प्रेमकुमार मणि का आलेख

 

प्रेम कुमार मणि



कुम्भ मेले का आयोजन कैसे और कब शुरू हुआ, इसको ले कर कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस सन्दर्भ में कुछ लोग इस परम्परा को मोहनजोदड़ो के सार्वजनिक स्नानागार से जोड़ते हैं तो इस क्रम में कुछ लोग हर्षवर्धन के उस महामोक्ष परिषद की बात करते हैं जो उसके द्वारा प्रत्येक पांचवें वर्ष प्रयाग में आयोजित किया जाता था। मुगल काल तक कुम्भ के आयोजन का स्वरूप निश्चित होने लगा था, हालांकि इसके स्पष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं होते। ब्रिटिश काल में कुम्भ के आयोजन का उल्लेख प्राप्त होता है। प्रेम कुमार मणि ने अपने आलेख में कुम्भ की ऐतिहासिकता को तर्कों के द्वारा बताने की कोशिश की है। आइए आज पहली बार पर 'महाकुम्भ विशेष' कॉलम के अंतर्गत हम पढ़ते हैं 'कुम्भ मेला : बात-बात में बात'।



महाकुम्भ विशेष : 6


'कुम्भ मेला : बात-बात में बात'  


प्रेमकुमार मणि 


बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने मनुष्य में मूर्खता के जिन पांच चिह्नों की चर्चा की है उसमें एक धर्म की इच्छा से स्नान करना भी है। इस हिसाब से प्रयागराज के संगम पर अभी जो कुम्भ स्नान चल रहा है, उससे हिन्दू समाज के मूर्खों की गणना आसानी से हो सकती है। मुस्लिम समाज में हजार्थियों की भीड़ भी ऐसी ही होती है। किसने किसको प्रभावित किया यह तो शोध का विषय है, लेकिन मुझे हज और कुम्भ मेले की भीड़ का मनोविज्ञान एक ही लगता है। पाप मुक्ति के लिए किए गए ऐसे प्रयास मुझे हमेशा हास्यास्पद लगते रहे हैं। लगभग सभी धर्मों के बीच इस तरह की मूर्खताएं व्याप्त हैं। भीड़ का हिस्सा हो कर लोगों को शायद सुख मिलता है। मुझे तो भीड़ बिल्कुल पसंद नहीं है। इसीलिए आज तक अपने बिहार का नामी सोनपुर मेला, जो मेरे वास से मुश्किल से पचीस किलोमीटर दूर होगा, देखने नहीं गया। इच्छा ही नहीं हुई। 


मुझे नहीं लगता कि भीड़ का भारतीय या हिन्दू ज्ञान परंपरा से किसी प्रकार का सम्बन्ध में हो सकता है। भारतीय ज्ञान परंपरा अपने विकसित रूप में अपने भीतर डूबने की सीख देता है। उपनिषद का ज्ञान कहता है अपने भीतर झांको। तुम्हीं ब्रह्म यानि तेज, दीप या प्रकाश हो। अंधकार से प्रकाश की ओर चलो। जगत से ब्रह्म की ओर; बाहर से भीतर आओ। यह गुहार नहीं, मनन या ध्यान के लिए प्रेरित करता है। इसलिए मुझे नहीं लगता कि भारतीय धर्म-परंपरा में हो-हल्ले, भीड़ या गुहार के लिए कोई स्थान संभव है। अरब समाज में चूँकि आबादी कम थी, इसलिए वहाँ भीड़ लोगों का विश्वास जगाता होगा। गुहार या अजान की परम्परा भी उनके फलसफे में इसलिए संभव है कि उनका ईश्वर दूर सातवें आसमान पर रहता है। उसे जोर से आवाज देनी होती है। सूफियों की बात जरूर अलग थी। कुछ इस्लामी संतों ने 'अनलहक' (मैं ही ईश्वर हूँ) का भी नारा दिया। उनकी सोच उपनिषदों से मिलती-जुलती थी। मुझे अनुभव होता है भीड़, अखाड़े, कीर्तन आदि की संस्कृति मौलिक इस्लाम से प्रभावित है। जैसे मैं मानता हूँ मध्य काल में तुलसी दास ने इस्लाम से प्रभावित हो कर एक अलग तरह के भगवान की संकल्पना की। तुलसी का राम इस्लाम के खलीफा की तरह धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों का प्रमुख है। वह कोसलपुर राजा है और ब्रह्माण्ड का ईश्वर भी। और तो और अकबर, जिनके राजकाल में तुलसी थे, के मुगल दरबार की तरह राम का भी एक दरबार है। चीजें यूँ ही एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। लेकिन लगता है मैं तय विषय से दूर जा रहा हूँ। मैं तो गंगा स्नान की बात कर रहा था। कपास ओटने लगा। लेकिन क्या करूँ बात से बात निकलती जाती है। लोकोक्ति है -


