शर्मिला जालान का संस्मरण 'दो काउच पोटैटो का जीवन'

 

प्रबोध कुमार 


प्रबोध कुमार का नाम अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के मानव विज्ञानियों में लिया जाता है। उनका एक और भी परिचय यह है कि वे मुंशी प्रेमचंद के दौहित्र थे। एक समय में वे साहित्यिक रचनाधर्मिता से गंभीरता से जुड़े हुए थे और उनकी अनेक रचनाएं नई कहानियां, आलोचना, कल्पना,  कहानी, कृति और वसुधा जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। प्रबोध कुमार जहां एक तरफ बेहतरीन कथाकार थे, वहीं दूसरी तरफ वे एक बेहतरीन समीक्षक, गद्यकार और साहित्य के एक समर्पित कार्यकर्ता भी थे। अलग बात है कि साहित्यिक बिरादरी में उन्हें उस तरह से याद नहीं किया गया, जिसके वे हकदार थे। यहां तक कि जब 20 जनवरी 2021 को उनका निधन हुआ तब भी उनकी मृत्यु साहित्यकारों के बीच खास चर्चा का विषय न बन सकी। उनकी रचनाओं में उपन्यास 'निरीहों की दुनिया' और कहानी संग्रह 'सी-सॉ' प्रकाशित हैं। प्रबोध कुमार ने मानव विज्ञान को साहित्य से जोड़ कर काम करते हुए अंतरानुशासनात्मक अध्ययन को अपना विषय क्षेत्र बनाया। इसी वजह से वे वंचित समाज की पीड़ा एवं संघर्ष को पूरी संवेदना के साथ प्रस्तुत करते हैं। बेबी हालदार के लेखन को दुनिया के सामने लाने का श्रेय प्रबोध कुमार को ही है। आठ जनवरी प्रबोध कुमार का जन्मदिन है। उनके जन्मदिन पर शर्मिला जालान ने उन्हें शिद्दत से याद किया है। प्रबोध कुमार की स्मृति को हम नमन करते हैं। आइए इस अवसर पर आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शर्मिला जालान का संस्मरण 'दो काउच पोटैटो का जीवन'।


“Memory is the diary that we all carry about with us.” -Oscar Wilde

[“स्मृति वह डायरी है जिसे हम सभी अपने साथ लेकर चलते हैं।" -ऑस्कर वाइल्ड] 


'दो काउच पोटैटो का जीवन'


शर्मिला जालान


जनवरी का महीना एंथ्रोपॉलजिस्ट, साठ के दशक के कथाकार, मुंशी प्रेमचंद के नाती (दौहित्र), प्रबोध कुमार श्रीवास्तव का महीना है। 8 जनवरी को उनका जन्मदिन आता है तो 20 जनवरी को उन्होंने संसार से विदा ली थी।


जीने की उलझन और झंझट में भी जनवरी महीने को भूल नहीं पाती। साल ख़त्म होते ही उनकी याद आने लगती है।


प्रबोध कुमार को एन्थ्रोपोलॉजिस्ट के रूप में लोग ज़्यादा जानते हैं, पर उन्होंने भारतीय कथा परम्परा में अपनी लगभग पचास कहानियों और एक उपन्यास—‘निरीहों की दुनिया’—का अवदान दे कर, अपने तरह का अनुपम गद्य रचा, कुछ विलक्षण कथा तत्त्वों का समावेश किया है। उन्होंने सिर्फ कहानियाँ और उपन्यास ही नहीं लिखे, समीक्षा, संस्मरण, पत्र भी लिखे और बांग्ला से हिंदी में कविता के अनुवाद भी किए। उनके पत्रों में उनके कथाकार और अनुवादक रूप से भिन्न उनके व्यक्ति और लेखक से परिचय होता है। कभी-कभी हिन्दू अखबार में समाज और सत्ता में हो रही चीज़ों पर अपनी असहमति दर्ज करते हुए अंग्रेज़ी में पत्र लिखे।


उनकी कहानियाँ पाँचवे और छठे दशक में कई साहित्यिक पत्रिकाओं—‘वसुधा’, ‘कल्पना’, ‘कृति’, ‘समवेत’, ‘राष्ट्रवाणी’, ‘कहानी’ आदि में छपी थीं। प्रबोध कुमार का साहित्यिक जीवन प्राइवेट-सा साहित्यिक जीवन भी कहा जा सकता है। वे निराकांक्षी रहे। अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने पर कभी नहीं सोचा। अंग्रेज़ी और बांग्ला साहित्य के गहरे पाठक रहे। शरत बाबू (शरत चंद्र) के साहित्य पर उनकी अपनी तरह की अंतर्दृष्टि रही।


