सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है'

 

सेवाराम त्रिपाठी


आज हम एक अजीब दौर में जी रहे हैं। ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ लोग धूल फांकते हैं जबकि जोर जुगत करने वाले लोग तगमे और सम्मान हासिल करते हैं। इसके लिए सत्ताधारी लोगों की कृपा हासिल करनी होती है। आज स्थिति इतनी धुंधली हो गई है कि अगर किसी वास्तविक व्यक्ति को सम्मान दिया  जाता है तो उस पर भी सन्देह उठ खड़ा होता है। इस क्रम में आलोचक सेवाराम जी को परसाई जी का कहा ध्यान आया है - “लेखक का शंकालु मन है। शंका न हो तो लेखक कैसा? मगर वे भी लेखक हैं जिनके मन में न शंका उठती है और न सवाल।” (हरिशंकर परसाई - 'अपनी-अपनी बीमारी') वाकई इन पंक्तियों को विराट परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए, किसी चुहलबाज़ी में नहीं। व्यंग्य जैसी गम्भीर विधा में जोर जुगत से आहत सेवाराम जी का यह आलेख महत्त्वपूर्ण है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है'।



"व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है"


सेवाराम त्रिपाठी 


“उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे 

कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं

और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं -

आदत बन चुकी है”

- धूमिल 

    

दुःख और आपदाएं जीवन के अनंत काल से हैं। उसी कड़ी में बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक का दुःख इक्कीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में झन्नाटेदार, क्रूर, बेहद त्रासद ढंग से प्रकट हो रहा है और उसी के समानांतर अंततोगत्वा व्यंग्य लेखन अपने बनावटीपन में गिरफ़्तार हो गया है। इस दौर में व्यंग्य लेखन एक क्रियाकर्म निपटाऊ की शक्ल में हो जैसे। किसी तरह निपटाना है यानी खेलेंगे खाएंगे, मस्ती मनाएंगे और क्या? जाहिर है कि व्यंग्य लेखन में धृतराष्ट्र, दुर्योधन और शकुनि का भरपूर कब्ज़ा है। पाँसों पर जैसे महाभारत टिका था। उसी तरह पाँसों पर व्यंग्य लेखन की समूची दुनिया टिकी है। एक विशेष किस्म के बलशाली पाँसे फेंक जा रहे हैं। धृतराष्ट्र और दुर्योधन उन्हीं के इरादों, रहमों-करम पर अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। अब क्या गिला और क्या शिकवा? उसके दिलो-दिमाग में कई प्रकार की धांधलियाँ निर्लज्जतापूर्वक चल रही हैं। वह धीरे-धीरे दुर्बलताओं का अभ्यस्त हो गया है और चारण उसके आस-पास आसन जमाए हुए हैं या डेरा डाले हैं। एक विशेष प्रकार की धूर्त सभा सजी हुई है। व्यंग्य लेखन का चीर-हरण जारी है और उसी अनुपात में वाह-वाह और वाह की ध्वनियाँ गूंज रही हैं। यह आलोचना नहीं बल्कि हक़ीक़त है।


जीवन-मूल्यों नैतिकताओं का सार्वजनिक जीवन से अलविदा होना क्या वाकई में कोई घटना है या दुर्घटना। दुर्भाग्य से व्यंग्य लेखन भी इसका शिकार हो चला है। कुछ कहा नहीं जा  सकता है? जैसे श्वास नली जब 'चोक' होने की प्रक्रिया में होती है या वायुनली बाधित होती है तो अस्थमा का या दमा का मारक अटैक होता है। चोक तो नालियां भी होती हैं और ट्यूब लाइट आदि भी चोक होती हैं। वाहन भी चोक सिस्टम में होते हैं। हम चोक सिस्टम तलाश करते हैं और उसे ठीक भी कराते हैं। ये सभी हमारे जीवन में दबाव बनाते हैं। व्यंग्य लेखन भी उसी तरह श्रृंखलाबद्ध तरीके से चोक हो रहा है। व्यंग्य लेखन को हास्य-विनोद और मसखरी में तब्दील करने के जमावड़े हो रहे हैं। यूँ तो व्यंग्य लेखन सबके बस की बात नहीं है और न वक्त काटने का कोई आसान जरिया है। यूँ कहना तो नागवार लगेगा कि अधिकांश व्यंग्यकारों ने अपने साहस को तिलांजलि दे दी है या बलि। वे अब जनता के सरोकारों से  एकदम परे हो गए हैं और अपने ही मन के चाकर हैं। समय समाज और जीवन के यथार्थ को महत्वहीन मानते हुए वो विकास के नए-नए बिंब बना रहे हैं और न जाने कितने प्रकार के क्षितिज तलाश रहे हैं। उनके पास पैसा-रुपया है और देश-विदेश से सम्मान- पुरस्कार तलाशने के न जाने कितने रूप-रूपाकार हैं और एजेंसियां भी आ चुकी हैं। कार्यक्रमों की लंबी श्रृंखला है। कार्यक्रम होते ही रहते हैं। संबद्धता बनाए रखिए और चाक-चौबंद रहिए।