जस केले के पात-पात में पात 

तस सजनन के बात-बात में बात 




मेरी मान्यता है, बातें करना स्नान करने से अधिक आनन्दप्रद है। भीड़ से मेरी इसलिए भी चिढ़ है कि यह बात और विमर्श का अवसर नहीं देता। भीड़ को केवल सम्बोधित किया जा सकता है, उससे संवाद नहीं बनाया जा सकता।


तो अपने विषय पर लौटता हूँ। अपनी कहूं तो नदियां मुझे खूब भाती हैं। हर नदी का अपना सौंदर्य होता है। गंगा तो फिर गंगा है। हिमालय से निकलने के कारण इसका जल दूसरी नदियों के जल के मुकाबले अधिक शुद्ध और लाभकारी होता है। हरिद्वार, बनारस, पटना, कोलकाता की गंगा के किनारों पर जाने कितनी शामें बिताई हैं। पिछले साल गर्मियों में प्रयागराज गया तो चुपचाप दो युवा मित्रों के साथ संगम पहुँच गया। गंगा के किनारों पर विचरण और उसकी लहरों को निहारना कितना आनंदप्रद अनुभव है, इसे व्यक्त नहीं कर सकता। हरिद्वार की गंगा में एक सुबह डुबकी भी लगाई है। लेकिन धर्म की इच्छा से नहीं। आनंद के लिए।


कुम्भ स्नान और उससे जुड़े मेले की मैं कोई आलोचना नहीं कर रहा। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि शामिल होने वाले आनंद की इच्छा रखें, धर्म की नहीं। आप कह सकते हैं कि आम जन के लिए धर्म और आनंद एकमेव है। यदि यह है, तब फिर क्या कहने।



सुनता आया हूँ कुम्भ मेले का अपना पौराणिक इतिहास है। कहा गया है देवों और असुरों ने संयुक्त रूप से समुद्र मंथन परियोजना पर काम किया। अनेक चीजों के साथ इससे अमृत घट भी निकला। देवताओं के मन में छल था। वे पूरा अमृत कलश स्वयं रख लेना चाहते थे। समुद्र मंथन के दौरान भी देवों ने छल किया था। कथा है मंथन में वासुकि नाग रस्सी के तौर पर उपयोग में लाया गया था। मन्थन मन्दार पर्वत द्वारा किया गया था। नाग के मुंह वाले हिस्से को असुर पकडे हुए थे और पूंछ वाले हिस्से को देव। जैसे आज कलम चलाने वाले काम बड़े लोग करते हैं और चुनौती भरे कठिन काम निचले तबके के कामगार लोग। पगार कलम चलाने वालों को अधिक मिलती है। तब भी ऐसा ही था। विष का घड़ा असुरों के लिए छोड़ अमृत-कलश देवताओं ने अपने कब्जे में ले लिया। असुरों ने छीना-झपटी की होगी। इसमें छलक कर कुछ-कुछ अमृत चार जगहों पर गिर गए। ये जगहें थीं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। इन जगहों पर बारी-बारी से हर बारह बरस पर मेला लगता है। निश्चय ही ये कथाएं पुरोहितों द्वारा बनाई गई होंगी। लेकिन इन सब के कुछ न कुछ अर्थ तो हैं ही।


गंगा से हिन्दुस्तानियों का प्यार सचमुच बहुत गहरा है। बचपन में जब गाँव में होता था, तब कार्तिक पूर्णिमा के स्नान के लिए पाँव-पैदल गुडग़ुड़ी हुक्का पीते महिलाओं की भीड़ गंगा की तरफ तेज-तेज बढ़ते देखता था। आज भी उसे याद कर रोमांच से भर जाता हूँ। पवित्रता और पुण्य के लिए यह पागलपन भरा आग्रह! यह  मूर्खता हो, या जो हो, बस गंगा में डुबकी लगानी है। कुम्भ की भीड़ भी संभवत: ऐसे ही आग्रहों से भरी है। यह उत्सवप्रियता हमारी विरासत रही है। सुना है लेखक निर्मल वर्मा कुम्भ की इस भीड़ से अभिभूत थे। मैं न अभिभूत हूँ, न दुखी। मेरा मानना है धीरे-धीरे लोग चीजों को समझेंगे। चीन देश में माओ ने सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर जैसी जबर्दस्ती की थी वैसी भी नहीं चाहता। लेकिन कुल मिला कर यह जरूर चाहता हूँ कि अन्धविश्वास की जगह वैज्ञानिक चेतना का विकास हो। हाँ, नदियों की साफ-सफाई और उनकी सुन्दरता बनाए रखने की जोरदार हिमायत करता हूँ। प्रकृति और पर्यावरण को बनाए रखना ज़रूरी है। ऐसी भीड़ हर बारह साल पर गंगा को बचाने के लिए उमड़ती तो कितना अच्छा होता। 





मैं नहीं जानता कब से यह मेला चल रहा है। मेरा अनुमान है पंचनद से उतर कर जब हमारे पूर्वज गंगा घाटी में आए होंगे तब इसके कूल-किनारों को देख अभिभूत हुए होंगे। फिर यहीं बस जाने का फैसला किया होगा। पंचनद, विशेष कर सिंधु नदी के किनारों पर उन्होंने सभ्यताएं विकसित की थीं। वे सब आज सिंधु सभ्यता के नाम से जानी जाती हैं। कालांतर में उन्हीं पंचनद इलाकों में ऋग्वेद गुनगुनाए गए। और जब वे वहां से पीछे पूरब की तरफ हटे तो गंगा यमुना के तटों पर बसते चले गए। पंचनद अब सप्तनद संस्कृति में तब्दील हो गया। जम्बूद्वीप के तीन हिस्से थे - ब्रह्मवर्त, दक्षिणा वर्त और आर्यावर्त। प्रयाग के पूरब बंगाल तक के प्रदेश को आर्यावर्त कहा गया है। इस आर्यावर्त में ही कुछ समय बाद वेदों की आलोचना आरम्भ हुई। इसे वेदांत कहा गया। यह उपनिषदों का दौर था। फिर अनेक अवैदिक मतों जैन, बौद्ध, आजीवक आदि का विकास इसी क्षेत्र में हुआ। ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध अपने जीवन के पैंतालीस वर्ष इसी इलाके में घूमते रहे। प्रयाग इस वर्त की पश्चिमी सीमा रेखा है और इस रूप में महत्त्वपूर्ण भी।


प्रयाग निःसंदेह प्राचीन सांस्कृतिक नगर है। लेकिन वहां जाने वाले उसके आधुनिक इतिहास को भी देखें। ब्रिटिश काल में यह नगर ज्ञान का महत्वपूर्ण केंद्र बना। राष्ट्रीय आंदोलन का तो केन्द्र बना ही, साहित्य संस्कृति का भी केन्द्र बना। प्रयाग का नाम बदल कर इलाहाबाद कर दिया गया था। हाल में इसे बदल कर पुनः प्रयाग कर दिया गया है। यह अच्छी बात है। सांस्कृतिक जागृति जब होती है तब ऐसे परिवर्तन होते हैं, होने चाहिए। मेरी कामना है प्रयाग एक बार फिर अपने सांस्कृतिक गौरव को प्राप्त करे। वह आवारा साधुओं के लिए नहीं, अपनी ठोस सांस्कृतिक गातिविधियो और ज्ञान केंद्र के तौर पर  जाना जाए।



सम्पर्क 


मोबाइल : 09431023942

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं