श्रीप्रकाश मिश्र का संस्मरण 'हीरालाल को जैसा मैंने देखा-जाना'

 




आज के ही दिन ठीक एक साल पहले कवि हीरा लाल का निधन हो गया। विडम्बना की बात यह थी कि इलाहाबाद के साहित्यिक समाज को उनके निधन की भनक तक नहीं लगी। सात सितम्बर 2024 को जब उनके मोबाइल पर फोन किया तो एक परिजन ने उनके गुजर जाने की सूचना दी। तब हमने फेसबुक पर उनके निधन की जानकारी सार्वजनिक की। 

सहजता हीरा लाल की पद्धति थी जिसे उन्होंने न केवल अपने जीवन में समाहित किया अपितु उसे अपनी रचनाओं में भी ढाला। इस तरह की सहजता अर्जित की जाती है। श्रीप्रकाश मिश्र ने अपनी पत्रिका 'उन्नयन' में हीरा लाल की कविताएं सबसे पहले प्रकाशित की। इसके बाद साहित्यिक समाज उन्हें एक कवि के रूप में अच्छी तरह जानने पहचानने लगा। आगे चल कर दूधनाथ सिंह के प्रयासों से उनका पहला और एक मात्र संग्रह 'कस में हीरालाल' साहित्य भण्डार इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। श्रीप्रकाश मिश्र ने हीरालाल के निधन के पश्चात फेसबुक पर सिलसिलेवार संस्मरण लिखे। इस संस्मरण के जरिए हम हीरा लाल के जीवन संघर्ष को अच्छी तरह समझ सकते हैं। टुकड़े-टुकड़े में लिखे गए उन सभी संस्मरणों को एकबद्ध कर समूचे संस्मरण के रूप में हम प्रस्तुत कर रहे हैं। हीरा लाल की पहली पुण्य तिथि पर उन्हें नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्रीप्रकाश मिश्र का संस्मरण 'हीरालाल को जैसा मैंने देखा-जाना'।



'हीरालाल को जैसा मैंने देखा-जाना'


श्रीप्रकाश मिश्र 

    

जबसे कवि संतोष चतुर्वेदी, जनवादी लेखक संघ, इलाहाबाद इकाई के पूर्व सचिव, ने कवि हीरालाल के कुछ माह पूर्व अनाम गुजर जाने की खबर फेसबुक पर डाली है, तब से इलाहाबाद के तमाम रचनाकार आत्मग्लानि और आत्म अपराधबोध से ग्रस्त हो कर बात करते नजर आ रहे हैं। कुछ लोग इलाहाबाद के साहित्यिक माहौल को दोष दे रहे हैं और कुछ लोग ऐसे बात कर रहे हैं, जैसे वे उन्हें कितना जानते थे और महत्त्व देते थे। ऐसे में हीरालाल और यहां के साहित्यिक वातावरण का पुनरावलोकन जरूरी लगता है। 

         

रचनाकार के दो व्यक्तित्व एक साथ होते हैं - एक वह जो अपना जीवन जीता है, दूसरा वह जो रचना करता है। दोनों में आवाजाही तो बनी रहती है, पर एक न भर पाने वाली फांक जीवन भर बनी रहती है। कुछ अतिसंवेदनशील लोग अक्सर कहते हैं कि सच्चे रचनाकार में यह फांक नहीं होनी चाहिए -- वह जो सोचता है, लिखता है, उसे हासिल करने के लिए सब कुछ कर गुजर जाना चाहिए। वे रचनाकार को रचनाकार कम विचारधारा का एक्टिविस्ट अधिक समझते हैं। ऐसे में हीरालाल के व्यक्तित्व को जैसा मैंने देखा है, वैसा अधिक उजागर करूंगा, और माहौल में वे कहां फिट बैठते थे, उसकी बात गौण रूप से करूंगा।

          

1995 या 96 के मध्य, मैं कुछ दिनों की बाहरी पोस्टिंग से वापस आया तो यह तय करने में समय लग रहा था कि मुझे कहां रखा जाय। किसी बड़े शहर में रहने की हिम्मत मुझमें नहीं थी-- हमेशा वहां की भीड़ में खो जाने का डर बना रहता था, पर शुभचिंतक कहते थे कि अपने कैरियर के लिए वहां रहना ही चाहिए। अब मैं कैरियरिस्ट न तो रचनाकार के रूप में ही था, न सरकारी नौकर के ही रूप में ही। अहमदाबाद इसलिए रह रहा था कि वह शहरनुमा गांव था। वहां जीवन की जटिलताएं वैसी नहीं थीं, जो बड़े शहरों में होती हैं। इसलिए मैं छुट्टी ले कर कुछ दिन इलाहाबाद घर पर रहने के लिए चला आया। एक-दो दिन बीते थे कि पत्नी ने बताया कि कुछ दिन पहले एक हीरालाल नाम के आदमी आपसे मिलने आए थे। कविताएं लिखते हैं। मैंने बता दिया है कि आप आने वाले हैं, इसलिए वे आएंगे। मैंने पूछा कि उन्होंने कुछ पता दिया है क्या, मैं ही जा कर मिल आता हूं। वे आएं और मैं घर में न रहूं तो खामख्वाह परेशान होंगे। उन्होंने कहा कि लोकनाथ के पास कहीं उनकी अपनी मिठाई की दुकान है। उस जमाने में मेरी कोशिश होती थी रचनाकार के घर जा कर मैं स्वयं मिलूं, जिससे कि वह सहज हो जाय, उसे लगे कि वह इतना महत्वपूर्ण रचनाकार है कि उससे मिलने कोई रचना के आधार पर आया है। मैं किसी दिन जाने के लिए सोच ही रहा था कि एक दोपहर वे आ धमके। सीढ़ी के दरवाजे की कुंडी इतनी जोर से खटखटाई कि मेरी नींद टूट गई। उन्हें सीधे अपने सोने के कमरे में ले आया। वहां रखी एकमात्र कुर्सी पर वे बैठना नहीं चाहते थे, पर कोई विकल्प नहीं था। मेरे आग्रह से फजीहत में पड़े हीरालाल ने कहा, "गुरु जी, मुझे अजित पुष्कल ने आपके पास भेजा है। '

        

इस गुरु जी संबोधन पर में चौंका। जो मुझसे छोटे होते थे, वे मुझे सर कहते थे। मैंने उन्हें बताया कि पुष्कल जी मेरे मित्र हैं। कुछ सोच कर ही उन्होंने मेरे पास भेजा होगा। पानी पीते, परिचय देते वे कुछ सहज हुए तो बताया कि वे कविताएं लिखते हैं, पहले गजल भी लिखते थे। तब अकिल नैयर की दवा की दुकान के अड्डे पर जाते थे, गजल पर उनकी राय लेते थे। सिवाय नैयर के वहां जुटने वाले लोग उनका मजाक उड़ाते थे। पता चला कि कविताओं पर एक अड्डा ए. जी. आफिस पर भी बैठता है। वहां कोई मुझे नोटिस ही नहीं लेता। इसलिए बड़े रचनाकारों के घर जाने लगा। वहां भी वही बात दिखी। उसी में अजित पुष्कल के यहां गया। तब वे तुलसीपुर में रहते थे। वे एकमात्र रचनाकार थे, जिन्होंने मेरी कुछ कविताएं और ग़ज़लें बड़े धैर्य से सुनीं और बहुत सोच कर आपसे मिलने को कहा। मैं बहुत उम्मीद ले कर आपके पास आया हूं। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि रचनाकार की पहचान उसकी रचना होती है। यदि उसमें दम है तो किसी न किसी दिन वह पहचानी ही जाएगी। रही बात सीखने की तो बत्तख के बच्चे को कोई तैरना नहीं सीखता। वह उसकी मूल प्रवृत्ति में होती है। दूसरे इधर-उधर कुछ फिनिशिंग टच ही दे सकते हैं। और उसके लिए किसी बड़े रचनाकार के पास जाने की जरूरत नहीं होती। मित्रों से, अपने साथ बैठने वाले लोगों से वह काम सुगमता से हो जाता है। जो लोग सीख कर लिखते हैं, वे बस सीखते ही रह जाते हैं, लिख नहीं पाते।

       

मैंने कहा कि रचनाकार का परिचय उसकी रचनाएं होती हैं। कुछ सुनाएं। बिना किसी संकोच के उन्होंने सीधे कहा कि कविताएं तो नहीं, पर कुछ ग़ज़लें याद हैं। उन्होंने चार-पांच ग़ज़लें सुनाई। ग़ज़लें अच्छी नहीं थीं। ठीक ही नोटिस में लेने लायक नहीं थीं। मैंने उनसे कहा कि मैं ग़ज़ल का मर्मज्ञ नहीं हूं। उसका व्याकरण नहीं जानता। इसलिए इस पर कुछ नहीं कहूंगा। जब कविताएं सुनाइएगा तब बात करेंगे।

     

चाय पी कर हीरालाल चले गये। मैं उन्हें देखता रहा। शक्ल-सूरत से ही नहीं, आचरण, बातचीत, सरलता से भी ग्रामीण। और यह ग्रामीण मेरे लिए विशेषण नहीं, संज्ञा है। हर शहर के भीतर अनेक गांव होते हैं। इलाहाबाद के उन्हीं गांवों में से एक के बाशिंदा थे हीरा लाल, तब मुझे लगा।



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उसके बाद दो-दो, तीन-तीन दिन के अंतराल पर दो बार आये और बड़े कुसमय आये। उन दिनों मेरे कमरे में किचन से ह़ो कर आना पड़ता था, इसलिए व्यवस्था कुछ बिगड़ जाती थी। औरतों को थोड़ा अनकुस लगता था। पर हर बार वे कविताओं के साथ आए। इससे जाहिर होता था कि उनमें कवि बनने की कितनी आतुरता थी, किसी श्रोता की कितनी शिद्दत से तलाश थी, अपनी कविताओं पर कितना विश्वास था। दोनों बार उन्होंने अपनी दर्जन-दर्जन भर कविताएं सुनाईं। छोटी कविताएं पूरी थीं। बाकी  कविताओं में बस कहीं-कहीं अंगुली रखने की जरूरत थी। मुझे दुख हुआ कि उनकी कविताएं सुनी नहीं गयीं अड्डों पर, घरों पर और उन्हें टरका दिया गया। पर आश्चर्य नहीं हुआ। इलाहाबाद भले अपने को प्रबुद्ध और सांस्कृतिक शहर कहे, यहां पहली पीढ़ी अगली पीढ़ी को हमेशा मारती रही है। जो पीढ़ी अपने पूर्ववर्ती पीढ़ी को ललकार कर, भरसक गरिया कर आगे बढ़ती है, वही स्थापित होती है। मार्कण्डेय बताते थे कि दुष्यंत कुमार अपनी गजल सुनाने से पहले भरी पिस्तौल मेज पर रख देते थे और जब रदीफ और काफिया की बात उठती थी तो उनकी ओर घूरने लगते थे। आरंभ में नंदल हितैषी जब मेरे साथ चलते थे तो साइकिल में डंडा बांध कर चलते थे और सिंहेश्वर सिंह ढीली चप्पल पहनते थे। यहां चर्चा रचना सुन कर नहीं, रचनाकार की आकृति और धंधा देख कर होती थी। हीरा लाल उसी के शिकार बनाए जा रहे थे। देखने में सीधे-सादे आदमी, आकृति भी उतनी प्रभावशाली नहीं, कद कुछ छोटा ही दुबला-पतला, कपड़े भी अति साधारण, बात करने के ढंग में थोड़ा गंवारूपन, हलवाई का पेशा। एक जमाने में आभिजात्य वर्ग से आये उर्दू के कवि व्यंग्य में कहते थे कि अब दर्जी, मोची भी कविता लिखेंगे। हीरालाल को हिंदी के किसी स्थानीय कवि ने ऐसा कहा तो नहीं, पर व्यवहार-भाव ऐसा ही रहा।

  

जिस कविता ने मेरा ध्यान तुरंत खींचा, याद आता है, कुछ ऐसी थी -


कोई भी लड़ाई कभी आखिरी नहीं होती 

मैदान से थोड़ी देर के लिए हटना 

हारना नहीं होता 


हारे हुए घोड़े 

दम-खम में नहीं था

जिनका कोई शानी

हार गये इसलिए कि

नहीं जानते थे 

दांव-पेच युद्ध का 


अभी तो करेंगे वे सामना 

रोटी पर पड़ने वाली फफूंद से 

दूध को फ़ाड़ देने वाले जीवाणु से 

घर में जाला लगाती मकड़ी से 


अभी हिम्मत नहीं हारे हैं 

हारे हुए घोड़े 


यह कविता उनकी सारी व्यथा का खुलासा तो करती ही थी, उनके संघर्ष और आशा का भी भरपूर खुलासा करती थी। और मुझे अपने अस्तित्व के लिए लड़ता हुआ आदमी हमेशा बहुत अच्छा लगता है। पर इस कविता के आकर्षण का एक दूसरा कारण भी था। 'उन्नयन' के किसी पिछले अंक में बद्रीनारायण की एक कविता छपी थी, जो इस प्रकार थी -


जीते हुए घोड़ों का तो सभी गाते हैं गुण

पर मैं हारे हुए घोड़ों का गुणगान करना चाहता हूं 

मैं हारे हुए घोड़ों का रचना चाहता हूं वेद

मैं हारे हुए घोड़ों का व्यास बनना चाहता हूं 

मैं हारे हुए घोड़ों की प्रशंसा में रचना चाहता हूं छंद

मैं हारे हुए घोड़ों के विरुद्ध रचना चाहता हूं।


हारे हुए घोड़ों का?

हां जी, हारे हुए घोड़ों का।


बद्रीनारायण को तब विचारधारा का बपतिस्मा दिया जा चुका था और वे मजलूमों के पक्ष में लिख रहे थे। हीरालाल अभी उससे दूर जीवनानुभूतियों के आधार पर लिखने वाले खांटी कवि थे। इसलिए बड़े थे। बद्रीनारायण न तो घोड़ों की हार के कारणों की तहकीकात कर पाते हैं, न ही कविता को महीन बनाने के चक्कर में वही बात बार-बार दुहरा कर वह काव्य-प्रणोद दे पाते हैं, जो इस कविता को यादगार कविता बना पाता। इसे हीरालाल अपनी कविता में बेहतर बना कर पेश करते हैं। थोड़ी थथमथाहट जरूर है, पर दृष्टि साफ है। मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने बद्रीनारायण की वह कविता देखी है तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि देखी है। मैंने पूछा कि 'उन्नयन' कहां मिली, तो बताया कि अजित पुष्कल के पास से। मैंने उनकी कविताओं की प्रशंसा की तो उनकी आंखें छलछला आईं। उनका पानी जाने कब से बंधा पड़ा था! जाने कब से वे समानधर्मा की तलाश में भटक रहे थे!!



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कोई ढाई-तीन महीने के बाद गुजरात से लौटा तो हीरालाल की कविताओं पर एक गोष्ठी अपने घर पर रखी। प्रचार खूब किया, पर मुश्किल से बीस लोग जुटे। उनमें अजित पुष्कल, नंदल हितैषी, कृष्णेश्वर डिंगर, हरीशचंद्र अग्रवाल, तिलकराज गोस्वामी, मत्स्येंद्रनाथ शुक्ल, अनुपम आनंद, दिलीप कुमार बनर्जी, कृष्णकांत मालवीय आदि थे। अजामिल भी थे, याद नहीं आ रहा है। अध्यक्षता अजित पुष्कल ने की। हीरालाल ने कोई पंद्रह कविताएं सुनाईं। सभी अवाक् थे कि वे इतनी अच्छी कविताएं लिखते हैं, पर नोटिस में नहीं लिए जाते। उनकी "बिना सेनापति के" शीर्षक कविता गोष्ठी की उपलब्धि रही। कविता इस प्रकार है -


बिना सेनापति के भी लड़ा जा सकता है युद्ध

जिंदा रहने की कोशिश की जा सकती है 

बिना नायक के भी 


एक उसके खत्म हो जाने से 

नहीं खत्म हो गई है दुनिया 

न खत्म हुई है 

हमारी जिजीविषा की पहाड़-तोड़ डायनामाइट 

अभी जिंदा हैं हम

अपने जिंदा होने के सबूत के साथ 

अभी हमारे लहू की गर्मी 

थर्मामीटरों को तोड़ने का दम रखती है 


हमारे दिलों में घड़घड़ाते रहेंगे 

उनकी यादों की रेल के डिब्बे 

जब तक जंगल में दहाड़ता है शेर

जब तक हवा में बाकी है 

तूफान बनने की संभावनाएं 

जब तक तानाशाह के पावों को

लहूलुहान करने की हिम्मत रखता है चींटा


बहुत ख़तरनाक होती है

अपने आप पर आई हुई बिल्ली 

अदालत की गैलरी से कहीं अधिक लम्बा होता है 

अदावत का पलीता 

दूध से जले हुए लोग पकड़ सकते हैं 

हवा में उड़ती हुई चिड़िया की 

छोड़ी हुई लकीर


धुंए की दीवार के पीछे बैठा 

धारीदार चेहरे वाला दुश्मन

होगा एक दिन हमारे निशाने पर

एक दिन जीतेंगे हम युद्ध 

एक दिन होगा उसको एहसास 

गलत थीं कारगुजारियां उसकी


हीरा लाल की कविताओं की धमक उन अड्डों पर गयी जहां वे भटकते रहते थे। कुछ लोगों ने उन पर ध्यान देना शुरू किया, पर अधिकांश लोग वही पोश्चर बनाये रहे, बल्कि और होस्टाइल हो गये। इसका प्रमाण यह बात है कि मैंने 'उन्नयन' के संप्रति अंक में घोषित किया कि "जिनसे उम्मीद है" के अंतर्गत आगे हीरा लाल को छापूंगा। यह घोषणा पढ़ दो-तीन लोगों ने साफ-साफ कहा कि जब से आपने उनकी कविताओं पर गोष्ठी की है, वह हमें सेटता नहीं, उस तरह से लरिया कर बात नहीं करता। पर ए. जी. आफिस की सर्किल में हीरालाल को एंट्री मिली। वहां साल में एक बार हिंदी को ले कर उत्सव होता था। उस साल उसके कर्ता-धर्ता कथाकार सुभाष गांगुली थे। हीरालाल उनसे मिले, अपनी कविताएं सुनाईं और एक मौका मांगा। गांगुली जी ने बात सुमित्रा वरुण के सामने रखी जो संयोजक थीं। वे मान गईं। समारोह के अंत में हीरालाल ने कविताएं सुनाईं। वे हिट हो गयीं और सब पर भारी पड़ीं।



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"उन्नयन" के जिस अंक में यह घोषणा हुई थी कि आगामी किसी अंक में हीरालाल की कविताएं "जिनसे उम्मीद है" के अन्तर्गत आएंगी, उसी अंक में उनकी चार-पांच कविताएं छपी थीं। अंक आया तो हीरालाल उसको ले कर उड़े। जा बैठे जगदीश गुप्त की अटारी पर। उन्होंने कविताएं पढ़ीं, सराहीं, आशीर्वाद दिया। हीरालाल गदगद लौटे। फिर कुछ दिन बाद एक प्रति लिये, उड़े जा बैठे लक्ष्मीकांत वर्मा की बैठक में। उन्होंने उनके अलावा भी कुछ कविताएं सुनीं, आशीर्वाद दिया। हीरालाल ने उन अड्डों पर प्रतियां दिखाई जहां बैठते थे। खुश कम लोग हुए, तन अधिक लोग गये। हीरा लाल का मन इससे नहीं भरा। अभी "क्रांतिकारियों" के बीच अंक नहीं गया था। उनका सर्टिफिकेट ज्यादे मतलब रखता था। कुछ प्रतियां खरीदी और बांटने लगे। उसी सिलसिले में एक पियक्कड़ क्रांतिकारी के यहां गये। वे बड़े धीरे बोलते थे और बड़ा महीन कातते थे। अंक ले कर मुस्कराए, थपथपाए, शुभकामनाएं दीं। पर पन्ने खोल कर कविताएं नहीं देखीं। तब भी जब जब हीरालाल ने पन्ना खोल दिया। सुनाने को उद्धत हुए तो कहा कि उसके लिए एक समय होता है, वह अभी नहीं है। हीरा लाल चलने को हुए तो कहा आते रहिएगा, बिना सैद्धांतिकी समझे दूरगामी परिणाम की कविताएं नहीं लिख पाइएगा। फिर मुस्कराने लगे पत्रिका को देखते हुए। वह व्यंग्य भरी मुस्कान पत्रिका पर थी, उनकी कविता पर थी कि पत्रिका में उनके छपे होने पर थी, हीरालाल समझ नहीं पाये। 

 

हीरालाल अपनी कविताएं दूधनाथ सिंह तक पहुंचाना चाहते थे। मैं उन्हें पत्रिका का अंक देता था। हीरालाल अंक ले कर स्वयं जाना चाहते थे। मैंने काफी हाउस में देने को सुझाया, पर वे घर गये कि ठीक से बातें होंगी। दूधनाथ सिंह अभी शंभु बैरक में ही रह रहे थे। झूंसी वाला घर खरीदने का प्रयास कर रहे थे। छुट्टी के ही दिन गये होंगे। पत्रिका दी, बातें कीं, प्रशंसा भी पाया पर उनके सामने कविताएं पढ़ी न गयीं। इसका मलाल हीरालाल जी को रहा। एक दिन काफी हाउस में दूधनाथ सिंह मिले तो कहा, "श्रीप्रकाश, कैसे-कैसे कवि खोज लाते हो, छाप भी देते हो।" मैंने उनको गौर से देखा तो कहा, "यह हीरालाल कौन है?" मैंने भी उनके व्यंग्य का जवाब व्यंग्य से ही दिया, "वे वही हीरालाल हैं जो बिना मिठाई के पैकेट के आप के घर नहीं जाते। आप उनकी मिठाई की काफी प्रशंसा करते हैं।" सत्य प्रकाश मिश्र वहां मौजूद थे। उन्होंने बात पलट दी।

   

क्रांतिकारी गुट से प्रशंसा न मिलने पर हीरालाल कुछ मायूस थे। ढांढस श्रीरंग ने बंधाया। कहा कि "जगदीश गुप्त और लक्ष्मीकांत वर्मा ने तो तवज्जो दिया। वे परिमल के लोग थे। उन्हें साहित्य से सीधे लेना है। दूसरे गुट को बरास्ते क्रांति लेना है। यादव हैं। दूध-घी खाइए, डंड-बैठक लगाइए, अखाड़े में आ गये हैं, तो पटकनी की तैयारी करिए"। हीरालाल लिखने में जुट गये।






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लेकिन दूधनाथ सिंह ने उन्हें नोटिस में लिया। उसके तीन कारण थे। पहला कारण उनकी कविता "कस में हीरालाल" थी। वह उन्नयन के संप्रति अंक में थी। कविता इस तरह से है -


कस में यार हीरालाल

कहो कैसे हो?

कैसा चल रहा है तुम्हारा कारोबार?

पिरात्यै का अबो ऊ तुम्हार कड़हा दांत?

कनटरौल वाला चीनी दिहिस की नहीं?

बिका की नहीं पुराना वाला मकान?

का बियानी अब की भिंडो भ इस?

लगत्थी की नै मरकहीवा गाय?

आई कहूं से लड़की की बात?

लड़का भवा की नै हाई स्कूल पास?

अब तो न अउते खांसी-बुखार?

मेहरारू से भवा का फिर तकरार?

काव इसने झेलत हो पड़ोसी का चेहरा?

कइसे मनावत हो देवाली-दसहरा?

सुना है तुमको भी लगा है कविता का चस्का?

अहीर की जात और और मगही पान?

बोलतो काहे नै? काहे चुप हो?


यह सहजता और अपने ही ऊपर हंस लेने की क्षमता सबके लिए बहुत आकर्षक थी। इसकी चर्चा खूब हो रही थी। दूधनाथ सिंह ने भी चर्चा सुनी ए. जी. आफिस के अड्डे पर जहां वे कभी-कभी जाते थे। उस अड्डे पर षड्यंत्रकारी लोग ही नहीं जुटते थे। वहां हरीश चंद्र पांडेय थे, जो हीरालाल को बहुत सम्मान देते थे। शिवकुटी लाल वर्मा थे, जो पसंद आ जाने पर खुल कर तारीफ करते थे।


जनवरी 1997 में 'उन्नयन' का अट्ठारहवां अंक आया। उसमें हीरालाल की सोलह कविताएं एक टिप्पणी के साथ छपी, "जिनसे उम्मीद है" वाले स्तंभ में रघुवंश मणि की कविताओं के साथ। टिप्पणी मैं अजित पुष्कल या लक्ष्मी कांत वर्मा से लिखवा कर देना चाहता था, पर अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। दूधनाथ सिंह ने नोटिस लिया। दरअसल उस स्तंभ में पहले देवी प्रसाद मिश्र, अष्टभुजा शुक्ल, हरीशचंद्र पांडेय, बद्रीनारायण, यश मालवीय, हरजीत सिंह, राजगोपाल सिंह, चंद्रकला त्रिपाठी, एकांत श्रीवास्तव वगैरह छप चुके थे और कुछ चर्चा इस तरह से होने लगी थी कि अरुण कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, मंमलेश डबराल, बीरेन डंगवाल, ज्ञानेंद्रपति के बाद की पीढ़ी दिखाई पड़ने लगी। यह दूसरा कारण था। तीसरे हीरालाल, श्रीरंग, अंशुल त्रिपाठी अपने मित्रों के साथ प्रायः आकाशवाणी के पीछे अवस्थित तपोवन पार्क में मिलते थे। एक-दूसरे की कविताएं सुनते-सुनाते थे और बड़े मित्र भाव से रचना पर बात करते थे, जिससे लेखन में अपेक्षित सुधार और निखार आता था। कभी-कभी वे लोग मुझे वहां ले जाते थे। उनसे बातें कर मैं समृद्ध होता था। दूधनाथ सिंह को यह पता चला तो वे इनमें रुचि लेने लगे। जल्दी ही उन्होंने अपने लेखक संघ का आयोजन एक शाम हिंदोस्तानी अकादमी में कराया और इन तीनों को उसमें शामिल कर लिया गया।

 

मुझे इलाहाबाद के साहित्यिक अड्डों पर होने वाली चर्चा में बड़ी रुचि थी। मुझे लगता था कि शहर में जो अद्यतन लिखा जा रहा है उसका पढ़ना-पढाना वहीं हो रहा है। हीरालाल कभी कभी मुझे अकील नैयर के अड्डे पर ले जाते थे। अकील नैयर दवा का अपना काम करते हुए जिस तरह से उपस्थित लोगों की रचनाएं सुनते थे और उस पर राय देते थे, वह बहुत अच्छा लगता था। उन्होंने कहा कि आप लोगों ने अच्छा किया कि हीरालाल जी को नज्म की ओर मोड़ दिया। वे जो कहना चाहते हैं, वह छंद में कठिन है कहा जाना। ग़ज़ल की भाषा वैसी बन नहीं पाई है। अकील बहुत ही सुलझे हुए आदमी थे, प्रतिभा पहचानते थे और उसी के अनुरूप राय देते थे। किसी को गुमराह नहीं करते थे। ऐसे संतुलित लोग कम ही मिलते हैं।



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अकील नैयर की बैठक से मुझे एक दिन हीरालाल अपने घर ले गये। उनका घर लोकनाथ बाजार से जो सड़क दक्षिण-पूर्व जाती है, उसी पर थोड़ी जगह आगे जा कर बायें हाथ पर था। घर पुराना था। आगे का हिस्सा उन्होंने कुछ नया कर लिया था। नीचे उनकी मिठाई की दुकान थी, ऊपर परिवार रहता था। घर खूब साफ-सुथरा था। उनकी पत्नी, दो बेटियां, और एक बेटा बड़े प्रेम और गर्मजोशी से मिले। मेरे बारे में वे कुछ चर्चा अपने घर में कर चुके थे, इसलिए बातचीत करने में कोई हिचक नहीं हुई।

   

उसके बाद उनके घर अनाहूत जाना कई बार हुआ। थोड़ा खुलने पर जाहिर हुआ कि उनके घर वालों को उनका साहित्य से जुड़ना पसंद नहीं था। किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह उनके मन में यह बात घर कर गयी थी कि कविता लिखने वाले लोग अपने परिवार और पेशा की उपेक्षा कर देते हैं और ख्याली दुनिया में बिचरते रहते हैं। उन लोगों ने बताया कि वे मौका-बेमौका दुकान छोड़ कर गोष्ठियों में चले जाते हैं, इसलिए दुकान ठीक से चल नहीं पाती। कारीगर बेइमानी करते हैं, मैटेरियल की उधारी बढ़ती जा रही है, ग्राहकों को भी उधार चला जाता है और वसूली हो नहीं पाती। ऊपर से सामने एक और मिठाई की दुकान है, वह ग्राहकों को तोड़ता रहता है कि दुकान बैठ जाय और उसका एकाधिकार हो जाय। खर्चा बढता जा रहा है, सभी बच्चों की पढ़ाई होनी है। मुझे उन्हें समझाना चाहिए। 

      

बात तो सही थी। मैंने उन्हें समझाया कि लेखन के पीछे कमाई की उपेक्षा करना ठीक नहीं। शहर में जितने रचनाकार हैं उनका कमाई का एक निश्चित स्रोत है। वह नहीं रहेगा तो घर नहीं चल पाएगा और लेखन भी नहीं हो पाएगा। उन्हें चाहिए कि शाम को दुकान बंद करने के बाद ही रचनाकारों से मिले। हां, नियोजित गोष्ठियों में कोई वैकल्पिक व्यवस्था कर के ही जाएं। पर उनके स्वभाव में व्यापारी बनना नहीं था, कवि बनना था। एक ही उदाहरण काफी होगा। कवि बोधिसत्व के बेटे का जन्मदिन था। उन्होंने कोई तीन सौ रसगुल्लों के लिए आर्डर दिया। वे गगन घी वाले डिब्बों में भर कर ले गये। एक भरा डिब्बा अतिरिक्त रखा। बोधिसत्व ने मना किया कि बहुत हो जाएगा। खपत नहीं हो पाएगी। वापस ले जायं। नहीं माने तब वे उसका भी पैसा देने लगे। पर हीरालाल ने साफ कहा कि क्या उनका लड़का मेरा भतीजा नहीं है? यह मेरे तरफ से जन्मदिन का उपहार है।


कुछ दिनों के बाद उन्होंने धीरे धीरे अपनी मिठाई की दुकान बंद कर दी और उसकी जगह फर्नीचर की दुकान खोल ली। कुछ फर्नीचर बना-बनाया रखते थे, जिसका मूल्य तय था और बड़े दुकानदारों से उधारी पर मिल जाता था कि बेंच कर पैसा चुकता कर दें। तत्काल काम के लिए उन्होंने दिहाड़ी पर एक बढई रख लिया था। अगर कोई विशेष प्रकार के फर्नीचर के लिए आर्डर देता था तो बनवा कर दे देते थे। दुकान चल निकली। कई साहित्यकारों ने उनके यहां से खरीदा। वहां भी, वे बड़े उदारमना थे। बात बोधिसत्व से ही जुड़ी हुई है। उन्होंने पलंग खरीदा। हीरालाल ने उसे वास्तविक मूल्य से पांच सौ रूपया कम करा दिया। बात सन् दो हजार के आस-पास की है। तब पांच सौ रूपये का एक मतलब होता था।



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कहते हैं कि विपत्ति के आने के अनेक रास्ते होते हैं और वह हमेशा अचानक आती है। जिन दिनों हीरालाल अपने धंधे में सम्हल रहे थे, उन्हीं दिनों वह कूद कर उनके ऊपर आई। एक दिन उनको नोटिस मिली कि उनके ऊपर बिजली का पचहत्तर हजार रुपया बकाया है। अनेक बार नोटिस दिए जाने के बावजूद आपने पैसा जमा नहीं किया है इसलिए वसूली के लिए तहसील को कागज सौंपा जा रहा है। अभी वे इसका काट खोजने में लगे ही थे कि दूसरी नोटिस आई कि वसूली का मामला तहसील में है, अमुक दिन तक पैसा जमा नहीं होगा तो वसूली अमीन वारंट ले कर जाएगा। तहसील जा कर उन्होंने पता किया तो बात सही थी। वे मेरे पास आए और बड़े संकोच से अपनी व्यथा बताई। ऐसे मामलों को डील करने का अनुभव मुझे नहीं था, इसलिए मैं उनको लेकर हरीश चंद्र अग्रवाल के यहां गया। वे पी डब्लू डी विभाग में थे और मुझे उम्मीद थी कि बिजली विभाग में भी उनकी अच्छी पहुंच होगी। उन्होंने एक आदमी से संपर्क करने को कहा। दो-एक दिन बाद हम उनसे मिले। उन्होंने कहा कि मामला अब उनके विभाग के हाथ में नहीं रहा, तहसील वाले ही कुछ राहत दे सकते हैं। हम तहसीलदार से मिले। उन्होंने एक निश्चित राशि एक निश्चित दिन तक जमा कर देने पर वसूली में कुछ मोहलत देने की बात कही। यह भी कहा कि उसके आधार पर किस्त बांध देंगे, जिससे कि वे धीरे-धीरे जमा कर दें। अब समस्या किस्त की राशि जुटाने की थी। उन्होंने कुछ रिश्तेदारों से मदद ली, कुछ मित्रों से, जिनमें दो-एक साहित्यकार भी थे। जिन्हें वे निकट का समझते थे, उनमें से कई ने तो साफ-साफ कह दिया कि अपना ही खर्चा चलाना मुश्किल हो ‌रहा है, दूसरे की मदद भला क्या कर पाएंगे। हीरालाल को लगा कि वे उनके लौटाने की क्षमता पर अविश्वास कर रहे हैं। इससे वे इतने आहत हुए कि अपने संकलन की भूमिका के अंतिम पैरा में लिखा कि साहित्यकार मित्रों से व्यक्तिगत जीवन के मसलों में मदद की उम्मीद नहीं की जा सकती। अभी वे किस्त जुटा ही रहे थे कि एक दिन वसूली अमीन आ धमका। इन कर्मचारियों का इरादा वसूली करना कम, धमका कर अपनी मूठ्ठी गर्म करना अधिक होता है। जब से उन्हें पता चला था कि किस्त बंधने जा रही है, वे सक्रिय हो उठे। हीरालाल बात समझ नहीं पाये और गरम हो गये। तीन चार दिनों के बाद वह कुर्क अमीन और दो-तीन चपरासियों के साथ आया और अपने साथ तहसील ले गया। दूसरे दिन वह अदालती कार्रवाई के लिए ले जा रहा था कि रास्ते में रखी गिट्टी पर हीरालाल फिसल गये और पैर में चोट आ गयी। उसके परिणामस्वरूप वे भचक कर चलने लगे। खैर आनन-फानन में परिवार वालों ने निश्चित राशि जुटाई और वे घर आ गये।

    

किसी ने उन्हें राय दे दिया कि वे अपना मकान बेंच दें तो बिजली के बिल के बकाए से मुक्त हो जाएंगे, जिम्मेदारी खरीददार पर चली जाएगी। हाथ में नकद पैसा होगा तो वे नये सिरे नयी जगह नया धंधा शुरू कर सकते हैं। उसमें बरक्कत होगी। उनका मकान व्यापार की दृष्टि से बड़ी अच्छी जगह पर था। लोगों की निगाह लंबे समय से लगी थी। मकान बिक गया। वे कहीं और जा कर रहने लगे, लगभग गुमनाम। 

  

पर यह बाद की बात है। उससे पहले भी एक ऐसी घटना घट गयी थी, जिसके कारण वे साहित्यकारों से थोड़ा अलग पड़ने लगे थे।



(8)


हीरालाल सरल, जल्दी ही उत्तेजित हो जाने वाले, मुहफट्ट की हद तक स्पष्टवादी थे। इसका इस्तेमाल कई लोग अपने दुश्मनों से हिसाब-किताब चुकता करने के लिए करते थे। रवीन्द्र कालिया कहते थे कि इस शहर में एक ऐसे लेखक हैं, जो मरे हुए लोगों पर संस्मरण लिखते हैं, जिंदा लोगों पर कहानी और दोनों में इरादा बदला लेने का होता है। उन्होंने एक लम्बी कहानी, कहें उपन्यासिका लिखी थी जो एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी थी। उसकी सौ प्रतियां खरीद कर अनुयाइयों को लगा दिया था पूरे शहर में वितरित करने के लिए। उनमें एक हीरालाल भी थे। नीलाभ को यह अच्छा नहीं लगा। हिंदुस्तानी अकादमी में हो रहे एक समारोह के दौरान उन्होंने हीरालाल को ऐसा न करने के लिए कहा और उससे होने वाले नुकसान के प्रति आगाह किया। (नीलाभ से उनके ताल्लुकात अच्छे थे। हुआ यह था कि 'उन्नयन -18' की प्रति जब उपेन्द्र नाथ अश्क को मिली थी तो उन्होंने  पोस्टकार्ड डाल कर बुलाया था और उत्साहित किया था। वहीं नीलाभ से परिचय हुआ था और वे हीरालाल की कविताओं के प्रशंसक बन गये थे।) थोड़ी बकझक हुई। उनके सर ने चढ़ा दिया कि खाटी इलाहाबादी हो, इस बाहरी आदमी से डरते हो। बस क्या था, हीरालाल लौटे और फैल गये। नीलाभ ने कहा कि खांटी इलाहाबादी तो मैं भी हूं, उन दो पीढ़ियों के नाते नहीं, हमारे पुरखे यहीं मेजा से पंजाब गये थे। बात बिगड़ती इसके पहले लोगों ने बीच-बचाव कर दिया। अगले ही दिन हीरालाल को पता चला कि दोनों एक साथ बैठ कर काफी पी रहे हैं। उन्हें लगा कि उनका इस्तेमाल किया गया है। इससे उन्हें बड़ी ग्लानि हुई और रचनाकारों से मिलने से कुछ कतराने लगे। 

  

पर इसकी क्षतिपूर्ति जल्दी ही हो गयी। दूधनाथ सिंह एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध पीठ पर चढ़े तो इलाहाबाद के लिए यह किया कि हीरा लाल को बड़े सम्मान के साथ वहां बुलाया, कोई सप्ताह भर वहां रखा, बड़े श्रोता-समूह के सामने काव्य-पाठ कराया, उपलब्ध महत्वपूर्ण रचनाकारों से मिलवाया। कुछ पैसा दिलवाया। इससे उनका मनोबल काफी ऊंचा हो गया और सीना तान कर चलने लगे। बाहर से कोई साहित्यकार आता, थोड़ा भी परिचय होता तो स्टेशन से ही लेने पहुंच जाते, उसकी सुविधाओं का ख्याल रखते और काम में मदद करते। इससे उनकी प्रतिष्ठा और सर्किल बढ़ने लगी।


कुछ लोगों को यह नहीं सुहाया। उन्होंने राय दिया कि कविता तो आप बढ़िया लिखते ही हैं, कुछ गद्य भी लिखें। आखिर कवि की पहचान उसके गद्य से ही होती है। शुरुआत शब्द चित्र से करें और स्थानीय अखबार में प्रकाशित कराएं। उन्होंने लिखा और प्रकाशित भी हुआ। शीर्षक था "गफूरन बूआ"। वह कोई और नहीं कवियित्री, संपादिका, और संस्कृतिकर्मी मीनू रानी दुबे थीं। वे थोड़ा महत्वाकांक्षी थीं। उनका मजाक उड़ाया गया था। इसकी भर्त्सना हुई और वे फिर अपनी साहित्यिक मित्रमंडली से कट गये। उन्हें पुनः लगा कि उनकी सिधाई का इस्तेमाल किया गया है।







(9)


हीरालाल जानते थे कि उनका इस्तेमाल हो जा रहा है और उस पर वे काफी पछताते भी थे। तय करते थे कि आगे इससे बचेंगे। पर जाने क्या कमी थी, या किस उद्देश्य की तलाश थी कि वे बच नहीं पाते थे। एक बार वे फिर इस्तेमाल हो गये जो उनके और एकाकी होने का सबब बना। 

   

संभवत: 2004 था। हिंदुस्तानी अकादमी में कवि दिवस मनाया जा रहा था। उस अवसर पर नवगीतकार स्व. उमाकांत मालवीय का चित्र हाल में लगना था। परंपरा थी कि ख्यातिलब्ध स्वर्गीय रचनाकार का चित्र घर वाले बनवा कर यदि दे देते थे तो यथासमय हाल में टांग दिया जाता था। चित्र हरिमोहन मालवीय ने बनवाया था, जो अकादमी के अध्यक्ष थे। कवि लोग मंच पर बैठ गये थे। मंच तब चार तख्तों को जोड़ कर पश्चिम वाली दीवार से सटा कर बनाया जाता था। श्रोता नीचे दरी पर बैठते थे। मंच पर उमाकांत का चित्र रखा हुआ था। पश्चिमी तरफ के उत्तर वाले गेट से हीरालाल "ब्राह्मणवाद नहीं चलेगा" का नारा लगाते हुए घुसे। उनके हाथ में एक छोटा-सा पत्थर था। वे चित्र पर फेंकना ही चाहते थे कि अंशु मालवीय ने उन्हें दबोच लिया, यह कहते हुए कि ब्राह्मणवाद-पिछडावाद का फैसला बाद में होगा, अभी रचनाकार पिता के सम्मान का सवाल है। लोग तुरंत दौड़े, दोनों को अलग किये। हीरालाल बाहर निकले, अपनी मोपेड स्टार्ट की और चले गये। उनके समर्थक पहले ही भाग पराए थे। लोगों ने देखा कि सर सड़क के उस पार नीलाभ से बात करते हुए खड़े हैं। शायद घटना का स्वाद ले रहे थे। उन्होंने  कुछ दिन पहले ए. जी. आफिस के अड्डे पर कहा कि ऐसा लंठ कवि पाल रहा हूं जो तुम लोगों के सिर पर मूतेगा। कहने का कारण यह था कि अड्डे के लोग उन्हें सम्मान तो खूब देते थे, पर सेंटते नहीं थे। वे चाहते थे कि सम्मान देने के साथ-साथ ये लोग सेंटे भी।

    

हीरालाल कुछ दिनों के बाद कहानीकार अनीता गोपेश के यहां गये। हीरालाल की बेटियां विश्वविद्यालय में बायलोजी ले कर बी. एस-सी. कर रही थीं। पढ़ने में खूब तेज थीं। अनीता जी उनका ध्यान रखती थीं। हीरालाल कभी-कभी उनके यहां जाते थे। उन्होंने अपने इस्तेमाल हो जाने की पूरी दास्तां बताई। अनीता जी ने कहा कि मुझे बताने से क्या लाभ? यश को बताएं। कुछ दिनों के बाद वे यश के यहां गये। उन्होंने गले लगा लिया। अंशु थोड़ा तैश में आए। यश ने फौरन मना किया कि इनका इस्तेमाल हुआ है। ये सरल आदमी हैं। बहक जाते हैं। खैर, उसके बात हीरालाल का अड्डे पर जाना नियमित हो गया।



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हीरालाल की कविताएं पत्रिकाओं में छपने लगी थीं, संज्ञान में भी ली जा रही थीं, अपने बल पर कवि के रूप में पहचान बन रही थी, पर इलाहाबाद का अलगाव दूर नहीं हो रहा था। उन्हें लगा कि संग्रह आ जाय तो चर्चा के बहाने उनका एकाकीपन दूर हो जाएगा। उन्होंने अपनी इच्छा कई लोगों को बताई। किसी ने कह दिया कि "कथ्यरूप" के संपादक अनिल कुमार श्रीवास्तव से मिलिए। वे कुछ पैसा ले कर पुस्तिका छाप देते हैं। हाल ही में हरीश चंद्र पांडेय की पुस्तिका छापी है। उन्होंने तथ्यों का पता नहीं लगाया। एक छुट्टी के दिन उनके घर चले गये और जाते ही हड़ाक से कहा कि जो भी पैसा लेना हो ले लीजिए, पर मेरी काव्य पुस्तिका छाप दीजिए। अनिल जी पहले हत्प्रभ रह गये, फिर अपने संवेग पर नियंत्रण कर पूछा कि यह बात किसने कही है। हीरालाल ने कहा कि उसका नाम लेना जरूरी नहीं है। जरूरी यह है कि कितना ले कर कितनी बड़ी पुस्तिका निकालेंगे। उन्होंने समझाना चाहा कि वे रचना मेरिट पर छापते हैं और उसके लिए अपना पैसा खर्च करते हैं। पर हीरालाल नहीं माने। विवाद बढ़ता गया। धक्का-मुक्की होने लगी। अनिल जी ने उन्हें ढकेल कर घर से बाहर कर दिया। 

      

हीरालाल चले, पहुंचे जार्जटाउन थाना और रिपोर्ट लिखने की अर्जी दे दी। पुलिस वालों को तो ‌मौका चाहिए चार पैसा ऐंठने का। शाम को दो सिपाही अनिल जी के घर पहुंच गए। जाना कि पत्रकार हैं तो पूछताछ कर लौट गये। पर जिसने भी सुना दुखी हो गया। कुछ लोगों का दुख उग्र हो गया। उनमें एक नीलाभ थे। कहा कि सिविल साइंस में हीरालाल दिखाई नहीं पड़ने चाहिए। मैंने दुख नरमी से झेला। मित्रों से कहा कि उन्हें खोज कर लाइए। मेरा सम्मान करते हैं। शायद मेरे समझाने को महत्व दें।


अनिल कुमार श्रीवास्तव इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज में काम करते  थे। बड़े सज्जन आदमी थे, उतने ही मिलनसार। साहित्य के प्रति उनका लगाव गहरा था। पत्रिका भी ठीक ठाक निकाल रहे थे। लोग उन्हें डुप्लीकेट ज्ञानरंजन कहते थे। उनका अपमान हमें खल गया। और तो और सुना गया कि पैसा देने के तथ्य को वेरीफाई करने पांडेय जी के यहां चले गये। पांडेय जी बेहद सौम्य, मृदु आदमी हैं। उनके ऊपर क्या गुजरी होगी, कल्पना की जा सकती है।

   

उन दिनों मैं इलाहाबाद में नहीं था। पर छठे-छमाहे आ ही जाता था हफ्ते-दस दिन के लिए। एकाध दिन के लिए तो कभी भी आ जाता था। जब भी आता था हीरालाल को खोजता था। मित्रों से कहता था कि कहीं भी दिखें मेरे पास ले आएं। धीरे-धीरे कोई चार वर्ष बीत गये, पर उनका दीदार नहीं हुआ। पर एक दिन दोपहर वे अचानक अपनी मोपेड के साथ प्रकट हुए। मुझे बड़ी खुशी हुई। पूरे अंतराल की सारी बातें वे बता गये। मेरी भी पूछ ली। पता चला कि सी एम पी डिग्री कालेज के पीछे पुराने बंगले की खाली जमीन ले कर लाज बनवाया है। नीचे परिवार के साथ स्वयं रहते हैं। ऊपर किराए पर छात्र। एक दिन वे घर ले गये। पत्नी ने बच्चों की पढ़ाई के खर्च के साथ घर के अभावों की बात बताई। कहा कि रखा पैसा कब-तक चलेगा। बात तो सही थी। मैंने उनसे कहा कि कोई धंधा शुरू करें। उन्होंने कहा कि गइया-भैंसी का काम कर नहीं सकता, मिठाई की दुकान चलाने की जगह यह नहीं है। और कोई काम जानता नहीं हूं। मैंने कहा कि मिठाई की दुकान के लिए दूसरी जगह तजबीजी जा सकती है। मैंने यह भी कहा कि लोकनाथ का घर छोड़ना ठीक नहीं रहा। उस पर उन्होंने एक राज की बात बताई। यह कि दुश्मनों ने उनके ऊपर बाल-श्रम शोषण का मुकदमा लिखा दिया था। उनमें वे लोग भी थे जो फर्नीचर का पैसा नहीं देना चाहते थे। उससे बचने के लिए छिप कर रहने लगा था। अब ले-दे कर मामला रफा दफा हुआ है। आगे तय करूंगा कि क्या करूं।

    

बात में उनकी दम था।



(11)


ऐसी विपरीत परिस्थितियों में हीरालाल का मनोबल ऊंचा करने के लिए दूधनाथ सिंह ने तीन-चार बहुत महत्वपूर्ण काम किया। यदि वे वे काम न किए होते तो हीरालाल अपने एकाकीपन से बाहर नहीं आ पाते और उनकी कविताई रुक जाती। और वे काम दूधनाथ सिंह ही कर सकते थे। 

       

उसकी चर्चा करने से पहले मैं यह भी बता देना चाहता हूं वे तत्कालीन माहौल और उनकी जो छवि बनती जा रही थी उससे बाहर निकलने के लिए खुद प्रयास कर रहे थे। उनके दिमाग में यह बात आ गयी थी कि यदि वे कुछ दिनों के लिए बाहर हो आएं तो कुछ नयापन और ताज़गी महसूस होगी। उन्होंने अपनी इच्छा और पारिवारिक-आर्थिक परिस्थिति बताई। मैं कोई सप्ताह भर के लिए दिल्ली जा रहा था। साथ चलने के लिए कहा। वे तैयार हो गये । दिल्ली मैं अपने विभाग के गेस्टहाऊस में रुकता था, पर वहां विभाग के बाहर के किसी आदमी को नहीं रखा जा सकता था। मदद की लोक भारती प्रकाशन के दिनेश ग्रोवर ने। गोलचा टाकीज के पास अवस्थित एक अतिथि गृह में व्यवस्था करा दी।  वहां सुबह पहुंच कर तैयार हो कर मैं अपने काम पर निकल गया। हीरालाल को समझा दिया कि आज वे दिन भर अपने मन से घूमें, कल खाली रहूंगा और कुछ रचनाकारों से मिलवाऊंगा। घूमने का बढिया तरीका यह है कि बस का दिन भर का टिकट ले लिया जाय और जिस बस से चाहें, जहां चाहें आए जाएं। हीरालाल की बड़ी इच्छा हंस के संपादक राजेंद्र यादव से मिलने की थी।.वे अपनी पत्रिका में स्त्री और दलित आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे। हीरालाल उसके प्रति आकर्षित थे। मैं शाम को नौ बजे के बाद लौटा। हीरालाल कमरे पर थे। हमने खाना खाया। पूछा कि कहां कहां हो आए। उन्होंने बताया कि जगहों को जानता नहीं। बस अटकलपच्चू बाजारों में घूमता रहा। दूसरे दिन तैयार हो कर मैंने कहा कि पहले दरियागंज चलते हैं। राजेंद्र यादव से मिलते हैं। हीरालाल ने कहा कि जहां भी ले चलें चलूंगा, पर राजेन्द्र यादव से नहीं मिलूंगा। मुझे बड़ा अजीब लगा। जिनसे मिलने के लिए वे इतने उत्साहित थे, उससे इतनी अनिच्छा क्यों। कई बार पूछने पर बड़े संकोच से बताया कि कल मिल आए हैं।  मैंने पूछा कि तब बताया क्यों नहीं। उन्होंने कहा कि क्या बताता, वे इतने ठंडेपन से मिले कि मेरे सारे उत्साह पर पानी फिर गया। विस्तार से बात बताई। कहा कि कभी-कभी रचनाकार के बारे में सुन कर, पढ़ कर जो छवि हम बनाए होते हैं, वह मिलने पर कैसे टूट जाती है। सुन कर मैंने कहा कि इसीलिए मैं स्वयं आप का परिचय दे कर बात करवाना चाहता था। जब एक का परिचय दूसरा आदमी देता है तब उसका प्रभाव कुछ और होता है। 

      

उस जमाने में दिल्ली में रहने वाले रचनाकार घर पर मिलना कम ही पसंद करते थे। एक तो महानगर की भागदौड़ की जिंदगी। घर वालों को देने के लिए समय ही नहीं मिलता था। ऊपर से कोई बाहरी आ जाय तो खलल पड़ता था। मिलने का सबसे अच्छा अवसर मोहन सिंह प्लेस, टी हाउस होता था, जब पांच बजे के बाद वहां लोग जुटते थे। मैंने राजगोपाल सिंह से  ब्रजमोहन के ठीहा पर आने के लिए कहा था। वे विज्ञान व्रत को लेकर वहां आए। दोनों गजलगों  थे। कभी हीरालाल जी, हीरालाल 'प्रयागी' के नाम से ग़ज़ल लिखते थे। सो वे लोग ग़ज़ल पर बात करते रहे। कुछ और भी लोग जुट गये जो उस ठीहे पर नियमित आते थे। उनमें हंसराज रहबर भी थे। वहीं तय हुआ कि हीरालाल की कविताओं पर गोष्ठी दो दिन बाद वहीं की जाएगी।

    

पांच बजे के बाद हम लोग मोहन सिंह प्लेस गये। कई लोगों से  हीरालाल का परिचय हुआ। तीसरे दिन जो गोष्ठी हुई उसमें काफी लोग आए। उनमें शेरजंग गर्ग भी थे। पर वे नहीं आए जिनको अपनी कविताएं सुनाने के लिए हीरालाल इच्छुक थे - मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, विष्णु खरे , हेमंत कुकरेती वगैरह। वहां सबकी अपनी-अपनी व्यस्तता और प्रथमिकता होती है। पर जब हीरालाल इलाहाबाद लौटे तो काफी प्रसन्न थे, राजेन्द्र यादव से मिली मायूसी के बावजूद।

   

दूधनाथ सिंह ने पहला काम यह किया कि हीरालाल से उनकी कविताओं की पांडुलिपि मंगाई, उसे खूब मनोयोग से पढ़ा, जहां-जहां जरूरत थी टच किया और परफेक्ट बना दिया। दूसरे उन्होंने हीरालाल की कविताओं की चर्चा एक बड़ी और ऊंची सर्किल में की, विशेषकर जनवादी लेखक संघ से जुड़े रचनाकारों के बीच। एक दो घरेलू गोष्ठियां भी कराया। इध सब बातों से उनका मनोबल बहुत ऊंचा हुआ और वे नये सिरे से कविताएं फिर लिखने लगे। उन्हीं में वह 'टाटा का नमक' वाली कविता थी, जिसमें वे कहते हैं कि 


"बहुमत के आगे हार गया

खाना पड़ा टाटा का नमक"। 


उस कविता का निहितार्थ इतना गहरा था और वह इतनी सरलता से प्रस्तुत थी कि खूब चर्चित हुई।


दूधनाथ सिंह



(12)


कोई एक-डेढ़ साल बाद वे एक दिन आए और आते ‌ही कहा, "गुरू जी, मेरा संकलन नहीं छपेगा?"


मैंने कहा,"क्यों नहीं छपेगा? आपने दूधनाथ जी को दे रखा है न।" 


"उन्होंने लौटा दिया ‌है।"


बात कुछ समझ में आई। दूधनाथ जी ने प्रयास अवश्य किया होगा। कोई प्रकाशक पैसा लगाने के लिए तैयार न हुआ होगा। पर ऐसा भी नहीं था कि दूधनाथ सिंह कहें और कोई प्रकाशक उनकी बात टाल जाय। मैंने कहा," कविता संग्रह बिकते कम हैं..." 


मेरी बात काटते हुए कहा, "पर छपता सबसे ज्यादे कविता संग्रह ही है।"


उनकी बात सही थी। मेरा संकलन किताब महल से छप रहा था। मन में बात आई कि उनसे चर्चा करूं। मैं रायपुर प्रमोद वर्मा संस्थान के कार्यक्रम में जाने वाला था। उनसे कहा, "आप मेरे साथ रायपुर चलिए। वहां कई प्रकाशक अच्छी पांडुलिपियों की तलाश में आते हैं। वहां बात करते हैं।" वे चलने के लिए तैयार हो गये। पर कुछ ऐसी अड़चन आ गयी कि वे जा नहीं पाये। मैं लौट कर आया तो पांडुलिपि देने को कहा। वे जल्दी ही ले कर आए। पांडुलिपि क्या थी, पत्रिकाओं से बड़ी बेरहमी से नोचे गये पन्ने थे, कुछ अखबारों से काटी गयी कविताएं थीं, कुछ हाथ से लिखी कविताएं थीं। मैंने कहा कि यह तो बड़ा बेतरतीब है। कम्पोजीटर कैसे सेट करेगा? अच्छा हो टाइप करवा लें। उन्होंने कहा कि उसमें तो बहुत समय लगेगा।  यहां के टाइप करने वाले सही बात बताते नहीं। फंसा कर रखते हैं। आज कल, आज कल करते साल भर लगा देते हैं। बात तो उनकी सही थी। मैंने फोटोस्टेट कराया और फ़ोटो कापी यश पब्लिकेशन दिल्ली भेज दी। कोई छह महीने बीत गए तो हीरालाल ने याद दिलाया। मैंने प्रकाशक से बात की तो बोला, पाइप में है। हीरालाल ने एक-दो बार और याद दिलाया। उत्तर वही मिला। एक दिन वे आये और कहा कि कवितवा दे दीजिए, टाइप करा देता हूं। मैंने कहा कि प्रूफ वगैरह देख कर हम लोग पी डी एफ और हार्ड कापी भेज देंगे, फौरन‌ छप जाएगी।  वे ले कर चले गये। फिर कोई पांच छः माह बाद लौटे। साथ में उनके चित्रकूट से आए मित्र थे। उन्होंने झोले से निकाल कर अपना संकलन "कस में ‌हीरालाल" दिया। हमें बहुत खुशी हुई कि उनकी साध पूरी हुई। अब वे संकलन के साथ कवि हो गये। 

 

हुआ यह था कि साहित्य भंडार के मालिक स्व. सतीश अग्रवाल बच्चों की पुस्तकें छापने के अलावा अब साहित्यिक पुस्तकें छापने की ओर उन्मुख हुए थे। दूधनाथ सिंह और अशोक त्रिपाठी उनके सलाहकार थे। मौका मिलते ही दूधनाथ सिंह ने हीरालाल की किताब लगा दी थी। प्रूफ तक स्वयं देखा था। हीरालाल ने उनके योगदान को बड़े मनोयोग से भूमिका में स्वीकार किया था। बातचीत के क्रम में मैंने कहा कि पांडुलिपि यदि यह बात बता कर ले गये होते तो अधिक अच्छा लगता। अब प्रकाशक को क्या कहूं? मैंने उनके सामने ही फोन मिलाया। उसने बड़े उत्साह से बताया कि तीनों प्रूफ देखा जा चुका है। बस दो चार दिन में छपने जा रही है। मैंने बड़े संकोच से बताया कि वह किताब छप गयी है। आप अपना कंपोजीशन नष्ट कर दें। जो घाटा हुआ है, उसे मेरी  रायल्टी से काट लें। यह उसका बड़प्पन था कि उसने नहीं काटा। मैंने हीरालाल से कहा कि थोड़ी चालाकी अच्छी होती है। जैसे आप इधर इस्तेमाल होने से अपने को बचा ले जा रहे हैं। पर ऐसी भी क्या चालाकी कि सामने वाले का विश्वास ही उठ जाय। क्या मैं भविष्य में आप पर भरोसा कर पाऊंगा?



(13)


एक और काम किया दूधनाथ सिंह ने हीरालाल का मनोबल ऊंचा करने के लिए। 2012 में चार चार बड़े रचनाकारों के सौवें जन्मदिन को पूरे देश के विश्वविद्यालयों में बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जब शमशेर बहादुर सिंह का मनाया जा रहा था, तब वरिष्ठ कवियों में केदार नाथ सिंह और कनिष्ठ कवियों में हीरालाल को एकल काव्य पाठ के लिए बुलाया गया। यह दूधनाथ सिंह के सौजन्य से हुआ था। दोनों ने बहुत अच्छी कविताएं सुनाईं। हीरालाल इस आयोजन से खूब प्रमुदित हुए।

     

एक योगदान अली अहमद फातमी ने भी दिया। प्रगतिशील लेखक संघ के उर्दू विंग का अधिवेशन इलाहाबाद में हुआ। खूब गहमागहमी रही। अंतिम सत्र में अली अहमद फातमी लोगों से बीच-बीच में बात करते मेरी सीट तक आए और कहा कि मैं एक सरप्राइज वक्ता को बुलाने जा रहा हूं, जरा ध्यान दीजिएगा। हम लोग सरप्राइज देखने के लिए उत्सुक थे। उन्होंने अंतिम वक्ता के रूप में हीरालाल को बुलाया। हीरालाल भी पहले से तैयार नहीं थे। इसलिए बोलने में थोड़ी परेशानी हुई। हम लोगों को लगा कि उन्हें बहाने से अपनी कविताएं सुना देनी चाहिए थी। तो भी उनका मनोबल बहुत ऊंचा हुआ। स्वाभाविक था। इतने अकादमिक और बड़े रचनाकारों के बीच से उन्हें बुलाया गया था। यह कम बड़ी बात नहीं थी। 

    

कुछ महीनों बाद वर्धा विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राय ने उन्हें विश्वविद्यालय में काव्यपाठ के लिए बुलाया। वे मेरे पास आये। मैं स्त्री अध्ययन विभाग में वक्तव्य देने छठे-छमासे जाता था। कहा कि इस बार वे मेरे साथ चलेंगे। मुझे बहुत अच्छा लगा। पर मेरे जाने का समय निश्चित नहीं था। छूट थी कि दो-चार दिन पहले सूचना देकर मैं कभी भी आ सकता हूं। शंभू गुप्त से बात की और अगले महीने आने की बात तय की। पर हीरालाल को जल्दी थी। उन्होंने एक दिन कहा कि वे जल्दी दो -चार दिन में ही जा रहे हैं। मैंने कहा कि इतनी जल्दी टिकट मिलेगा क्या। उन्होंने कहा कि वे ट्रेन से नहीं, बस से जाएंगे और बदल-बदल कर जाएंगे। इलाहाबाद से नागपुर सीधे दक्षिण में है। सड़क देश को दो भागों में बांटती जाती है। दिन भर यात्रा करूंगा और सारा परिदृश्य देखता जाऊंगा। मुझे उनका एडवेंचर और रूमान बहुत अच्छा लगा। वर्धा में उन दिनों दूधनाथ सिंह राइटर-एट-रेजिडेंस थे। काव्य पाठ से पहले उन्होंने हीरालाल का परिचय बड़े ढंग से दिया। खूब प्रशंसा मिली। वहां विनोद कुमार शुक्ल और ऋतुराज भी थे। उनका भी सान्निध्य मिला। लौटे तो उनका हौसला बल्लियों उछल रहा था। 


पर इससे उनका आइसोलेशन नहीं टूटा। अपने संकलन की भूमिका में जहां उन्होंने दूधनाथ सिंह की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और एहसान जताया था कि उनकी कृपा से वे कविता की दुनिया में पुनः लौट आए, वहीं उन्होंने रचनाकारों के व्यवहार की भर्त्सना की थी कि वे जरूरत पड़ने पर साथ उठ खड़े होने वाले लोग नहीं हैं। ऐसा कहने के तमाम कारणों में एक यह भी था कि उन्होंने अपनी बड़ी बेटी की शादी में तमाम साहित्यकारों को बुलाया था। पर विवाह के दिन कोई नहीं पहुंचा। मैं जब अपनी पत्नी के साथ वहां पहुंचा तो अपने लेखक बिरादरी से वहां किसी कोन हीं पाया। मैंने इशारा किया तो बोले कि मैंने अपनी तरफ से सबको बुलाया है, संबंधों को ठीक-ठाक करने का प्रयत्न किया है। यदि रेस्पांस नहीं मिलता तो क्या करूं। वे बड़े मायूस थे। उनकी पत्नी ने कहा कि मैं पहले से कहती थी कि एक भी साहित्यकार दोस्ती करने लायक नहीं है। ये बेकार ही मुंह उठाए इस दुआरे, उस दुआरे दौड़ते रहते हैं। मैंने भी उदास हो कर कहा कि पहचान बनाने, व्यक्त करने, ख्याति पाने का नशा ऐसा नशा होता है कि उसके लिए आदमी बहुत कुछ त्याग देता है। बहुत कुछ क्या, सब कुछ चौपट कर दिया है, घर धंधा, सब कुछ उन्होंने कहा।  बारात लग रही थी। सब व्यस्त हो गये। मुझे अष्टभुजा शुक्ल के कुपद की एक पंक्ति याद आयी:--


"मैं ही गया द्वार पर सबके 

मेरे घर कोई नहीं आया।"



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आइसोलेशन न टूटने का एक कारण उनके संकलन की भूमिका में ही था। एक असंबद्ध पैराग्राफ में ब्राह्मणों को बहुत भला बुरा कहा था। यह कोई खास बात नहीं थी। 90 के बाद देश में ऐसा माहौल बना है कि लोग अकारण ही उन पर हमलावर हो जाते हैं। वोट की राजनीति के चलते तरह-तरह की राजनैतिक पार्टियां इसे बढ़ावा भी खूब दे रही हैं। उन हमलों को सुनने की आदत हो गयी है लोगों को। पर वह जिस तरह से लिखा गया था, वह वहां पचता नहीं था। मैंने उसके बारे में पूछा तो वे पहले चुप रहे, फिर कहा कि लिखवाया गया है। मैं हैरान कि क्या फिर इनका इस्तेमाल हो गया!

    

उसका असर अच्छा नहीं पड़ा। इलाहाबाद में तमाम रचनाकार ब्राह्मण थे। हीरालाल गोष्ठियों और अन्य आयोजनों में मिलते थे, दुआ-सलाम होता था, पर संबंधों की वह गर्माहट विकसित नहीं हो पायी जो अपेक्षित थी। एक तो  लोगों ने कहा कि नोटिस तो पहले ब्राह्मण लोगों ने ही लिया जब आप भटक रहे थे। उसका भी लेहाज नहीं रखा। गये तो थे राजेंद्र यादव का वरदहस्त प्राप्त करने, पर वह नहीं मिला। दो-चार लोगों ने यह भी कहा कि जब तक आप आदमी हैं, सभी आदमी हैं, सभी बराबर हैं। पर जैसे ही आप विभेद करेंगे कि कोई दलित है, कोई बैकवर्ड है तो जो सवर्ण हैं, वे अपने-आप सवर्ण हो जाएंगे। यह कोई राजनीति नहीं है कि वोट मिलेगा या रिजर्वेशन से कोई सीट मिलेगी। यह साहित्य है। यहां अभी भी रचना की मेरिट ही काम आएगी। और वह मेरिट आप में है और साथ के तमाम रचनाकारों से उच्च है।


एक ठीक से परिचर्चा तक न हो पाई संग्रह पर। उनके पृष्ठपोषक भी झोले से निकाल कर पुस्तक संगठन के लोगों को देते रहे पर परिचर्चा पर ध्यान नहीं दिया। और हीरालाल अकेले पड़ते गये।


अकेले वे पारिवारिक कारणों से भी पडते चले गये। पता नहीं क्यों हीरालाल ने जार्ज टाउन वाला मकान बेंच दिया और दारागंज में रहने लगे। हमारे समाज की जाने क्या मानसिकता है कि आदमी चाहे जितना भी योग्य हो, यदि वह कमाता नहीं है तो उसे अपेक्षित सम्मान नहीं मिलता है। और वे कमा नहीं रहे थे। दारागंज में उनके कई रिश्तेदार रहते थे और उनके बीच उपेक्षित महसूस करते थे। वैसे कोई खास आर्थिक परेशानी परिवार के सामने नहीं थी। नेक बड़ी बेटी अमेरिका में अपने पति के साथ रह रही थी और घर का खर्च विशेषकर भाई की पढ़ाई का पूरा खर्च उठा रही थी। छोटी बेटी की भी शादी ठीक-ठाक हो गयी थी और अपने घर में खुश थी। बेटा भी पढ़ने में अच्छा था। पर उनका मन नहीं लग रहा था। बेचैन थे कि कह-कह कर उनका लिखना-पढना छुड़ा दिया गया था। जो उनका प्रिय शगल था उसे ही रोक दिया गया तो उनका हताश होना लाजिमी था। मैंने कई बार कहा कि मेरे पास आकर लिखे-पढे। दो-बार आए भी पर मन नहीं लगा। मुक्ति का ख्वाब देखने वाला पखेरू घिरता गया। उनका पुराना रोग उभर आया। तरुणाई में वे कभी टी. बी. झेल चुके थे। बाद में श्वास के मरीज भी हुए थे। ऐसा उन्होंने मुझे बताया था। वह श्वास की बीमारी अब-तब उभरने लगी। फिर भी उन्होंने धंधा करने को मन बनाया, कमाने के लिए कम अपने को व्यस्त रखने के लिए अधिक। सिविल लाइंस में व्हीलर्स के मुख्यालय के सामने उन्होंने गुमटी रखी। पर कुछ ही महीनों में ऊबने लगे। सोचा कि स्वयं के बनाए नमकीन का व्यापार करें। वे नमकीन बहुत स्वादिष्ट बनाते थे। बेचने वालों से संपर्क किया तो पता चला कि वे तभी बेंच पाएंगे जब उनका ब्रैण्ड हो और पैक किया हो। उन्हें यह झंझट का काम लगा और विचार त्याग दिया। कुछ दिन बाद गुमटी भी हटा ली और फिर गुमनामी में चले गये।



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हीरालाल का अलगाव बढ़ता गया। गोष्ठियों में तो जाते थे, पर स्वयं गोष्ठियों की संख्या घटती गयी। सम्मुख के बाद 'मुखातिब' की गोष्ठियां नियमित होती थीं। उस पर भी कुछ की, किसी की कृपा हो गयी। अपने तो कुछ कर पाते नहीं थे, इसलिए जो करते थे उनके काम में अड़ंगा लगाते थे। घर में होने वाली गोष्ठियां समाप्त प्राय थीं। रचनाकारों की नयी जमात ऐसी थी जो न स्वयं किसी के घर आती थी, न अपने घर बुलाती थी, तो गोष्ठी क्या आयोजित करती। हम अपनी बिरासत ऐसी पीढ़ी के हवाले कर रहे थे, जो आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्ध थी। अपनी रचना की गुणवत्ता जांचने की उसे जरूरत नहीं थी। कोई मनमाफिक टिप्पणी यदि नहीं सुनती थी तो टिप्पणीकार को विरोधी ही मान लेती थी। फिर भी जहां जानकारी मिलती थी, वहां वे जाते थे। रचनाकारों के घरों पर जाना भी क्रमशः कम हो गया। मेरे घर वे पहले महीने में दो-तीन बार आते थे, फिर दो-तीन महीने में एक बार हो गया, फिर पांच-छः महीने में। पर जब आते थे तो खूब देर तक रहते थे और खूब बातें करते थें। बातें सामाजिक माहौल से ले कर पाठक के मिजाज तक की होती थीं। पाठकों के बारे में वे साफ-साफ कहते थे कि आज जो लिखता है, वही पढता है। हमारा लेखन ऐसा है कि मनोरंजन के लिए कोई पढ़ेगा नहीं और समझ दुरुस्त करने के और भी साधन हैं। वकीलों के घर जाइए, ढेर सारी किताबें दिखेंगी, पर साहित्य की एक न होगी। बनिया के घर जाइए, किताब नहीं दिखेगी, खुदा न खास्ता दिख गयी तो औरतें बड़बड़ाती मिलेंगी कि कबाड़ से घर भर दिया है। छोटे अधिकारियों, जजों के यहां जाइए तो किताब नहीं दिखेगी। हां, सुना है कि बड़े अधिकारी मोटी बढिया बाइंडिंग की किताबें बैठक में रखते हैं पढ़ने के लिए नहीं, सजाने के लिए, इंटेलेक्चुअल होने का रोब गांठने के लिए। छात्र तक एक टेक्स्ट बुक को खरीद कर फोटो कॉपी कर आपस में बाट लेते हैं, तो हमें आप को कौन पूछता है। क्लर्कों के घर जाइए, कोई किताब मिलेगी? अध्यापकों के घर जाइए, वही किताब मिलेगी जो पढाने के लिए हैं, या फिर जो आपने दे रखा है। पर उसका पन्ना पलटा नहीं मिलेगा। वह तभी पलटा जाएगा, जब लिखना होगा। और आप पर नहीं लिखना है। आप उनके गुट में फिट नहीं बैठते तो आप पर क्यों लिखें। उनके लिखने से आप महान हो जाएंगे, पर आपकी महानता से उन्हें क्या मिलेगा? एक चुक्कड दारू तो पिलाते नहीं हैं। हां, इतना जरूर रहेगा कि मर जाइएगा तो संगठन एक स्मृति सभा आयोजित कर देगा और उसके बहाने अपना नाम अखबारों में एक बार और छपवा लेगा। ऐसे में क्या लिखना। लिखना उनका जो शशि थरूर और रामचंद्र गुहा जैसे हों, जिनके प्रचार का तंत्र हो। आप की किताब की पांच सौ प्रतियां भी नहीं छपतीं और दस वर्ष में भी नहीं बिकती। सुना है कि अंग्रेजी वालों की पांच हजार से कम नहीं छपती। मराठी बंगाली के भी बारे में सुना है। पढी जाती हैं उन भाषाओं में तभी तो छपती हैं। उन्हें अच्छी-खासी रायल्टी मिलती है। सुना है, हिंदी में बच्चों की किताब लिखने वालों को कुछ मिलती है, जिनकी सरकारी खरीद होती है। वहां लेखन धंधा है, जिसे प्रकाशक चमकाता है, कमीशन देता है। आपको क्या रायल्टी मिलती है? हमारा प्रकाशक तो किताब ग्राहक के सामने रखता ही नहीं।

