कीर्ति बंसल की कविताएँ

 

कीर्ति बंसल 


हमारे समाज में अक्सर जो लड़के गैरजिम्मेदार या आवारा प्रकृति के होते हैं उन्हें सुधारने के लिए कहा जाता है कि किसी लड़की से उनकी शादी कर करा दी जाए। विवाहिता नव वधू उसको सुधार देगी। आज भी यह मिथक प्रचलित कुछ इस तरह प्रचलित है जैसे लड़की न हो कर, सुधारने वाली मशीन हो। घर की महिलाओं से हमारे समाज के द्वारा कुछ इसी तरह की उम्मीदें की जाती है। और महिलाएं भी जैसे यंत्रवत 'उम्मीद का पुतला' बनाती चली जाती हैं। एक दिन ऐसा होता है कि वे जीते हुए भी घर परिवार और समाज में खुद का जीवन जैसे खो देती हैं। कीर्ति बंसल ने अपने अनुभवों से इसे जाना समझा है। जिंदगी जीते हुए आखिरकार एक दिन उन्हें लगता है कि 'मैं एक वाहन हूँ'। वे वाहन शब्द को बहन से जोड़ते हुए अपनी कविता में कहती हैं 'उसी एक पहिये पर चलती रहती हूँ परिवार के साथ'। ऐसे में उन्हें स्वाभाविक ही फिक्र होती है 'जीवन कैसे पार करूँगी'। यहां तक आते आते जीवन जैसे एक त्रासदी बन कर रह जाता है।

हर महीने के पहले रविवार को हम 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला प्रकाशित करते हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला की बारहवीं  कड़ी के अन्तर्गत हम इस बार कीर्ति बंसल की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। इस शृंखला में अब तक आप प्रज्वल चतुर्वेदी, पूजा कुमारी, सबिता एकांशी, केतन यादव, प्रियंका यादव, पूर्णिमा साहू, आशुतोष प्रसिद्ध, हर्षिता त्रिपाठी, सात्विक श्रीवास्तव, शिवम चौबे और विकास गोंड की कविताएं पढ़ चुके हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत। कवि बसन्त त्रिपाठी की इस शृंखला को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कवि नासिर अहमद सिकन्दर ने इन कवियों को रेखांकित करने का गुरुत्तर दायित्व संभाल रखा है। तो आइए इस कड़ी में पहली बार पर हम पढ़ते हैं कीर्ति बंसल की कविताओं पर नासिर अहमद सिकन्दर की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी और कवयित्री कीर्ति बंसल की कविताएं।



दृष्यांकन की कविताएँ


नासिर अहमद सिकन्दर


कीर्ति बंसल की शिक्षा-दीक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय से रसायन विज्ञान में हुई है। वे इस विषय में परा-स्नातक हैं। विज्ञान से जुडे़ होने के कारणअब तक उनके कई फीचर विज्ञान पत्रिकाओं में छप चुके हैं। लघु फीचर व रिपोर्टस प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी ‘‘सी. वी. रमन: भारतीय विज्ञान के रतन’’ (आईसेक्ट पब्लिकेशन) एवं रविन्द्र नाथ ठाकुर : एक जीवनी’’ पुस्तक का हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं।


कीर्ति कविताएँ भी लिखती हैं लेकिन अभी तक उन्होंने अपनी कविताओं को प्रकाशन योग्य नहीं समझा। मेरी बात भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त उनके भाई प्रांजल धर से हुई तो उन्होंने कीर्ति से परिचय करवाया, मैंने कविताओं की मांग कर ली।उन्होंने सहजता से अपनी 15 कविताएँ भेज दीं। मैंने उनमें से 10 कविताओं का चयन किया।


