शायर विजय सोनी की गजलें

 

विजय सोनी 



शायर विजय सोनी छत्तीसगढ़ के उत्तर में स्थित कस्बे बैकुंठपुर के निवासी हैं जो पिछड़े आदिवासी बहुल जनपद कोरिया का ऊँघता  सा क़स्बा है। विजय मध्यप्रदेश के रीवा जिले में जन्मे हैं, जो रोज़गार के लिए बैकुंठपुर आ गए और यहाँ की ज़मीन से रिश्ता कर लिए। वे सीमान्त व्यवसायी हैं व जीवन की ज़िम्मेदारियाँ पूरी करते हुए संघर्षो से हमेशा ही दो-चार होते रहते हैं। संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारी निभाते और ऑनलाइन व्यापार से टक्कर लेने की जद्दोज़हद में उन्होंने ग़ज़लों को अपने जीवन-संघर्षों को व्यक्त करने का माध्यम बनाया है। उनकी ग़ज़लें स्तरीय हैं व अक्सर ही ग़ज़ल गायकों द्वारा गायी भी जाती हैं। ये ग़ज़लें उनकी गहरी संवेदनशीलता और भावनाओं की गहराई को दर्शाती हैं। उनकी रचनाओं में प्रेम, विरह, समाज, सियासत और जीवन के विभिन्न पहलुओं को बड़ी खूबसूरती से उकेरा गया है। उनकी भाषा सरल है, जिससे पाठक आसानी से जुड़ जाते हैं। कभी-कभी कठिन शब्दों का भी प्रयोग करते हैं पर वे सम्प्रेषणीयता में बाधा नहीं बनते। बहर या मीटर के लिहाज़ से भी गज़लें उम्दा हैं, वे छंद का पूरा ध्यान रखते हैं। इन ग़ज़लों में भावनाओं की गहराई और शब्दों की मिठास स्पष्ट रूप से झलकती है। प्रेम की बात करते हुए कहते हैं - "रस्म-ए-उल्फ़त  का कुछ सिला कहिए, आप कहिए मेरी सज़ा कहिए" तो विरह की भी बात है - "अश्क़ पलकों से मत गिराना तुम, एक क़तरा ज़मीं पे भारी है"। जब जीवन की बात करते हैं तो कहते हैं - "तंज़   वाजिब था सुन लिया हमने, इस ज़माने को क्यूँ  बुरा कहिए।" कहीं वे कहन में समाज व सियासत को समेट लेते हैं - "दरबदर होंगे वो, जो होंगे हुक़ूमत के खिलाफ, हमने देखी है सियासत भी मुहब्बत के खिलाफ" “जुर्म इतना है हमारा हम रिआया है तेरी, पर ज़ुबाँ खोलेंगे हम अपनी जलालत के खिलाफ“, वहीं व्यवस्था के प्रति भी आक्रोश व्यक्त होता है - "मुफ़लिसी जब  भी सर  उठाएगी, अगला-पिछला हिसाब दे देगी"। इन अशआर से विजय की ग़ज़लों की विविधता और गहराई को महसूस किया जा सकता है। उनकी रचनाएँ पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं और दिल को छू जाती हैं। 


पद्मनाभ गौतम 


छत्तीसगढ़ के युवा शायर विजय सोनी की कुछ गजलें कवि पद्मनाभ गौतम ने अपनी महत्त्वपूर्ण टिप्पणी के साथ पहली बार को उपलब्ध कराई हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शायर विजय सोनी की गजलें।



शायर विजय सोनी की गजलें



1.


ख़ुश्क   आंखो  में ख़्वाब  दे   देगी

ज़िन्दगी  सब    रूबाब   दे    देगी


मुफ़लिसी  जब  भी सर   उठाएगी

अगला   पिछला  हिसाब  दे  देगी


तुम  सवालों की  फ़िक्र मत करना

ज़िन्दगी   खुद     ज़वाब   दे   देगी


अपने  ऐनक   उतार   कर    देखो

बेबसी    इंतिख़ाबदे     देगी


दोस्तों    से   बना  के चलना  तुम          

दोस्ती        बेहिसाब      दे    देगी


बेगरज   तुझको   ये  नहीं  मालूम

बेख़ुदीसब   ज़वाब दे   देगी


फिर मुकम्मल ग़ज़ल भी कह लेना

जब   तुम्हेंवो   गुलाब  दे   देगी



2.


सच   कहें   इश्क़ है  ख़ुमारी है

बस   यूँ ही  ज़िन्दगीगुजारी  है


अश्क़ पलकों से मत गिराना तुम

एक   क़तरा    जमीं   पे  भारी है


ज़िन्दगी अब  गुज़र रही  तनहा 

कौन   अपना   हैं  कैसी  यारी है


वो  क़यामत  की  बात  करता है

एक  लम्हा   ही   सब पे  भारी  है


यूँ   तराशा  है  अब  सुख़न  मेरा

ये  तो  उनकी   ही  दस्तकारी  है



3. 


रस्म-ए-उल्फत का कुछ सिला कहिए

आप    कहिए    मेरी   सज़ा कहिए


तंज़   वाजिब था   सुन  लिया हमने

इस   ज़माने   को    क्यूँ  बुरा  कहिए


इस     ज़माने    में    कौन  अपना है

कौन अपना है   किसको क्या कहिए


नब्ज़    रफ़्तार छोड़   दे     गोया

उसके     पहले    मेरी    दवा  कहिए


है    यही     रस्म   तो     निभानी   है

हर    ठिकाने    को   मरहला  कहिए


ज़िक्र   करना   है   जुर्म   करना   तो

आप   लोगों   को   बस  ख़ुदा  कहिए


राज़  दिल   के   तो  कह  दिए हमने

अब  भला  कहिए  या  बुरा  कहिए





4. 


मजलिस से सियासत का हुनर क्यों नही जाता

क्यूँ  जुर्म वो करता है सुधर क्यों नहीं जाता


मिलने की तमन्ना में गुजारी हैं कई शब

ये वक्त ज़ुदाई का गुजर क्यों नहीं जाता


कुछ ख़्वाब चुरा लेंगे निगाहों में बसा लो

शामिल है जो आदत में हुनर क्यों नहीं जाता


उसने जो मुहब्बत के सिवा सोच लिया कुछ

वो शख़्स मेरे आगे ही मर क्यों नहीं जाता


तुरपन है जो रिश्तों में छुपाने की है कोशिश

रेशम की सजावट से संवर क्यों नहीं जाता


5. 


दरबदर होंगे वो जो होंगे हुक़ूमत के खिलाफ

हमने देखी है सियासत भी मुहब्बत के खिलाफ


जुर्म इतना है हमारा हम रिआया है तेरी

पर ज़ुबाँ खोलेंगे हम अपनी जलालत के खिलाफ


ये ख़बर किसने उड़ाई है वतन वालो कहो

हम निज़ामत भी करेंगे तो निज़ामत के खिलाफ


शाख ने गुल को संभाला है मुहब्बत से बहुत

उनसे नफ़रत है हमें जो हैं नज़ारत के खिलाफ


हैं ये बहरे जो संभाले है सियासत की कमान

जोर से चीख़ों यहाँ अपनी अज़ीयत  खिलाफ


जलालत --- अपमान, तिरस्कार

निजामत --- प्रबन्ध ,व्यवस्था

नज़ारत ----- ताज़गी 

अज़ीयत --- यातना, प्रताड़ना



6. 


हमें   ख़बर  थी   मचल  रहा है

जो  गिरते -गिरते संभल रहा है


जला    दिए   हैं    चराग़   मैंने

जमीं  पे  सूरज  पिघल  रहा है


नई  फसल  है   नया है  मौसम

ज़मीं  से  पौधा  निकल  रहा है


है   बन्द   मुठ्ठी   में  रेत   जैसा

जो हाथ से अब फिसल रहा है


ये  शाम   हमको  बता  रही  है

अंधेरा   सब कुछ  निगल रहा है


कमाल   है  सब  तेरे  हुनर का

नसीब   मेरा    बदल   रहा   है


बसे  है आँखों में ख़्वाब उसके

तभी  ज़माने  को  खल रहा है


कभी गिरेबां  में  झाँक लो तुम

हुकूमतों   का   दखल  रहा  है


कहो उसे के अदब को समझे

वो  हद से बाहर निकल रहा है





7.


इश्क़  है  या है  ख़ता इस बार भी

ले  रहे  थे  वो  मज़ा  इस बार भी


ज़िक्र उनका क्या करें हम आपसे

गम में हैं वो  मुब्तिला इस बार भी


फूल   खुश्बू  सब मेरे  आगोश में

रंग   लाएगी   हिना  इस  बार भी


लौट कर आना मेरा मुमकिन नहीं

जाते  जाते  कह गया इस बार भी


क्यूँ  मुहब्बत अब हमें  रुसवा करे

तल्ख़ लहजे में कहा इस बार भी


8. 


दिल   में   हमारे   आज  ये  कैसा  ग़ुबार  है

कातिल  है  कौन  यार  यहां दिल फ़िगार है


रहमत ख़ुदा की देखिए सब कुछ बना दिया

फिर भी तो दिल को देखिए क्यूँ सोगवार है


धोख़े    में  अपनी  ज़िन्दगी  हमने  गुज़ार  दी

वादे   हज़ार  करता  है  कहता  है  प्यार है


उजलत  है  कैसी  आपको बतलाइए हुजूर

अपने   मकां   के  पास  हैं  अपना दयार है


मिल  जुल  के हमने यार गुज़ारी है ज़िन्दगी 

घर   की   रवायतों   का   यही   इश्तहार है


झुकते  नहीं  है  आप  ये सच्ची  खबर नहीं

हम   जानते  हैं  आपका  कितना  वक़ार है


नफ़रत   के  पेड़  काटिए आ जाएगी बहार

हम  जानते  हैं आपको हमसे  भी प्यार है


फ़िगार - जख्मी

सोगवार - उदास

उजलत - जल्दबाजी, उतावलापन

वक़ार - मान,प्रतिष्ठा


9.


नानी  के  घर  जाते  बच्चे  कितने  अच्छे  लगते  थे

बचपन था तब सारे  सपने  हमको  सच्चे  लगते  थे


बूढ़ा   बरगद   बाँह   पसारे  राहें  देखा   करता  था

तुम   रूठे   तो   रूठे -रूठे  सारे  किस्से  लगते  थे


कल-कल करती नदियाँ  देखीं झरने देखें खुशियों के

कागज की जब  नाव बहाकर हम इतराने लगते थे


तुम बचपन की बात न भूले हमको भी सब याद रहा

सच्ची -सच्ची  बातें अपनी ख्वाब भी सच्चे लगते थे


ग़म  खुशियों  को  साथ  सहेजे बढ़ते आए जीवन में

अब  बच्चों  को  हम  बूढ़े  भी  खूब  झमेले लगते थे



10


यहाँ   गुनगुनाते   तराने   बहुत  हैं

चमन  के  मनाज़िर  सुहाने बहुत हैं 


गरीबों   ने  फ़ाक़ों  में  काटी हैं रातें

अमीरों  के  घर में खजाने  बहुत हैं 


मुसीबत  में यारों की पहचान होती

यूँ कहने  को रिश्ते पुराने बहुत  हैं 


इशारा  समझकर बढ़े जाओ आगे 

बुज़ुर्गों की  बातों के माने बहुत हैं 


विदेशो  में  मोदी  बहुत  बोलते  हैं

हुक़ूमत  के  देखो  बहाने  बहुत हैं 


यहाँ  जो  हमारी  तरफ़दारी   करते

वो  अपने  घरों  में  सयाने बहुत हैं 


दबे  पाँव आगे बढ़े  जाओ  यारो

यहाँ  दुश्मनों  के   घराने  बहुत  हैं 


तेरे आने की जब ख़बर मिल रही है

ग़ज़ल कहने के फिर बहाने बहुत हैं 


बहुत  दूर   हूँ   मैं  मेरी  मंज़िलों  से

अभी  हौसलों  की  उड़ानें   बहुत हैं 


मैं  रहता  जहाँ  हूँ वो ऐसी ज़मीं  है

जहाँ  हीरे-पन्ने  की  खानें  बहुत हैं 


यहाँ  कौन  तेरा   सगा  रह  गया है

के अब भी तुझे घर बसाने बहुत हैं 



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



संपर्क – 


मोबाइल : 8223821959



टिप्पणियाँ

  1. अच्छी ग़ज़लें इस युवा शायर की। बहुत बहुत बधाई। पहली बार को भी साधुवाद।
    ओम निश्चल | नई दिल्ली

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