  

एक दिन एक लेखक की खामख्याली पढ़ रहा था। हो सकता है वो सही भी हों। हो सकता है वो उनके मन का गर्दों-गुबार हो। कुछ भी हो सकता है। आजकल झूठ भी सही हो सकता है। और सच भी झूठ। उसने सरकारों से कई तरह के पुरस्कार हासिल किए हुए हैं और वे काफ़ी खुशफ़हम इरादों में उड़ रहे हैं। फिर परसाई का कहा ध्यान आया - “लेखक का शंकालु मन है। शंका न हो तो लेखक कैसा? मगर वे भी लेखक हैं जिनके मन में न शंका उठती है और न सवाल।” (हरिशंकर परसाई - 'अपनी-अपनी बीमारी') कोई सरकार किसी को फ़ोकट में पुरस्कार नहीं देती। इसकी वजह को भी तलाशा जाना चाहिए। इन पंक्तियों को विराट परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए, किसी चुहलबाज़ी में नहीं।


इधर के सालों में व्यंग्य लेखन का पाट काफ़ी चौड़ा और विस्तृत हुआ है। वो 'हिमगिरि के उत्तंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल  छांह' तक पहुँच गया है। ये ठीक है कि खर-पतवार की तादाद भी बहुत बढ़ी है। अब तो जोड़-जुगाड़मेंट की लीलाओं से पूरी दुनिया एक-एक कर खुल रही है। आने वाले समय में वो 'नाचा' भी करेगी।





यह कमाल सोशल मीडिया का भी हो सकता है और मन की मौज का भी। और संस्थानों के रूपाकारों का भी। 'सोशल मीडिया' किसी को कभी भी मना नहीं करता। उसमें कुछ भी डाल दो बिना किसी हीला-हवाली के जस का तस ग्रहण कर लिया करता है। चुटकुला डालो या हँसी-ठठ्ठा या मनोरंजन का मसाला। अगड़म-बड़गम सभी चलेगा। वहाँ सब अर्दम-बरदम स्वाहा के विराट लंगर में पड़ता जा रहा है। स्वयं छको और अन्यों को आसानी से छकाओ। व्यंग्य लेखन अब व्यंग्य नहीं है बल्कि एक भरा पूरा तिलिस्म भी है। व्यंग्य अब सबका मूल्याकंन करने में जुटा है। अभी तक बस वही चार पाँच नामों में हिसाब होता था वही, परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवींद्रनाथ त्यागी इत्यादि- इत्यादि। बीच-बीच में इक्का-दुक्का नाम और जुड़ जाया करते थे। बाकी सभी खलास हो गए थे। जैसे छायावाद के दौर में कवियों की एक लंबी सूची हो गई थी। लेकिन बचे कौन वही प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी। सूचियां बदलती रहती हैं। कुछ उतार दिए जाते हैं और कुछ चढ़ा दिए जाते हैं। कुछ हमेशा जमे रहते हैं। ये लाभ लोभ के अंदाज़ से भी बनती हैं और चारण अंदाज़ में भी या गुटीय संदर्भों में। हां, अच्छा लिखने वाले एड़ियां उठाए रहते हैं। कभी-कभी इक्का-दुक्का हिलगा भी लिए जाते हैं कि कोई हर्ज नहीं पड़े रहो आराम से। इधर भी कई रिवाज़ के हत्थे चढ़ गए हैं और कुछ नाम उछालू क्वालिटी में आ गए हैं। कुछ के नाम 'पी-एच. डी.' के कारण सरकते रहते हैं और आगे भी इसी प्रकार सरकते, कूंदते, उछलते रहेंगे। यही होगा। कुछ कोर्स में चढ़ जाएंगे। और वहीं से नामी-गिरामी भी हो जाएंगे। मलय जी का नाम भी कम लोग जानते हैं। मैं नाम जाप की बात नहीं करता। उनकी दो किताबें अभी भी व्यंग्य लेखन की दुनिया में मील का पत्थर बनी हुई हैं वो हैं - 'व्यंग्य का सौंदर्य शास्त्र’ और 'सदी का व्यंग्य विमर्श’। इन्हें व्यंग्य की दुनिया में हर हाल में जानना चाहिए। लेकिन जानने की कोई कोशिश ही नहीं करेगा। वो इसलिए कि उन्होंने अपनी व्यंग्य की कोई दूकान नहीं खोली थी।व्यंग्य लेखन तलवार की धार पर धावनों है कोई लपका-लपकाई नहीं।


