहानी 'आखेट'। यह कहानी हमें शर्मिला जालान के माध्यम से प्राप्त हुई है।
आखेट
प्रबोध कुमार
जॉर्ज की दुकान मैं करीब आठ रोज से बंद देख रहा था। दूसरी दुकानों का कूड़ा उसके बंद दरवाजों के आगे जमा होने लगा था। समझ में नहीं आता था, वह एकाएक चला कहाँ गया। अपनी दुकान पर बैठा, मैं हर आने-जाने वाले से उसके बारे में पूछता। कोई कुछ न बता पाता। उसका इस ढंग से बीच-बीच में कहीं चल देना नई बात नहीं थी लेकिन जाने से पहले वह मुझे अवश्य बता देता। दुकान की चाभी भी मेरे ही पास छोड़ जाता। मैं सिर्फ इसीलिए चिंतित नहीं था कि उसने मुझसे काफी रुपए उधार लिए थे, बल्कि इसलिए भी कि उसके अलावा उसके घर वालों की खोज-खबर लेने वाला कोई दूसरा न था। बुढ़िया माँ दो जवान लड़कियों की देखरेख कहाँ तक कर सकती थी। मैंने तय किया कि रात दुकान बंद करने के बाद उसके घर जा पूरा हालचाल लूँगा।
दोपहर को मैं कुछ ग्राहकों से बात कर रहा था, तभी डोरा आई। वह जॉर्ज की छोटी बहिन थी। मिशन स्कूल के हॉस्टल में रह मैट्रिक की तैयारी कर रही थी। मैं उसे बहुत दिन बाद देख रहा था। लापरवाही से रहने की उसकी आदत इन बीच के दिनों में जाने कहाँ छूट गई थी। कोई भी कह सकता था कि कपड़ों का महत्व अब उसके निकट छिपा नहीं रहा।
“क्यों, किसी की तबीयत खराब है?” ग्राहकों के जाने पर मैंने डोरा से पूछा।
“माँ की”, प्रेस्क्रिप्शन मुझे दे, वह पास रखे स्टूल पर बैठ गई। वह बहुत थकी लग रही थी।
“मैं थोड़ा पानी पिऊँगी”, डोरा ने कहा।
मैंने उसे पानी दिया। वह सामने आलमारी के शीशों में न जाने क्या देखने लगी। बीच-बीच में एक उचटती नजर भाई की बंद दुकान पर भी डाल लेती। “जॉर्ज कहीं बाहर गया है?” मैंने उससे पूछा।
“क्यों?”
वैसे ही पूछा। बहुत दिनों से उसने दुकान नहीं खोली।”
“आपको जैसे कुछ पता ही नहीं।”
“क्या बात है? मुझे सचमुच कुछ नहीं मालूम।”
“मैं तो सोच कर आई थी”, उसने कहा, “कि आप शायद जॉर्ज का कुछ पता बता सकेंगे।”
डोरा बहुत चिंतित दिख रही थी। लगा, शायद दवा लेने के बहाने वह केवल भाई के बारे में जानने आई थी।
“तुम लोगों से भी कुछ नहीं कह गया?” मैंने कहा, “बड़ी अजीब बात है। पता नहीं, कहाँ चला गया?”
“चिट्ठी लिखने की तो दूर, किसी से कुछ कह भी नहीं गया”, डोरा बोली, “माँ ने तभी से बिस्तर पकड़ लिया है।”
कारण न जानते भी मुझे जॉर्ज का इस तरह चला जाना कुछ विचित्र लगा। मुझे बहुत दुख हुआ हो, ऐसी बात न थी। यह सोच अच्छा ही लगा कि दूसरे के रहस्य में झाँकने का अवसर मिल रहा है। मैं डोरा को देख रहा था। जो कुछ साल पहले बाल बिखेरे, नाक पोंछती, बड़ी बहिन की अँगुली पकड़े, टॉफी खाने आती थी, उसे इस तरह चिंतित बैठे देखना नया अनुभव था।
“घर में किसी से कहासुनी तो नहीं हो गई थी।” मैंने डोरा से पूछा।
“नहीं, वैसा तो कुछ नहीं हुआ।”
उसने जिस ढंग से अटकते-अटकते जवाब दिया, उससे साफ जाहिर था, वह कुछ छिपा रही है। उसका चेहरा लाल हो गया था। ऐसी हिचकिचाहट ऐसे लाल चेहरे मैंने खास तौर पर उन औरतों के देखे हैं जो गुप्त रोगों की दवा लेने मेरे यहाँ जब-तब आया करती हैं। यह काम करते-करते इतना अनुभवी हो गया हूँ कि अब यह घमंड करना शायद गलत न होगा कि मैं चेहरे ही से रोग का पता लगा सकता हूँ।
“सुनो, डोरा”, मैंने कहा, “बिना मतलब तो कोई घर छोड़ भागता नहीं। कोई न कोई ऐसी बात जरूर हुई है जो तुम मुझसे जाने क्यों छिपा रही हो।”
डोरा मुझसे नजर नहीं मिला रही थी। कभी आलमारियाँ देखती, तो कभी भाई की दुकान की ओर। उसके माथे पर हल्का पसीना चमक रहा था।
“जब तक मुझे कुछ बताओगी नहीं, मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकूँगा।” डोरा चुप रही।
“शायद मेरी मदद की तुम्हें जरूरत नहीं है।”
“ऐसा आप क्यों कहते हैं?”
“मैं तुम्हें बचपन से जानता हूँ”, मैंने कुर्सी उसके नजदीक खींचते कहा, “जॉर्ज मेरा अच्छा दोस्त है, तुम्हारी माँ से मैं बचपन में पढ़ चुका हूँ। इसके बाद भी तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है तो मैं इसे केवल अपना दुर्भाग्य ही मान सकता हूँ।”
डोरा शायद कुछ कहती, तभी एक ग्राहक आ गया। सिर नीचा कर बड़ी लगन से वह एक नाखून चमकाने लगी। मुझे डोरा के इतने निकट बैठा देख उस आदमी को आश्चर्य अवश्य हुआ होगा। निरंतर बढ़ते हुए कुतूहल में मुझे इसका जरा भी खयाल न था। उसके जाने पर डोरा से पता चला कि उसकी बड़ी बहिन हेलेन पीटर के साथ चली गई है। पीटर को मैं नहीं जानता था। उत्सुकता भी नहीं थी। हेलेन में अवश्य मेरी रुचि बढ़ गई। विचित्र लड़की थी। स्मिथ उसके साथ भागने को तैयार नहीं हुआ, तो उसने पीटर को चुन लिया। भागना शायद बहुत जरूरी था।
“अच्छा, जाने के बाद से उसका कोई खत आया क्या?” मैंने डोरा से पूछा।
“नहीं।”
“तब तो यह भी नहीं मालूम होगा कि वे इस समय कहाँ हैं?”
डोरा ने जवाब नहीं दिया। वह अभी भी नाखून चमका रही थी। धूप काउंटर से हट गई थी। उसी के साथ शीशों का चमकना कम हो गया। डोरा को मैं अब अच्छी तरह देख सकता था। उसकी बड़ी आँखों के नीचे हल्का कालापन था, जिससे गालों की हड्डियाँ अधिक उभरी जान पड़तीं। दाहिने गाल पर ठुड्डी के पास काफी बड़ा तिल था। मेरी स्मृति में डोरा की बहुत साफ तसवीर थी, लेकिन उसमें यह तिल नहीं था। वह सुंदर नहीं थी। लगातार देखने से आकर्षक अवश्य लगती।
“तो यह बात है”, मैं डोरा के मोटे होंठ देखता बोला, “लेकिन जॉर्ज एकाएक कैसे चला गया?”
डोरा चुप रही।
“जो भी हो, उसने ठीक नहीं किया”, मैं बोला,” उसके बिना तो अब तुम लोगों को बहुत तकलीफ होती होगी?”
“माँ ने ट्यूशन शुरू कर दी है।“
“तुमने तो बताया, उनकी तबीयत ठीक नहीं है ?”
“जब बिलकुल ही ठीक नहीं रहतीं तो बच्चे घर पर आ जाते हैं।”
“बच्चों से उनका मन भी बहल जाता होगा?”
“जी।”
“पढ़ी-लिखी हो कर भी तुम्हारी माँ ऐसी गलती कैसे कर गईं?”
“गलती।”
“नहीं तो क्या। जाहिर है, उनसे स्थिति सँभालते नहीं बनी। अब देखो, चारों तरफ कितनी बदनामी हो रही है। जॉर्ज के जाने के बारे में सभी तरह-तरह की अटकलें लगा रहे हैं।”
डोरा ने कुछ नहीं कहा। सिर झुकाए पैरों की तरफ देखती रही।
तभी कई आदमी एक साथ आ गए। दवा उनमें से एक ही को खरीदनी थी। बाकी वैसे ही उसके साथ चले आए थे। वे दुकान में इधर-उधर चिपके दवाओं के विज्ञापन देखने लगे। मैं डोरा की तरफ पूरा ध्यान नहीं दे सकता था। डर था, वे कहीं मेरी कोई चीज उठा कर न चलते बनें। उनके जाने के बाद मैं बैठा ही था कि फिर कुछ लोग आ गए। उसके बाद तो काफी देर तक मुझे दम मारने की भी फुर्सत न मिली। कभी दवा निकालता, कभी कैशमेमो काटने बैठ जाता। इस बीच डोरा चली भी जाती, तो मुझे पता न चलता।
“अब तुम्हें भी दवा दे दूँ, फिर बात करेंगे।” सबके जाने पर मैंने डोरा से कहा।
“मैं भी अब चलूँगी। देर हो रही है।”
“घर पर कोई खास काम है?”
“नहीं, काम तो कुछ नहीं है।”
“तब बैठो। कितने दिन बाद तो आई हो। माँ से कह देना मैंने रोक लिया था।” डोरा ने थोड़ा सा मुँह बिचका, मेज पर रखे हाथ नीचे कर लिए।
“डोरा, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है।”
“ठीक ही है। इधर कुछ दिनों से बिलकुल बंद है। मेरे यहाँ एक ड्रामा होने वाला है। मैं उसमें डॉक्टर बनी हूँ।”
“अच्छा। तब तो मैं जरूर देखने आऊँगा।”
“आपके यहाँ स्टेथस्कोप है?”
“हाँ। क्यों?”
“ड्रामे के लिए उसकी जरूरत पड़ेगी।”
“किसी भी रोज आ कर ले जाना। या मैं ही तुम्हारे घर पहुँचा दूँगा।”
“नहीं, मैं आ जाऊँगी। आप क्यों तकलीफ करेंगे।”
डोरा अब अपेक्षाकृत अधिक उत्साह से बात कर रही थी। वह अपने शरीर को बहुत सहज रूप से हिला-डुला रही थी। उसके चेहरे पर अब चिंता का कोई भाव न था ।
“मैट्रिक के बाद क्या करने का इरादा है?” मैंने उससे पूछा।
“माँ चाहती है, मैं नर्स बनूँ।”
“तुम क्या चाहती हो?”
“जो वह कहेंगी, वही करूँगी। आगे पढ़ कर भी क्या होगा।”
“अच्छा डोरा, जॉर्ज ने क्या माँ से बहुत झगड़ा किया?”
“आपको कैसे मालूम हुआ?” डोरा इधर-उधर देखती बोली।
“जो भी हो”, मैंने कहा, “हेलेन ने ऐसा कुछ बहुत बुरा तो नहीं किया।”
डोरा ने जवाब न दे, केवल कंधे हिला दिए।
“चाय पिओगी न?” मैंने पूछा।
“जी नहीं।”
“मेरे साथ पीने में कोई एतराज है?”
“नहीं, अब घर जा कर ही पिऊँगी।”
“ऐसी कोई कसम खा रखी है क्या?”
डोरा हँसने लगी। उसकी झिझक शायद बिलकुल दूर हो चुकी थी। कैश बॉक्स में ताला लगा, मैं चाय के लिए कहने बाहर निकल आया। काफी ठंडी हवा चल रही थी। मेरे ऊपरी होंठ का एक कोना जाने क्यों रह-रह कर फड़क उठता था। हाथ-पैरों में थोड़ी कँपकँपी महसूस हो रही थी। मेरा मुँह सूख रहा था। शायद भाँग का असर हो, मैंने सोचा।
डोरा मेज पर पेपरवेट नचा रही थी जब मैं वापस लौटा।
“जॉर्ज क्या आपको भी बता कर नहीं गया?” उसने पूछा।
“नहीं। क्यों?”
“माँ सचमुच बहुत चिंतित हैं।”
“तुम्हारी माँ की क्या बात है। इस समय उन्हें तुम्हारी चिंता होनी चाहिए न कि जॉर्ज की। हेलेन के बिना तुम्हारा वक्त कैसे कटता होगा।” तभी दो गिलासों में चाय लिए एक आदमी आ गया। मैंने एक गिलास उसकी तरफ बढ़ा दिया।
“अभी घर जा कर क्या करोगी?” मैंने उससे पूछा।
“करूँगी क्या”, वह बोली, “कोई किताब ले बैठ जाऊँगी। हेलेन के बिना तो छुट्टियाँ बिताना मुश्किल हो गया है।”
“वह जब थी, तब तुम दोनों क्या करती थीं?”
“बातें। छुट्टी के दिन तो तमाम दिन बातें करते रहते थे।”
“वह तो तुम्हें सभी कुछ बताती रही होगी।”
“नहीं तो किसे बताती?”
“तुम्हें उसके जाने के बारे में भी पहले से मालूम रहा होगा?”
“हूँ।”
“तुमने उसे रोका नहीं?”
“मैंने माँ को बता दिया था।”
“फिर?”
डोरा ने गिलास मुँह से लगा लिया। मुझे लगा, वह अपनी उम्र से कहीं अधिक समझदार है।
“तुम्हारा स्कर्ट बहुत खूबसूरत है”, मैंने उससे पूछा, “कहाँ से सिलवाया?”
“मैंने खुद सिया है।”
“झूठ मत बोलो।”
“झूठ नहीं कहती। अपने सभी कपड़े मैं खुद सीती हूँ।”
“वाह।”
एक आदमी बाहर खड़ा मेरी दुकान का साइनबोर्ड पढ़ रहा था । मुझे अपनी तरफ देखता पा भीतर आ गया।
“आपने आज बुलाया था।” नमस्कार के बाद उसने कहा।
“मैंने बुलाया था?”
“जी, उस नौकरी के सिलसिले में।”
“अच्छा-अच्छा। देखो, कल आओ तुम। इसी समय।”
वह कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर शायद इस आशा में खड़ा रहा कि मैं कुछ कहूँगा, फिर चला गया।
“आपने उससे बात क्यों नहीं कर ली?” डोरा ने पूछा।
“तुम्हें छोड़ उससे बात करता। हाँ, तुम्हारी माँ ने हेलेन को रोका नहीं?”
“उन्होंने बहुत कहा उससे।”
“तुमने कुछ नहीं कहा?”
“मैं क्या कहती?”
“तुम्हें उसका इस तरह भाग जाना अच्छा लगा?” डोरा फिर पेपरवेट से खेलने लगी।
“बताओ न?”
“उफ। आप तो बिलकुल पीछे ही पड़ गए।”
“तुम्हारे पीछे तो मैं बहुत दिनों से पड़ना चाहता था।”
“मैं अब जाऊँगी”, डोरा ने कुछ घबराते कहा।
लजाने का अभिनय वह खासा अच्छा कर लेती है, मैंने सोचा।
“मेरे पास बैठना तुम्हें अच्छा नहीं लगा?” मैंने पूछा।
“यह बात नहीं। मुझे देर हो रही है।”
“कुल चार ही तो बजे हैं। देर हो जाएगी, तो मैं घर तक छोड़ दूँगा।”
डोरा उठती–उठती फिर बैठ गई। तभी मेरा लड़का दुकान में आया। वह जूते खरीदना चाहता था। मैंने बिना कुछ पूछे ताछे पैसे निकाल उसे दे दिए, तो वह देर तक आश्चर्य से मुझे देखता रहा। वह जाने लगा, तो बुला कर मैंने उससे कह दिया, जूते ला कर मुझे दिखाने की जरूरत नहीं है।
“हेलेन कितने बरस की होगी?” मैंने डोरा से पूछा।
“बीसवाँ पूरा कर चुकी है।”
“इसका मतलब तुम अठारह से अधिक नहीं हो।”
“सत्रहवें में लगी हूँ”, डोरा ने कहा, “मैं पानी पिऊँगी।”
मैंने उठ कर उसे पानी दिया। लगभग एक ही साँस में उसने पूरा गिलास खाली कर डाला।
“तुम्हारा ड्रामा किस दिन है डोरा?” मैंने पूछा।
“इसी इतवार को।“
“ड्रामे में तुम स्कर्ट ही पहिनना।”
“क्यों?”
“स्कर्ट में तुम बहुत सुंदर दिखती हो”, मैंने कहा, “बालों में तेल भी मत लगाना। तुम्हारे सूखे बाल मुझे बहुत अच्छे लगे।”
पेपरवेट डोरा के हाथ से छूट, फर्श पर गिर कर फूट गया। अपराधी का सा भाव उसके चेहरे पर झलक आया। नीचे झुक वह बिखरे टुकड़े उठाने लगी।
“तुम रहने दो, मैं उठा लेता हूँ”, मैंने कहा, “तुम्हारे हाथ में गड़ जाएँगे।”
उसके पास जा मैं पंजों के बल फर्श पर बैठ गया।
“अपना स्टूल कुर्सी की तरफ खिसका लो”, मैंने कहा, “तो मैं वहाँ पड़े टुकड़े भी उठा लूँ।”
डोरा ने स्टूल कुर्सी के नजदीक कर लिया। काँच के जितने टुकड़े मिले, एक कागज पर जमा कर मैं दुकान के बाहर एक कोने में डाल आया।
“तुम सचमुच बहुत सुंदर हो, डोरा”, मैंने कहा, “हेलेन से हजार गुना अधिक सुंदर।”
“आप मजाक करेंगे, तो मैं यहाँ नहीं रहूँगी।”
“मजाक नहीं कर रहा हूँ। मैं तुमसे प्रेम करता हूँ”, अपनी छोटी आँखों में जितना आकर्षण भर सकता था, भर कर मैंने कहा, “यह बात मैं बहुत दिनों से कहना चाहता था।”
डोरा एकाएक बहुत बेचैन हो उठी। वह स्टूल पर स्वयं को सँभाल नहीं पा रही थी। मेज का सहारा न लेती तो शायद गिर पड़ती। उसके हाथों के सुनहले रोएँ खड़े हो गए थे। उसका सारा बदन पसीने से तर-बतर हो गया था। वह काँप रही थी ।
“तुम्हें बुरा तो नहीं लगा?” मैंने उसका हाथ पकड़ते पूछा।
“मेरा हाथ छोड़ दीजिए।”
“पहले बताओ, तुम्हें बुरा तो नहीं लगा?”
“हाथ छोड़िए, कोई देख लेगा।”
“तुमने बुरा तो नहीं माना?”
“नहीं। अब छोड़ दीजिए।”
मैंने उसका हाथ छोड़ दिया। वह अभी तक सँभल नहीं पाई थी । शायद उठने की भी शक्ति उसमें नहीं रह गई थी।
“सिनेमा देखने का तुम्हें शौक है, डोरा?” मैंने कुछ देर बाद पूछा।
“बहुत।”
“अब कब देखने जाओगी?”
“क्यों?”
“मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। बोलो, कब जाओगी?”
“कह नहीं सकती।”
“फिर भी?”
“इस इतवार को तो ड्रामा है, शायद अगले इतवर को।”
डोरा के हाव-भाव काफी सहज हो गए थे। अंदर हलचल रही हो तो मैं कह नहीं सकता ।
“शायद क्यों ?” मैंने पूछा।
“अभी कुछ पक्का नहीं है।”
“मुझे पता कैसे चलेगा?”
“मैं क्या जानूँ?”
“मुझे ही पता लगाते रहना होगा?” मैंने कहा, “अच्छा। ड्रामे में तो मिलोगी न?”
“पता नहीं।”
“स्टेथस्कोप लेने कब आओगी?”
“मुझे समय नहीं मिलेगा। आप पहुँचा दीजिएगा।”
डोरा अभी तक आँखें नीची किए बात कर रही थी। उसने अब पहली बार सीधे मेरी ओर देखा। मुझे लगा, वह आँखों में आकर्षण भरने में मुझसे कहीं अधिक सफल रही है।
दुकान में फिर कुछ ग्राहक आ गए। उनकी दवाएँ निकालने में दस मिनट से अधिक नहीं लगे होंगे, लेकिन मुझे लगा, मैं कई रोज से उन दवाओं को ढूँढ रहा हूँ।
“मिलने के बारे में तो तुमने कुछ बताया ही नहीं?” डोरा की तरफ बारी-बारी से देखते ग्राहक जब चले गए, तो मैंने पूछा।
“मैं क्या बताऊँ?”
“जब तक बताओगी नहीं”, मैंने फिर उसका हाथ पकड़ते कहा, “मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा।”
“मेरा हाथ छोड़िए, मैं जाऊँगी।”
“मैं तुम्हें पहुँचा दूँगा।”
“आपके साथ मैं नहीं जाऊँगी।”
“क्यों?”
“मेरी इच्छा।”
“तब तो मैं जरूर तुम्हारे साथ चलूँगा।”
“मैं जाऊँगी ही नहीं आपके साथ।“
“मेरे साथ चलोगी तो लोग कुछ कहेंगे क्या?”
“हाँ ।”
“क्या कहेंगे?”
“अब चलूँ।“ कह कर भी डोरा ने उठने का कोई यत्न नहीं किया। वह अब सर्वथा नई रुचि से मुझे देख रही थी।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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