कीर्ति की कविताएँ दरअसल दृष्यांकन की कविताएँ हैं।वे अपनी छोटी कविताओं में किसी लघु फिल्म की तरह विषय का दृृष्यांकन करती हैं तथा कथ्य को नई भाषा के साथ बिंबों में रचती हैं।जिस तरह लघु फिल्म अपनी कला में सघन व सुगठित हो कर अपना मैसेज की कला में श्रोता को भी शामिल करती है, कीर्ति भी अपनी कविताओं में पाठकों को शामिल कर यही पद्धतिअपनाती है। कार्यालय, पेपरवेट, आधुनिकता, वाहन, दिशा जैसी कविताएँ इसी कला की कविताएँ हैं


कार्यालय, तुम एक अद्भुत रणभूमि

जहाँ शब्दों के तीर और मौन की गोली

यहाँ हर शख्स का अलग नकाब

फिर भी यह नाटक चलता बेहिसाब


(कार्यालय)


वोट पहिया और आग

मानव सभ्यता के सबसे बड़े अविष्कार हैं

वोट ने सरकारी वाहन पैदा किया

पैदा किया आग ने भोजन

जिससे सभ्यता जन्मी


(वाहन)


यहाँ गौरतलब यह भी है कि जिस तरह सामाजिक या राजनैतिक यथार्थ छूती लघु फिल्म की सार्थकता दृष्यांकन में होती है उसी तरह इन छोटी कविताओं की सार्थकता बिंबों में खुलती है। यह भी कहा जा सकता है, जिस तरह दृष्यांकन की कला लघु फिल्मों का आधार बनती है उसी तरह इन छोटी कविताओं का कथ्य दृष्य-बिंब का आधार बनता है, जहाँ अपने अनुभवों, संवेदनाओं, वैयक्तिकता और निष्कर्षों तथा नए पाठ के द्वारा कविता के मर्म तक सहजता से पहुँचा जा सकता है। यहाँ कविता की अंतर्वस्तु का अर्थ भी खुल जाता है। कीर्ति की कविताओं की यही कला है। यह कला समकालीन कविता में नवीन कला भी कही जा सकती है। यह कला बहुत हद तक तेजी ग्रोवर, की कविताओं में देखी जा सकती है।


कीर्ति मिथक से जुड़ कर भी विज्ञान तक पहुँचती है। विज्ञान से जुड़ी होने के कारण उनकी कविताएँ वैज्ञानिक बोध को भी कविता के कथ्य में शामिल करती है।


कीर्ति की ‘‘नकार’’और ‘‘बिदाई के क्षण’’ कविता मेें ये कला बखूबी उभरी है।वे रामधारी सिंह दिनकर, धर्मवीर भारती तथा नरेश मेहता की तरह वैज्ञानिक बोध अथवा आधुनिक संदर्भ में ले आती है। यह अलहदा गुण भी उनकी कविता का नायाब पक्ष है-



‘‘सारे स्त्री पुरुष लौट जाएं’’ यह वचन राम का था

असमंजस में पड़ा वह वर्ग

जो न ही स्त्री और न ही पुरुष था

वे खड़े रहे चुपचाप

जिनके अस्तित्व की न थी कोई निशानी

वे करते रहे वचन का पालन

जिनके हृदय में बसी थी राम छवि


(नकार)


कीर्ति अपनी कविताओं में जिस तरह निज अनुभवों को दृष्यांकित करती है यह कला समकालीन कविता की नवीन कला कही जा सकती है जिसका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। कीर्ति कविताएँ लिखती नहीं, कथ्य को दृष्यांकित करती हैं।



नासिर अहमद सिकन्दर 



सम्पर्क 


नासिर अहमद सिकंदर

मोगरा 76, ‘बी’ ब्लाक, तालपुरी

भिलाईनगर, जिला-दुर्ग छ.ग.

490006

मो.नं. 98274-89585



कवयित्री का संक्षिप्त परिचय :

कीर्ति बंसल 

जन्म – जुलाई 1989 ई., दिल्ली में । 

शिक्षा – दिल्ली विश्वविद्यालय से केमिकल साइंसेज में परास्नातक।

कार्य – अग्रणी विज्ञान पत्रिकाओं में अनेक फीचर, लघु फीचर, रिपोर्ट्स और समाचार फीचर प्रकाशित। अनेक राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंसों में शोधपत्रों की प्रस्तुति। विभिन्न राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों- संगोष्ठियों में सहभागिता और इनके आयोजनों में सक्रिय भूमिका। सामाजिक-साहित्यिक गतिविधियों से सम्बद्धता। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी कहानियों और कविता-संग्रहों की समीक्षाएँ प्रकाशित। पुस्तक, कविताओं व विवरणिकाओं का हिन्दी से अंग्रेजी में तथा अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद कार्य। भारतीय शोध पत्रिकाओं मे सहसम्पादन की भूमिका। 2013 हरित रसायन पर फ़्रांस में आयोजित द्वितीय अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने के लिए चयनित। RSTV के साथ 2016 में विज्ञान भवन में पुस्तक विमोचन समारोह एवं पैनल चर्चा के आयोजन में सक्रिय भूमिका।

पुरस्कार व सम्मान – अध्ययन के दौरान अकादमिक योग्यता प्रमाण पत्र, सीएसआईआर डायमण्ड जुबली रिसर्च इण्टर्न अवार्ड 2014 और सामाजिक कार्यों के लिए हीरक पंख प्रमाणपत्र। 

पुस्तकें – सी. वी. रामन: भारतीय विज्ञान के रत्न (आइसेक्ट पब्लिकेशन से प्रकाशित), रबीन्द्रनाथ ठाकुर: एक जीवनी पुस्तक का हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद कार्य, सी.एस.आई.आर. से प्रकाशित विज्ञान से सम्बन्धित एक पुस्तक और एक स्मारिका का सहलेखन। एल्सवियर द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक में एक अध्याय का लेखन।



कीर्ति बंसल की कविताएँ



1. कार्यालय 


मानो सभ्यता का मूक व्याख्यान,

जहां कुर्सियां हैं स्थिर, पर लोग गतिमान।

यहाँ का माहौल बड़ा निराला,

हर पद पर सजी है एक नई माला।


शासन का रौब, वैज्ञानिक का स्वाभिमान,

प्रशासन की चालाकी, और शोधार्थियों का अरमान।

चाय के कपों में तैरती गहरी बहस,

किसकी तरक्की और किसका पतन— यही है दृष्टिकोण स्थिर।


घंटे घिसटते, जैसे समय का पहिया टूटा,

काम की सूची में केवल "कल" का नाम छूटा।

नींद की झपकियां और कंप्यूटर का तेज प्रकाश,

आधे दिन चाय और बाकी दिन विवाद।


कार्यालय, तुम एक अद्भुत रणभूमि,

जहां शब्दों के तीर और मौन की गोली।

यहां हर शख्स का अलग नकाब,

फिर भी यह नाटक चलता बेहिसाब।



2. विदाई का क्षण


लाल चूनर में छिपा मेरा हृदय,

अश्रुजल से भीगा, कंपित, विचलित।

कांतार की गोद में, प्रिय कलेवर,

विलापित धरा का यह अश्रु-संस्कार।

मंगल-घोष के आभास में,

करुण-कंठ स्वर फूट पड़ते,

शहनाई के गूढ़ गान तले,

माता का हृदय जर्जरित होता।

गामिनी, जीवन-यात्रा पर प्रस्थापित,

गृह के पथ से परायों के वास,

संस्कारों का अमिट आभास,

पद-पद पर निभाना प्रतिघात।


कुमकुम की रेखा में लिपटी नियति,

क्या यह पराधीनता की वलय सजी?

