अशरफ़ अबूल-याज़िद की कविताएं

 

अशरफ़ अबूल-याज़िद



अशरफ़ अबूल-याज़िद (जन्म : 1963) मिस्त्र के कवि, उपन्यासकार हैं। वह पिछले 33 साल से सांस्कृतिक पत्रकारिता में सक्रिय हैं। वह अनेक अरबी प्रकाशन संस्थानों से संबद्ध रहे हैं। मौलिक एवं अनूदित मिला कर उनकी कुल 42 पुस्तकें प्रकाशित हैं। वह अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित हैं।



सृष्टि के अनन्त विस्तार में संवेदनाओं, अनुभूतियों और सूक्ष्मताओं को जिस विधा में बेहतर तरीके से दर्ज किया जा सकता है वह विधा कविता ही हो सकती है। इस मामले में दुनिया भर के कवियों को परस्पर जोड़ने का काम कविता ही करती है। मूसलाधार बारिश में एक बूंद के अनदेखा रह जाने का दर्द वस्तुतः कवि ही बयां कर सकता है। वह बारिश जिसका समूचा वजूद ही बूंदों पर टिका होता है। ठीक वैसे ही जैसे इस दुनिया के निर्मित होने में एक एक आदमी का हाथ है। लेकिन धर्म, जाति और राष्ट्र जैसी संस्थाओं बीच वह लगभग खो जाने के लिए अभिशप्त होता है। अशरफ़ अबूल-याज़िद मिस्र के चर्चित कवि हैं और उनकी कविताएं दुनिया की कई एक भाषाओं में अनूदित हुई हैं। कवि देवेश पथ सारिया ने अशरफ़ अबूल-याज़िद की कविताओं का उम्दा हिन्दी अनुवाद किया है। कविताएं पढ़ते हुए मूल कविता पढ़ने का अहसास होता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अशरफ़ अबूल-याज़िद की कविताएं।



अशरफ़ अबूल-याज़िद की कविताएं


अँग्रेज़ी से अनुवाद : देवेश पथ सारिया



कायरो (मिस्त्र की राजधानी) की एक गली


वह आदमी जो घर लौटा है, 

थोड़े से अंतराल के लिए, 

उसके पास केवल दो दिन हैं:

एक दिन उसके आने का, 

और एक दिन प्रस्थान की तैयारी का।

एक दिन उस स्त्री को देख कर रोने का, 

और एक दिन उसकी विदाई पर स्त्री के रोने का

एक दिन दोस्तों से गले मिलने का, 

और एक दिन उनकी मृगतृष्णा से गले मिलने का।

एक दिन उन्हें युद्ध के बारे में बताने का, 

और एक दिन उनसे युद्ध के शिकार लोगों के बारे में जानने का।

एक दिन जीवन का, 

और एक दिन शाश्वत मृत्यु का।

वह आदमी जो घर लौटा है, 

थोड़े से अंतराल के लिए, याद करता है:

जब युद्ध शुरू हुआ था, 

उन्होंने उसकी आँखों पर निशाने रख दिए थे, 

और उसके मुँह को 

टैंक की नोंक से बंद कर दिया था, 

और कैसे वह मर गया था 

बारूद की गंध सूंघ पाने से भी पहले।


वह आदमी जो घर लौटा है,

थोड़े से अंतराल के लिए,

उसका स्वागत करती है

कायरो की एक गली,

और दो फुटपाथ,

वह उन दोनों के बीच के दायरे में

बिखेर देता है अपनी निर्वासित देह, 

गिनता हुआ 

हारे हुए युद्धों में जलाए हुए काग़ज़ात, 

बिजली के खंभों के नीचे आग में।

वह आदमी जो घर लौटा है, 

थोड़े से अंतराल के लिए, 

उस गली की तरह है, 

जिसमें दुःख का मोर्चा निकल रहा है, 

केवल दर्द के निशान छोड़ता हुआ।

कायरो की 

दो हज़ार सालों से सुनसान एक गली, 

सूखे पेड़ों और लोगों से भरी हुई, 

कीचड़ और ह‌ड्डियों से भरी हुई, 

मानो जीवन दिखता हुआ मृत्यु की तरह !

वह आदमी जो घर लौटा है, 

थोड़े से अंतराल के लिए, 

कायरो की एक गली है केवल 

जिसकी बालकनियां हैं निराशा से भरी हुई, 

उसके भीतर नाचती हैं हारी हुई लड़ाइयां 

उसके पैर खून में डूबे हुए, 

और उसके दिल में सोई हैं वे लाशें 

जिन्होंने ख़बरों में अपनी भूमिका अदा कर दी है।

वह आदमी जो घर लौटा है, 

थोड़े से अंतराल के लिए, 

एक दृश्य की तलाश में है,

दोनों शहरों के बीच फैला हुआ एक हाथ, 

जिस पर उकेरी हुई रेखाएं दर्शाती हैं, 

रेत और आंधी से बने हुए साल।

वह आदमी जो घर लौटा है,

अपने छोटे से ठहराव के दौरान, पूछता है : 

"कितने और अंतिम युद्ध पर्याप्त होंगें?"



बेन्हा*


नील नदी की छाती पर 

एक स्तन की तरह 

सोता है बेन्हा 

और मेरे सपनों में 

उड़ेल देता है अपना शहद 

घर आने पर मैं अक्सर सोचता हूँ 

क्या मुझे इसके सभी रास्ते याद हैं?

क्या याद है बेन्हा को चेहरा मेरा 

जिस पर उत्कीर्ण हैं

थके हुए से कितने ही नए रास्ते?


* नील नदी के किनारे कवि का क़स्बा







लाड़


मैं अपने पुराने स्कूल गया 

और स्कूल में अपनी कक्षा में 

मैंने पाया कि मेरी पुरानी डेस्क पर 

जो लड़का बैठा था 

वह वैसा नहीं था 

जैसा मैं दिखा करता था बचपन में 

ज़रा सा भी नहीं!

फिर भी मुझे उस पर लाड़ आ गया।



क़ैदखाना


सपना देखता हुआ कैदी 

बेरहम पहरेदार से पूछता है : 

"तुम कैसे कह सकते हो 

कि तुम मेरे कैदी नहीं हो?

क्या हमारे बीच में

वही सलाखें नहीं हैं?"



एक नदी


हाथों की घाटी में बहती नदी 

नहीं करती अपने दोस्तों का चुनाव 

वह बहती है, भागती है 

समुद्र की तरफ़ 

जहाँ वह धोती है 

थके हुए अपने पांव।



बरसात


मूसलाधार बरसात में 

कोई नहीं महसूस करता 

एक अकेली बूँद को।



रेगिस्तान से गुज़रती एक रेलगाड़ी 


ये गाँव एक रेलगाड़ी जैसे दिखते हैं 

जो वातानुकूलित ताबूतों को

एक पूंछ की तरह खींच कर ले जा रही है


वे दिखते हैं एक औरत जैसे 

जिसकी धूल सनी छाती सूरज से जल गई है 

जिसके शरीर को सूखे बागीचों से पोत दिया गया है


एक रेल जो रोती है 

हर दो स्टेशनों के बीच 

जहाँ पैदल चलने के रास्ते 

मृगतृष्णा और छल से बने हैं


इसके पेट में हम संघर्ष करते हैं 

अपने नकली अंगों को सुंदर बनाने के लिए 

अपनी हार से लड़ते हैं


जो कुछ भी बचा है 

हमारी डरी हुई देहों में 

मनमुटाव के ड्रैगन हमारे थैलों में 

उस पर पेशाब कर रहे हैं


हम उन मुल्कों का अपमान कर रहे हैं 

और एक हज़ार एक 

तौलियाओं में थूक रहे हैं


लेकिन, 

हम इस रेल को छोड़ नहीं रहे 

जबकि हम इसे रोक सकते हैं।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की है।)






सम्पर्क 


ई मेल : deveshpath@gmail.com


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं