रांगेय राघव की कहानी 'गूँगे'

 

रांगेय राघव


जो इंसान किसी वजह से बोल नहीं पाता उसे ही भले ही गूंगा कहें, लेकिन उसकी भी अपनी खुद की आवाज होती है। 'गूँगे' भी बतौर इंसान एक स्वाभिमान भरी जिन्दगी चाहते हैं और खुद को अभिव्यक्त करना चाहते हैं। वे भी चाहते हैं कि उनके साथ थोड़ी संवेदनशीलता बरती जाए। लेकिन संवेदनहीन समाज से सोचने की अपेक्षा करना भी तो व्यर्थ है। 'गूँगे' रांगेय राघव की महत्त्वपूर्ण कहानी है। एक 'गूँगे' के माध्यम से यह कहानी काफी कुछ कह डालती है। रांगेय राघव कहानी में लिखते हैं : ''गूँगे' अनेक-अनेक हो संसार में भिन्न-भिन्न रूपों में छा गए हैं—जो कहना चाहते हैं, पर कह नहीं पाते। जिनके हृदय की प्रतिहिंसा न्याय और अन्याय को परख कर भी अत्याचार को चुनौती नहीं दे सकती, क्योंकि बोलने के लिए स्वर हो कर भी स्वर में अर्थ नहीं है... क्योंकि वे असमर्थ हैं।' आज रांगेय राघव के जन्मदिन पर हम उनकी स्मृति को नमन करते हैं। आइए इस अवसर पर आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रांगेय राघव की कहानी 'गूँगे'।



'गूँगे'


रांगेय राघव


‘शकुंतला क्या नहीं जानती?'


'कौन? शकुंतला! कुछ नहीं जानती!'


'क्यों साहब? क्या नहीं जानती? ऐसा क्या काम जो वह नहीं कर सकती?'


‘वह उस गूँगे को नहीं बुला सकती।'


'अच्छा, बुला दिया तो?


बुला दिया?


बालिका ने एक बार कहने वाली की ओर द्वेष से देखा और चिल्ला उठी, दूँदे!


गूँगे ने नहीं सुना। तमाम स्त्रियाँ खिलखिला कर हँस पड़ीं। बालिका ने मुँह छिपा लिया।


जन्म से वज्र बहरा होने के कारण वह गूँगा है। उसने अपने कानों पर हाथ रख कर इशारा किया। सब लोगों को उसमें दिलचस्पी पैदा हो गई, जैसे तोते को राम-राम कहते सुन कर उसके प्रति ह्रदय में एक आनंद-मिश्रित कुतूहल उत्पन्न हो जाता है।


चमेली ने अँगुलियों से इंगित किया—फिर?


मुँह के आगे इशारा करके गूँगे ने बताया—भाग गई। कौन? फिर समझ में आया। जब छोटा ही था, तब 'माँ' जो घूँघट काढ़ती थी, छोड़ गई, क्योंकि 'बाप', अर्थात् बड़ी-बड़ी मूँछें, मर गया था। और फिर उसे पाला है—किसने? यह तो समझ में नहीं आया, पर वे लोग मारते बहुत हैं।


करुणा ने सबको घेर लिया। वह बोलने की कितनी ज़बर्दस्त कोशिश करता है। लेकिन नतीजा कुछ नहीं, केवल कर्कश काँय-काँय का ढेर! अस्फुट ध्वनियों का वमन, जैसे आदिम मानव अभी भाषा बनाने में जी-जान से लड़ रहा हो।


चमेली ने पहली बार अनुभव किया कि यदि गले में काकल तनिक ठीक नहीं हो तो मनुष्य क्या से क्या हो जाता है। कैसी यातना है कि वह अपने हृदय को उगल देना चाहता है, किंतु उगल नहीं पाता।


सुशीला ने आगे बढ़ कर इशारा किया—मुँह खोलो! और गूँगे ने मुँह खोल दिया—लेकिन उसमें कुछ दिखाई नहीं दिया। पूछा 'गले में कौआ है?’ गूँगा समझ गया। इशारे से ही बता दिया—‘किसी ने बचपन में गला साफ़ करने की कोशिश में काट दिया' और वह ऐसे बोलता है जैसे घायल पशु कराह उठता है, शिकायत करता है, जैसे कुत्ता चिल्ला रहा हो और कभी-कभी उसके स्वर में ज्वालामुखी के विस्फोट की-सी भयानकता थपेड़े मार उठती है। वह जानता है कि वह सुन नहीं सकता। और बता-बता कर मुस्कुराता है। वह जानता है कि उसकी बोली को कोई नहीं समझता फिर भी बोलता है।


सुशीला ने कहा—इशारे ग़ज़ब के करता है। अकल बहुत तेज़ है। पूछा—'खाता क्या है, कहाँ से मिलता है?’


वह कहानी ऐसी है, जिसे सुन कर सब स्तब्ध बैठे हैं। हलवाई के यहाँ रात-भर लड्डू बनाए हैं, कड़ाही माँजी है, नौकरी की है, कपड़े धोए हैं, सबके इशारे है लेकिन—।


गूँगे का स्वर चीत्कार में परिणत हो गया। सीने पर हाथ मार कर इशारा किया—‘हाथ फैला कर कभी नहीं माँगा, भीख नहीं लेता', 'भुजाओं पर हाथ रख कर इशारा किया—‘मेहनत का खाता हूँ' और पेट बजा कर दिखाया 'इसके लिए, इसके लिए...।'


अनाथाश्रम के बच्चों को देख कर चमेली रोती थी। आज भी उसकी आँखों में पानी आ गया। यह सदा से ही कोमल है। सुशीला से बोली—‘इसे नौकर भी तो नहीं रखा जा सकता।'


पर गूँगा उस समय समझ रहा था। वह दूध ले आता है। कच्चा मँगाना हो, तो थन काढ़ने का इशारा कीजिए; औंटा हुआ मँगवाना हो, तो हलवाई जैसे एक बर्तन से दूध दूसरे बर्तन में उठा कर डालता है, वैसी बात कहिए। साग मँगवाना ही, तो गोल-गोल कीजिए या लंबी उँगली दिखा कर समझाइए, और भी...और भी...।


और चमेली ने इशारा किया—‘हमारे यहाँ रहेगा?’


गूँगे ने स्वीकार तो किया, किंतु हाथ से इशारा किया—'क्या देगी? खाना?’


'हाँ, कुछ पैसे'—चमेली ने सिर हिलाया। चार उँगलियाँ दिखा दी। गूँगे ने सीने पर हाथ मार कर जैसे कहा तैयार हैं। चार रुपए।


सुशीला ने कहा—‘पछताओगी। भला यह क्या काम करेगा?’


'मुझे तो दया आती है बेचारे पर,’ चमेली ने उत्तर दिया—‘न ही, बच्चों की तबीयत बहलेगी।'


घर पर बुआ मारती थी, फुफा मारता था, क्योंकि उन्होंने उसे पाला था। वे चाहते थे कि बाज़ार में पल्लेदारी करें, बारह-चौदह आने कमा कर लाए और उन्हें दे दे, बदले में वे उसके सामने बाजरे और चने की रोटियाँ डाल दें। अब गूँगा घर भी नहीं जाता। यहीं काम करता है। बच्चे चिढ़ाते हैं। कभी नाराज़ नहीं होता। चमेली के पति सीधे-सादे आदमी है। पल जाएगा बेचारा, किंतु ये जानते हैं कि मनुष्य की करुणा की भावना उसके भीतर गूँगेपन की प्रतिच्छाया है, वह बहुत कुछ करना चाहता है, किंतु कर नहीं पाता। इस तरह दिन बीत रहे हैं।


चमेली ने पुकारा—'गूँगे।'


किंतु कोई उत्तर नहीं आया, उठ कर ढूँढ़ा—‘कुछ पता नहीं लगा।'


बसंता ने कहा—'मुझे तो कुछ नहीं मालूम।'


'भाग गया होगा', पति का उदासीन स्वर सुनाई दिया। सचमुच वह भाग गया था। कुछ भी समझ में नहीं आया। चुपचाप जा कर खाना पकाने लगी। क्यों भाग गया? नाली का कीड़ा! 'एक छत उठा कर सिर पर रख दी' फिर भी मन नहीं भरा। दुनिया हँसती है, हमारे घर को अब अजायबघर का नाम मिल गया है... किसलिए...?


जब बच्चे और वह भी खा कर उठ गए तो चमेली बची रोटियाँ कटोरदान में रख कर उठने लगी। एकाएक द्वार पर कोई छाया हिल उठी। वह गूँगा था। हाथ से इशारा किया—'भूखा हूँ।'


‘काम तो करता नहीं, भिखारी' फेंक दी उसकी ओर रोटियाँ। रोष से पीठ मोड़ कर खड़ी हो गई। किंतु गूँगा खड़ा रहा। रोटियाँ छुई तक नहीं। देर तक दोनों चुप रहे। फिर न जाने क्यों, गूँगे ने रोटियाँ उठा ली और खाने लगा। चमेली ने गिलासों में दूध भर दिया। देखा, गूँगा खा चुका है। उठी और हाथ में चिमटा ले कर उसके पास खड़ी हो गई।


'कहाँ गया था?' चमेली ने कठोर स्वर से पूछा।


कोई उत्तर नहीं मिला। अपराधी की भाँति सिर झुक गया। सड़ से एक चिमटा उसकी पीठ पर जड़ दिया। किंतु गूँगा रोया नहीं। वह अपने अपराध को जानता था। चमेली की आँखों से ज़मीन पर आँसू टपक गया। तब गूँगा भी रो दिया।






और फिर यह भी होने लगा कि गूँगा जब चाहे भाग जाता, फिर लौट आता। उसे जगह-जगह नौकरी कर के भाग जाने की आदत पड़ गई थी और चमेली सोचती कि उसने उस दिन भीख ली थी या ममता की ठोकर को निस्संकोच स्वीकार कर लिया था।


बसंता ने कस कर गूँगे को चपत जड़ दी। गूँगे का हाथ उठा और न जाने क्यों अपने-आप रुक गया। उसकी आँखों में पानी भर आया और वह रोने लगा। उसका रुदन इतना कर्कश था कि चमेली को चूल्हा छोड़ कर आना पड़ा। गूँगा उसे देख कर इशारों से कुछ समझाने लगा। देर तक चमेली उससे पूछती रही। उसकी समझ में इतना ही आया कि खेलते-खेलते बसंता ने उसे मार दिया था।


बसंता ने कहा—'अम्मा! यह मुझे मारना चाहता था।'


'क्यों रे?’ चमेली ने गूँगे की ओर देख कर कहा। वह इस समय भी नहीं भूली थी कि गूँगा कुछ सुन नहीं सकता। लेकिन गूँगा भाव-भंगिमा से समझ गया। उसने चमेली का हाथ पकड़ लिया। एक क्षण को चमेली को लगा, जैसे उसी के पुत्र ने आज उसका हाथ पकड़ लिया था। एकाएक घृणा से उसने हाथ छुड़ा लिया। पुत्र के प्रति मंगल-कामना ने उसे ऐसा करने को मज़बूर कर दिया।


कहीं उसका भी बेटा गूँगा होता तो वह भी ऐसे ही दुख उठाता! वह कुछ भी नहीं सोच सकी। एक बार फिर गूँगे के प्रति हृदय में ममता भर आई। वह लौट कर चूल्हे पर जा बैठी, जिसमें अंदर आग थी, लेकिन उसी आग से वह सब पक रहा था जिससे सबसे भयानक आग बुझती है—पेट की आग, जिसके कारण आदमी ग़ुलाम हो जाता है। उसे अनुभव हुआ कि गूँगे में बसंता से कहीं अधिक शारीरिक बल था। कभी भी गूँगे की भाँति शक्ति से बसंता ने उसका हाथ नहीं पकड़ा था। लेकिन फिर भी गूँगे ने अपना उठा हाथ बसंता पर नहीं चलाया।


रोटी जल रही थी। झट से पलट दी। वह पक रही थी, इसी से बसंता-बसंता है... गूँगा-गूँगा है...।


चमेली को विस्मय हुआ। गूँगा शायद यह समझता है कि बसंता मालिक का बेटा है, उस पर वह हाथ नहीं लगा सकता। मन-ही-मन थोड़ा विक्षोभ भी हुआ, किंतु पुत्र की ममता ने इस विषय पर चादर डाल दी और फिर याद आया कि उसने उसका हाथ पकड़ा था। शायद इसीलिए कि उसे वसंता को दंड देना ही चाहिए, यह उसको अधिकार है...।


किंतु वह तब समझ नहीं सकी, और उसने सुना कि गूँगा कभी-कभी कराह उठता था। चमेली उठ कर बाहर गई। कुछ सोच कर रसोई में लौट आई और रात की बासी रोटी ले कर निकली।


'गूँगे!' उसने पुकारा।


कान के न जाने किस पर्दे में कोई चेतना है कि गूँगा उसकी आवाज़ को कभी अनसुना नहीं कर सकता, वह आया। उसकी आँखों में पानी भरा था। जैसे उनमें एक शिकायत थी, पक्षपात के प्रति तिरस्कार था। चमेली को लगा कि लड़का बहुत तेज़ है। बरबस ही उसके होंठों पर मुस्कान छा गई। कहा—'ले खा ले।'—और हाथ बढ़ा दिया।


गूँगा इस स्वर की, इस सबकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह हँस पड़ा। अगर उसका रोना एक अजीब दर्दनाक आवाज़ थी तो यह हँसना और कुछ नहीं—एक अचानक गुर्राहट-सी चमेली के कानों में बज उठी। उस अमानवीय स्वर को सुन कर वह भीतर-ही-भीतर काँप उठी। यह उसने क्या किया था? उसने एक पशु पाला था। जिसके हृदय में मनुष्यों की-सी वेदना थी।


घृणा से विक्षुब्ध हो कर चमेली ने कहा—‘क्यों रे, तूने चोरी की है?’





गूँगा चुप हो गया। उसने अपना सिर झुका लिया। चमेली एक बार क्रोध से काँप उठी, देर तक उसकी ओर घूरती रही। सोचा—मारने से यह ठीक नहीं हो सकता। अपराध को स्वीकार करा दंड न देना ही शायद कुछ असर करे और फिर कौन मेरा अपना है। रहना हो तो ठीक से रहे, नहीं तो फिर जा कर सड़क पर कुत्तों की तरह जूठन पर ज़िंदगी बिताए, दर-दर अपमानित और लाँछित...।


आगे बढ़ कर गूँगे का हाथ पकड़ लिया और द्वार की ओर इशारा करके दिखाया—निकल जा। गूँगा जैसे समझा नहीं। बड़ी-बड़ी आँखों को फाड़े देखता रहा। कुछ कहने को शायद एक बार होंठ खुले भी, किंतु कोई स्वर नहीं निकला। चमेली वैसे ही कठोर बनी रही। अब के मुँह से भी साथ-साथ कहा—'जाओ, निकल जाओ। ढंग से काम नहीं करना है तो तुम्हारा यहाँ कोई काम नहीं। नौकर की तरह रहना है रहो, नहीं तो बाहर जाओ। यहाँ तुम्हारे नख़रे कोई नहीं उठा सकता। किसी को भी इतनी फ़ुरसत नहीं है। समझे?'


और फिर चमेली आवेश में आ कर चिल्ला उठी—‘मक्कार, बदमाश! पहले कहता था, भीख नहीं माँगता, और सबसे भीख माँगता है। रोज़-रोज़ भाग जाता है, पत्ते चाटने की आदत पड़ गई है। कुत्ते की दुम क्या कभी सीधी होगी? नहीं। नहीं रखना है हमें, जा, तू इसी वक़्त निकल जा...।’


किंतु वह क्षोभ, वह क्रोध सब उसके सामने निष्फल हो गए; जैसे मंदिर की मूर्ति कोई उत्तर नहीं देती, वैसे ही उसने भी कुछ नहीं कहा। केवल इतना समझ सका कि मालकिन नाराज़ है और निकल जाने को कह रही हैं। इसी पर उसे अचरज और अविश्वास हो रहा है।


चमेली अपने-आप लज्जित हो गई। कैसी मूर्खा है वह! बहरे से जाने क्या-क्या कह रही थी? वही क्या कुछ सुनता है?


हाथ पकड़ कर ज़ोर से एक झटका दिया और उसे दरवाज़े के बाहर धकेल कर निकाल दिया। गूँगा धीरे-धीरे चला गया। चमेली देखती रही।


क़रीब घंटे भर बाद शकुंतला और बसंता—दोनों चिल्ला उठे, 'अम्मा! अम्मा!'


'क्या है?’ चमेली ने ऊपर ही से पूछा।


'गूँगा...,’ बसंता ने कहा। किंतु कहने के पहले ही नीचे उतर कर देखा—गूँगा ख़ून से भीग रहा था। उसका सिर फट गया था। वह सड़क के लड़कों से पिट कर आया था, क्योंकि गूँगा होने के नाते वह उनसे दबना नहीं चाहता था। दरवाज़े की दहलीज़ पर सिर रखकर वह कुत्ते की तरह चिल्ला रहा था।


और चमेली चुपचाप देखती रही, देखती रहीं कि इस मूक अवसाद में युगों का हाहाकार भर कर गूँज रहा है।


और ये गूँगे... अनेक-अनेक हो संसार में भिन्न-भिन्न रूपों में छा गए हैं—जो कहना चाहते हैं, पर कह नहीं पाते। जिनके हृदय की प्रतिहिंसा न्याय और अन्याय को परख कर भी अत्याचार को चुनौती नहीं दे सकती, क्योंकि बोलने के लिए स्वर हो कर भी स्वर में अर्थ नहीं है... क्योंकि वे असमर्थ हैं।


और चमेली सोचती है, आज दिन ऐसा कौन है जो गूँगा नहीं है। किसका हृदय समाज, राष्ट्र, धर्म और व्यक्ति के प्रति विद्वेष से, घृणा से नहीं छटपटाता, किंतु फिर भी कृत्रिम सुख की छलना अपने जालों में उसे नहीं फाँस देती—क्योंकि वह स्नेह चाहता है, समानता चाहता है!



(उपर्युक्त कहानी एनसीईआरटी की ग्यारहवीं कक्षा की पुस्तक से साभार ली गई है।)



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

टिप्पणियाँ

  1. मार्मिक कहानी है। बहुत पहले मैंने गूंएक कविता लिखी थी। इस कहानी को पढ़ते हुए याद आ गई:


    यदि तुम सोचते हो
    ----------------------

    यदि तुम सोचते हो कि गूंगे नहीं बोलते तो तुम ग़लत हो
    यदि तुम सोचते हो कि बहरे सुन नहीं सकते तो भी ग़लत हो
    यदि तुम सोचते हो कि नेत्र विहीन देख नहीं सकते तो बिल्कुल ग़लत हो

    गूंगे की देह भाषा सुनी है तुमने?
    देखा है कभी वीडियो काॅल पर उन्हें झुमते हुए ?
    सप्ताहांत की छुट्टी पर जाने की खुशी में
    पत्नी से बात करते हुए और स्क्रीन को बार-बार चूमते हुए

    जब भी दो आदमी करते हैं धीमे स्वर में कोई बात
    बहरे भी आंखों से उसे सुनते रहते हैं चुपचाप

    और नेत्रहीनों ने तो खींच रखी है दुनिया की सबसे खूबसूरत तस्वीर

    पत्थरों के बीच दूब हंसती है
    और पहाड़ों पर पेड़ झूमते हैं
    यदि चाहो तो तुम ऐसा भी सोच सकते हो।

    @ ललन चतुर्वेदी

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं