सुलोचना वर्मा के उपन्यास नायिका पर यतीश कुमार की समीक्षा
'नायिका' नटी बिनोदिनी के जीवन पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है जिसे सुलोचना वर्मा ने शोधापरक तरीके से लिखा है। जिस समय बंगाली थिएटरों पर पुरुषों का पूरी तरह वर्चस्व था उस समय विनोदिनी ने थिएटर जगत में प्रवेश किया और अपने अभिनय से खुद को उम्दा अभिनेत्री साबित किया। विनोदिनी ने अपनी आत्मकथा के अतिरिक्त कविताएं भी लिखी और अपने लेखन में उस समय के भद्र समाज की बखिया उधेड़ने का साहस दिखाया। इस तरह यह उपन्यास भले ही नटी बिनोदिनी की कथा के रूप में है लेकिन इससे उस समय के समाज और परिवेश के बारे में भी पता चलता है। सुलोचना ने इस उपन्यास के बहाने उस समय के भारत के स्वाधीनता आन्दोलन, नील विद्रोह आदि की चर्चा की है। अन्त में विनोदिनी का बयान रोंगटे खड़े कर देता है 'मर्म और वेदना की क्या भूमिका होगी। यह सिर्फ एक अभागिनी के जले हुए हृदय की राख है। इस पृथिवी में मेरा कुछ भी नहीं है। है तो बस अनन्त निराशा, कायरता। साझा कर सकूं, ऐसा कोई भी नहीं है। क्योंकि इस संसार के लिए मैं केवल एक पतित वारांगना हूं। आत्मीय बंधुहीना कलंकिनी।'
यतीश कुमार ने इस उपन्यास को पढ़ते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण बातें की हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुलोचना वर्मा के उपन्यास नायिका पर यतीश कुमार की समीक्षा 'पूँटी’ माने बंगाल की पोठी मछली!
'पूँटी’ माने बंगाल की पोठी मछली!
यतीश कुमार
उपन्यास के शुरुआती पन्ने से ही 'समय’ अपनी हाज़िरी लगाता मिला। उसकी उपस्थिति में समस्याएँ भी पंक्ति दर पंक्ति दर्ज होती दिखी। ग़रीबी, सामाजिक समीकरण में बदलाव के साथ पारित किए गए नए क़ानून का प्रावधान, लैंगिक समानता, सार्वभौमिक मताधिकार, बचपन में ही महामारी में भाई की मृत्यु।
गोलाप बनना भी सुंदर आजीवन रिश्ते का विनिर्माण ही है खासकर स्त्रियों के लिए। यह इस किताब के माध्यम से जान पाया।
देह का शोषण और गरीबी के बीच के विडंबनात्मक अनिर्णय की स्थिति मन को कितना सताने वाली होती है यह बिनोदनी के शुरुआती जीवन को पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है। हृदय की चीत्कार कितनी भयावह होती है। एक रात का काला बादल कितना काला हो सकता है।
नाट्य विधा में नेपथ्य की तैयारियाँ बहुत अच्छे से दर्ज हैं इस किताब में। नाटक के कई दिन पहले से, बिनोदनी कैसे ख़ुद को किरदार के परकाया में ढाल लेती थी, यह अपने आप में रोचक वाकया है, जिसे बारीकी से समझाया गया है यहाँ, इस किताब में।
वय के साथ बुद्धि और विवेक दोनों का विकास विषम परिस्थिति में भी कैसे होता गया इसको भी विभिन्न नाटकों के अलग-अलग किरदारों के संदर्भ के साथ क्रमबद्ध करके समझाया गया है इस किताब में। सुलोचना ने श्रमसाध्य शोध किया है जो हर अध्याय के अंत तक आते-आते और साफ़ होता जाता है।
विभिन्न सटीक जगहों की आज की तस्वीर को जोड़ कर किताब को और भी जीवंत बनाया गया है ।
थिएटर संवाद संचार से क्रांति की ओर कैसे मुड़ा और कैसे चेतना का संसार क्रांति के लिए साहित्य का वरण करता है, उसका सुंदर और उपयुक्त उदाहरण 1859 में दीनबन्धु मित्रा का लिखा नाटक 'नील दर्पण’ है ।
सुलोचना ने 'नील दर्पण' से नील आयोग और फिर 'ड्रामेटिक प्रदर्शन अधिनियम 1876' तक की यात्रा की पृष्ठभूमि को बहुत अच्छे से सारपूर्वक समझाया है। इसी के साथ इस विवादास्पद नाटक का सिरा कैसे बिनोदनी दास से जुड़ गया इसे भी यहाँ समझाया गया है।
'बेंगॉल थियेटर’ समय से बहुत आगे सार्वजनिक शेयर के तर्ज पर बनाया गया था। दूरदर्शिता और समय से आगे चलने का सुंदर उदाहरण है यह।
एक ही नाटक में दो किरदार कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है इसका जिक्र 'दुर्गेशनंदिनीं’ नाटक में आयशा और तिलोत्तमा का किरदार करते हुए बिनोदनी के अनुभव के तौर पर यहाँ पढ़ते हुए समझा जा सकता है ।
सुलोचना |
किताब के माध्यम से लेखक ने समय को दर्ज भी किया है। समय के साथ नाटक के तरीके और उस समय के कष्ट को भी। नाटक का सार्वजनीकरण जन समाज के पहले जमींदारों के लिए सिर्फ़ हुआ करता था और गांव-गांव जा कर नाटक करने की अपनी चुनौती भी थी। इन चुनौतियों की व्याख्या मिलती है कई घटनाओं के माध्यम से, जो यहाँ रुचिपरक भी है ।
बिनोदनी का बंगाल के अलग-अलग तीनों नाट्य संस्थानों में बारी-बारी से काम करने के अनुभव की चर्चा भी यहाँ विस्तार से की गई है।
उनकी यात्रा बहुत ऊबड़-खाबड़ रही। समझना मुश्किल है कि नाटक मंडली में काम करते हुए कला साम्राज्ञी कहलाने के बाद भी, किसी की आश्रिता कैसे रहीं। कितनी विडंबनाओं से भरी है यह किताब।
पैसों की तंगी के बीच कैसे बिनोदनी अपने आपको, अपनी देह को बचाते हुए नाटक और मंच के प्रति समर्पित रहती है, यह भी इस किताब का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। स्टार थियेटर के विनिर्माण में देह और मन के बीच जो मानसिक संघर्ष यहाँ दिखाया गया है वह आपको भीतर से हिला देगा।
गिरीश घोष और बिनोदनी का संवाद पढ़ते हुए इस विषय पर द्रोणाचार्य और एकलव्य के संवाद जैसी ध्वनि करता लगा।
गुरुमुख राय और कुमार बहादुर के बीच पिसती बिनोदनी के साथ सुलोचना उस समय के पितृसत्तात्मक अभिमान की पराकाष्ठा को भी रच रही हैं। देह को पाने, अपने अधीनस्थ रखने की लालसा-जुगुप्सा मनुष्यता की ग़ुलामी से कम इसे चिह्नित नहीं कर रही ।
'चैतन्य लीला’ में चैतन्य देव और निमाई का अलौकिक अनुभव; ख़ुद बिनोदनी के लिए दोनों पात्र में एक साथ ढलते हुए महसूस करना और रामकृष्ण परमहंस का नाटक देख कर कहना कि “असल और नकल को एक होता देखा आज” कितना बड़ा पक्ष अलौकिकता की ओर खोलता है । कितनी सारी नई जानकारियाँ हैं हम जैसे पाठकों के लिए, सच!
जीवन में पुरुष आए और गए पर साथी नहीं मिला। बिनोदनी दासी रंगमंच की पहली महिला अभिनेताओं में से एक होने के साथ-साथ अपनी आत्मकथा 'आमार कॉथा' और 'आमार अभिनेत्री जीवन’ लिखने वाली दक्षिण एशिया की पहली अभिनेत्रियों में एक रहीं। समय से बहुत आगे रही इस अभिनेत्री ने इस जीवनीपरक उपन्यास को पढ़ते हुए कई बार चौंकाया। कविता संग्रह 'वासना’ और 'कनक व नलिनी' में वेदना के संग पतिता से भक्ति मार्ग की ओर मुड़ने का अपना निजी अनुभव। प्रेरणा के कितने पुंज बिखरे हैं यहाँ, कितने गौहर, कि आप बस चुनते रहें चुनते रहें।
यहाँ कई बार मुझे आम्रपाली याद आई। दर्शन से आत्मा दर्शन की यात्रा करती दो महिलाओं के जीवन में कई समानता को देख सकते हैं आप। बुद्ध और चैतन्य का अंतर बस है।
भारत में थिएटर का इतिहास और उस समय की सामाजिक स्थिति आडंबर सब की झलक है यह किताब।
इस किताब में बिनोदनी के तार रबींद्र नाथ टैगोर के बड़े भाई ज्योतिरिंद्र टैगोर जिन्होंने 'सरोजिनी' नाटक लिखा था, के साथ भी जोड़ने का जिक्र है। कादम्बरी देवी की मृत्यु के समय बिनोदनी के लिखे पत्र का कमरे में मिलने का जिक्र भी चौंकाता है।
रोचकता और इतिहास यहाँ गुथा तो है, पर गुथने की कला में थोड़ी चूक हो गई है। इसे सिर्फ़ और सिर्फ़ पाठकीय व्यक्तिगत टिप्पणी समझा जाए और पाठकीय चूक होने की संभावना के साथ इसे यहाँ लिख रहा हूँ। इस किताब को सिर्फ़ उपन्यास के तौर पर ही लिखा जाना चाहिए। शोध या आलेख को इससे दूर रख कर अगले संस्करण पर काम करने का सुलोचना से मेरा अनुरोध रहेगा। मेरा तात्पर्य उपसंहार से है जिसमें बातों का दोहराव आता है। पाठक के पास वक्त की अपनी सीमा होती है। उपन्यास से इतर फिर उपसंहार के दोहराव को छोड़ने का निर्णय तो लेखक का ही होगा, पाठक तो सिर्फ़ अनुरोध ही कर सकता है। उपन्यास भी विस्तार माँगता है। आत्मकथा लिखने, नाटक छोड़ने और मृत्यु तक की गाथा को और विस्तार की ज़रूरत है। इस किताब में क्लासिक होने की सारी संभावनाएँ निहित होने के कारण ही ऐसे विस्तार की गुंजाइश बनती है।
नायिका- उन्नीसवीं शताब्दी के रंगमंच पर: नटी बिनोदनी
उपन्यास- सुलोचना वर्मा
सेतु प्रकाशन।
यतीश कुमार |
सम्पर्क
मोबाइल : 8420637209
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