सारिका सिंह की कविताएं

 

सारिका सिंह 



दिल्ली विश्वविद्यालय से परास्नातक करने के बाद उत्तर प्रदेश के लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित पी सी एस सेवा में चयन।

वर्तमान में जीएसटी विभाग में असिस्टेंट कमिश्नर के पद पर कार्यरत। कविता के माध्यम से भाव को व्यक्त करने में विशेष रूचि।



हर सुबह के साथ जिंदगी की एक नई शुरुआत होती है। हर सुबह के साथ एक नए दिन और नए तारीख का आगाज़ होता है। हर सुबह एक नई उम्मीद और एक नई प्रत्याशा लिए आती है। कवि का संवेदनशील मन इस सुबह से एक अलग तरह की उम्मीद करता है। कवि वह बेहतर समाज चाहता है जहां कोई भेदभाव न हो, बल्कि सब बराबर हों। वे किसान और मजदूर जिनके दम पर आज हमारी दुनिया का इकबाल बुलन्द है, वे भी एक बेहतर जिंदगी पाएं। कवि राम जियावन दास बावला के शब्दों में कहें तो 'चिरई के पुतवो ना कतहूं कंगाल हो'। कवि सबसे ऊपर मनुष्यता के धर्म को रखता है। संकीर्णताएं उसे सीमित कर पाने में विफल रहती हैं।  कवयित्री सारिका सिंह अपनी कविता 'एक ऐसी सुबह हो' में एक ऐसी ही दुनिया की खूबसूरत परिकल्पना करती हैं। कविताओं की दुनिया में सारिका का यह आगाज़ है। उनकी कविताएं एक बेहतर कवि के भविष्य के प्रति हमें आश्वस्त करती हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सारिका सिंह की कविताएं



सारिका  सिंह की कविताएं



मेरा प्रतिबिंब 


इस बार मेरी मुस्कुराहट

दर्पण के उस पार न थी

मेरे प्रतिबिंब को जैसे

मेरी सूरत बहुत याद न थी।


कई साल से मैं 

ख़ुद को पाने में लगा था

इस बार तो मेरा अक्स भी

मुझको ही गवाने में लगा था।


मैं रेल सा बढ़ता गया

कभी गांव छूटा कभी घर

मैं वक्त सा बदलता गया

अब दर्पण भी मुझसे गया डर।


चेहरा वही, आँखें वही

काया भी वही है

लेकिन मेरे दर्पण में

मेरा साया ही नहीं है।


वो हंस रहा मुझ पर 

कभी आँखें चुरा रहा 

दर्पण के इस पार

मैं मेरे प्रतिबिंब सा न रहा।



नाराज़गी में प्रेम देख लेना


सुबह की चाय

अगर मिल न पाए,

रूठूं जो मैं तो

तुम्हे डर सताए,

तुम मेरे हृदय में

रवि छान लेना,

नाराज़गी में मेरा

प्रेम देख लेना।


रास्ते में मेरे

क़दम उठ न पाए,

पुकारो जो तुम तो

जुबां खुल न पाए,

तुम अपने कदम को

ज़रा थाम लेना,

नाराज़गी में मेरा

प्रेम देख लेना।


तुम्हारे कलम की

सियाही न भाए,

मुझे कोई कविता

ज़रा न लुभाए,

तुम भावों को मेरे

कभी लिख भी देना,

नाराज़गी में मेरा 

प्रेम देख लेना।


रूठी हूं मैं गर

तुम्हारे ही कारण

छिप कर खड़ी हूं 

पीछे के आंगन

मेरी कमी को

पनाह तुम न देना,

नाराज़गी में मेरा

प्रेम देख लेना।


होठों पर मेरे

मोहब्बत नहीं हो

आँखों में गुस्से 

के बादल सजे हों,

आवाज़ से अपनी

मेरा नाम लेना,

नाराज़गी में मेरा

प्रेम देख लेना।


तस्सवुर में भी

दिखाई नहीं दूं,

जो नज़रें  खुले तो

ओझल सी मैं हूं,

अंधेरो में अपने

मुझे खोज लेना,

नाराज़गी में मेरा 

प्रेम देख लेना।

     


सैलाब सरफरोशी का छाने दो 


छोड़ दो शिरोरुह 

हवाओ संग बहकने को,

बेचैन हैं घुली फिज़ा में

खुशबुएं तमाम मिलने को।


तोड़ दो बेड़ियां 

ये चूड़ियों की कलाई पर

सियाह होती उंगलियों से

कागज़ पर अंजाम लिखने दो।


उड़ने दो परिंदे

कैद अपने सीने में 

बारूद होते जज्बातों से

कहीं तो इंकलाब होने दो।


आज़ाद करो आंखों को

ज़माने की ऐनक से 

धुंधली होती तस्वीर पे

ख़ुद की नज़र जाने दो।


इंसाफ करो 

देहलीज पड़े कदमों पे

ख़ामोश आहट पर 

शोला कोई भड़काने दो।


कत्ल करो दहशत

रूह है जिसमें उलझ गई

ज़हर न हो जाओ ख़ुद 

सैलाब सरफरोशी का छाने दो।





एक ऐसी सुबह हो 


सवाल नहीं कोई

उठता हो ज़हन में,

कैदी नहीं मन हो 

धोखे के वहम में,

ज़िंदा मुझे चलना 

एक ऐसी सुबह हो।


न हो चुभन डर की

उगते विचारों में,

खिल के वो फूले

आज़ाद सी डाली में,

पंछी सा है उड़ना 

एक ऐसी सुबह हो।


परछाई कोई बुजदिल 

साहस पे ना छाए,

फौलादी इरादे

दीमक न मिटाए,

अंजान से रास्तों पर

मंज़िल मुझे मिल जाए

एक ऐसी सुबह हो।


सूरत हो जो जैसी

घर और गली में,

मिल जाए वही सीरत

जो देखी थी सही में,

अपनों की भीड़ में

तन्हा नहीं रहना

एक ऐसी सुबह हो।


ऊंची इमारत के

पीछे की सड़क में,

ऊंची इमारत हो

हर एक शहर में,

खिड़की से जो देखूं

एक ही से मकां हों 

नीचा न हो कोई

एक ऐसी सुबह हो।

    


कर्म और भाग्य  


देखें हैं कभी 

कोहरे की धुंध में

खुरपी लिए हाथ?

जिनकी लकीरें 

मिट रही हो 

कर्म की आंधी में

घिस घिस कर

दिन और रात।


देखें हैं कभी

गीली मिट्टी पर

दौड़ते भागते नंगे पांव?

जिनकी किस्मत

कच्ची दीवारों से

रिसती बूंदों सी

टपक रही 

हर बरसात।


देखी है कभी

लोहे सी हिम्मत

डटी हुई आठ पहर?

जो भाग्य की

सलाखों के पीछे

रिहाई की आस में

टूटी नहीं कभी

जुटी है उस पार।


देखा है कभी

दुर्बल शरीर को

काटों सा घेरता पसीना?

जो चुभ चुभ कर 

भेदता संकल्प को,

के बिखर जाए 

दृढ़ता के बादल,

और तप जाए 

उसके सारे अरमान।


देखी हैं कभी

धूप में झुलसती 

खुलती बंद होती आंखें?

जो नियति को खोजती,

कर्म की कुल्हाड़ी

से खोदती गहरी माटी,

के शायद कोई 

अंदर बहुत अंदर 

एक बीज उभर आए

और बदल जाए 

विधि का विधान।



सिसकियां 


ओढ़ कर आबरू

की रंगीन चुनर

छिपाए अपना 

फीका अल्हड्डपन

किसी बिन घुंघरू

की पाजेब सी 

वो हर पहर की

बेजान सिसकियां।


जान होती तो 

क्या सुनाई नहीं देती?

किसी आते जाते को

क्या दिखाई नहीं देती?

वो दिन रात

दीवारों में कैद,

खिड़कियों से झांकती

धीमी धीमी सिसकियां।


चांदनी को है

शायद मालूम

के रात के अंधेरे में

देखा है उसने,

कई बार खुलते

किसी खूटें से,

नज़रे चुराते

जीने को वो

बेताब सिसकियां।


चूल्हे पर कभी,

कभी रसोई की

कच्ची ज़मीं पर,

झूलती खेलती 

फिर घूमती ताकती

कि आए कोई 

और पूछे 

क्यों हैं बेनाम 

और अंजान 

ये तेरी सिसकियां?


सतरंगी इंद्रधनुष

पहचानता है,

बारिश में कई बार

पाया है उसने 

बूंदों संग घुलते

अश्कों को 

घेरा है उसने,

के शायद कोई 

रंग तो भर जाए,

खिल जाए थोड़ी 

बेरंग सिसकियां


गहरे कुएं में

गूंजती आवाज़ 

कई बरसों की,

पहुंची नहीं जैसे

कराहट किसी

बूढ़ी की, कानों तक

वैसे ही सदियों से

तरसती रहीं

बरसती रही

ठहर जाने को

हर रात सिसकियां।





ख्वाहिशों के शहर में 


ख्वाहिशों के शहर में...

जब से फ़िसल गया मैं

एक उम्र गुज़र गयी

संभल संभल के गिर गया मैं।


एक चाह मन में आये

एक चाह मन सताए

अब दौड़ते उसको पाने को

इतना क्यों थक गया मैं।


ख्वाहिशों के शहर में

कभी ख़ुद को मैंने खोया

पल भर के सूखे सुख को

न चैन से ही सोया।


एक चाह मन में आये

कब लोभ बन के जाए

मेरे अन्दर बसे संयम को

भस्म कर के मुझे जलाए।


ख्वाहिशों के शहर में 

जब जो भी मैंने पाया

कीमत चुकाई क्या, जब मैं देखूं

तो खाली सा ख़ुद को पाया।


एक चाह मन में आये

मुझे खींच ले कर जाए

अमीर कर मुझको

मुझे मुझसे ही छीन जाए।


ख्वाहिशों के शहर में

सुन लो कदम जो रखना

न ख़ुद को तू नीचे धरना

न इंसानियत को करना।।



जिसे तुम कह रहे अपना 


तुम्हारे पास बैठा है

जैसे कोई साया

वो एक दिन छोड़ जायेगा

जिसे तुम कह रहे अपना।


तुम जिसके गीत गाते हो

जैसे है हसीं सपना

वो एक दिन रुलाएगा

जिसे तुम कह रहे अपना।


कभी तुम वक्त देते हो

कभी देते हो दिल अपना

वो शीशा तोड़ जायेगा

जिसे तुम कह रहे अपना।


कभी मंदिर कहा उसको

कभी ईश्वर की ही काया 

वो तुझको छल के जायेगा

जिसे तुम कह रहे अपना।।



मेरा तो बस मैं निकला....


साथ खाए निवालो को

जब ढूंढा कहीं भीतर अपने

तब मेरा यह भ्रम पिघला,

मेरा तो बस मैं निकला।


रोज़ सवेरे सूरत जिसकी

सूरज संग दिख जाती थी

वो मेरे सूने अंधकार में

बदरी के पीछे सिमटा,

मेरा तो बस मैं निकला।


गाढ़े दिखते नातों को

जब हाथ लगाया पाने को,

फीका सारा रिश्ता निकला

मेरा तो बस मैं निकला।


तुम गीत पुराने गाते थे

वादे मुझको लिख जाते थे

जब ख़ामोशी में मांगा तुमको

तेरे गीतों में मैं तन्हा निकला,

मेरा तो बस मैं निकला।


मैं रेत पर जिंदा था

तुम बारिश कह कर आए थे

जब बूंद की मुझको आस हुई

तेरा होना ही सूखा निकला

और मेरा तो बस मैं निकला।







डर के आगे


बदल जाता 

सब कुछ शायद,

अंत होता 

कुछ और,

हो सकता था

शिखर नीचे

तुम्हारे कदमों के,

बढ़ सकती थी

आज रुकी हुई

प्रेम कहानी,

मधु के जैसी

घुल सकती थी

मिठास तुम्हारे

नीरस जीवन में,

हो सकते थे

तुम आज वो

जिसको झांकते हो

रोशनदान से

सुबह शाम,

टूट सकती थीं

बेड़ियां जिसमें 

तुम जकड़े रहोगे

उम्र भर अब,


जो उठा लेते 

झुकी नज़र,

जो भर लेते तेज

सूरज का 

अपने जज़्बे में,

जो रख देते पांव 

उस रेखा पर

जो तय कर 

गया था डर 

तुम्हारे भीतर,

जो बढ़ जाते उस पार

छोड़ उसको पीछे

दूर बहुत दूर,


तो बदल देते सब 

तो उलट देते सब।


कागज़..


बेताब होता

मिलन को

किसी कालिमा से

जो नदी सी बह कर

आए किसी कलम से

और त्याग कर अस्तित्व

उसके समंदर में,

बिखेर दे अर्थ नया 

उस अछूते से मन पर।


संगम किसी 

सियाह से 

ख़ालिस कागज़ का

कर जायेगा उदय

किसी क्रांति,

किसी नसीहत

किसी प्रेम का 

कुछ इस तरह के

सदियों तक सुन्न रही

पीढ़ियां भर जाएंगी

चेतना के स्वर से

जो शून्य में भी

पा सकेंगी संपूर्णता।


किसी किताब 

का हिस्सा बन

जीवित रहेगा

मस्तिष्क में,

नए भाव की उत्पत्ति

कर दे जायेगा 

संसार को 

नज़रिया नया,

जो न्याय को

परिपक्व कर

उतारेगा इंसाफ

को सूली से।


मशहूर करेगा

शब्दों के रचैता को

ख़ुद केवल 

माध्यम बन कर,

सजाएगा किसी

शौकीन की आला

या रंगीन करेगा

जुबां कोई बेरंग,

हर निर्वात को

चीरता हुआ 

हर भटके को

दिखाता दिशा 

चलता जायेगा

युगों युगों तक।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

टिप्पणियाँ

  1. कविताएँ अच्छी हैं...लेकिन इन्हें और अच्छी होनी हैं...

    ताकि इन कविताओं की तासीर में वो अमल-सी फेनिलता बची रहे...

    जिसके लिए कवि अनुपस्थिति के विचार में उपस्थित संबंधों को रेखांकित करता हुआ वह जीवन के प्रति दीक्षित होने का आग्रही होता है...!

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  2. बहुत सुंदर मन को छूती हुई कविताएँ

    जवाब देंहटाएं

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