  

हीरालाल की बातें कटु होंती, पर सच्चाई से लबरेज। उनको सुनना अच्छा लगता। मैं उन्हें उत्साहित करता। पर उनका दायरा सिकुड़ता जा रहा था। उन्हीं दिनों उनके सबसे बड़े संबल दूधनाथ सिंह भी जाते रहे। पहले भी अस्वस्थ रहने के कारण अक्सर दिल्ली रहते। जब निर्मला जी अस्वस्थ थीं तो मिलने-जुलने वालों से कह रखा था कि फोन कर आएं। उनमें हीरालाल भी थे। सिर्फ मिलने आने के लिए ‌फोन करने में उन्हें संकोच होता था।



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कोरोना काल में सभी बंद हो गये। सबके दरवाजे पर मृत्यु टहलती लगती थी। ऐसी बीरानी चेचक, महामारी के दौरान भी न फैली होगी। बांझ धरती की जो कल्पना टॉमस इलियट करता है और उसे विरानी में बदलता है उसका साक्षात ब्रह्माण्ड में विचर रहा था। एक आसन्न भय रचनाकारों को बंजर किए दे रहा था। तमाम संवेदनशील क्रांतिकारी रचनाकार सिंधु बार्डर पर किसानों के आंदोलन में शामिल होने नहीं गये। अब जरूर जा रहे होंगे। हीरालाल से कोई डेढ़ वर्षों तक मुलाकात नहीं हुई। जीवन जब पटरी पर आने लगा तो आए और खूब आए। वे खूब प्रसन्न थे। 

     

पेसमेकर लगा होने के कारण मेरी पत्नी सीढियों से भरसक नहीं उतरती। वे उनसे मिलने ऊपर गये। मेरी पत्नी ने बेटियों का हाल-चाल पूछा। मगन हो कर बताया कि लरकोर होइ गयीं हैं सब। अपने घर-गृहस्थी में रच-बस गयी हैं। लडकवा बी. बी. ए. कर रहा है। नोएडा में रहता है। बड़ी बेटी थोड़ा ज्यादे नेक है। पढाई का सारा खर्च उठाती है। छोटी बेटी भी सहयोग करती है। भाभी जी बड़ा कष्ट उठाया है। अब गृहस्थी कुछ पटरी पर आय गयी है। यह सब सुन कर उन्हें बहुत अच्छा लगा। कहा कि बेटियां जब आएं तो यहै जरूर लाइएगा। उनको देखे बहुत दिन हो गया। मैं तो जा नहीं सकती। हीरालाल ने वादा किया।

     

एक दिन हीरालाल मीठाई का डिब्बा ले कर आए। शुरू में वे एक बार ले कर आए थे। फिर न ले कर आने के लिए मैंने स्ट्रिक्टली मना कर दिया था। कोई पच्चीस-छब्बीस वर्षों बाद उसे देख कर थोड़ा आश्चर्य हुआ। बड़े उत्साह से उन्होंने कहा कि लड़कवा की नौकरी लग गयी है, पैकेज कोई खास नहीं है। फिर भी अपने पांवों पर खड़ा हो गया है। इस बार उनकी मिठाई पहली बार से ज्यादे अच्छी लगी। 

        

पर हीरालाल का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। श्वास रोग अक्सर परेशान किए रहता। मैंने कहा कि चलिए हम अपने डाक्टर से चेक करा देते हैं। हीरालाल ने कहा कि जरूरत नहीं है। दवाई चल रही है। आराम रहता है। जड़ से तो जाएगी नहीं। इस बीच उनकी मोपेड खराब हो गयी। आना-जाना अवरुद्ध हो गया। मेरे घर पैदल ही आते। पांव थोड़ा खराब था, तकलीफ होती होगी। फिर भी आते और होली-दिवाली के दो-चार रोज बाद जरूर आते।

  

पिछली दिवाली (2023) के चार-छः दिन बाद वे आए। मैं गांव से लौटा था। वे खूब प्रसन्न थे। बड़े प्यार से कहा कि गुरु जी एक बार आप मुझे अपने गांव ले चलिए। मैंने पूर्वांचल का कोई गांव नहीं देखा है। मैंने कहा कि ठीक तो है। फिर हम लोग योजना बनाने लगे कि किन और लोगों को साथ लिया जा सकता है। मैंने कहा कि कविताएं सुनाइये। वे जब आते थे तो मैं उनसे कविता जरूर सुनता था। वे अक्सर कहते थे कि एक आप हैं जो कह कर कविता सुनते हैं और एक वे हैं जो डरते रहते हैं कि कहीं कविता न सुना दे। वे खुल कर हंसे। फिर कुछ कविताएं सुनाईं। उनमें वह उनकी पसंदीदा कविता भी थी, जो निम्न है -


मुनादी करवा दो शहर में 

गांव-गांव में पिटवा दो ढोल

पैम्फलेट चिपका दो दीवारों पर

आकाश में गुंजा दो आकाश भर शोर

विज्ञापन छपवा दो अखबारों में 

टी वी पर दे दो एड

करनी पड़े लड़ाई पड़ोसी मुल्क से 

चाहे छेडना पड़े विश्वयुद्ध 

पता लगाओ उन भाभियों का 

जो कहती थीं

लाला जी तुम्हारी बहन मिली थी हमें 

बाजार में मर्द ढूंढते हुए 

ढूढो उन सालियों को 

जिनके जीजा कहने भर से 

अपने को प्रधानमंत्री से कम

नहीं समझता था कोई आदमी 

कहां गया वह दोस्त जो कहता था 

अबे चोर! कहां था इतने दिन 

मिलता था उसे जबाब 

अबे चोर का भाई गिरहकट 

तू कहां रहा इतने दिन 


क्यों लोग अंग्रेजी में फारमल होते जा रहे हैं 

क्यों खत्म होता जा रहा है हिंदी में मजाक 

 

मेरा टहलने जाने का समय हो गया था। हम साथ निकले कभी-कभी हम विनोद चाट वाले की दुकान पर गये। वहां की चाट हमें बहुत पसंद थी। भर पेट खाया। हीरालाल बड़ा स्वाद ले कर धीरे-धीरे खाते थे। खुद अच्छी तरह पकाना जानते थे। फिर हम परेड ग्राउंड की तरफ घूमने गये। जहां से मुझे लौटना था वहां जा कर हम खड़े हो गये। फिर मैंने कहा कि चलिए आज आपका डेरा देख आते हैं। आज नहीं, फिर किसी दिन उन्होंने कहा। क्यों? अभी ठीक नहीं है। साफ जाहिर था कि वे ले जाना नहीं चाहते थे। कुछ तो गड़बड़ जरूर था। मैं बिदा ले कर दक्षिणमुखी हो गया। वे आड़े-तिरछे उत्तर-पूर्व चले। जहां दो सड़कें T के आकार में मिलती थीं, वहां एक लडका गुब्बारे बेंचने के लिए फुला -फुला कर गैस की टोंटी में बांध रहा था। उन पर बहुत सुंदर चित्र बने हुए थे, जिन्होंने मुझे आकर्षित किया। तभी एक गुब्बारा खुल कर आसमान की ओर उड़ा। मैं उसे उड़ते देखने लगा। जिधर-जिधर वह लहरा कर जाता था, मेरी आंखें उधर अपने आप चली जाती थीं। हीरालाल की दिशा में आंखें गयीं तो देखा वे खड़े एकटक मुझे देख रहे हैं। उनका इस तरह मुझे देखना ठीक नहीं लगा। लगा कि जैसे आंखें कह रही हों कि अबके बिछड़े तो फिर नहीं मिलेंगे। मैंने सिर फेर लिया। 

       

होली बीत गयी, हीरालाल नहीं आए। उन्होंने एक फोन नं दिया था, जो कभी लगता था, कभी नहीं लगता था। मैंने कई बार कोशिश किया पर सफलता नहीं मिली। एक दिन हिन्दी विभाग में बैठा था। बातों के क्रम में संतोष भदौरिया ने कहा कि हीरालाल जी कैसे है? बहुत दिनों से खबर नहीं मिली। मैंने कहा कि मुझे भी नहीं मिली। फोन लगता नहीं। उन्होंने कहा कि मेरे भी पास एक नंबर है, मिलाता हूं। पर वह नंबर भी नहीं मिला।  बात आई-गयी हो गयी। 

 

फिर संतोष चतुर्वेदी उनके न होने की खबर कहीं से ले आए। उनके न रहने की जानकारी साहित्यिक जगत को उसी से मिली। मन कई दिनों तक गमगीन रहा। घर देखा नहीं था कि घर वालों से जा कर दो शब्द कहता।


एक कविता याद आती है -


मौत और कुछ नहीं होती 

होती है सच को जानने का एक एहसास 

मौत होती है कोरे कागज पर जीवन की खोज 

शिल्पकार के शिल्प की तरह होती है वह

अनजान रोशनी का मूल्यांकन 

मौत होती है एक मृत्युंजयी कविता 

जिसकी खूशबू खूशबूदार फूलों से 

ज्यादा खूबसूरत होती है 


किसी मौत पर अपने आंसू बिल्कुल नहीं बहाऊंगा 

शायद कोई कविता भी नहीं लिख पाऊंगा 

मैं आदमी होने के नाते 

उस मौत को समझने की कोशिश करूंगा......


(कविता सुबोध चन्द्र मशीत की है)



श्रीप्रकाश मिश्र



सम्पर्क 


मोबाइल : 8005094727



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