या है शक्ति का वह प्रथम आह्वान,

जो करता है जीवन का नव-संधान।


ओ पुष्प-सी कोमल, विदा तुझको,

हृदय व्यथित पर अशेष आशीष,

जहाँ जाएँ तेरे चरण-चिह्न,

शुभ्रता की वर्षा करें नित-दिन।


हर पग पर मन में प्रश्नों का भार,

यह जीवन बंधन जो उत्सव-सा प्रतीत,

फिर क्यूँ भीतर इतना विषाद,

विदाई का यह क्षण इतना कठोर।


क्या है यह वास्तव में, प्रारम्भ या अंत,

प्रभु का विधान या मनुज का अघोर?

माँ के आँसू, पिता का मौन,

मिलन का संगीत या विछोह का शोर?


प्रांगण में अंतिम स्पंदन आज,

पति का घर अब मेरी पहचान,

पर हृदय में बसी हर स्मृति अमिट,

जीवन का यह सबसे कठिन पड़ाव।



3. तुमने कहा था


तुमने कहा था कि गरिमा का ध्यान रखना,

रखा मैंने।


बेवकूफ़ शब्द अब शब्दकोशों में भी नहीं हैं,

जब अर्थ ही विस्थापित हो गए हों शब्द से,

तब मैं अर्थ यानि कि मायने तलाशती हूँ।


तलाशती नहीं हूँ,

तलाशती ही रहती हूँ।

लोग बताएँगे कि क्या यह तलाश कभी पूरी होगी।






4. पेपरवेट


वेट तो सरकारों ने ख़त्म किया,

रहा पर मेरे घर में एक पेपरवेट।


मज़ाक की बात नहीं है,

वज़नदार था भई!

रंग सूरमई!


वह पेपरवेट मेरे ज़रूरी क़ागज़ों को  संभालता था,

दबाता था वह दफ़्तर के क़ानूनी क़ागज़ों को , 

क्रिया को उस पेपरवेट ने बेमानी साबित किया,

था वही पेपरवेट जिसने मुझे मर्यादा सिखाई।



5. चाक और चाकी


चाक से लिखते थे बचपन में छोटा ‘अ’ बड़ा ‘आ’

वह बारहखड़ी, जिसे हम खड़िया से लिखते थे,

हमारा बचपन भी कितना कंगाल,

पैदा हुए हम घरों में,

परवरिश मकानों में।


हम एक बिल्ला लगाते थे,

जा रही हो जैसे कोई नदी समुद्र से मिलने, 

बिस्मिल्लाह! या अल्लाह!!

खड़िया, चाक और चाकी सभी एक जगह घुल गए, मिल गए,

और मैं बेसहारी!





6. आधुनिकता


आओ, चलें सैर को हम,

उन दुनियाओं की जहाँ परम्पराएँ समाप्त हो जाती हैं।

आओ, मेरे बच्चों मेरी बाँहें पकड़ो,

ले चलूँगी तुम्हें उस राह पर जहाँ कोई जाना ही नहीं चाहता।


चाहना एक ख़तरनाक क्रिया है आधुनिकता के ज़माने में,

आधी नींद गुम हुई तुमको सुलाने में,

कहाँ जाऊँ, गंगा नहाऊँ?

वही दिन, वही रात, वही चर्चा, वही बात,

कहीं कोई आधुनिकता ही न मिली,

तरसते रहे हम,

जो था कुछ, वह भी गँवा बैठे।



7. वाहन


वोट, पहिया और आग

मानव–सभ्यता के सबसे बड़े आविष्कार हैं।

वोट ने सरकारी वाहन पैदा किया,

पैदा किया आग ने भोजन जिससे सभ्यता जन्मी।


पता ही नही था मुझे कि मैं एक वाहन हूँ,

बहना से वाहन कब बना दिया समाज ने

धन्य है विधाता!

उसी एक पहिये पर चलती रहती हूँ परिवार के साथ,

वही एक पहिया!

वही एक पहिया!


जीवन कैसे पार करूँगी, सोचती हूँ।

सोचती ही जाती हूँ!

मैं बचा-खुचा एक वाहन भर हूँ।






8. हाथ, कलम और कागज़


हाथ, बथुआ, पालक, चुकंदर,

आँवला, धनिया, लहसुन, प्याज़

क्या आज भी करोगे याद?

न याद आऊँ तो मेरी खुशनसीबी है,

वरना तो बहुत दूर तक गरीबी है,

कैसे भली?

वो जो पलक पर खम करती थी,

अमावस्या की रात में दुआ देती थी 

हमेशा के लिए हाथ, कलम और कागज़

कुछ भी लिखा करते थे,

कुछ भी जिया करते थे।



9. नकार


जब तय हुआ प्रभु राम का वनवास, 

शोक सागर मे डूबा था हर पुरुष हर स्त्री,

पूरी अयोध्या मे भरी थी दारुण ध्वनि,

अंधकार ही अंधकार और गहरी ख़ामोशी।


पर एक वर्ग खड़ा था चुपचाप,

तमसा के तट पर अपनी अस्मिता से दूर।

न स्त्री का था रूप उनका ना पुरुष का परिधान,

न कोई नाम उनका ना कोई पहचान।


“सारे स्त्री-पुरुष लौट जाएँ”- यह वचन राम का था,

असमंजस मे पड़ा वह वर्ग जो न ही स्त्री और न ही पुरुष था।

वे खड़े रहे चुपचाप, जिनके अस्तित्व की न थी कोई निशानी,

वे करते रहे वचन का पालन, जिनके हृदय मे बसी थी राम छवि।


हर दिन हर क्षण अपने अज्ञेय आदर्शों के साथ,

चौदह वर्षों तक वे खड़े रहे निर्बाध।

न कोई आशा, न कोई प्रार्थना, केवल मन मे राम नाम,

बिना सवाल लिए राम चरणों की धूल करते रहे वे कर्त्तव्य पालन।


 न देखा उन्हे किसी ने, न ही गले लगाया,

न कोई आशीर्वाद दिया और न ही कोई शुभकामना। 

फिर भी अडिग खड़े रहे वे दृढ़ विश्वास के साथ,

जानते थे कि लौटेंगे एक दिन राम और करेंगे उन्हे स्वीकार।


न कोई पद न कोई मान और न ही कोई सम्मान,

उनकी धैर्य की परीक्षा थी बड़ी बलवान,

लौटे राम, चौंके और पूछा- क्यूँ सही तुमने इतनी व्यथा

फिर भी केवल अश्रु लिए धोये उन्होनें राम चरण।


दिया प्रभु ने वरदान कि जिस अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ी तुमने, 

अब समाज के तुम रहोगे अभिन्न अंग,

दिव्यता शिव-शक्ति स्वरूप का आशीष मिलेगा तुम्हारी वाणी से,

न कोई इंकार करेगा तुम्हारी उपस्थिति तुम्हारी पहचान।



10. दिशा


पूरब का सूरज देखा था,

तोड़ी थी सहजन की फलियाँ, 

और हाँ, साग भी पत्तियों का,

उत्तर दिशा और पूरब दिशा।


वही एक सूरज उषाकाल में,

वही एक चंदा निशाकाल में,

सब दिशाएँ घोषणाओं में खो गयी हैं,

कुछ चाहते मुझसे बिछुड़ गयी हैं।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


कीर्ति बंसल

बी-3/55, सेक्टर-16, रोहिणी, 

दिल्ली – 110089


मोबाइल – 08586866747


ईमेल –kirti89.bansal@gmail.com


टिप्पणियाँ

  1. कविताएँ एकदम अलग हटकर हैं...एकदम सबसे अलग...!

    कविता का यह अलहदा स्वर...अलहदा थाट आस-पास की गोचर-अगोचर दुनिया की 'फ़ोटोग्राफ़ी' करती है...जिसमें एक दृश्य को देखकर दूसरा अपने आप बाहर निकल आता है...!

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