ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी 'खानाबदोश'
हिंदी दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वाल्मीकि का मानना था कि दलितों द्वारा लिखा जाने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है। उनकी मान्यतानुसार दलित ही दलित की पीडा़ को बेहतर ढंग से समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। इस आशय की पुष्टि के तौर पर रचित अपनी आत्मकथा 'जूठन' में उन्होंने वंचित वर्ग की समस्याओं पर ध्यान आकृष्ट किया है। आज पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी स्मृति को नमन करते हुए आज हम उनकी महत्त्वपूर्ण कहानी 'खानाबदोश' प्रस्तुत कर रहे हैं। खानाबदोश उस दलित मजदूर की कहानी है जो ईंट भट्ठे पर काम करते हुए अपने घर का सपना देखते हैं और भट्ठे के मालिक सूबे सिंह के अत्याचारों के शिकार होते हैं। यह कहानी छुआछूत के उस गंभीर रोग को भी सलीके से उद्घाटित करती है जो आज भी हमारे समाज के लिए कोढ़ बनी हुई है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी 'खानाबदोश'।
खानाबदोश
ओमप्रकाश वाल्मीकि
सुकिया के हाथ की पथी कच्ची ईंटें पकने के लिए भट्टे में लगाई जा रही थीं। भट्ठे के गलियारे में झरोखेदार कच्ची ईंटों की दीवार देख कर सुकिया आत्मिक सुख से भर गया था। देखते ही देखते हजारों ईंट भट्टे के गलियारे में समा गई थीं। ईंटों के बीच खाली जगह में पत्थर का कोयला, लकड़ी, बुरादा, गन्ने की बाली भर दिए गए थे। असगर ठेकेदार ने अपनी निगरानी में हर चीज़ तरतीब से लगवाई थी। आग लगाने से पहले भट्ठा मालिक मुखतार सिंह ने एक-एक चीज़ का मुआयना किया था। चौबीसों घंटे की ड्यूटी पर मजदूरों को लगाया गया था, जो मोरियों से भट्टे में कोयला, बुरादा आदि डाल रहे थे। भट्टे का सबसे खतरे वाला काम था मोरी पर काम करना। थोड़ी-सी असावधानी भी मौत का कारण बन सकती थी।
भट्टे की चिमनी धुआं उगलने लगी थी। यह धुआँ मीलों दूर से दिखाई पड़ जाता था।
हरे-भरे खेतों के बीच गहरे मटमैले रंग का यह भट्टा एक धब्बे जैसा दिखाई पड़ता था। मानो और सुकिया महीना भर पहले ही इस भट्ठे पर आए थे, दिहाड़ी मज़दूर बन कर । हफ्ते भर का काम देख कर असगर ठेकेदार ने सुकिया से कहा था कि साँचा ले लो और ईंट पाथने का काम शुरू करो। हज़ार ईंट के रेट से अपनी मजदूरी लो। भट्ठे पर लगभग तीस मज़दूर थे जो वहीं काम करते थे। भट्ठा मालिक मुखतार सिंह और असगर ठेकेदार साँझ होते ही शहर लौट जाते थे। शहर से दूर दिन भर की गहमा-गहमी के बाद यह भट्ठा अँधेरे की गोद में समा जाता था।
एक कतार में बनी छोटी-छोटी झोपड़ियों में टिमटिमाती ढिबरियाँ भी इस अँधेरे से लड़ नहीं पाती थीं। दड़बेनुमा झोंपड़ियों में झुक कर घुसना पड़ता था। झुके झुके ही बाहर आना होता था। भट्टे का काम खत्म होते ही औरतें चूल्हा-चौका सँभाल लेती थीं। कहने भर के लिए चूल्हा-चौका था। ईंटों को जोड़ कर बनाए चूल्हे में जलती लकड़ियों की चिट-पिट जैसे मन में पसरी दुश्चिताओं और तकलीफ़ों की प्रतिध्वनियाँ थीं जहाँ सब कुछ अनिश्चित था। मानो अभी तक इस भट्टे की जिंदगी से तालमेल नहीं बैठा पाई थी। बस, सुकिया की जिद के सामने वह कमजोर पड़ गई थी। साँझ होते ही सारा माहौल भाँय-भाँय करने लगता था। दिन भर के थके-हारे मजदूर अपने-अपने दड़बों में घुस जाते थे। साँप बिच्छू का डर लगा रहता था। जैसे समूचा जंगल झोंपड़ी के दरवाजे पर आ कर खड़ा हो गया है। ऐसे माहौल में मानो का जी घबराने लगता था। लेकिन करे भी तो क्या, न जाने कितनी बार सुकिया से कहा था मानो ने "अपने देस की सूखी रोटी भी परदेस के पकवानों से अच्छी होती है।"