वर्ष 1964 की यह फोटोग्राफ 'ओकले कॉटेज' मसूरी की है।
प्रबोध कुमार अपने छोटे भाई दिलीप और अपने मित्र महेंद्र भल्ला, रमेश गोस्वामी तथा एक दो मित्रों के साथ मसूरी कुछ दिनों के लिए गए थे|


उनके युवा उत्साही प्रकाशक मित्र संजय भारती (रोशनाई प्रकाशन, काँचरापाड़ा, पश्चिम बंगाल) यदि उनके संग्रह ‘सी-सा’ और ‘निरीहों की दुनिया’ को प्रकाशित नहीं करते तो उनकी किताब हिंदी जगत के लिए अनुपलब्ध रहती। ‘लमही’ के यशस्वी संपादक आदरणीय विजय राय जी ने 220 पृष्ठों में प्रबोध कुमार पर वर्ष 2022 में विशेष अंक निकाल कर उनके कृतित्व एवम् व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला। इस अंक को सामने ला कर उन्होंने जोखिम उठाया। जोखिम इन अर्थों में कि जब पत्रिकाओं के लहीम-शहीम विशेषांक उन रचनाकारों पर निकाले जा रहे थे जिन्होंने कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। स्वयं विजय राय जी ने वर्ष-2021 में 325 पृष्ठों में अमृत राय विशेषांक निकाला था। उसकी तुलना में प्रबोध कुमार पर जो सामग्री थी वह इस परिपाटी के लिए अनुपयुक्त थी। उनकी लिखी सामग्रियों, पत्रों व चित्रों को खोज कर, संकलित कर, सम्पादित करना कठिन और श्रमसाध्य कार्य था जो उन्होंने संपन्न किया। यह आदर और प्रेमभाव से दी गई मौन श्रद्धांजलि थी।


प्रबोध कुमार जितने बड़े शख़्स थे उतने दिखते नहीं थे। उनमें सोच की सादगी थी। उन्हें कोलकाता हमेशा ही आकर्षित करता रहा। इसका प्रमुख कारण तो यह है कि उनके घनिष्ठ मित्र अशोक सेकसरिया कलकत्ते में निवास करते थे। सुना था दोनों की मित्रता के निमित्त श्रीकांत वर्मा थे। दोनों के स्वभाव और जीवन पद्धतियों में जबरदस्त फ़र्क़ होने के बावजूद भी वे एक-दूसरे के निकट थे। दोनों के बीच कोई अत्यंत गहरी समानता थी। यह था दोनों में एक तरह का फक्कड़पन।


कोलकाता से जुड़ी हुई कोई कविता या लेख की बात अशोक जी उनसे साझा करते तो वह उन्हें पढ़ना चाहते। प्रयाग शुक्ल ने कलकत्ते के ट्राम और मैदान पर कुछ लिखा है, जब उन्हें मालूम हुआ तो पढ़ने की इच्छा जाहिर की और पढ़ कर उसकी प्रशंसा की। अशोक जी ईसाई स्कूलों द्वारा निकाली गई रैली देखने के लिए धर्मतल्ला गए थे और बोले—बहुत इंप्रेसिव है, तो उसके बारे में विस्तार से जानने की इच्छा प्रकट की।


अशोक सेकसरिया अपने अंतरंग मित्र प्रबोध कुमार को उनके जन्मदिन 8 जनवरी पर अक्सर पत्र भेजा करते थे।




अशोक जी और प्रबोध जी में जो मित्रता थी, क्या मैं उसे समझ पाऊंगी? कुछ कोशिश कर सकती हूँ उस पर लिखने की। उस मित्रता में जो उजाला था, उसका थोड़ा प्रकाश हर उस व्यक्ति पर पड़ रहा था जो उनकी संगत में था। थोड़ी देर ही सही, जो कोई भी उस प्रकाश के घेरे में आया होगा, उसने अपने ...को बदला हुआ पाया होगा। संसार उसे थोड़ा बेहतर समझ में आया होगा। हम जानते हैं कि,


दो दोस्त एक-दूसरे से बहुत सारी बातें करते हैं।

दो दोस्त एक-दूसरे से बहुत सारी बातें नहीं भी करते हैं।


जो बातें नहीं करते, वह सब अनुमान से जान जाते हैं। अशोक जी यह बात बिना कहे ही जान गए थे कि प्रबोध जी को उनके सेवा काल में कितना अधिक उत्पीड़ित किया जा रहा है। कूट रचना करके उन्हें जबरिया रिटायर कर दिया गया है और पेंशन न दिए जाने का निर्णय लिया गया है।


युवा दिनों के दो घनिष्ठ मित्र जब साथ-साथ बूढ़े होते हैं, तब वे एक-दूसरे की शक्ति को तो पहचानते ही हैं, एक-दूसरे की सनक को भी। अशोक जी कहते थे, मैं ‘काउच पोटैटो’ हो गया हूँ, यानी निष्क्रिय इंसान। उनकी यह बात सुनकर प्रबोध जी कहते थे, तुम्हारा जैसा हाल लगता है, मेरा भी होता जा रहा है। हर उस चीज़ से बचना जिसमें दिमाग का इस्तेमाल करना पड़े। एक तरफ यह स्थिति है और दूसरी तरफ मन में बनती एक उपन्यास की रूपरेखा।


कभी प्रबोध जी अपने जन्मदिन के आसपास कहते थे, ‘कामचोरी’ स्थायी भाव बन गया लगता है। महीने पहले (दशकों पहले) से अधिक वेग से बीतते चले जा रहे हैं और सारे काम अनछुए या अधूरे पड़े हैं। मन दो-एक मित्रों के पत्रों की प्रतीक्षा छोड़ और किसी चीज़ में नहीं लगता। फिर कहते, गायब स्मृति, याददाश्त, भुलक्कड़पन और मति-भ्रम से मैं कितना परेशान हूँ, यह बता नहीं सकता। यहाँ मौसम ठीक हो चला है। धूप में घंटे-दो घंटे बैठ जा सकता हूँ। अधिक ठंड या अधिक गर्मी काम न करने का आसान बहाना बन जाती है, लेकिन मौसम ठीक हो तो समझ में नहीं आता कि निठल्लेपन का औचित्य कहाँ ढूँढा जाए। अशोक जी कहते थे कि उन्होंने काष्ठ-मौन धारण कर लिया है। यह वह समय था जब ‘नौकर की कमीज़’ पढ़ी जा रही थी। दक्षता से लिखा हुआ उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ चर्चित था और ‘अतिम अरण्य’ पढ़ कर पाठक मुग्ध थे।


वर्ष 2001 में लेखिका उनके निवास स्थल पर गई थी और एक दिन ठहरी भी थी । साथ बेबी हालदार हैं|


यह उन दिनों की भी बात है जब हम श्री शिक्षायतन कॉलेज में श्रीमती माया गरानी द्वारा अनूदित ब्रेख्त के नाटक ‘घेरा’ का अभिनय कर रहे थे। बाद में अशोक जी से मुझे मालूम हुआ कि इसका अनुवाद कमलेश्वर ने ‘खड़िया का घेरा’ शीर्षक से किया है।


दोनों मित्रों के पत्रों में एक-दूसरे की सेहत की रपट होती थी। दोनों में हास्य और विनोद चलता रहता था। अशोक जी को अक्सर मलेरिया हो जाता। प्रबोध जी कहते, 20वीं सदी के अंतिम दिनों में कोई कैंसर या एड्स से मरा तो उसे एक स्वाभाविक दुर्घटना माना जा सकता है। मलेरिया से मरना तो आज एक बहुत टुच्ची सी बात लगेगी। लगेगा, ‘बेचारा’ कोई मलेरिया से मर गया।


उनका पत्र लिखना जीने का पर्याय बन गया था। वे जिस किसी भी विषय पर बात करते, चाहे मौसम की बात हो, अपने निकम्मे पान की बात, माँ की किताबों की बात, हिंदू अख़बार में पढ़ी किसी ख़बर की बात, कोई विज्ञापन या एक-दूसरे की लिखावट की बात और सुलेखा स्याही के साथ ही साथ बचपन की स्याही की टिकियों को याद करना। जैसे- निबों में एक तो जी-निब थी, क़लमों में स्वान, वायरलैस, और एवरशार्प। साधारण-सी बात भी असाधारण लगती।


सडर स्ट्रीट पर अशोक जी के साथ चाय पीने को वह याद करते रहे।




किसी युवा लेखक ने एक अच्छी कहानी लिख दी या एक अच्छी किताब, तो वह अच्छा लेखक हो गया—यह अशोक जी कह नहीं पाते थे। उनका यह मानना था कि खेल-खेल में बच्चे ने एक अच्छी रचना कर दी, तो वह अच्छा लेखक हो गया—यह वह कैसे कहें! अशोक जी की नज़र इतनी तेज़ थी कि किसी के बारे में नपे-तुले शब्दों में कहते थे, जैसे अंगूठी में नगीना फ़िट होता है।


वहीं, प्रबोध जी का यह कहना था कि पहली कहानी से ही संभावनाओं की लकीरें हाथ में दिखाई देने लगती हैं। पूत के पाँव पालने में दिखाई देते हैं। अशोक जी इस बात को समझते थे कि कौन-सी कहानी चालू है और किसमें लेखक ने स्वयं को साधा है। प्रबोध जी का भी यह मानना था कि दूर की कौड़ी लाने और भाषा की पच्चीकारी करने से लेखन महान नहीं हो सकता। सोच में सादगी होनी चाहिए।


अशोक जी साधक थे। उनकी शब्दों पर आस्था थी। कहानी अच्छी तरह मन में नहीं बनती थी, तो वह लिखते नहीं थे। कच्ची कहानी को छपने नहीं देना चाहते थे। अपनी अंतिम कहानी ‘राइजिंग टू द ऑकेजन’ जहाँ तक मुझे याद है, उसे छपने देना नहीं चाहते थे। उस कहानी को ले कर उनके मन में संशय बना हुआ था।




प्रबोध कुमार के जीवन के कई पहलू हैं। पर अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुस्तक ‘आलो अंधारि’ लिखने की प्रेरणा बेबी हालदार को देने वाले तातुश के रूप में लोग उन्हें ज़्यादा जानते हैं। घरेलू काम करने वाली स्त्री को रचनात्मक जीवन देना, लेखक बनाना—उन्होंने अपने जीवन में जो भी कार्य संपन्न किए, उसमें यह मिल का पत्थर है। यह काम लगाव और सोशल अवेयरनेस से पैदा हुआ, वह रिवॉल्यूशनरी काम था जिसने उन्हें सब का तातुश बना दिया था।


आजाद हिंदुस्तान में अपनी जड़ों से उखड़ी एक कामगर, बेघर स्त्री, जिसके साथ छोटे-छोटे बच्चे भी हैं, की पीड़ा को समझकर आश्रय देने की कोशिश और प्रक्रिया ने ‘आलो आँधारि’ की नींव डाली। यह वह जर्नी थी जिसमें जम्मू-कश्मीर में पैदा हुई, मुर्शिदाबाद और डलहौजी में रह चुकी, दुर्गापुर से एक लड़की आती है, जो अपने साथ बंगाल की संस्कृति लाती है। पुस्तक में गुड़गाँव की संस्कृति भी आती है और हर जगहों के लैंडस्केप भी।


प्रबोध जी के एक-दो मित्र और प्रकाशक भी शिद्दत से इससे जुड़े हुए थे। ‘आलो आँधारि’ ऐसा प्रयास था। कुछ लोग मिल कर सामने आए थे। सब में एक-दूसरे के प्रति लगाव और सम्मान था। एक-दूसरे की सीमाओं का भी एहसास था। वे लोग जो ‘आलो आँधारि’ की यात्रा से जुड़े हुए थे, वे प्रबोध जी से बहुत पहले से जुड़े लोग थे। सभी अपने अहम को छोड़ एक यात्रा के हमसुखन औरहमसफ़र थे। सभी की आँखों में उम्मीद और सपने थे। दिल में बलवला था। सभी की रगों में यह एहसास दौड़ रहा था कि वे रचनात्मक सहयोग कर रहे हैं। प्रबोध जी के लिए यह बात रही होगी कि हाशिये पर पड़े उस व्यक्ति को आदर और सम्मान तथा एक रचनात्मक जीवन देना, जिसे इस समाज में ‘स्त्री’ कहा जाता है। असहाय स्थिति में किसी की सहायता करना उनके व्यक्तित्व का विरल-सा गुण तो था ही, यह उनमें आनुवंशिकता के प्रभाव से भी आया होगा।





बुढ़ापे और रोग से जब आदमी चारों तरफ से घिर जाता है, और जब प्रियजन साथ छोड़ देते हैं, उस घनघोर अकेलेपन में जीवन को कैसे काटा जाए, यह समझ नहीं आता और व्यक्ति मति-भ्रम का शिकार होता है। कुछ लोगों में व्यवहारिक बुद्धि होती है और उस अकेलेपन की कल्पना कर दूरदर्शिता से कुछ व्यावहारिक कदम पहले ही उठा लेते हैं, लेकिन प्रबोध जी ने इसके बारे में नहीं सोचा था। उन्होंने अपने अंतिम दिन एक वृद्धाश्रम में बिताए।


पिछले तीन वर्षों में मैंने प्रबोध जी को कई तरह से याद किया है। उनको बार-बार याद करना, तरह-तरह से लिखना किस्तों में दी गई प्रणति है।


जनवरी 2021 की 20 तारीख को बिना बताए, चुपचाप, अपने जन्म के महीने में उन्होंने अंतिम सांस ली। वे आठ भाई-बहन थे। प्रबोध जी ने 85 वर्ष की उम्र पाई।


फोटोग्राफ सौजन्य : दोनों ब्लैक एंड व्हाइट फोटोग्राफ प्रबोध जी के मित्र रमेश गोस्वामी के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं। जबकि अन्य सभी चित्र शर्मिला जी के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं। हम दोनों के प्रति आभारी हैं।



शर्मिला जालान


शर्मिला जालान का परिचय

कृतियाँ:

उपन्यास:

शादी से पेशतर (2001, राजकमल प्रकाशन), उन्नीसवीं बारिश (2022, सेतु प्रकाशन)


कहानी संग्रह:

बूढ़ा चांद (2008, भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित अब वाणी प्रकाशन के पास), राग विराग और अन्य कहानियाँ (2018, वाग्देवी प्रकाशन से प्रकाशित अब सेतु प्रकाशन के पास।), माँ, मार्च और मृत्यु (2019, सेतु प्रकाशन)


उपलब्धियाँ:

“बूढ़ा चांद” पर 16-18 बार मुंबई, पटना आदि जगहों पर मंचन 


सम्मान:

भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार (2004)

कन्हैयालाल सेठिया सारस्वत सम्मान

टिप्पणियाँ

  1. यह संस्मरण प्रबोध कुमार जी की बनावट और बुनावट पर बहुत कुछ बताता है। शर्मिला जी का शुक्रिया।

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  2. सुंदर संस्मरण है। मेरे लिए तो नया ज्ञान व नयी सूचना की तरह था इसलिए आदि से अंत तक बांधे रहा। प्रबोध कुमार की एक दो कहानियां पढ़ी पर वह किस तरह के व्यक्ति थे यह जानना अच्छा लगा क्योंकि शांत सादगी दिखावे से दूर मौनरहना या कम बोलना प्रतिभा को स्पेस देना वंचित वर्ग के प्रति संवेदना व मानवीय कर्म करना आदि विशेषतायें दूर अपरिचित व्यक्ति को भी अनायास जुड़ाव पैदा करती है। ऐसा लगता है जैसे प्रबोध कुमार हमारे बीच में से ही है।

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  3. बेनामी टिप्पणी मेरी यानि sunita tyagi की है 😊नाम लिखना भूल गयी

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  4. यह संस्मरण प्रबोध कुमार जी के रचनात्मक व्यक्तित्व और जीवन को बहुत निकट से, बहुत आत्मीयतापूर्ण ढंग से देखने का मौका देता है। एक बेहतरीन कथाकार एक नृतत्वशास्री जीवन को कैसे देखता है और उसका व्यवहार आम तबके के प्रति कितना सहज है ,यह सब अपने पूरे परिवेश के साथ मौजूद है। यह संयोग ही है अभी दो तीन दिन पहले 'निरीहों की दुनिया ' फिर से देखने का मन कर रहा था ।उनकी कहानियां और अब इस संस्मरण से एक विरल रचनात्मक व्यक्ति के निकट थोड़ी देर ठहरकर सोचने का मौका मिल रहा है। शर्मीला जी आपका बहुत बहुत आभार। - आशीष सिंह

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