अष्टभुजा शुक्ल का आलेख 'अथ कुम्भ कथा'

 

अष्टभुजा शुक्ल



कुम्भ के आयोजन का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व तो है ही इसका दार्शनिक पहलू भी है जो रोचक है। कुम्भ को कुम्हार की सबसे उत्कृष्ट कृति बताते हुए अष्टभुजा शुक्ल ने इसके असीम आयाम की तरफ इशारा किया है और बताया है कि जिससे भूमि को सींचा जाता है वह हुआ कुम्भ। भूमि जिससे अन्न का उत्पादन होता है और जो जीवन के लिए आवश्यक भी है। भूमि के बिना जीवन की कल्पना सम्भव ही नहीं। खुद मानव की विकास यात्रा भी सरल से जटिलतम रही है। कुम्भ भी जटिलतम का प्रतिनिधित्व करता है। 'महाकुम्भ विशेष' के अंतर्गत अभी तक हम पंकज मोहन, ममता कालिया और निर्मल वर्मा की रचनाएं पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में आज हम चौथी कड़ी प्रस्तुत कर रहे हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कवि अष्टभुजा शुक्ल का आलेख 'अथ कुम्भ कथा'।



महाकुम्भ विशेष : 4


'अथ कुम्भ कथा'

           

अष्टभुजा शुक्ल

 

और कोई आए न आए लेकिन कुम्भ आएगा। आषाढ़ में बादल आए न आए, चैत में कोकिल गाए न गाए, शरच्चन्द्र उगे न उगे, वृषराशि में सूर्य तपे न तपे लेकिन कुम्भ आएगा, कुम्भ आ रहा है बल्कि कुम्भ आ चुका है। उसकी आहट मिल चुकी है, खटाखट पटापट दस्तक दे रहा है। आप बहरे हैं तो कोई क्या करे। वह आ चुका है और वह भी भव्य और दिव्य से रत्ती भर कम नहीं।बस आपके पास उसे सुनने के कान होने होने चाहिए। देखने की आँख होनी चाहिए और चाहिए अमृत की कामना। कुम्भ के आने का एक आख्यान है। एक कथा है। एक पुराण है। मैं कोई कथाकार या कथावाचक नहीं कि आपको कुम्भ-पुराण सुनाऊँ। आप हाथ में अक्षत-जल ले कर बैठिए, संकल्प कीजिए और फलाफल पर विचार कीजिए। बल्कि मैं तो कहूँगा विचार करना ही बंद कर दीजिए। केवल कथा सुनिए आँख मूँद कर। अब प्रयागराज वालों को कोई कुम्भ की कथा क्या सुनाएगा! वे तो पीढ़ी दर पीढ़ी उसके प्रत्यक्षदर्शी हैं, भुक्तभोगी हैं, सहभागी हैं, बड़भागी हैं। कथा वही है लेकिन नजा़रा कुछ और है। फिर भी कथा तो दुहरानी पड़ेगी। भले आप ऊब जाएँ। ऊँघने लगें। जमुहाई लेने लगें। इसलिए संक्षेप में ही सही। कथा तो कथा है।


कुछ लोगों का कहना है कि कुम्भ की कथा का संबंध अमृत से है, कुछ का मानना है कि अमृतघट से है, कुछ का बताना है कि अमृत काल से है तो कुछ लोगों की अवधारणा है कि ग्रह नक्षत्र से है। कुछ लोग कहते हैं कि यह पाखंड हैं, कुछ कहते हैं कि आडंबर है। कुछ कहते हैं कि पुराणेतिहास की बकवास है। जो कुम्भ को मानते हैं वे किसी विश्वास के साथ वहाँ जाते हैं, जो नहीं मानते वे अविश्वास के साथ वहाँ उसकी बखिया उधेडऩे की नीयत से जाते हैं। मतलब विश्वास करना हो या अविश्वास, अनुभव तो सबके लिए आवश्यक है। वे लोग तो परम तत्वज्ञ हैं जो बिना किसी अनुभव के ही विश्वास या अविश्वास कर लेते हैं। ऐसे आत्मानुभववादियों के लिए सारा प्रत्यक्ष फिजूल है। फिलहाल आपको फिजूल की बातों में उलझाने के बजाय संक्षेप में कुम्भ की सुनी सुनाई कथा ही दुहरा देता हूँ।


तो कुम्भ का पुराणेतिहास यह है कि समुद्र-मंथन से अंत में धन्वंतरि एक अमृत-कलश ले कर ऊपर निकले। जयन्त उसे ले भागा। सुरासुरों की छीना-झपटी और धक्कामुक्की में अमृत-कलश अनेक स्थानों पर छलक-छलक पडा़। भरा कलश ले कर भागने पर वैसे ही छलक जाता है। द्रव भरा हो तो छलकना और भी लाजिमी है। द्रव में भी अमृत हो तो क्या कहने! बूँद भर मिल जाए या चम्मच भर या आचमन ही पर्याप्त है-- ओं माधवाय नमः, ओं केशवाय नमः, ओं गोविन्दाय नमः। अब आ जाए कोई माई का लाल। भट, सुभट, उद्भट, महाभट जो भी हो। जीभ से छुआ भर नहीं कि साइनाइड की तरह कोई स्वाद भी नहीं बता सकता। कोई स्याद्वाद नहीं है। अमृत है अमृत। भरा हुआ घड़ा कितना भी सँभालो छलकता ही छलकता है। नहीं सँभला तो गिर कर फूटता है। यह तो अमृत-घट का पुण्य है। कहते हैं कि पाप का घड़ा तो भरते ही फूट जाता है। पता नहीं पाप कितना विस्फोटक है। तो अमृत-कलश छलका। उसकी बूँदें कुछ स्थानों पर गिरीं। कुछ स्थान भी कितने भाग्यवान् होते हैं और कुछ बेचारे कितने हत्भाग्य कि कोई उधर शंका-समाधान के लिए भी नहीं देखता। अमृत कलश तो अमृत कलश अपने यहाँ तो ज्योति-कलश भी छलकता है और प्रकाश की बूँदें नहीं बल्कि उसके चकत्ते चारो ओर दिखाई देते हैं। तो अब कुम्भ का पर्व आ चुका बल्कि सिर पर सवार है। मृत्योर्माsमृतं गमय। मरो मत, अमर हो जाओ। दौड़ो, दौड़ो कुम्भ लगा है।


दुनिया भर से लोग दौड़े-दौड़े कुम्भ में आ रहे हैं, आने की तैयारी कर रहे हैं, आ चुके हैं। आने जाने के इतने वाच्य बन चुके हैं कि सिर्फ कर्मवाच्य या कर्तृवाच्य से काम नहीं चल सकता। आने जाने में ही भाषा का इतना बड़ा पिटारा खुल चुका है कि अन्य क्रियाएँ कुछ मायूस लग रही हैं। कुम्भ से छलके अमृत की कहानी अपना काम कर के अब नेपथ्य में जा चुकी है। अब कुम्भ का आशय है विराट जमावड़ा। अकूत जुटान और कुम्भ स्नान।महामेला। सिर ही सिर। शरीर ही शरीर। अब अमृत कलश से छलक कर नदी बन चुका है। एक डुबकी जीवन भर के लिए पर्याप्त है। जल तो थोड़ा बहुत हर जगह है। लेकिन कुम्भ के महापर्व में वह अमृत में रूपांतरित हो चुका है। अमृत का चखना ही अनंत पुण्य का फल है तो अमृत स्नान की महिमा कितनी होगी। इसलिए कुम्भ में पहुँचने की महादौड़ में लोग शामिल हो चुके हैं। कुछ लोग अपार जनसमुद्र देखने आ रहे हैं। कुछ उसे कवर करने आ रहे हैं। कुछ डिस्कवर करने आ रहे हैं। किसी बात पर, किसी जीवन-विश्वास पर, किसी कथा-पुराण पर इतनी अटल आस्था और भरोसा कर के लोग यह देखने आते हैं कि मानव जीवन की ऐसी कौन सी अवधारणा है, जिसके वशीभूत इतना सम्मर्द किसी नदी की वेला पर आँख मूँद कर जुट जाता है। जहाँ पाता कुछ नहीं लेकिन समझता है कि सब कुछ पा गया।

 



कुम्भ के महामेले में आदमी भागा भागा क्यों जाता है? कुछ पाने के लिए कि खुद को खो देने के लिए। यह मेला रंज-ओ-गम का मेला नहीं बल्कि आनंद का मेला है। उछाह का मेला है, रेला है। क़यामत की भीड़ में अकेले हो जाने का मेला है। यहाँ न कुछ पाना है, न खोना है। फिर भी खोया-पाया के अनेक शिविर चल रहे हैं। उद्घोषणाएँ हो रही हैं। नामों की, पतों की कि अमुक आदमी, अमुक बच्चा, अमुक की माँ, अमुक का बेटा, बहन अपनों से बिछुड़ गया है। उसका हुलिया ऐसे ऐसे है। आप जहाँ कहीं हों, यहाँ से आ कर ले जाएँ। लोग मेले में खोने के लिए ही जाते हैं लेकिन बिछुड़ने के भय से कोई अँगुली पकड़ कर चलता है, कोई आँचल पकड़ कर, कोई कक्कन बाँध कर। कोई कपड़ों का रंग देखकर पहचान की अटकलें लगाता है कोई क़द देख कर पहचानने की कोशिश करता है। पाने और खोने की फिलासफी भी कितनी अजीब है !


अनेकत्र उपजे, भिन्न-भिन्न कालखण्डों में प्रवर्तित हुए, जीवन-सत्य के नाना मार्गों की खोज करते हुए असंख्य मत, सम्प्रदाय, ध्वज कुम्भ में एकत्र हो रहे हैं। एक कोई क्षण है, एक बेला है, एक मुहूर्त है, एक घटी-पला है जिसमें कुछ नक्षत्र, कुछ राशियाँ पुंजीभूत हो कर सब कुछ अमृत काल में घटित कर देती हैं। समय होत बलवान। इसलिए सबको एक अभीष्ट समय की प्रतीक्षा रहती है। कहते हैं कि उसी समय की प्रतीक्षा में भीष्म पितामह ने तो मृत्यु को भी प्रतीक्षारत कर दिया था। एक शरबिद्ध कुरुवृद्ध सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में जाने कितना क्लेश सह रहा है। कालगणना में मृत्यु को भूल चुका है। समय-समय की बात है। कुम्भ का समय बारह बरस बाद आता है, बारी-बारी से आता है। स्थान विशेष में आता है। और इस बार बारी प्रयागराज की है। नासिक, उज्जैन, हरिद्वार कृतकृत्य हो चुके हैं। अयोध्या, काशी, मथुरा के तो पृथक् पृथक् अधिपति हैं। प्रयागराज का कोई देवाधिदेव है ही नहीं। इसलिए वहाँ अमृत काल का मुहूर्त है। महाकुंभ है। पिओ। छक कर पियो।


तृप्यन्ताम् तृप्यन्ताम्। 

दिव्यं भवतु भव्यं भवतु।

अभव्यं मा भवतु। 

अदिव्यं मा भवतु।


भला भवितव्य को कौन टाल सकता है। या इलाही। एक इलाहाबाद था। उसी इलाहाबाद में एक नन्हा सा, नादिखाऊ सा स्टेशन था प्रयाग। देखते-देखते प्रयाग प्रयागराज हो गया और इतना विराट हुआ कि समूचे इलाहाबाद को निगल कर आभामण्डल में बदल चुका है। अब कुम्भ का क्षेत्र ही एक नये जनपद में घटित हो चुका है। यह कोई मामूली घटना नहीं। समय की ही तो बात है। कहाँ अमृत-कलश ले कर भागने वाले, खदेड़ने वालों से छिप-छिपा कर इस नदी के रेते में उस नदी के रेते में गाड़ गाड़ कर हलकान थे। कलश छलक-छलक कर रीता हो रहा था। लेकिन भारतीय संस्कृति रिक्ता का निषेध कर पूर्णता का विधान रचने वाली है। जहाँ पूर्ण में से पूर्ण निकल जाने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है-- 


पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।


किसी अमृत-घट की कल्पना मरणधर्मा मनुष्य की सबसे विस्मयकारी कल्पना है। और उसकी छीना झपटी सबसे बड़ा कौतूहल। लेकिन कुम्भ में आ कर बल्कि समा कर सूर्य, चंद्रमा, वृहस्पति सबके सब शांत हैं। एक प्रशान्त और उद्दाम मेला प्रवचनों से, पीठों से, अखाड़ों से, सम्प्रदायों से, मत-मतान्तरों से गूँज रहा है। इन सबके संगम पर, नदी-तट पर एक डुबकी लगाने की आकांक्षा इतनी बलवती है कि धर्म, जाति, लिंग, सम्प्रदाय पता नहीं कहाँ बिला गए हैं। बचा है तो सिर्फ अमृत। बचा है तो सिर्फ नदी का नाद। काश नदियाँ बचाई जा सकतीं। काश अमृत कहीं से छलक पड़ता!




कितनी बड़ी विडम्बना है कि आदमी मरना नहीं चाहता फिर भी मुक्ति चाहता है। उसी अमरता की तलाश में वह जीवन-संग्राम में उतरता है। यही मुक्ति-संग्राम ही अमृतत्व का भ्रम है। कष्टों से मुक्ति, बंधनों से मुक्ति, शोषण से मुक्ति, माया से मुक्ति! कल्पना हम जितनी भी कर लें लेकिन वास्तव में आदमी का जीवन एक बन्धन ही है। एक बंधक का जीवन! अनेक विचारकों ने इस भव-बंधन को काटने के असंख्य उपाय सुझाए हैं। समय-समय पर मनुष्यता को उबारने के लिए अनेक प्रतिभाओं का आगमन हुआ है और सबने उबरने और उबारने के अपने-अपने मतों का प्रतिपादन करने का प्रयास किया है। लेकिन इस क्षेत्र में कोई भी प्रयास अंतिम प्रयास नहीं। बल्कि अब तो बिन प्रयास ही सारे बंधन काटने के उपदेश जोरों पर हैं। प्रयास की जगह प्रवचनों ने ले ली है। नायकों की जगह कथावाचकों को आवंटित कर दी गई है। जब प्रतिभाओं का अकाल पड़ जाता है तो प्रतिमाओं से काम चलाया जाता है। कहीं अमृत-कलश की जगह कोई अस्थि-कलश तो नहीं तैर रहा है। कोई न कोई दृष्टि-भ्रम तो है। निर्भ्रांत है तो कुम्भ!. कुम्भ नहीं महाकुंभ। अब महा से कम कुछ भी नहीं। तुच्छ नहीं महातुच्छ। नीच नहीं महानीच। राष्ट्र नहीं महाराष्ट्र। देश नहीं महादेश। मेला नहीं महामेला।

Pap

समय-समय की बात है। बात बनानी आती हो तो  बड़े-बड़े कर्जा माँगने वाले भी बैरंग लौट जाते हैं। इसलिए कुम्भ का काम अब किसी कथा निबंध से नहीं चल सकता। उसके लिए पुराण और प्रबंध की जरूरत है। अतः सारे साधु संत, अखाड़े और आश्रम, पीठ और मठाधीश, यती और योगी किसी निग्रह या निबंधन की जगह प्रबंधन को महत्व दे रहे हैं। प्रयागराज में कुम्भ के मेले का आरंभ भले अंग्रेजों-म्लेच्छों ने 1870 में कराया हो लेकिन अब उसका दायित्व आर्यावर्त के जम्बूद्वीप के भरतखण्ड के बौद्धावतार में सनातनियों के वृषभस्कन्ध पर आ चुका है। एक नये तेवर और कलेवर में सुसज्जित हो रहा है महाकुम्भ। मेला प्रशासन चौकस है। तीर्थराज जगमगा रहा है। पुण्यकाल आ रहा है। ध्वज लहरा रहा है।


महाकुम्भ के इस ध्वजारोहण और कथा-पुराण से चकित विस्मित मैं यह तो भूल ही गया कि "कुम्भ" कोई शब्द भी है। याद तो यह भी नहीं रहा कि अचिरकाल में ही साहित्य के सितारों का  ही कोई महा कुंभ लगा था। अब साहित्य के लोग शब्दकार-साहित्यकार नहीं, जड़ाऊ सलमा सितारे हैं। मैं तो कहता हूँ कि उन्हें अब सितारे के बजाए ग्रह, नक्षत्र, राशि आदि से सम्बोधित करना चाहिए। क्योंकि बिना ज्योतिष के अब कुछ नहीं हो सकता। हो सकता तो महाकुम्भ कैसे लगता। लगना चाहिए। लग्न चाहिए। मुहूर्त चाहिए। ब्रह्म मुहूर्त से शुरू हो कर महा कुम्भ के महापर्व तक पहुँचिए। पहुँच लगाइए और पहुँचे हुए बनिए। एक रहे नागार्जुन। उन्होंने अन्न को ही ब्रह्म माना। बाकी ब्रह्मों को पिशाच कह दिया - अन्न ब्रह्म ही ब्रह्म है बाकी ब्रह्म पिशाच! आप कवि बनते हैं और शब्द-ब्रह्म को पिशाच कह देंगें तो कितने ही बड़े नागा हों, ये है आर्यावर्त, हिन्दुस्थान! किसी पिशाचमोचन का बड़ा से बड़ा पंडा-पंडित आपको प्रेतमुक्ति नहीं, दिला सकता। बहरहाल, बात कर रहा था "कुम्भ" शब्द की। शब्दकारों और शब्दकोशों की शरण में जाने पर तो यही पता चलता है कि 


कुम् भूमिम् उम्भति सिञ्चति वा इति कुम्भः। 


जिससे भूमि को सींचा जाता है वह हुआ कुम्भ। अब भाई, भूमि को अँजुरी से तो नहीं सींचा जा सकता।


अँजुरी से सींच कर तो सूच्यग्र भूमि पर तुलसी का बिरवा भी नहीं रोपा जा सकता। भूमि सींचने के लिए कोई अपेक्षाकृत बडा़ पात्र या उपकरण होना चाहिए। घट-कलश-कुम्भ होना चाहिए। घटत्व पटत्व की प्रतीति होनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज शब्दों की प्रतीति कमतम होती जा रही है। शब्दापमान चोटी पर है।शब्दजालों का शब्दालंकार भयानक है। अनुप्रासिकता का बोलबाला है। गजब की तुकान्तता है। समूची राजनीति काव्यमय हो चुकी है और सारा काव्य राजनीतिमय हुआ जा रहा है।महाकुंभ आ रहा है। कुम्भ शब्द तो किसी शब्दकार की रचना होगी लेकिन कुम्भ नामक पात्र की रचना करने वाला कोई कुम्भकार ही होगा। वह रचयिता ही प्रजापति है। तो क्या कुम्भकार ने चाक पर पहुँचते-पहुँचते ही कुम्भ रूपायित कर दिया होगा? अरे, पहले दीया बनाया होगा, कोसा बनाया होगा, पुरवा बनाया होगा, परयी-कोहा बनाया होगा। तब बनाते बनते बना होगा कुम्भ। कुम्भ, कुम्हार की रचना का प्रमाण और दृष्टान्त है। वह माटी-कला का क्लासिक है। 


छोटी-छोटी रचनाएँ तो होती रहती हैं। छोटे-छोटे पर्व और पुण्य काल तो उपस्थित होते रहते हैं लेकिन महाकुम्भ का पुण्य काल पुण्यात्माओं के लिए है और जल्दी कीजिए कि महाकुम्भ आ चुका है।



(इस पोस्ट में हमने विकास चौहान के फोटोग्राफ्स का उपयोग किया है। इसके लिए हम उनके आभारी हैं।)




सम्पर्क 


मोबाइल : 8795594931

टिप्पणियाँ

  1. बहुत बढ़िया श्री मन

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  2. अद्भुत व्याख्यान, कुंभ मेले पर अबतक का सबसे सुंदर और सारगर्भित लेख !

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  3. अद्भुत ललित निबंध। प्रणाम। विद्यानिवास मिश्र याद आए।

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