सुकिया के मन में एक बात बैठ गई थी। नर्क की जिंदगी से निकलना है तो कुछ छोड़ना भी पड़ेगा। मानो की हर बात का एक ही जवाब था उसके पास बड़े-बूढ़े कहा करे हैं कि "आदमी की औकात घर से बाहर कदम रख पे ही पता चले है। घर में तो चूहा भी सूरमा बणा रह काँधे पर यो लंबा लड धरके चलणे वाले चौधरी सहर (शहर) में सरकारी अफसरों के आग्गे सीधे खड़े न हो सके हैं। बुड्डी बकरियों की तरह मिमियाएँ हैं... और गाँव में किसी गरीब कू आदमी भी न समझे हैं.... "
सुकिया की इन बातों से मानो कमजोर पड़ जाती थी। इसीलिए गाँव देहात छोड़ कर वे दोनों एक दिन असगर ठेकेदार के साथ इस भट्टे पर आ गए थे। पहले ही महीने में सुकिया ने कुछ रुपये बचा लिए थे। कई-कई बार गिन कर तसल्ली कर ली थी। धोती की गाँठ में बाँध कर अंटी में खोंस लिए थे। रुपए देख कर मानो भी खुश हो गई थी। उसे लगने लगा था कि वह अपनी जिंदगी के ढर्रे को बदल लेगा।
सुकिया और मानो की जिंदगी एक निश्चित ढर्रे पर चलने लगी थी। दोनों मिल कर पहले तगारी बनाते, फिर मानो तैयार मिट्टी ला कर देती। इस काम में उनके साथ एक तीसरा मजदूर भी आ गया था। नाम था जसदेव। छोटी उम्र का लड़का था। असगर ठेकेदार ने उसे भी उनके साथ काम पर लगा दिया था। इससे काम में गति आ गई थी। मानो भी अब फुर्ती से साँचे में ईंटें डालने लगी थी, जिससे उनकी दिहाड़ी बढ़ गई थी।
उस रोज मालिक मुखतार सिंह की जगह उनका बेटा सूबे सिंह भट्टे पर आया था। मालिक कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर चले गए थे। उनकी गैरहाजिरी में सूबे सिंह का रौब-दाब भट्टे का माहौल ही बदल देता था। इन दिनों में असगर ठेकेदार भीगी बिल्ली बन जाता था। दफ़्तर के बाहर एक अर्दली की ड्यूटी लग जाती थी, जो कुर्सी पर उकडू बैठ कर दिन भर बीड़ी पीता था, आने-जाने वालों पर निगरानी रखता था। उसकी इजाजत के बगैर कोई अंदर नहीं जा सकता था।
एक रोज सूबे सिंह की नजर किसनी पर पड़ गई। तीन महीने पहले ही किसनी और महेश भट्ठे पर आए थे। पाँच-छः महीने पहले ही दोनों की शादी हुई थी। सूबे सिंह ने उसे दफ़्तर की सेवा टहल का काम दे दिया था। शुरू-शुरू में किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था। लेकिन जब रोज ही गारे-मिट्टी का काम छोड़ कर वह दफ़्तर में ही रहने लगी तो मज़दूरों में फुसफुसाहटें शुरू हो गई थीं। तीसरे दिन सुबह जब मजदूर काम शुरू करने के लिए झोंपड़ियों से बाहर निकल रहे थे, किसनी हैंडपंप के नीचे खुले में बैठ कर साबुन से रगड़-रगड़ कर नहा रही थी। भट्टे पर साबुन किसी के पास नहीं था। साबुन और उससे उठते झाग पर सबकी नज़र पड़ गई थी। लेकिन बोला कोई कुछ भी नहीं था। सभी की आँखों में शंकाओं के गहरे काले बादल घिर आए थे। कानाफूसी हलके हलके शुरू हो गई थी।
महेश गुमसुम सा अलग-अलग रहने लगा था। साँवले रंग की भरे-पूरे जिस्म की किसनी का व्यवहार महेश के लिए दुःखदाई हो रहा था। वह दिन-भर दफ़्तर में घुसी रहती थी। उसकी खिलखिलाहटें दफ़्तर से बाहर तक सुनाई पड़ने लगी थीं। महेश ने उसे समझाने की कोशिश की थी। लेकिन वह जिस राह पर चल पड़ी थी वहाँ से लौटना मुश्किल था।
भट्टे की जिंदगी भी अजीब थी। गाँव बस्ती का माहौल बन रहा था। झोपड़ी के बाहर जलते चूल्हे और पकते खाने की महक से भट्टे की नीरस जिंदगी में कुछ देर के लिए ही सही, ताज़गी का अहसास होता था। ज्यादातर लोग रोटी के साथ गुड़ या फिर लाल मिर्च की चटनी ही खाते थे। दाल-सब्जी तो कभी-कभार ही बनती थी।
शाम होते ही हैंडपंप पर भीड़ लग जाती थी। जिस्म पर चिपकी मिट्टी को जितना उतारने की कोशिश करते, वह और उतना ही भीतर उतर जाती थी। नस-नस में कच्ची मिट्टी की महक बस गई थी। इस महक से अलग भट्टे का कोई अस्तित्व नहीं था। किसनी और सूबे सिंह की कहानी अब काफ़ी आगे बढ़ गई थी। सूबे सिंह के अर्दली ने महेश को नशे की लत डाल दी थी। नशा कर के महेश झोंपड़ी में पड़ा रहता था। किसनी के पास एक ट्रॉजिस्टर भी आ गया था। सुबह-शाम भट्टे की खामोशी में ट्रांजिस्टर की आवाज गूंजने लगी थी। ट्रांजिस्टर वह इतने जोर से बजाती थी कि भट्ठे का वातावरण फ़िल्मी गानों की आवाज़ से गमक उठता था। शांत माहौल में संगीत लहरियों ने खनक पैदा कर दी थी।
कड़ी मेहनत और दिन-रात भट्ठे में जलती आग के बाद जब भट्ठा खुलता था मजदूर से ले कर मालिक तक की बेचैन साँसों को राहत मिलती थी। भट्टे से पकी तो ईंटों को बाहर निकालने का काम शुरू हो गया था। लाल-लाल पक्की ईंटों को देख कर सुकिया और मानों की खुशी की इंतहा नहीं थी। खासकर मानो तो ईंटों को उलट-पुलट कर देख रही थी। खुद के हाथ की पथी ईंटों का रंग ही बदल गया था। उस दिन ईंटों को देखते-देखते ही मानो के मन में बिजली की तरह एक खयाल कौंधा था। इस खयाल के आते ही उसके भीतर जैसे एक साथ कई-कई भट्टे जल रहे थे। उसने सुकिया से पूछा था, "एक घर में कितनी ईंटें लग जाती हैं?"
"बहुत... कई हजार... लोहा, सीमेंट, लकड़ी, रेत अलग से।" उसके मन में खयाल उभरा था। उसे तत्काल कोई आधार नहीं मिल पा रहा था। वह बेचैन हो उठी थी। उसे खामोश देख कर सुकिया ने कहा, "चलो, काम शुरू करना है। जसदेव बाट देख रहा होगा।" सुकिया के पीछे-पीछे अनमनी ही चल दी थी मानो, लेकिन उसके दिलो-दिमाग पर ईंटों का लाल रंग कुछ ऐसे छा गया था कि वह उसी में उलझ कर रह गई थी।
झींगुरों की झिनझिन और बीच-बीच में सियारों की आवाजें रात के सन्नाटे में स्याहपन घोल रही थीं। थके-हारे मजदूर नींद की गहरी खाइयों में लुढ़क गए थे। मानो के खयालों में अभी भी लाल-लाल ईंटें घूम रही थीं। इन ईंटों से बना हुआ एक छोटा सा घर उसके जेहन में बस गया था। यह खयाल जिस शिद्दत से पुख्ता हुआ था, नींद उतनी ही दूर चली गई थी।
दूर किसी बस्ती से हलके हलके छन कर आती मुर्गे की बाँग, रात के आखिरी पहर के अहसास के साथ ही मानो की पलकें नींद से भारी होने लगी थीं। सुबह के जरूरी कामों से निबट कर जब सुकिया ने झोंपड़ी में झाँका तो वह हैरान रह गया था। इतनी देर तक मानो कभी नहीं सोती। वह परेशान हो गया था।
गहरी नींद में सोई मानो का माथा उसने छू कर देखा, माथा ठंडा था। उसने राहत की साँस ली। मानो को जगाया, “इतना दिन चढ़ गया है... उठने का मन नहीं है?"
मानो अनमनी सी उठी। कुछ देर यूँ ही चुपचाप बैठी रही। मानो का इस तरह बैठना सुकिया को अखरने लगा था, "आज क्या बात है ?.. जी तो ठीक है?"
मानो अपने खयालों में गुम थी। मन की बात बाहर आने के लिए छटपटा रही थी। उसने सुकिया की ओर देखते हुए पूछा, “क्यों जी... क्या हम इन पक्की ईंटों पर घर नहीं बना सके हैं?"
मानो की बात सुन कर सुकिया आश्चर्य से उसे ताकने लगा। कल की बात वह भूल चुका था। सुकिया ने गहरे अवसाद से भर कर कहा, "पक्की ईंटों का घर दो चार रुपए में ना बणता है।... इत्ते ढेर से नोट लगे हैं घर बणाने में। गाँठ में नहीं है पैसा, चले हाथी खरीदने।"
"महीने भर में जो हमने इत्ती ईंटें बणा दी हैं... क्या अपने लिए हम ईंटें ना बणा सके हैं।" मानो ने मासूमियत से कहा। “यह भट्ठा मालिक का है। हम ईंटें उनके लिए बनाते हैं। हम तो मजदूर हैं। इन ईंटों पर अपना कोई हक ना है।" सुकिया ने अपने मन में उठते दबाव को महसूस किया।
"इन ईंटों पर म्हारा कोई भी हक ना है.... क्यूँ ...".. मानो ने ताज्जुब भरी 'कडुवाहट से कहा। उसके अंदर बवंडर मचल रहा था। कुछ देर की खामोशी के बाद मानो बोली, "हर महीने कुछ और बचत करें. ज्यादा ईंटें बनाएँ तब? तब भी अपणा घर नहीं बना सकते?" अपने भीतर कुलबुलाते सवालों को बाहर लाना चाहती थी मानो।
"इतनी मजदूरी मिलती कहाँ है? पूरे महीने हाड़-गोड़ तोड़ के भी कितने रुपए, बचे! कुल अस्सी। एक साल में एक हज़ार ईंटों के दाम अगर हमने बचा भी लिए तो घर बणाने लायक रुपया जोड़ते जोड़ते उम्र निकल जागी। फेर भी घर ना बण पावेगा।" सुकिया ने दुखी मन से कहा।
'अगर हम रात-दिन काम करें तो भी नहीं?" मानो ने उत्साह में भर कर कहा। " बावली हो गई है क्या? चल उठ चल, काम पे जाणा है। टेम ज्यादा हो रहा है। ठेकेदार आता ही होगा। आज पूरब की टांग काटनी हैं लगार के लिए।" सुकिया मानो के सवालों से घबरा गया था। उठ कर बाहर जाने लगा।
" कुछ भी करो... तुम चाहो तो मैं रात-दिन काम करूंगी... मुझे एक पक्की ईंटों का घर चाहिए। अपने गाँव में... लाल सुर्ख ईंटों का घर।" मानो के भीतर मन में हजार-हज़ार वसंत खिल उठे थे। सुकिया और मानो को एक लक्ष्य मिल गया था। पक्की ईंटों का घर बनाना है... अपने ही हाथ की पकी ईंटों से सुबह होते ही काम पर लग जाते हैं और शाम को भी अँधेरा होने तक जुटे रहते हैं। ठेकेदार असगर से ले कर मालिक तक उनके काम से खुश थे। सूबे सिंह किसनी को शहर भी ले कर जाने लगा था। किसनी के रंग-ढंग में बदलाव आ गया था। अब वह भट्टे पर गारे-मिट्टी का काम नहीं करती थी। महेश रोज रात में नशा करके मन की भड़ास निकालता था। दिन में भी अपनी झोंपड़ी में पड़ा रहता था या इधर-उधर बैठा रहता था। किसनी कई-कई दिनों तक शहर से लौटती नहीं थी। जब लौटती थकी, निढाल और मुरझाई हुई। कपड़ों-लत्तों की अब कमी नहीं थी।
उस रोज़ सूबे सिंह ने भट्टे पर आते ही असगर ठेकेदार से कहा था, "मानो को दफ़्तर में बुलाओ, आज किसनी की तबीयत ठीक नहीं है।"
असगर ठेकेदार ने रोकना चाहा था, "छोटे बाबू मानो को...."। बात पूरी होने से पहले ही सूबे सिंह ने उसे फटकार दिया था, “तुमसे जो कहा गया है, वही करो। राय देने की कोशिश मत करो। तुम इस भट्टे पर मुशी हो। मुंशी ही रहो, मालिक बनने की कोशिश करोगे तो अंजाम बुरा होगा। "
असगर ठेकेदार की घिघ्घी बँध गई थी। वह चुपचाप मानो को बुलाने चल दिया था। असगर ठेकेदार ने आवाज दे कर कहा था, "मानो, छोटे बाबू बुला रहे हैं दफ़्तर में। " मानो ने सुकिया की ओर देखा। उसकी आँखों में भय से उत्पन्न कातरता थी । सुकिया भी इस बुलावे पर हड़बड़ा गया था। वह जानता था। मछली को फँसाने के लिए जाल फेंका जा रहा है। गुस्से और आक्रोश से नसें खिचने लगी थीं। जसदेव ने भी सुकिया की मनःस्थिति को भाँप लिया था। वह फुर्ती से उठा। हाथ-पाँव पर लगी गीली मिट्टी छुड़ाते हुए बोला "तुम यहीं ठहरो मैं देखता हूँ। चलो चाचा।"
जसदेव असगर के पीछे-पीछे चल दिया। असगर ठेकेदार जानता था कि सूबे सिंह शैतान है। लेकिन चुप रहना उसकी मजबूरी बन गई थी। जिंदगी का खास हिस्सा उसने भट्ठे पर गुजारा था। भट्टे से अलग उसका कोई वजूद ही नहीं था। असगर ठेकेदार के साथ जसदेव को आता देख कर सूबे सिंह बिफर पड़ा था।
"तुझे किसने बुलाया है?"
"जी...जो भी काम हो बताइए.. मैं कर दूँगा..." जसदेव ने विनम्रता से कहा । "क्यों? तू उसका खसम है... या उसकी (... पर चर्बी चढ़ गई है)।" सूबे सिंह ने अपशब्दों का इस्तेमाल किया। "बाबू जी ... आप किस तरह बोल रहे हैं..." जसदेव के बात पूरी करने से पहले ही एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा। " जानता नहीं... भट्टे की आग में झोंक दूँगा... किसी को पता भी नहीं चलेगा। हड्डियाँ तक नहीं मिलेंगी राख से... समझा।" सूबे सिंह ने उसे धकिया दिया। जसदेव गिर पड़ा था।
जब तक वह सँभल पाता। लात घूँसो से सूबे सिंह ने उसे अधमरा कर दिया था।
चीख-पुकार सुन कर मजदूर उनकी ओर दौड़ पड़े थे। मजदूरों को एक साथ आता देख कर सूबे सिंह जीप में बैठ गया था। देखते-ही-देखते जीप शहर की ओर दौड़ गई। थी। असगर ठेकेदार दफ़्तर में जा घुसा था।
सुकिया और मानो जसदेव को उठा कर झोपड़ी में ले गए थे। वह दर्द से कराह रहा था। मानो ने उसकी चोटों पर हल्दी लगा दी थी। सुकिया गुस्से में काँप रहा था। मानो के अवचेतन में असंख्य अंधेरे नाच रहे थे। वह किसनी नहीं बनना चाहती थी। इज्जत की जिंदगी जीने की अदम्य लालसा उसमें भरी हुई थी। उसे एक घर चाहिए था पक्की ईंटों का, जहाँ वह अपनी गृहस्थी और परिवार के सपने देखती थी। समूचा दिन अदृश्य भय और दहशत में बीता था। जसदेव को हलका बुखार हो गया था। वह अपनी झोपड़ी में पड़ा था। सुकिया उसके पास बैठा था। आज की घटना से मजदूर डर गए थे। उन्हें लग रहा था कि सूबे सिंह किसी भी वक्त लौट कर आ सकता है। शाम होते ही भट्टे पर सन्नाटा छा गया था। सब अपने-अपने खोल में सिमट गए थे। बूढ़ा बिलसिया जो अकसर बाहर पेड़ के नीचे देर रात तक बैठा रहता था, आज शाम होते ही अपनी झोंपड़ी में जा कर लेट गया था। उसके खाँसने की आवाज भी आज कुछ धीमी हो गई थी। किसनी की झोंपड़ी से ट्रांजिस्टर की आवाज भी नहीं आ रही थी।
बीच-बीच में हैंडपंप की खच खच ध्वनि इस खामोशी में विघ्न डाल रही थी। पंप जसदेव की झोंपड़ी के ठीक सामने था। सभी को पानी के लिए इस पंप पर आना पड़ता था।
भट्ठे पर दवा-दारू का कोई इंतजाम नहीं था। कटने-फटने पर घाव पर मिट्टी लगा देना था। कपड़ा जला कर राख भर देना ही दवाई की जगह काम आते थे।
मानो ने अधूरे मन से चूल्हा जलाया था। रोटियाँ सेंककर सुकिया के सामने रख दी थी। सुकिया ने भी अनिच्छा से एक रोटी हलक के नीचे उतारी थी। उसकी भूख जैसे अचानक मर गई थी। मानो को लेकर उसकी चिंता बढ़ गई थी। उसने निश्चय कर लिया था वह मानो को किसनी नहीं बनने देगा।
मानो भी गुमसुम अपने आपसे ही लड़ रही थी। बार बार उसे लग रहा था कि वह सुरक्षित नहीं है। एक सवाल उसे खाए जा रहा था क्या औरत होने की यही सजा है। वह जानती थी कि सुकिया ऐसा-वैसा कुछ नहीं होने देगा। वह महेश की तरह नहीं है। भले ही यह भट्ठा छोड़ना पड़े। भट्ठा छोड़ने के खयाल से ही वह सिहर उठी। नहीं... भट्टा नहीं छोड़ना है। उसने अपने आपको आश्वस्त किया, अभी तो पक्की ईंटों का घर बनाना है।
मानो रोटियाँ ले कर बाहर जाने लगी तो सुकिया ने टोका, "कहाँ जा रही है?"
