प्रज्ञा रावत की कविताएं

 

प्रज्ञा रावत


दुनिया के बदलने के साथ साथ लोगों का बर्ताव भी लगातार बदलता चला गया है। लोग अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि अब पहले वाले लोग नहीं रहे। इसके बावजूद आज भी ऐसे लोग हैं जो निष्कपट और निःस्वार्थ भाव से अपना काम करने में लगातार जुटे रहते हैं। विशेषकर स्त्रियां (जिसमें समूची दुनिया की स्त्रियां शामिल हैं) इस दुनिया को सजाने संवारने में आज भी लगी रहती हैं। वे कई बार धोखा खाती हैं। कई बार ठगी जाती हैं। लेकिन कबीर की तर्ज पर कहा जाए तो 'कबीरा आप ठगाइए और न ठगिए कोय' का अनुसरण करती हैं। प्रज्ञा रावत इस स्त्री मन को रेखांकित करते हुए लिखती हैं 'चाहती है ऐसा ही निष्कपट संसार/ जहाँ विश्वास और अपनत्व की बची-खुची/ आस फिर जी उठे/ जी उठे आदमी का मन आदमी के लिए।' जिस समय अविश्वसनीयता अपने चरम पर हो, उस समय ये स्त्रियां जीवन पर विश्वास करती हैं और दुनिया की उम्मीद को अपने इस विश्वास के बूते जिलाए रखती हैं। प्रज्ञा की पक्षधरता उन आम लोगों के प्रति है जिनके पक्ष में आमतौर पर कोई नहीं होता। जो प्रायः उपेक्षित रहते हैं। अपनी कविता 'ईद मुबारक' में वे लिखती हैं 'जिन्हें आए दिन सुनाया जाता है/ वतन से बेदख़ली का फ़रमान उन्हें भी/ ईद मुबारक।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रज्ञा रावत की कविताएं।



प्रज्ञा रावत की कविताएं



आलिंगन…


हरी पत्ती छुई 

हरी हो गई

नीला छुआ

आसमान बन गई

कातर आँखें देखीं

तो दुख बन गई 

कातर बड़ी आंखें

जिस्म का हिस्सा बन

पीठ पर टंगी फिरती हैं

पूछतीं प्रेमियों से पिताओं से 


कि वो तुम ही थे जिसने प्रेम के अन्तिम आनन्द से 

बाहर आ कर किया मुझे किया निर्वस्त्र

दोशाला खींची!

नन्हीं बिटिया के माथे पर तुम्हारा स्पर्श है ना!

काला कर दिया जिस्म !

आँखें भरती जा रही हैं पीठ पर

पीठ भारी होती जा रही है 

और वो समय से झूठ बोल रही है

चुप हो जाय! चुप हो जाय!



आग और सपना…


1


क्या करूँ इस सपने का

जिसमें आँख बंद करते ही

अवतरित होते हैं बिरजू महाराज

अपनी पकी उम्र में पान का बीड़ा दबाए


तीखी मुस्कुराहट और तिरछी आँखों के साथ

वो चक्करदार परण करते हुए

नाचते चले जाते हैं

सहसा हथेली के बिनौले से छूट कर

हवा में तैरती रुई की मानिंद


होते हैं गुदई महाराज

उँगलियों की फिरकनी को घुमाते

कब्जे में करते समय की ताल

और लय की तरंगों को


आ कर धीरे से तानपूरा

मिलाती हैं बेग़म अख्तर

अपने अन्दर समाये जैसे सारे समुद्र का पानी

बेसुध हो कर गाती हैं...


कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया...

.... हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब

आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया


इन सब बानगियों को अपनी

शहनाई की मिश्री में घोल कर

नाचती आँखों से जब अठखेलियाँ

करते हैं ख़ाँ साहब तो

बिस्मिल्लाह होता है समय का पहिया


मैं शब्द ढूँढ़ती हूँ इस सबको

कह पाने के लिए और

महसूस करती हूँ एक उँगली की छुअन

जो इशारा करती है

चारों तरफ फैल रही अमानवीयता की तरफ


उस उँगली की छुअन, और वो स्पर्श

जो मेरे माथे पर

अपनी हथेली से मुझे आशीष रहा है

पहचान जाती हूँ उसे भी


पहचान जाती हूँ पिता की जली हथेली

वो हथेली जिसने कैसे-कैसे

हाथ में आग थाम कर

अपने आसपास को सलीकेदार बनाया

हमें सलीका सिखाया


इस सपने को देख पाने का

हुनर बताया

हमें हुनरमंद बनाया

पिता तुम्हें बारम्बार सलाम

सलाम पिता तुम्हें। 



2


वो अक्सर बोल देती है

अपने दिल की बातें सबसे

खोल देती है अपना मन

हर बार भूल जाती है

नफ़रत करना किसी एक से


हर बार डाँट खाती है अपनों से

कि वो बहुत अनाड़ी

कोई भी बुद्धू बना ठग ले जाय उसे

रो गा कर सुना कर अपनी व्यथा-कथा

और मानो न मानो हर बार

हुआ भी है कुछ ऐसा ही उसके साथ

पर सच बताऊँ तो वो दुनिया

ऐसी ही देखना चाहती है


चाहती है ऐसा ही निष्कपट संसार

जहाँ विश्वास और अपनत्व की बची-खुची

आस फिर जी उठे

जी उठे आदमी का मन आदमी के लिए


जानती है ऐसे घोर अविश्वासी समय में

वो बावरी ही कहलाएगी

फिर भी उम्मीद की इस लौ को

आखि़र तक जलाएगी

जलती हथेलियों से ही सही

बचाएगी उस लौ का आखि़री हिस्सा

उसे ताक़त देना घर के लोगों।


(वर्ष-2012)






कुछ बरामदे नहीं होते जो तो आख़िर


आदमी अपने दुःख कहाँ उतारता 

कुछ बरामदे तो सबके दुःख उतारने

के लिये ही बने थे आख़िर

बरामदे खाली हुए तो 

दुख छिप गए टूटी दरांचें

भर-भर गईं 

वो उठी उसने उतारी अपनी खेप 

तोड़ी आख़िरी

तुलसी मीठी नीम के पत्तों की तड़क

चल दी समुद्र की उठती लहरों की तरफ़

सूरज और चंद्रमा को नहीं समुद्र की

खूबसूरत लहर को दिया अर्घ्य 

अब वो एक खूबसूरत मर्मेड थी

बहुत ऊँची उठती लहर।


(1 दिसम्बर 2021, गोवा के समुद्र तट से)



ईद मुबारक


जिनके घरों में

आज भी नहीं आया पानी

उन्हें ईद मुबारक


जिनके दड़बों में आज भी बिजली

नहीं उन्हें ईद मुबारक!


जिनकी रसोई में

आज आपके पाक-साफ बच्चों के लिए

बड़े जतन से पकते हैं कबाब

उन रसोईयों को ईद मुबारक


जिन्हें आए दिन सुनाया जाता है

वतन से बेदख़ली 

का फ़रमान उन्हें भी

ईद मुबारक।



रुप रंग


आख़िर मे तो प्रेम ही बचाएगा

इस दुनिया को अवसाद से

इसके बीज ख़ुद ब ख़ुद

गिर कर फैलते हैं फलों से पेड़ से

लेते हैं जीवन का रूप-रंग

एक पानी में छलांग लगाते

आदमी को दूसरा दौड़ कर जो 

खींचता है मैदान की तरफ 

मरते हुए पौधे को पिलाता है पानी

बचाता है फूल-बीज

ये जीवन का बचना ही प्रेम का बचना हुआ

तुम देखना दुश्मनी खुद के बोझ से विलुप्त 

हो जाएगी एक दिन।





कितना तपता


कितना तपता है आदमी

कि बने सोना!

कोई माप नहीं

खूब-खूब तपा आदमी

दहशत से गुजरा आदमी

अक्सर चुप हो जाता है

घनघनाते शोर के बीच...!




अमर प्रेम


उन पन्द्रह बरसों में

जो गुज़ारे तुमने-हमने साथ

नहीं देखी साथ अकेले

कोई फ़िल्म तक 

फिर भी हमने उसे

प्रेम ही माना

बहुत कुछ जो होना था शुरू

शुरू होने से पहले ही

ख़त्म हो गया

उसके लिए ये प्रेम का

पूरा गोलार्ध था।


वो शहर की सबसे डरी

उजाड़ सड़कों पर बिना

स्टेपनी के टूटे स्कूटर को

घसीटते रहे एक साथ बरसों

उसके लिए यही जीवन के

सबसे सुन्दर रास्ते थे


जो मांग लिया था उससे

पहली ही मुलाकात में

उधार सौ का नोट 

और वो इस बात पर ही

निहाल हो गई थी

उसके लिए ये अमर प्रेम था


चुपचाप सकुचाते हुए सोचती थी मन ही मन 

कि एक दिन

ले जाएगी तुम्हें सबसे दूर

किसी सुन्दर गहरी चाँदनी रात में

और हमेशा की तरह जला देगी

एक सिगरेट 

कश खींचने के बाद

उसकी राख झटकने के लिए

जब थमाओगे उसे

वो धीमे से तुम्हारे कंधे पर

ढुलका देगी सारा बोझ

पर तुम तो अचानक बिल्कुल

बिना बताए उठकर चल दिए

इतने बेईमान कब थे तुम!


(12/04/2020)







अंगार


वो मिट्टी थी जन्म-जन्मान्तर से

मिट्टी के कण-कण में समाहित 

उसका वजूद बनना मिलना था

कभी सांचों में ढली गयी बर्तनों के 

कभी स्त्री कभी पुरुष

बहुत रूप में थी वो मिट्टी के 

वो जीवन में भी और मृत्यु में 

मिट्टी की।

वो कोयले के जलते

अंगारों के शब्द की

पीठ पर बना शब्द थी

मुश्किल होता था उसका बुझना।



गुलाब


कितना भी खराब हो समय

एक गुलाब के फूल से

ज़रूर स्वागत करूंगी मैं

तुम्हारा कविता

कितना ही थका हो तन

मेहमान से पूछे बिना

उम्दा चाय चढ़ा आऊंगी

चूल्हे पर मैं

कितनी ही आगे बढ़ जाओ

कविता तुम

तुम्हें दो और दो बराबर

चार नहीं होने दूंगी कभी मैं।

        

(20 सितम्बर 2024)



ज़िद्दी बटन


सिलाई कढ़ाई बुनाई

में तो नहीं रही बहुत निपुण

फिर भी सिलती ही रही

हमेशा कुछ न कुछ


जहां देखा उधड़ता कपड़ा

दौड़ कर उठा लाती है

बीच वाली सुई 

चैन से नहीं बैठती

जब तक सिल ना दे बेढंगापन


बेतरतीब कपड़े, मन

वैसे भी नहीं रहे उसे कभी पसंद

यूं इन छोटी-मोटी

सिलाई में शुमार हैं 

बड़े-बड़े बटन होल भी


जिनमें से जब-तब

बेढ़ंगे तरीके से बार-बार

निकल आते हैं कुछ ज़िद्दी बटन 

जैसे कि ज़िद उनकी तो

सारी की सारी मिल्कीयत भी उनकी


तो वो फिर उठाती है 

दूसरे नम्बर की सुई

और कस देती है 

ये काज भी 


उसके पास हैं 

उधड़न की अलग सुई

स्वेटर की अलग 

काज़ की, तुरपन की अलग


और

ये सुई और काज का खेल यूँ ही

चलता रहता है जीवन के 

गतिशील चक्र की तरह।



घर जाना है

(मजदूर दिवस पर सबको सलाम।)


धरती के इस छोर से

फिर शुरू कर दिया है चलना

सभ्यताओं के विकसित जंगल

से बाहर हांके जा रहे ये चींटियों के 

झुण्ड नहीं इंसानों के हुजूम हैं

जिन्हें सभ्य भाषा में

कामगार माना जाता है

इन्हें घर जाना है!


जिनके पास नहीं इस छोर से

उस छोर तक कोई घर

उन्हें घर जाना है

जो पोटलियों में पैदा होते गए 

जनानी के बच्चे से आदमकद जवान तक 

जो दफ़्न करते गए दादी नानी

के पीढ़ियों के किस्से इनमें

उन्हें घर जाना है!


जो निन्यानवै से एक सौ निन्यानवै 

माफ़ करें नौ सौ निन्यानवे के रंगीन 

कांचो के जश्न में सराबोर मॅाल 

के तिलिस्म को ताजमहल की

हुनरमंदी सा हमारे लिए तराशते रहे

सदियों से ताक़ते रहे हर शहर की 

तीसरी सड़क से

उस हुजूम को घर जाना है!


इन दिनों जबकि हमें अपने घर

अधिक अच्छे लगने लगे हैं

संसार भर में पृथ्वी पर तारी इंसानों 

की मृत्यु का दर्दनाक खौफ़ छाया है

तब ये हुजूम बेदखली का फ़रमान

अपने सीने पर उठाए क्यों निकल 

पड़े हैं तपिश में!


जिनका नहीं कोई घर

तो फिर उन्हें घर क्यों जाना है!

क्या उन्हें अपने आदम गांव की

हवा पर है भरोसा या उस आसमान

के आसपास पहुंचना चाहते हैं जिसकी तनी

अरगनी पर फचीटे हुए कपड़े सा टांग

देंगे अपने लुटे जिस्मों को

ये उनके घर पहुंचने की मुहीम का

आख़िरी मंज़र होगा!!


(01.05.2020)



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 09926434541


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