व्यंग्य लेखन के संसार में कुछ बदलाव लगातार चिह्नित किए जा रहे हैं जैसे लेखक ने व्यंग्य के नाम पर चाहे जैसा लिखा हो। उसकी शिनाख्त कर ली गई है और उन्हें एक आसन दे दिया गया है कि लो महराज! आओ आसन ग्रहण कर लें एक पीढ़ा आपके लिए सुरक्षित और संरक्षित भी हो गया है और एक बहुरंगी क़िताब भी छप कर आ गई है। जिनकी नहीं आ पाई। आगे आ जाएगी। फ़िलहाल यह आपके लिए काफ़ी है। किसी ने कह मारा कि यह व्यंग्य का उफ़ान है। चलिए, प्रशंसापरक मूल्यांकन हो गया। और यहीं से व्यंग्य का उठान देखते रहिए। और उसका क्रीड़ा-विधान भी देखते महसूसते रहिए। उन्हें कायदे से गोद भी ले लिया गया है और वहीं युक्तियुक्त तरीक़े से धर दिया गया है। आप कुछ भी रहे हों किसी को क्या लेना देना है? उनके लिए इतना ही काफ़ी है। इस प्रकार सभी को हर हाल में 'स्पेस' दें दिया गया है। आओ और मौज मस्ती करो। हमारे ऊपर कृपा की चादर ताने रहो, निर्मल बाबा की तरह  कि हरदम तुम्हारा नाम लें और किसी भी सूरत में झोल न खाएं। कोई जान ही नहीं पाएगा कि ये कौन सी तंत्र साधना है। भाजी-भँटे एक भाव में बिक रहे हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रहसन बजता रहा - 'अंधेर नगरी चौपट्ट राजा टेक सेर भाजी टके सेर खाजा।' 


व्यंग्य लेखन की एक स्थिति यह भी है कि जो असल में व्यंग्य के बारे में सोचते हैं- और चिंता करते हैं वो हमेशा नेपथ्य में  रहते हैं या रहेंगे। इसके अलावा वो कुछ नहीं कर सकते? वो सांस्थानिक जोड़-जुगाड़, 'पटति, पटतः, पटन्ति' नहीं कर सकते। चिंता भर करेंगे और कुछ नहीं। और जो सांस्थानिक हैं वो कुछ भी कर सकते हैं पूरा बाज़ार उनके यथार्थ में भी है और छायाओं में भी। यह एक अलग संसार है और इसकी  अंतर्वृत्ति और वृत्तियां भी अलग हैं। कोई उनसे होड़ नहीं ले सकता? 

      

कुछ वर्षों से मैं व्यंग्य की दुनिया में सोचने विचारने की मुद्रा में रहा हूँ।कुछ आलेख और टिप्पणियां भी लिखीं ।व्यंग्य की सैद्धांतकी तो वीर टाइप के धुरंधर लोग लिखते ही रहते हैं। व्यावहारिकी मार्केटिंग की भेंट चढ़ गई। वहाँ कई तरह की आधियां व्याधियां हैं। अपने अपने ढंग से पटाऊ पुराण है या साधे रहने का मनोविज्ञान। वैसे व्यंग्य लेखन में न सोचने की जगह है और न विचारने की। यहाँ तोता रटन्त शैली का भरपूर विकास हुआ है। आख़िर सिद्धांतिकी से होना क्या है? सिद्धांत एक ओर काँखते-कराहते रहते हैं और धुनियां अपने पाँसें दिन-रात बिछाते रहते हैं। ज़ाहिर है कि बेचारा सिद्धांत क्या कर लेगा? इस 'घुटकी पकड़' प्रतियोगिता में। जब व्यवहार क्षेत्र का कौशल सरविहीन कबंध की तरह हो जाता है। तो कुछ इसी तरह होता है। फिर भी मैंने सिद्धांत के बरअक्स उसके व्यावहारिक पक्षों पर ज़्यादा फोकस किया है। सुखी - दुःखी भी होता रहा और दुःखी सुखी भी। यह भी समझ बनी की फ़ोकस करने से भी कुछ नहीं होता? हाँ, जो भीतर ही भीतर भड़भड़ाहट होती है तो थोड़ा सुकून मिलता है। चालबाज़ इन्हीं स्थितियों से सीख लेते हुए एक नया प्रारूप और मॉडल बना कर विजय हासिल कर लेते हैं।जैसा भारत के प्रजातंत्र में यह रोज़-रोज़ की बात हो गई है।मेरे कहने और चिंता का कोई असर पड़ा क्या? वो ज़ाहिर है कि पड़ेगा भी नहीं। झूठ के बहुत लंबे हाथ होते हैं। सोचता हूँ क्या कोई असर पड़ा और क्या किसी को पड़ी है इस पद्धति को आजमाने की। कुछ फ़ोन में चिंताएं जताते हैं लेकिन व्यवहार में अपनी हड्डी- पसली को तुड़वाने से बचाते हैं या अपने संबंधों का कारखाना और यही नहीं एक सुरक्षित ठीहा भी तलाशते हैं। जो थोड़े से कुछ बिंदु उठाते हैं। उनके लिए ज़्यादा आवाज़ें इस तरह की उभरती रहीं कि आख़िर इनको क्या पड़ी है? व्यंग्य के रथी, महारथी, अतिरथी अपना काम कर रहे हैं? यह पड़ा-पड़ी का मामला है। इन्हें तो बुराई ही बुराई नज़र आती है।मुझे एकदम निषेधवादी मुद्रा में भी देखा गया। यूँ कभी भी मैं ' नाहींवाचक ' स्थिति में कभी नहीं होता। कुछ उम्मीदें हैं जो मेरा पीछा करती हैं और कुछ आशाएं हैं जो 'पारे' की तरह लगातार थरथराती हैं।इस दौर में सबसे ज़्यादा आसान है 'मीडियाक्रिटी' की दुनिया में रहे आना। न ऊधो का लेना न माधव का देना। बस वही राम रगड़ा हो रहा है। अपने तई व्यंग्य लेखन के व्यावहारिक पक्ष मुझे लुभाते रहे। कुछ अल्प विरामों का उस ओर ध्यान ज़रूर केंद्रित हुआ लेकिन अर्द्ध विराम, कारकों, संज्ञाओं और पूर्णता  के विराम  दुनिया में उसी प्रकार मौज मस्ती मनाते रहे और उपदेश के संसार में विचरते रहे। स्वांग रचने की अनंत छायाओं में लिपटे, वर्तमान प्रजातंत्र की तरह। सच जानें यह है व्यंग्य की वस्तुस्थिति। इन स्थितियों, छायाओं और अंधड़ों पर गर्व करना चाहें तो आपको किसने रोका है। जो हालात हैं तो उस पर भी सहमति जताई जा सकती है। कितने फूलदानों पर नज़र है और किन निगाहों पर व्यंग्य की खिड़की खुली हो सकती है। कुछ सूरमा व्यंग्य लेखन को अफवाहों से पाट रहे हैं। और ग़लतफ़हमी के शिकार भी बने रहेंगे। हक़ीक़त यह है कि व्यंग्य का 'व्याकरण’ बाज़ार के आसरे पर टिका है। व्यंग्य लेखन का तो वैश्विक परिदृश्य हो गया है, अब उसको हर हाल में विकसित ही होना है। व्यंग्य को चुटकुला बनने तक आदत के रेगिस्तान में पाला पोसा जाता रहेगा। कुछ भी हो जाए हम व्यंग्य की पटकथाओं में तो हार हाल में आबाद रहेंगे। 