“जसदेव भूखा-प्यासा पड़ा है। उसे रोट्टी देणे जा रही हूँ।" मानो ने सहज भाव से कहा। बामन तेरे हाथ की रोट्टी खावेगा।... अक्ल मारी गई तेरी, " सुकिया ने उसे रोकना चाहा। "क्यों मेरे हाथ की रोट्टी में जहर लगा है?" मानो ने सवाल किया। पल-भर रुक कर बोली, "बामन नहीं भट्टा मजदूर है वह...म्हारे जैसा। "
चारों तरफ़ सन्नाटा था। जसदेव की झोंपड़ी में ढिबरी जल रही थी। मानो ने झोंपड़ी का दरवाजा ठेला "जी कैसा है?" भीतर जाते हुए मानो ने पूछा। जसदेव ने उठने की कोशिश की। उसके मुँह से दर्द को आह निकली।
'कमबख्त कीड़े पड़ के मरेगा। हाथ-पाँव टूट-टूट कर गिरेंगे... आदमी नहीं जंगली जिनावर है।" मानो ने सुबे सिंह को कोसते हुए कहा। जसदेव चुपचाप उसे देख रहा था।
"यह ले... रोट्टी खा ले। सुबं से भूखा है। दो कौर पेट में जाएँगे तो ताकत तो आवेगी बदन में।" मानों ने रोटी और गुड़ उसके आगे रख दिया था। जसदेव कुछ अनमना सा हो गया था। भूख तो उसे लगी थी। लेकिन मन के भीतर कहीं हिचक थी। घर परिवार से बाहर निकले ज्यादा समय नहीं हुआ था। खुद वह कुछ भी बना नहीं पाया था। शरीर का पोर पोर टूट रहा था।
'भूख नहीं है।" जसदेव ने बहाना किया। 'भूख नहीं है या कोई और बात है..." मानो ने जैसे उसे रंगे हाथों पकड़ लिया था।
'और क्या बात हो सकती है?..." जसदेव ने सवाल किया।
“तुम्हारे भइया कह रहे थे कि तुम बामन हो... इसीलिए मेरे हाथ की रोटी नहीं खाओगे। अगर यो बात है तो मैं जोर ना डालूंगी... थारी मर्जी... औरत हूँ... पास में कोई भूखा हो... तो रोटी का कौर गले से नीचे नहीं उतरता है।... फिर तुम तो दिन-रात साथ काम करते हो.... मेरी खातिर पिटे. फिर यह बामन म्हारे बीच कहाँ से आ गया....?" मानो रुऔंसी हो गई थी। उसका गला रुंध गया था। रोटी ले कर वापस लौटने के लिए मुड़ी। जसदेव में साहस नहीं था उसे रोक लेने के लिए। उनके बीच जुड़े तमाम सूत्र जैसे अचानक बिखर गए थे। अपनी झोंपड़ी में आ कर चुपचाप लेट गई थी मानो बिना कुछ खाए। दिन भर की घटनाएँ उसके दिमाग में खलबली मचा रही थीं। जसदेव भूखा है, यह अहसास उसे परेशान कर रहा था। जसदेव को ले कर उसके मन में हलचल थी। उसे लग रहा था- जैसे जसदेव का साथ उन्हें ताकत दे रहा है। ऐसी ताकत जो सूबे सिंह से लड़ने में हौसला दे सकती है। दो से तीन होने का सुख मानो महसूस करने लगी थी।
सुकिया भी चुपचाप लेटा हुआ था। उसकी भी नींद उड़ चुकी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था, क्या करे इन्हीं हालात में गाँव छोड़ा था। वे ही फिर सामने खड़े थे। आखिर जाएँ तो कहाँ ? सूबे सिंह से पार पाना आसान नहीं था। सुनसान जगह है कभी भी हमला कर सकता है। या फिर मानो को... विचार आते ही वह काँप गया था। उसने करवट बदली। मानो जाग रही थी। उसे अपनी ओर खींच कर सीने से चिपटा लिया था।
जसदेव ने भी पूरी रात जाग कर काटी थी। सूबे सिंह का गुस्सैल चेहरा बार-बार सामने आ कर दहशत पैदा कर रहा था। उसे लगने लगा था कि जैसे वह अचानक किसी षड्यंत्र में फँस गया है। उसे यह अंदाजा नहीं था कि सूबे सिंह मारपीट करेगा। ऐसी कल्पना भी उसे नहीं थी। वह डर गया था। उसने तय कर लिया था, कि चाहे जो हो, वह इस पचड़े में नहीं पड़ेगा।
सुबह होते ही वह असगर ठेकेदार से मिला था। असगर ही उसे शहर से अपने साथ लाया था। जसदेव ने असगर ठेकेदार से अपने मन की बात कही। ठेकेदार ने उसे समझाते हुए कहा था, "अपने काम से काम रखो क्यों इनके चक्कर में पड़ते हो।" जसदेव के बदले हुए व्यवहार को मानो ने ताड़ लिया था। लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की थी। वह सहजता से अपने काम में लगी थी। वह जानती थी कि उनके बीच एक फ्रासला आ गया है। लेकिन वह चुप थी।
सूबे सिंह को भी लगने लगा था कि मानो को फुसलाना आसान नहीं है। उसकी तमाम कोशिश निरर्थक साबित हुई थी। इसीलिए वह मानो और सुकिया को परेशान करने पर उतर आया था। उसने असगर ठेकेदार से भी कह दिया था कि उससे पूछे बगैर उन्हें मज़दूरी का भुगतान न करे, न कोई रियायत ही बरते उनके साथ।
मानो से कुछ छुपा नहीं था। सूबे सिंह की हरकतों पर उसकी नजर थी। उसने अपने आप में निश्चय कर लिया था कि वह उसका मुकाबला करेगी। उठते-बैठते उसके मन में एक ही खयाल था। पक्की ईंटों का घर बनवाना है। लेकिन सूबे सिंह इस खयाल में बाधक बन रहा था।
सुकिया और मानो दिन-रात काम में जुटे थे। फिर भी हर महीने वे ज्यादा कुछ बचा नहीं पा रहे थे। पिछले दिनों उन्होंने दुगुनी ईंटें पाथी थीं। उनके उत्साह में कोई कमी नहीं थी। एक ही उद्देश्य था पक्की ईंटों का घर बनाना है। इसीलिए सूबे सिंह की ज्यादतियों को वे सहन कर रहे थे। लेकिन एक तड़प थी दोनों में, जो उन्हें सँभाले हुए थी।
सूबे सिंह नित नए बहाने ढूँढ लेता था, उन्हें तंग करने के, शीत एक युद्ध जारी था उनके बीच सुकिया से ईंट पाथने का साँचा वापस ले लिया गया था। उसे भट्टे की मोरी का काम दे दिया था। मोरी का काम खतरनाक था। मानो डर गई थी। लेकिन सुकिया ने उसे हिम्मत बँधाई थी, "काम से क्यूँ डरना...।"
सुकिया का साँचा जसदेव को दे दिया गया था। साँचा मिलते ही जसदेव के रंग बदल गए थे। वह मानो पर हुकुम चलाने लगा था मानो चुपचाप काम में लगी रहती थी।
'कल तड़के ईंट पाथनी है। ईंटें हटा कर जगह बना दे।" जसदेव आदेश दे कर अपनी झोंपड़ी की ओर चला गया था। मानो ने पाथी ईंटों को दीवार की शक्ल में लगा दिया था। कच्ची ईंटों को सुखाने के लिए दो, खड़ी दो आड़ी ईंटें रख कर जालीदार दीवार बना दी थी। ईंट पाथने की जगह खाली कर के ही मानो लौट कर झोंपड़ी में गई थी।
हैंडपंप पर भीड़ थी। सभी मजदूर काम खत्म कर के हाथ-मुँह धोने के लिए आ गए थे। सुबह होने से पहले ही मानो उठ गई थी। उसे काम पर जाने की जल्दी थी। चारों तरफ अँधेरा था। सुबह होने का वह इंतज़ार करना नहीं चाहती थी। उसने जल्दी-जल्दी सुबह के काम निबटाए और ईंट पाथने के लिए निकल पड़ी थी। सूरज निकलने में अभी देर थी। जसदेव से पहले ही वह काम पर पहुँच जाती थी।
इक्का-दुक्का मजदूर ही इधर-उधर दिखाई पड़ रहे थे। वह तेज कदमों से ईंट पाथने की जगह पर पहुँच गई थी। वहाँ का दृश्य देख कर अवाक रह गई थी। सारी ईंट टूटी-फूटी पड़ी थीं। जैसे किसी ने उन्हें बेदर्दी से रौंद डाला था। ईंटों की दयनीय अवस्था देख कर उसकी चीख निकल गई थी। वह दहाड़े मार-मार कर रोने लगी थी। आवाज सुन कर मजदूर इकट्ठा हो गए थे।
जितने मुँह उतनी बातें, सब अपनी-अपनी अटकलें लगा रहे थे। रात में आँधी तूफ़ान भी नहीं आया था। न ही किसी जंगली जानवर का ही यह काम हो सकता है। कई लोगों का कहना था, किसी ने जान-बूझकर ईंटें तोड़ी हैं। मानो का हृदय फटा जा रहा था। टूटी-फूटी ईंटों को देख कर वह बौरा गई थी।
जैसे किसी ने उसके पक्की ईंटों के मकान को ही धराशाई कर दिया था। जसदेव काफी देर बाद आया था। वह निरपेक्ष भाव से चुपचाप खड़ा था। जैसे इन टूटी-फूटी ईंटों से उसका कुछ लेना-देना ही न हो। सुकिया भी हो-हल्ला सुन कर मोरी का काम छोड़ कर आया था। ईंटों की हालत देख कर उसका भी दिल बैठने लगा था। उसकी जैसे हिम्मत टूट गई थी। वह फटी-फटी आँखों से ईंटों को देख रहा था। सुकिया को देखते ही मानो और जोर-जोर से रोने लगी थी। सुकिया ने मानो की आँखों से बहते तेज अँधड़ों को देखा और उनकी किरकिराहट अपने अंतर्मन में महसूस की। सपनों के टूट जाने की आवाज़ उसके कानों को फाड़ रही थी।
असगर ठेकेदार ने साफ कह दिया था। टूटी-फूटी ईंटें हमारे किस काम की? इनकी मजदूरी हम नहीं देंगे। असगर ठेकेदार ने उनकी रही-सही उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया था। मानों ने सुकिया की ओर डबडबाई आँखों से देखा। सुकिया के चेहरे पर तूफ़ान में घर टूट जाने की पीड़ा छलछला आई थी। उसे लगने लगा था, जैसे तमाम लोग उसके खिलाफ़ हैं। तरह-तरह की बाधाएँ उसके सामने खड़ी की जा रही हैं। वहाँ रुकना उसके लिए कठिन हो गया था। उसने मानो का हाथ पकड़ा, “चल! ये लोग म्हारा घर ना बणने देंगे।" पक्की ईंटों के मकान का सपना उनकी पकड़ से फिसल कर और दूर चला गया था। भट्टे से उठते काले धुएँ ने आकाश तले एक काली चादर फैला दी थी। सब कुछ छोड़ कर मानों और सुकिया चल पड़े थे। एक खानाबदोश की तरह, जिन्हें एक घर चाहिए था, रहने के लिए। पीछे छूट गए थे कुछ बेतरतीब पल, पसीने के अक्स जो कभी इतिहास नहीं बन सकेंगे। खानाबदोश जिंदगी का एक पड़ाव था यह भट्ठा।
सुकिया के पीछे-पीछे चल पड़ने से पहले मानो ने जसदेव की ओर देखा था। मानो को यकीन था, जसदेव उनका साथ देगा। लेकिन जसदेव को चुप देख कर उसका विश्वास टुकड़े-टुकड़े हो गया था। मानो के सीने में एक टीस उभरी थी। सर्द साँस में बदल कर मानो को छलनी कर गई थी। उसके होंठ फड़फड़ाए थे कुछ कहने के लिए लेकिन शब्द घुट कर रह गए थे। सपनों के काँच उसकी आँख में किरकिरा रहे थे। वह भारी मन से सुकिया के पीछे-पीछे चल पड़ी थी, अगले पड़ाव की तलाश में, एक दिशाहीन यात्रा पर।
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