  

व्यंग्य लेखन से आप किसी रक्तपात की उम्मीद मत कीजिए। उसका हरापन एक पीली रोशनी में सिमटता जा रहा है। न उसमें समय के जलते सवाल हैं और न ज़िंदगी के अदहन की तरह कोई खदबदाहट। व्यंग्य के उद्गम स्थल निरंतर सूखते जा रहे हैं और उसका आस्वाद एकदम  बदल रहा है। मंगलेश डबराल की एक कविता है- 'गुजरात के मृतक का बयान' उसकी कुछ पंक्तियां  पढ़िए- 


“मुझे इस तरह मारा गया 

जैसे मारे जा रहे एक साथ हो बहुत से लोग

मेरे जीवित होने का कोई मकसद नहीं था

और मुझे मारा गया इस तरह

जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मकसद हो”

   

व्यंग्य लेखन के बारे में कई तरह की चर्चाएं जलती बुझती रहीं। उसे भरपूर गन्ने की तरह चूसा और 'चचोरा' जाता रहा। यह सच है कि हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य लेखन को परवान चढ़ाया। अन्यथा पुराने समय के अनुसार उसमें हास्य-विनोद-मसखरी, हरक्की, स्वांग और कौतूहल पूरी तरह से अड्डा जमाए रहते थे।  व्यंग्य को उसके आयामों और पहलुओं के साथ परसाई उसे वहाँ से सुरक्षित निकाल लाए। उसके सपनें और बुदबुदाहट की दुनिया से संभावनाओं के नए आलोक में ले आए। उसे हर दृष्टि से सक्षम बनाया। व्यंग्य को परसाई जी ने जीवन के विशाल रंगमंच में भूमिका निभाने के लिए खुला छोड़ दिया है। हमारे जीवन संघर्षों में वह सीना तान कर खड़ा भी हुआ। जो व्यंग्य लेखन को बरत रहे हैं और प्रयोग कर रहे हैं उनके भीतर साहस संकल्प और मुठभेड़ करने की बिजली भर दी। व्यंग्य को केवल संभावनाओं की खिड़की दरवाज़े के रूप भर में नहीं बल्कि धरती और आसमान भी सौंप दिया। व्यंग्य पूर्व में भी था। परसाई ने उसे ताकतवर और जिम्मेदारी के नए नए क्षितिज सौंप दिए। कबीर से ले कर आधुनिक काल तक उसके कई रूप उभरते रहे हैं। परसाई जी के साथ उसकी वास्तविक हैसियत प्रकट हुई। अब कम से कम व्यंग्य की एक ऐसी धारा भी है जिसके पास व्यंग्य की ठोस समझ है और उसके प्रयोग की व्यापक क्षमता और प्रविधि भी है। 

    

व्यंग्य लेखन के जानकार लोग हैं लेकिन उंगलियों में गिने जाने लायक। उन्हें भी खेला जाता है और आगे भी खेला जाता रहेगा। ताकि उसमें व्यंग्य की ऊर्जा आने न पाए। व्यंग्य लेखन को उसकी अदला पटरी से उतारने में कुछ व्यंग्यवादी जुटे हैं। उसे वे उसकी अंतिम साँसें गिनवाने में लगे हैं। व्यंग्य के एरिया में भयानक ठूंसा-ठूंसी भी अनवरत जारी है। ज़ाहिर है कि परसाई जी ने व्यंग्य लेखन को अपना सर्वोत्कृष्ट दिया लेकिन उनके लेखन के और पक्ष भी हैं। उनका व्यंग्य 'कौआ डरावन' बिजूके वाला नहीं है। परसाई ने व्यंग्य को गंभीरता से पाला पोसा सींचा आदि। व्यंग्य में आंतरिक संलग्नता और संश्लिष्टता भी है और जूझने का सामर्थ्य भी। व्यंग्य को इतना काबिल बनाया कि वो किसी से भी आँख मिला सकता है। ज़ाहिर है कि परसाई जी के साथ जो भी रहा, उनका सहचरत्व पाया उन्होंने उनसे बहुत कुछ सीखा। वे वाकई में एक महान व्यंग्यकार के साथ एक महान शिक्षक भी थे। बहुत दूर की सोचते थे। उनमें व्यक्तिवादी संकीर्णताएं नहीं थीं। व्यंग्य झूठों के बस की चीज़ है भी नहीं। व्यंग्य सच्चाई के बिना थोथा चना है जो बाजे घना है। आजकल थोथे ही बज रहे हैं। व्यंग्य इस्तेमाल करने के तरीकों से भी प्रकट होता है। लेखक का पारदर्शी होना ज़रूरी है। परसाई के एक व्यंग्य की ताक़त को स्मरण कर रहा हूँ - “कोई आदमी किसी मरते हुए आदमी के पास नहीं जाता, इस डर से कि वह कत्ल के मामले में फंसा दिया जाएगा। बेटा बीमार बाप की सेवा नहीं करता। वह डरता है, बाप मर गया तो उस पर कहीं हत्या का आरोप न लगा दिया जाए। घर जलते रहते हैं और कोई बुझाने नहीं जाता - डरता है कि कहीं उस पर आग लगाने का जुर्म कायम न कर दिया जाए। बच्चे नदी में डूबते रहते हैं और कोई उन्हें नहीं बचाता। इस डर से कि उस पर बच्चे को डुबाने का आरोप न लग जाए। सारे मानवीय संबंध समाप्त हो रहे हैं।” (इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर)

    

परसाई जी कुछ कमजोरियों के बावजूद बेहद सच्चे यथार्थवादी इंसान थे। परसाई जी के जीवन और विचार की कई लोगों ने अपने तई पेंटिंग्स बनाईं हैं। फ़िलहाल इसे उजागर करना मेरा लक्ष्य कतई नहीं है। हम उनके द्वारा की गई चिंताओं को जानते पहचानते हैं लेकिन प्रायः उन्हें अमल में नहीं लाते। अमल में लाएंगे तो हमारा क्या होगा? उनके नाम पर फ़ैशन के रूप में कई चीज़ें विकसित भी हुई हैं। लेकिन उनकी जीवन प्रविधि और जीवन मूल्यों नैतिकताओं के प्रति घनघोर सन्नाटा भी  छाया हुआ है। उनके लेखन के नाम पर व्यंग्य लिखने का तवा भर गरम है जिसकी वजह से खूब छक कर लिखाई हो रही है। यह न जानिए कि वहाँ क्या-क्या है और कौन-कौन सी  खिचड़ियाँ पकाई जा रही हैं।


भारी भरकम गिरावट के बावजूद। सच मानिए मेरे दिल में एक विशेष किस्म का आश्वासन विराजमान है कि व्यंग्य लेखन का कुछ न कुछ ज़रूर होगा। होगा लेकिन अभी कितना वक्त लगेगा। व्यंग्य की व्यावसायिकता और बाज़ारगिरी ने इसे गंभीरता से नहीं बल्कि प्रशंसावाद और चमत्कारवाद की चौखट तक ला खड़ा किया है। व्यंग्य अब आपको आसानी से न तो शीर्षकों में मिलेगा और न किन्हीं चालबाजियों में और न ही उपशीर्षकों में। व्यंग्य के बारे में इतने लंबे अरसे से मात्र कहा सुनी हो रही है। प्रतिदिन व्यंग्य की अदालत में कहीं हमारा सर झुक रहा है और कहीं कंधा लहूलुहान हो रहा है। हम व्यंग्य की गूंगी परछाइयों के बीच में है और प्रतिदिन  शर्मनाक घेरों से गुजर रहे हैं। निराशा से व्यंग्य के नाम पर वास्तविक लोग चुप्पी लगाए बैठे हैं वो इंतजार कर रहे हैं व्यंग्य के अच्छे दिनों की। लेकिन वे यह भी नहीं जानते कि अच्छे दिन होते नहीं है बल्कि  लाए जाते हैं। वे ध्वजाधारियों की वजह से जम कर 'बटरिंग' कर रहे हैं। फिर भी किसी के कहने से तो आने से रहे। कभी न कभी तो उन्हें भी व्यंग्य की थरथराहट के दर्शन हो ही जाएंगे। वो व्यंग्य कहीं न कहीं छिप गया है - संस्थानों में, मठों में, ध्वजवाहकों की खड़खड़ाहटों में भी। दिन-रात  पंचायतों की अखाड़ेबाजी में और उनके इरादों के जंगल में भी।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 7987921206

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं